सन्तति, अवतरण और लीलाएँ
मदन पाल सिंह
बाबा अलाव के पास खाँसता था। साथ ही सूखे–झुर्रीदार घुटनों पर ठुड्डी टिकाये, दुविधा और ख़ुशी के भँवर में डूबता–उतरता, आग कुरेदने लगता…
एक बाप के लिए सौभाग्य का उत्सव उसके पुत्र के विवाह का अवसर होता
है। दूसरा सुख मिलता है जब पुत्र के घर में कुल–वंश का खेवनहार आये। इन दोनों ख़ुशियों के योग से बड़ा, दर्द से छाती चाक करने वाला एक दुःख भी है। और वह है एक बाप के सामने
पुत्र तथा पौत्र का मरण। मूँज की रस्सी से कफ़न–काठी का बिस्तर उसके सामने ही कसा जाता है।
अर्थी उठती है। अन्तिम यात्रा की तैयारी और प्रवास में ख़ुद शामिल होता हुआ वह
श्मशान तक जाता है और फिर ज्वाला के पदन्यास को अपनी आँखों में और छाती पर महसूस
करता हुआ, धूँ–धूँ कर जलती चिता के सामने हिन्दू धर्म के उस
अवांछित सनातन पुण्य का भागी बन जाता है, जिसकी उसने कभी कामना ही नहीं की। बाबा के ललाट पर ये तीनों रेखाएँ
थीं।
इधर बेचैन माई के पेट में गुलगुले उठ रहे थे कि फिर कहीं लड़की पैदा न
हो जाये! वह खँखार कर कुढ़ती हुई इधर–उधर झाँकने लगी। मेहतरानी कल्लो और लौकी, बहू के जापे की तैयारी में लगी थीं। प्रसव का
समय कुछ दूर था,
लेकिन
लीलावती के गर्भ का दबाव बढ़ने लगा। छाती में कसाव पैदा हुआ। गर्भ को सहारने के लिए
कल्लो ने पैर की तरफ़, गर्भवती
की खाट के पाहे के नीचे चार ईंट लगायीं।
पड़ोस की औरतें वहीं खड़ी थीं। लीलावती की कराह सुनकर कल्लो बोली— ‘‘ठक़ुरानी जाँघ तर करबाते बकत तो आँख मीच लई
होंगी। पहले दिन ही पेहलबान लाला नै जाँघ मै जाँघ फँसा दई होबैगी। अब आयो मजा!
…खसम
कौ मजा ही औरत कौ दण्ड है। औरत कु ही भरना पड़ैगौ। …मजा ले गयौ घासी और दण्ड भरै हुलासी।’’ सब हँसने लगीं। कल्लो ने अजवायन मिला हुआ गर्म
तेल लीलावती के पेडू़ पर मलना जारी रखा। लौकी उसकी जाँघों को सेंकने के लिए गर्म
राख से भरी पोटली ले आयी।
प्रकृति का चक्र पूरा होने पर निश्चित समय उपरान्त सालों से सूखी, तरसती लीलावती की कोख से कुलदीपक जन्मा। दोनों
देवरानियों के बच्चे घर–आँगन में खेलते रहते थे। उन्हें देखकर लीलावती भरी आँखों से अपने
पुत्र आगमन की प्रतीक्षा किया करती थी। देर से ही सही, फल पाकर माँ का दिल हर्षाने लगा। अवसर और अनुभव
सम्मत उसका नामकरण हुआ—फलस्वरूप।
पर ईश्वर से डरकर माई और लीलावती उसे भगवान का कीड़ा कहती थीं। पिता हफ़्ते–दस दिन अपने इस कीट को गोदी में उठाने से
शर्माता रहा। फिर कहीं जाकर झिझक खुली।
अपनी बड़ी बहन तथा कुटुम्ब–परिवार के बच्चों के साथ वह खेलता हुआ बड़ा होने
लगा। घर की कलह से चिढ़कर एक चाचा फलस्वरूप के कान उमेठता और दूसरा जाँघ और कन्धे
की सन्धि पर तनी मांसपेशियों में अँगुली गाढ़ने लगा। उन्होंने खेल–खेल में भतीजे की नाक पर टोले मारे। उसकी
छुनिया उमेठी। अभिप्राय से अनभिज्ञ पीड़ित बच्चा चौर–भौर होकर इधर–उधर देखने लगता था।
परिवार संयुक्त था। जैसा कि अकसर होता है, अकसर देवरानियों को लगता कि उनके हक़ और बच्चों
पर अन्याय की बिजली गिर रही है। एक को अपने बच्चे की थाली में सब्ज़ी कम दिखाई दी।
दूसरी को लगा कि इस छत के नीचे रहकर उसके भाग्य का घी–दूध सूख गया है। जिसके बच्चों को, कलह की जड़ इस ग़िज़ा की कमी हुई, वह भला दूध क्यों बिलोये? जिसके पति को खेत में काम करने के बाद रोटी–सब्ज़ी कम पड़ जाती, वह साँझ में भला चूल्हा क्यों झोंके!
लीलावती को महसूस हुआ कि उसकी जवानी इस कुनबे की हाय–तौबा में ही खप गयी। कभी ख़ुशी का सार नहीं
जाना। पूरे कुनबे की चिन्ता में शरीर पर चुल्लू भर पानी डालने की भी फुर्सत नहीं
मिलती। माई पड़ोसिनों के सामने अपना अलग दुःख रोती। उपसंहार होता कि ये आजकल की
महतारी, चूल्हे–चक्की का सार क्या जानें! दो पहर की रोटी बनाने में ही कलेजा फटता है।
कमेरों के लिए बसोड़ की दो रोटी पोने को कहो तो चक्कर आते हैं। …रण्डियों को पलंग तोड़ने से ही फुर्सत मिले तो
कुछ करें। बड़े बाप की परी आयी हैं। पूत भी हाथ से जाते रहे।
कुल मिलकर सभी क्लान्त पर उद्विग्न दिखते थे।
बहुओं को चिन्ता खाती कि उनके पीहर से मिले चकला–बेलन–तवा–परात, पीतल और ताँबे के बर्तन बड़ी ही तेज़ी से इस घर–गृहस्थी की कुड़क धुन में घिसकर पत्तर हो रहे
हैं। अपना ससुराल उन्हें सलारपुर का कोल्हू लगने लगा, जिसमें बेलन तो गन्ने का रस निचोड़ते रहते हैं
पर मटका कभी नहीं भरता। यानी समय के साथ शरीर तो छीज रहा था लेकिन पल्लू सुख–शान्ति से ख़ाली ही रहा। सावन में पीहर से आने
वाला सिन्दारा, एकादशी की मींग–चौलाई और न जाने कितने विषयों पर सुई अटकी, कहना मुश्किल है। दान–दहेज़ तथा ससुराल व पीहर की पारिवारिक पृष्ठभूमि
का तुलनात्मक अध्ययन क्षोभ का कारण बना जो सास तथा बहुओं के कलेजे को दग्ध करता
था।
झाड़ू–पोंछा, दूध
दुहने से बिलोने तक खपना, राख से बर्तन माँजने के दौरान काले होते हाथ—सभी कुछ कठिन ही तो था। खाना खिलाते वक़्त वे
अपने पतियों को ताने देतीं। अनेक बार उन्होंने कलह के दौरान रण्डी–भटियारी और मेरी माँ की सौत कहकर आसमान
गुँजाया। वे एक–दूसरे की सन्तान को भी पेट मसोसकर कोसने लगती थीं। एक–दूसरे के धूप में सूखते वस्त्रा तक ग़ायब हो
जाते। किसी का बच्चा खाँसता, दाँत किटकिटाता या बिस्तर गीला कर देता तो वे एक–दूसरे पर जादू–टोने का आरोप लगाकर लड़ने बैठ जातीं। घर में
साँस लेना और एक–दूसरे से नज़र मिलाना, सब कुछ कठिन होने लगा।
दबते–दबाते जैसे–तैसे कुछ महीने निकले। स्वामियों ने सोटे के सहारे पत्नियों के हृदय
में भरे विष से उनका त्राण कराने की कोशिश भी की। लेकिन
प्रतिक्रिया में,
वे
घातक वमन करने लगीं। हालात सुधरने की अपेक्षा और भी ख़तरनाक होते गये। बहुओं के
पीहर वालों ने भी अनीति और नाजायज़ दबाव को मुद्दा बनाकर अपने दामादों को घेरा।
बहुएँ अपने पिता तथा शादी के बिचौलियों को गाली भण्डने लगीं कि उन्होंने किन नीचों
के यहाँ फँसा दिया है। घर में किसी–न–किसी की बोलचाल बन्द रहती ही थी। एक भाई दूसरे
भाई को लुगाई का ग़ुलाम कहता। दूसरा ज़वाब में चिल्लाकर उसे पेटीकोट की जूँ कहने
लगा।
फिर फ़सल की कमाई, रात में सिंचाई, खेती का काम इत्यादि विवाद का विषय बने। बहुएँ फुसफुसातीं कि खेती
में उनके घरवाले हाड़–गोड़ तुड़वाते हैं और जेठ को धौला कुरता–पाजामा पहनकर, घर–बाहर की मुक़द्दमी से फुर्सत ही नहीं। मज़ाल है जो बैरागी ने कभी एक
सींक के दो टुकड़े किये हों। ऊपर से एक–एक पाई, बीड़ी–माचिस तक के लिए ये गुल्मटा, इस लाडूशाह के सामने हाथ फैलाते हैं। शीत–घाम में बच्चों के चूतड़ ढँकने के लिए भी पूरे
कपडे़ मयस्सर नहीं होते। इससे तो बेलदार की मज़दूरी अच्छी। कम–से–कम अपने हाथ में दो कौड़ी तो रहती है।
माहौल ऐसा हुआ कि वे अपने नाकारा पतियों की बाहों से फिसलने लगीं।
उनकी छाती के इक्का–दुक्का सफ़ेद बाल, पतन और घाटे की क़ीमत वाली उजड़ी फ़सल बन गये, जिनकी कोई क़ीमत नहीं थी। ऐसी विषम परिस्थिति
में ये बाँके जवाँमर्द जाँघ खुजा, फुफकारते हुए परचून की दुकान या बैठक पर ताश खेलते हुए अपना समय
बिताते।
दोनों छोटे भाइयों के देर से ही सही लेकिन आख़िरकार ज्ञान चक्षु खुल
ही गये। उन्होंने अपनी अर्धांगनियों की शिक्षा को पूरी तरह से आत्मसात् कर लिया, यानी जैसा मेरे ललिया लुहार वैसी मेरी लक्कखो
उतार।
इसी दौरान छोटी देवरानी की रुचि रहस्य की ओर जाग्रत हुई। कैसे? बेटी के ससुराल में कलह बढ़ती देख, उसकी माँ ने बेटी का परिचय डोरा–गण्डा की शक्ति से कराया। दामाद की अक़्ल न फिर
जाये, इसका भी इंतज़ाम इसी तन्त्रा विद्या का हिस्सा
रहा। महीने में एक बार वह अपने पीहर जाने लगी। जिस दिन घर में कलह होती, वह अपने कमरे के कोने में ख़ूब बड़ी ज्योत
प्रज्वलित कर, काग़ज़ पर कुछ लिखने बैठ जाती थी। फिर उस काले
स्याह नक़्शे को जला अपनी जूती से पीटने लगती। राख से चेहरा स्याह हो जाता। सिर पर
माता की चुँदरी बाँधे दो दिन तक पलंग पर उलटे लेटे उसका समय बीतता था। न कुछ खाना
और न ही बच्चों की देखभाल। पति घबराकर उसे ले अपनी ससुराल पहुँचता। यह भी सुनने
में आया कि बहू आटे का पुतला बनाकर अपने मायके ले जाती है।
लीलावती यह सुन और उसके कर्म देख काँपने लगी। एक दिन कहना पड़ा—‘‘मेरे कीड़ा पर कोई दाँत ना रखो, रण्डियो! मैं निपूती भली होती। किसी की काली नज़र तो ना
पड़ती। सबके जियैं। साझे में आग लगै, अपनों करो, अपनों
खाओ।’’
हरस्वरूप सिंह को बहुत पहले ही अहसास हो चुका था कि संयुक्त परिवार
की शाखें एक–दूसरे के पत्तों एवं पुष्पों को विदीर्ण कर रही हैं। कई दिन तक
पुराने गड़े हुए मुर्दे उखड़े। आरोप–प्रत्यारोप का दौर चला। गाँव के ही दो हिमायती
और एक रिश्तेदार की उपस्थिति में घर से लेकर खेत तक सब कुछ बँट गये। वृद्ध माता–पिता ने एक–दो दिन खाना भी नहीं खाया। एक के मुँह में रोटी
फूलती थी, दूसरे के गले से टुकड़ा नीचे नहीं उतरा। बँटवारे
में, वे अपने बड़े पुत्र के हिस्से में आये।
पहले सत्ताईस बीघा ज़मीन बाबा के नाम पर थी। बात में ज़मींदारी का कुछ
वज़न था। और अब तीनों भाई नौ बीघा की टपिया वाले खुट्टल पायते तोड़ बनने वाले थे।
बैठक हरस्वरूप के हिस्से में आयी तो दोनों छोटे भाइयों को एक–एक बीघा ज़मीन बदले में देनी पड़ी। किसी के
हिस्से में हल–मैढ़ा आया तो दूसरे को भैंसा मिला। बुग्घी का मालिक तीसरा रहा। नलकूप
उखाड़ नहीं सकते थे तो उसके पानी का वार बाँधने के बारे में खटपट करने लगे। मन के
कटाव इतने तीख़े थे कि साझे बारदाने के उपयोग का ख़याल भी नहीं आया। एक–दूसरे का मुँह ताकने की जगह पड़ोसियों से मदद
माँगकर, उनका अहसान लेना उन्हें बेहतर लगा। जैसे–तैसे कर अपनी सोंझ पूरी करने की जुगत लगाते थे।
जिन्हें कभी खाट के पायतों में जगह नहीं मिलती थी अब वे सिरहाना
क़ब्ज़ाने लगे। सबके अपने–अपने सम्बन्ध बने और पड़ोसियों तक का विभाजन हो गया। जो बड़े भाई के
काम आता उससे छोटा खार खाने लगा। इस तरह मोहल्ले के परिवारों का भी आपस में मन–मुटाव हो चला।
एक–दूसरे की चुगली होतीं। पड़ोसिनों को ख़बर मिलने लगीं कि एक बहू का भाई
भाड़े की बुग्घी चलाता है और माँ कंजरी खसम को पहले ही खा चुकी है। दूसरी का भाई
बहन के गहने चुराकर, दुनिया
के गेहूँ–चावल ख़रीद, आढ़ती
बना फिरता है। नकटा कहीं का! सावित्री हिजड़ा की तरह ताली बजाकर बात करने वाली बहन भी कम नहीं है।
तीसरी को अपने ज़माने में गरम तेल की जलेबी कहा गया जिस पर पीपल का भूत आता था। और
भी बहुत–सी बातें सामने आने लगीं। जैसे इसी परिवार की एक बहू ने राधे पण्डित
की गाय को आटे की लोई में सुई बन्दकर खिलायी और निपूती ने अमावस्या की रात राधे
पण्डित के घर टोटका फेंककर, उसकी पशुशाला के छप्पर में आग लगायी थी।
अभी भी सब कुछ सामान्य नहीं था। हालाँकि सब अपने कार्यों में लग गये।
न घरेलू काम में दिक़्क़त रही और न ही खेत–जोत में। दोनों बहुएँ सुबह उठकर अपने चौका–बर्तन के बाद खेती के कामों में अपने पतियों का
हाथ बँटाने लगीं। हाँ, तीनों
भाई और उनके बच्चे कुछ समय तक इस कलह से ज़रूर उदास दिखे। वे कुछ दिनों तक शर्मीले–संकोची छौनों की तरह एक–दूसरे से नज़र बचाते रहे। कभी–कभी औरतों को बँटवारे में बेईमानी दिखाई देने
लगती, जिसकी शिकायत वे अपनी पड़ोसनों से करती थीं।
अपने मर्दों के कान भी भरे जाते। यदि किसी की गाय या भैंस को जुगाली में दिक़्क़त
होती, वे पतले गोबर के पोंखारे मारती या उनके दूध में
कमीबेशी आती तो वे किसी का भी नाम लिए बिना काला जादू करने वाली औरत के दूध–पूत को कोसती हुई चिल्लाती थीं।
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मदन पाल सिंह |
जन्म : 1
जनवरी,
1975। तहसील गढ़मुक्तेश्वर (उत्तर प्रदेश ) के एक किसान परिवार में। भारत और
फ़्रांस शिक्षित। कुछ वर्ष चाकरी और अब खेती-किसानी तथा पूर्णकालिक लेखन। एक
उपन्यास त्रयी का लेखन, जिसका
प्रथम भाग ‘हरामी‘ के नाम से
प्रकाशित। दूसरे और तीसरे भाग क्रमशः ‘गली सैंत कैथरीन‘ और ‘डाकिन‘
के
नाम से। मध्यकाल से समकालीन फ़्रेंच काव्य को समेटे छब्बीस पुस्तकों की श्रृंखला —‘फ़्रांसिसी कवि एवं
कविता‘, जिसके
अंतर्गत बोदलेअर, वेरलेन, रैंबो, मालार्मे इत्यादि
पर पुस्तके प्रकाशित। फ़िलहाल, उपन्यास, जीवनी,
समालोचना
और अनुवाद पर कार्यरत।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad