आधा डूबा आधा उठा हुआ विश्वविद्यालय
भरत प्रसाद
‘चुनाव’ शब्द तानाशाही
और अन्याय की दुर्गंध देता है। जबकि मजा यह कि इंसानों से पटी पड़ी दुनिया में
खोजना मुश्किल हो जाएगा कि कौन चुनाववादी नहीं है। कामयाबी के सिंहासन पर विराजने
के लिए गुणा-गणित, जोड़-घटाना की कलाकारी का चुनाव। सफलता के शिखर
पर चढ़कर डिस्कोडांस करने के लिए अपने-पराए, खास, बेखास, बदनाम, सरनाम, गुमनाम
का सीढ़ी के तौर पर इस्तेमाल। इसी चुनाचुनी में अपने न जाने कितना दूर चले जाते हैं
और अजनबी न जाने कितने पास हो आते हैं। यह तीन धन आधा फुट का आदमी भी कमाल की माया
है मालिक। चल तो रहा है, पर पांव जमीन पर कहाँ ? बोलता
तो है, मगर दिल से कहाँ ? ताउम्र एक चेहरा ढोता हुआ, पर
एक चेहरे का कहाँ ? यदि बड़ी कठिनाई और मजबूरी में बदलता भी है, तो
दिखावे के लिए खांटी शोबाजी के लिए। वह ताउम्र खेलता है नाटक, जिसमें
खुद ही होता है नायक का दम्भ पाले हुए जबकि गिरता है या खलनायकी की कब्र में।
अट्ठारहवीं उमिर को सलाम:
बचपन विदा होने के बाद की उम्र, जिसे
दुनियावी मुहावरे में किशोर उम्र कहते हैं। यही वह दहलीज है, जब
हमारे हृदय ने निरखा कि पूरब के क्षितिज पर जो गोला फूट रहा है वह किस अन्तहीन
आश्चर्य का नाम है। नीले आकाश की प्रशांत गहराइयों में उड़ते हुए पंक्षी क्यों
पल-पल अपने पांवों के जादू में हमारे चित्त को कसकर क्यों बांध लेते हैं ?
जीवन की अलग-अलग उम्र हमारे शरीर, बुद्धि
और मन से कितना जादुई खेल खेलती है। शरीर जब किशोरावस्था की सीढ़ी पर पहुँचता है तो
अपने आसपास के विस्तार और अनुभव को उद्वेलित करने वाली सच्चाईयों को रेामांचक
किन्तु अधकचरी निगाहों से निरखता है। यह उम्र अधकचरे फल की भांति है, जिसमें
मिठास अभी नहीं आयी है, जिसमें ऊपरी और भीतरी दोनेां कठोरता
भरपूर है, जिसमें ताजा रंग का रेामांच तो है, पर
धूप लगते ही मुरझा जाता है। किशोरावस्था अर्थात् गंवई खेतों, तालाबांे, बगीचों
में आवारगी के दिन दोपहर से लेकर शाम तक अन्नकुंड के लिए खुलेआम या गुमनाम चोरी
करने के दिन, पुस्तकों की पढ़ाई से अव्वल दुश्मनी साधने के
दिन। कोई पूछता कि पढ़ाई चुनना है या नरक, तो तत्क्षण नरक
पर मुहर लगाते, कारण कि नरककुण्ड को तैरकर पार किया जा सकता है, पर
पढ़ाई तो ऐसा दलदल है, जिसमें एक पांव दिए नहीं कि धंसते चले
गये, फिर तो आदरणीय नानी जी भी नहीं बचा सकतीं। शरारत, अल्हड़ता और नादानियाँ भर देने वाली यह उम्र परले दर्जे की गुस्ताखियां करवाती है।
नमूने लीजिए राह के बाजू में अकड़े पेड़ पर चढ़कर अचानक किसी राहगीर के आगे कूद पड़ना, खटिया
में धंस कर खर्राटा मारते हुए बुढ़ऊ काका का टूटहा चप्पल और लाठी नदारत कर देना या
फिर किसी से बदला निपटाने के लिए ऐन मौके पर मधुमक्खियों के छत्ते में ढेला चला
देना। यदि इतने पर मन तृप्त न हुआ तो रात में सोते समय चारपाई के नीचे लेट जाना।
आज जबकि शरीर इन नादानियों से गुजरते हुए चार दशक आगे आ चुका है- ऐसा क्या है
इनमें कि बेतरह खींचता है। इस उम्र में रत्ती भर सलीका नहीं, एक
हजार एक प्रतिशत उजड्ड, बल्कि कहिए नकारा। किताबों से रिश्ता
बस इतना कि काम-धाम से एलर्जी है। वरना किताब में चित्त ऐसा रमता कि बैठते ही ठीक
आधे घंटे में नींद माई उतर आतीं परी सी धीरे-धीरे-धीरे। पढ़ता था कहानियाँ और निबंध
पर ये तीनों सिर में तत्काल दर्द उत्पन्न करने वाली बलाएं। खिलाड़ी हृदय को सुकून
मिलता तो लेखकों, कवियों की जीवनी पढ़कर। उसमें भी आत्मा तब गद्गद
होती जब वह रस हाथ लगता कि फलां लेखक तो हमसे भी ज्यादा सोने, खाने, खेला
करने में अव्वल रहा है। दूसरे की कमी हमारी कमी को कितना सहलाती है, इस
सुख की व्याख्या शब्दों से परे है। ‘सरस्वती वंदना’ यही
थी वह कविता जिसने हमें भान कराया कि लिखना किस रोमांच का नाम है बाबा। एकदम
तुकबद्ध कविता, शुरुआत कुछ इस तरह की – ‘जय
शारदे, जय शारदे, जय शारदे देवी माँ। तुम्ही
विद्यादायिनी तुम्ही कृपाल देवी।’ आज जब यूं ही या शौकिया बचपन की यादों
की झील में तैरने को आतुर होता हूँ तो इस कविता पर न हँसने का जी करता है, न
रोने का। इसे कविता कहूँ या बचुआ के भोले आँसू- पर यह हकीकत है कि सुरसती मैया
मेरी पहली कविता की आवाजे बन गयीं, यह बात दीगर है
कि फिर कभी कलम ने मुड़कर उनकी तरफ निगाह नहीं डाली। कच्ची उमंगों वाली जवानी में
यदि पुरस्कार के तौर पर लड्डू भी खाने को मिल जाय, तो वह मन में
लड्डू फूटने से कई गुना मीठा हो जाता है। चल निकला सिलसिला लय, तुक, ताल
भरी कविताएं लिखने का। उस वक्त लिखता क्या था, बस भजन गाता था, सूरदास
जैसा। न जाने कैसे और किस प्रेरणा से कक्षा- 11 में एक उपन्यास
का शौक चर्राया। खांटी गंवई मुहावरे में चर्राने का कोई तोड़ नहीं है। न आव देखा न
ताव, न नफा सोचा न नुकसान, न सलीका जाना, न
ढब- बस टूट पड़ा वह करने के लिए जिसकी सनक सिर पर नहीं सांसों पर सवार थी। इस पहले
उपन्यास का शीर्षक था- ‘धरती करे पुकार’ उस
वक्त जिला बस्ती के मच्छरधारी सिनेमागृहों में ‘हीरो’, ‘क्रांति’, ‘तेरी
मेहरबानियाँ’, ‘लोहा’ और ‘राम
तेरी गंगा मैली’ जैसी फिल्मों को देखने की झड़ी लगा देने का
परिणाम था- ‘धरती करे पुकार’। बस्ती के जी.
आई. सी. हास्टल में अपने एक सीनियर महापुरुष थे- दिनेश यादव। ठीक 5
बजकर 30 मिनट पर बाइसाइकिल हनकाते हुए खुल्ला खिड़की पर आ टपकते। न बोलने की
महारत हासिल थी। परन्तु उनका मौन बाल्टी भर नशा करता था। टिकट कटाने का भार वही
उठाते, सायकिल पर बैठाकर वही
घींचते। यहाँ तक कि फिर सिनेमा दिखाने की भीष्म प्रतिज्ञा वही
लेते। पूरे साल भर पचासों फिल्में देखने का चमत्कार यही हुआ कि ‘धरती
करे पुकार’ साल के अंत में सम्पन्न हो गया। तत्काल एक
परिणाम और निकल कर आया कि 12 तो 12 हमारे लिए
कक्षा- 11 पार कर पाना 100 किलो की चट्टान
उठाना हो गया।
पनपते
हुए जीवन का अट्ठारहवां साल अर्थात् अपनी बैलनुमा इच्छाओं, वासनाओं
और कुंठाओं से महाभारत युद्ध शुरु। कौन कहता है आदमी का युद्ध बाहरी है। जितना वह
बाहर लड़ता है उससे कई गुना भीतर। बल्कि जहाँ-जहाँ वह बाहर दो-दो हाथ आजमाता है
वहीं खुद से भी सौ-सौ हाथ। विचित्र उलझन यह थी कि जिस विषय को सदैव अपना ध्ुार
प्रतिद्वन्द्वी समझा, वह हाईस्कूल से पीछा नहीं छोड़ रहा था-
समझ लीजिए। किस विषय का रोना रो रहा हूँ- ‘द गणित’ का।
प्रेमचन्द के लिए गणित रही होगी- गौरीशंकर की चोटी, हमारे लिए वह
खाज की बेमारी थी, बीमारी नहीं बेमारी, अर्थात्
बिना मारे ही मार डालने वाली। बात यहीं समाप्त हो जाती तो गनीमत। हमारे सामने दो
और विषय दैत्य की तरह खड़े थे- एक भौतिक विज्ञान और दूसरा रसायन। कौन से तत्व को
कौन से तत्व की परखनली में मिला दिया जाय तो कौन सा नया तत्व बन जाता है। यह आजतक
हमें कोई रसायनज्ञ समझाने में सफल न हुआ, सिवाय एक सूत्र
के कि हाइड्रोजन और आक्सीजन के मिलन से पानी बन जाता है। इस सूत्र के याद रहने का
कुल रहस्य इतना ही, कि रसायन की कक्षा लेते वक्त मुझे प्यास बहुत
लगती थी। कई बार तो गुरु श्यामपट्ट भर डालते थे- रसायन की मायाजाली दुनिया के
तंत्रमंत्र जैसे सूत्र। और मैं सबसे पिछली कतार में बैठकर पढ़ता था- प्रेमचन्द की
कहानी ‘दो बैलों की कथा’। जो सौतिया डाह
हमने इन तीनों निर्मम विषयों के साथ किया, वही बर्ताव इन
विषयों ने मेरे साथ किया, हमने इनसे विदा ली, और
इन्होंने मुझसे। घर में सुविधा, सम्पन्नता सपने की तरह थी- यही लगता था, मानो
रेत में नहीं, बल्कि हवा में नाव खे रहे हैं- पास-पड़ोस के लोग
निब्र्याज भाव से धमका कर राह लेते कि बिना घूस-घास दिए, बिना
सोर्स-सिफारिश के नौकरी कहाँ मिलती है बेटा ? जुते रहो, सिर
के बाल विदा हो जाएंगे, ओवर एज हो जाओगे, आशंका
है- चश्माधारी भी कहलाने लगो- परन्तु नौकरी की कोई गारंटी नहीं। पैसा की तंगी नहीं, बल्कि
कहिए उसके अकाल का आतंक रोजाना पसरा रहता था। माँ भी अजीब शख्स होती है वह कब
मित्र बन जाय, दरोगा, डाॅक्टर, बढ़ई
बन जाय कहना मुश्किल है। जी हाँ, श्रीमान् माँ बच्चों के लिए न जाने
कितनी बार पुरुष भी बन जाती है।
बड़ा नीक लागे आपन गाँव:
उत्तर
प्रदेश के धुर कछार इलाके का बज्र देहात, जहाँ जो कुछ
होता था तो 100.01% के करीब-करीब। बादल मियां
मेहरबान होते तो पूरे
तीन महीने के लिए, मजाल क्या कि सफलतापूर्वक कोई कच्ची राह पार कर जाय।
बच्चे तो बच्चे बड़े-बूढ़ों का इस मौसम में चारों खाने चित्त होना आम बात थी। हमें
पहले से पता होता कि पक्का गिरूँगा, इसीलिए फिसलकर
गिरते ही चट्ट से उठ जाता और हँसने लगता ताकि कोई तबियत का हालचाल न ले ले। गाँव
का मकान क्या था, कुनबा था। खपरैल का घर, जिसमें
चार बेमिसाल चाचाओं की शाखाएँ, प्रशाखाएँ फैली हुई थीं। शाम को ऐसी
चिल्ल-पों, रोवा-रोहट मचती कि खास बाजार की समां बंध जाती।
पिता ठहरे आधे खेतिहर आधे होमगार्ड। महीने में पन्द्रह दिन ड्यूटी फिर रेस्ट।
खेतीबारी उनके सांवले रंग पर नाचती थी। दूध दुहने के लिए गाय की थन को हाथ लगाते
तो न जाने कैसा जादू गाय मैया पर छाता कि बुत्त बन जाती, भूलचूक
से एक बार भी पांव उठा दी, तो धर देते गर्दन पर तबियत से एक घूसा।
शायद पिताजी के घूसे का आतंक गाय के चित्त में पैठ चुका था। हम इस उम्र में सायकिल
वीर और पैदलबाज थे। गाँव से जिला बस्ती शहर तक सायकिल हनकाते हुए 50
किमी. की यात्रा मुफ्त में। बेहिसाब, अन्तहीन
कठिनाईयों, जद्दोजेहद के दिन, एक
नहीं, दो नहीं, दस नहीं पूरे बीस साल। अभाव गरीबी, संघर्ष, गुमनामी, अकेलापन
और उपेक्षा ने घेर-घेरकर जीवन के अखाड़े में ऐसा पटक पटककर रगड़ा, ऐसा
ऐसा दांव मारा कि अब कैसी भी विपरीत स्थितियों में घबराहट होती ही नहीं। गंवई
पगडंडी, ताल, पोखर, सीवान, चैहद्दी, नदी, पीपल, बरगद, दूरांत
क्षितिज में खोए हुए हरियर खेत, बगीचे के सिर पर नाचती सुबह, दूसरे
गाँव के पीछे डूबता सूरज, रात के उल्लू, भिनसहरा
का पीला चाँद, भोर के पहले की रोमांचक बयार, सियारों
का हुंआँ-हुंआँ, कुत्तों की कचहरी, जानवरों
का समर्पण और हमारे गाँव के सिर पर छाया हुआ नीले आकाश का आशीर्वाद हमारे भावुक
शब्द गायक को तराशने वाली, पाठ पढ़ाने वाली प्रयोगशालाएं थीं। आज
तरस गयी है आत्मा आँख चमकाते उल्लुओं की भुतहा बोली सुनने को। यदि हड्डी, रक्त
और चमड़े का यह शरीर, धूल, माटी, कीचड़
में न डूबा होता तो कितना कंगाल, मुर्दा और खोखला हो जाता ?
खपरैल
का बूढ़ा घर खड़ा था हाथी जैसा, बरसती गर्मी के नृत्य में शीतल घर
जितना आनन्दकारी, जाड़ा-पाला के सन्नाटों भरी रात में गरमाहट का
परमान्द बरसाने वाला, किन्तु आकाश में ताल ठोंककर लड़ने को
तैयार बादलों के आगे लाचार। लकड़ी-माटी की ढालूदार छत, बरसात
हवाओं की सह पाकर भैरव नृत्य करती। गली, चैराहे, पगडंडी, तालाब, आंगन
सब जल की माया में पहचान खो देते थे। घर के पिछवाड़े आम, कटहल
के गदराए पेड़। सावन-भादांे का पानी इन दरख्तों के शरीर में दूध की माफिक असर करता
था। दम के दम में लेढ़ा लटकना शुरु, नीचे से टापते
बित्ता भर के बच्चों को ऐसा ललचाते कि कल्लू दोस्त सिर पर लद्द से गिरी चिड़िया के
पीछे की ज्यादती भी हंसी-खुशी बर्दाश्त कर लेते। बारिश की वज्र काली रात वासना भरे
हृदय जितनी घुप्प होती, अभी-अभी चोरी के फिल्ड में किस्मत
आजमाने वाले युवकों के लिए सुनहरी घड़ी। 12 बजे रात
में जब दानव भी अपनी ड्यूटी निपटा
कर दरख्त की फुनगी पर सो जाते होंगे, ये बज्र देहाती
दानव आम, अमरूद, कटहल के वृक्षों
को बाहों में जकड़ लेते और चींटी, माटा, गोंजर से लड़ते, भिड़ते
हाथ मिलाते हुए चढ़ जाते। कई बार पिताजी की बैट्री उनके चढ़ने को प्रमाणित करने के
लिए जल जाती, तो खुद पके कटहल की तरह जमीन पर चू पड़ना इन
निशाचरों के दाए-बाएं का खेल था। कूदते कटहल के साथ ही गाँव जीवन को तराशने की
विकट प्रयोगशालाएं हैं। जहाँ कदम-कदम पर कशमकश है। रोज-ब-रोज कुंआ खोदना है। छोटे
से छोटे मोर्चे को जीतने के लिए हड्डी निचोड़ लेने वाले श्रम को साधना है। जहाँ तीन
का पाँच और दस का बारह बनाना विदुरनीति है। जहाँ सीधा-सादा होने का मतलब, यह
किसी काम लायक नहीं- गाय-भैंस की पूंछ से बांध दो इसे। दूध में पानी मिला या पानी
में दूध बात एक ही है। यह अघोषित संविधान सभी भैंसधारी अपने लिए लागू करते थे।
वज्र अनगढ़ देहात की माया-ममता-आंच-चुभन और खटास-मिठास के बीच हमारा शरीर नौजवानी
के मोर्चे पर लड़ता और सदैव हारता हुआ खड़ा था। बचपन में गंवई क्षितिज पर बिजली की
चमक आज भी आँखों में अमिट है। ताकत के नशे में अंग-अंग से अंधे सांड़ों की डकार आज
भी कानों में ताजा है। नयेनवेले आशिक की तरह गूलर पेड़ के इर्दगिर्द पतिंगे की तरह
दुपहरिया भर मंडराना आज भी जीभ में लार ला देता है।
हम
चार भाइयों और एक अफलातूनी भतीजे- कुल पाँच कच्चे घड़ों को पकाकर लायक बनाने के लिए
माई किस-किस भूमिका में नहीं ढली ? मित्र नहीं, दोस्त।
गुरु नहीं अगुआ। पिता नहीं बाप। शिक्षक नहीं, मास्टर। सुबह
माई के रोल में, दस बजे पेटभर्ता की ममता में, दोपहर
को गलियाँ टापने की आज्ञा देने वाली दोस्त और शाम को लालटेन की शरण में धमकाकर
बैठाने वाली गार्जियन। नतीजा यह हुआ कि पिताजी, जिसे हम देहाती
नासमझी के नशे में दादा कहते थे- वे अपनी अनेक पितेय भूमिकाओं से हाथ धो बैठे और
माई एक साथ दुगुनी, तिगुनी भूमिकाओं में कद्दावर हो गयीं। चींटी
जितनी बेखास और गुब्बारा जितनी फूली हुई बातों को सुनने की थी- सुनने की मूर्ति थी
माई। आज किसको पटका, किससे चारोंखाना चित्त हुआ। किससे ‘देख
लूंगा-फलाने वाले’ टाइप का शास्त्रार्थ हुआ, किससे
दोस्ती पर ग्रहण लगा और किसके खेत से भुट्टों की चार बालियां घट गयीं, ये
सब माई को नमक-मिर्च लगाकर भाख डालते। उम्र 19 की, कक्षा
अपनी 12। जीवन की जड़ों को हिलाकर रख देने वाली मर्मान्तक घटना घटी। दादा
फालिज (पैरालाइज़) के शिकार हुए और देखते ही देखते तीन दिन के भीतर पूरे परिवार को
छोड़कर कायामुक्त हो गये। देखा कि एक स्त्री कितनी अकेली पड़ जाती है- पति के न रहने
पर। पाया कि आँसुओं में खून ही नहीं, गाढ़े दिनों का
साथ, ताउम्र का निःशब्द लगाव, एक-दूसरे के
बिना न जी पाने की अहक और किसी के वजूद की छाया मिट जाना भी बहता है। पहली बार पता
चला कि अपने अस्तित्व की जमीन खिसक जाना कितना हाहाकारी अकेलापन भरता है हृदय में। भाई रोए, दीदी
रोई, पड़ोसी हिम्मत बंधाए और
पट्टीदार भी दुआरे पर चेहरे की हाजिरी देने आ गये, किन्तु यहाँ भी
माई अपने कद में हमारी समझ से बाहर ऊपर निकल गयीं। चूड़ियां तोड़ डालीं, सिंदूर
का नामोनिशान मिटा दिया, सिंगारदानी दादा की लाश को समर्पित की
और धीमी आंच में सुलगती लकड़ी की तरह तीन बजे रात तक दादा के कलेजे पर माथा टेककर
अहकती रहीं। दादा को मुखाग्नि हमने अपने दुर्बल हाथों से दिया। कलेजे में वह बूता
नहीं, खोपड़ी में वह सूझ नहीं, सोच में वह साहस
नहीं, जो दाह के वक्त पिता के जलते शरीर को शब्दों में बांध सके। पुकारता
हूँ कबीर को –
हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस
जलैं ज्यूं घास,
सब तन जलता देखि करि, भया
कबीर उदास।।
कक्षा
12 के बाद पढ़ाई-लिखाई, किताब-कलम पर पूर्ण विराम लग जाएगा या
गाड़ी आगे स्टार्ट होगी तय कर पाना केवल समय के हाथ में था। माई हार मानने को बाल
बराबर भी तैयार न थीं, जबकि घर की स्थितियां इतनी विपरीत कि
पढ़ाई कौन कहे, दैनिक काम-धाम ढंग से निबटाना पहाड़ था। एक बड़े
भैया भारतीय वायुसेना के प्रहरी बन चुके थे, बाकी हम दो भाई
दो विपरीत ध्रुवी (साइंस और आर्ट) विषयों का दामन थामे पढ़ने को तैनात अपने-अपने
विषयों की नाव में बैठे गंगातटीय नगरी प्रयागराज उर्फ इलाहाबाद के विश्वविद्यालय
में दाखिल हुए। बड़े भाई किताबें पीस कर पीने वाले, किताबें बोलने
वाले, किताबों की माला पहनने और किताबों का भजन-कीर्तन करने वाले। उनकी
सांसों में बहती किताबों की इस साधु-साधना को देखकर हमें बिना मौसम के बुखार आने
लगा। जब अग्रज ऐसी विकट आग सुलगा रहे हों तो उसकी आंच में जलना छोटे भाई के लिलार
में लिखा ही था। कक्षा 12 के दौरान ही घर-गृहस्थी में एक बड़ा
भूकम्प आया, रिक्टर पैमाने पर पूरे 10 के
स्केल का। दादा के मान-सम्मान की नींव ही हिल उठी। हम संतानों की पढ़ाई का दबाव, तनाव
और खिंचाव न झेल पाने की बेवशी में एक बीघा गोयड़हर खेत बेंच डाला, यही
तकरीबन 45,000 रु. में, एक
कुम्हार के हाथों, जो दीया, गगरी, पतकी
और न जाने कितने ढब के बर्तन बनाकर बेंचता था। कौन जाने किसान बाप के लिए उपजाऊ
खेत का कितना मूल्य था। सुबह-शाम घर से निकलते तो खेत के पौधों को निहारे बिना
वापस न होते थे। एक तो घर से दो कदम के फासले पर, ऊपर से दादा का
सबसे प्यारा-दुलारा खेत। दुधारू देशी गाय के माफिक पूरे साल भर कभी भुट्टा, कभी
मूंगफली, कभी धान, कुच्छ नहीं तो
धनिया ही सही देता रहता था। बिकने के बाद से दादा का चेहरा अत्यधिक पराजित, काठ
और अशांत होता चला गया। घर को रेाज-ब-रेाज तनाव और चिंता से लाद देने वाले पैसे की
माया से राहत तो मिली, हम भाईयों के पढ़ाई की बैलगाड़ी लीक तो
पकड़ ली, पर ठीक साल भर बाद दादा लकवा की चपेट में आ
गये।
बी.
ए. का किताबी मतलब गया घास चरने। अब नया अर्थ बूझिए। बुझे-बुझे जीवन में ‘बहार
आयी’ है। या फिर हवाई ख्यालातों की ‘बारिश और आंधी’ या ‘भाग
लीजिए आते ही’ (कक्षाओं से)। तीन विपरीत अंदाज और स्वभाव की
नदियों का नगर इलाहाबाद जिसमें गाँव भी पसरा अड़ा है, कस्बा भी करवटें
बदलता है और अनगढ़ शहर का लुक भी मिल जाता है। जहाँ गर्मी माथा पर आफत की तरह नाचती
है, ठंडी हड्डियों को सबक सिखाती है कि हमें कभी न भूलना बच्चा। यह शहर
है भी, और नहीं भी है। यहाँ आँखें फाड़-फाड़कर खोजना पड़ जाएगा कि यूनिवर्सिटी
के किस विद्यार्थी की पैंट-शर्ट पर राजनीति का रंग नहीं चढ़ा है। बी. ए. में यह
बुखार चढ़ता है और पीएच. डी. होल्डर के बाद बेरोजगार हो जाने पर उतर जाता है। यहाँ
बात से कम, धमकी भरे मौन से अधिक काम निपटाया जाता है, वो
भी याराना मुस्कान के साथ। नेताओं के लिए नियम, कायदा, कानून
न बूझने की कसम है। छात्र चुनाव के वक्त जीत के यज्ञ की हुंकार उठती थी- बाइकमय
रैलियों से और पूर्णाहुति होती थी, दो-चार बम
धमाकों से। जो छात्र नेता देश की राजनीति में उतरने का ख्वाब बुनते थे, उनके
लिए बम फोड़ना ‘एक्स्ट्रा कैलिकुलर एक्टिविटी’ था।
यह वही विलक्षण जमीन है, जहाँ कविता में क्रांति की तरह
महाप्राण साकार हुए, जहाँ गीतों की साधिका- महादेवी प्रकट हुईं, जहाँ
रामकुमार वर्मा, रामस्वरूप चतुर्वेदी जैसे नाम हमारी
छात्र-बुद्धि के दुर्बल दरवाजे पर पहली बार दस्तक दिए। यहाँ जली हुई कच्ची रोटियां
पकाते और जलते हुए आलू निपटाते हुए जाना कि साहित्य भी सफलता हासिल करने का एक
हथियार है। हिन्दी वालों के दिलोदिमाग में अमरत्व हासिल कर चुके काफी हाउस दो-चार
बार हो लिए। निराला की कर्मभूमि दारागंज का दूर से दर्शन किया, दिल
बैठ गया। इतना विशाल व्यक्तित्व और इतना छोटा किनारे पर पड़ा हुआ, दिव्याताशून्य
मकान ? गया तो संस्मरण-साम्राज्ञी का आवास भी देखने, जिसकी
सूनसान और उजाड़ भव्यता अपने बीते वैभव की कहानी सुनाती थी। देश की आजादी में आहुति
देने वाली चिंगारी चन्द्रशेखर आजाद के अल्फ्रेड पार्क को भी देखा, यकीनन
सही अर्थों में साहित्य के प्रति अमिट आशिकी को जन्म देने वाला यही एक तिहाई
गाँवनुमा शहर इलाहाबाद ही है।
स्वर्ग की सीढ़ियों पर प्रेम की फरियाद:
जहाँ
का आकाश नीले नहीं लाल रंग से रंगा हुआ है। जहाँ के आकाश पर सूर्य और चन्द्रमा
हँसिया और हथौड़ा बनकर उगते हैं, डूबते हैं। जहाँ की गाढ़ी भूरी और जली
हुई चट्टानें भीतरी संकल्प और साहस का रूपक हैं, जिसकी फिजाओं
में बेलीक विचारों की गंध उड़ती है। जहाँ सूर्य परिवर्तन का स्वप्न बनकर उगता है और
नयी सुबह की जिद्द बनकर डूबता है। नयी दिल्ली का विश्वविद्यालय जे. एन. यू., जो
कि ‘आधा डूबा आधा उठा हुआ द्वीप’ है। जितना उठ
सकता था, उसका
संभावना लिए हुए, जितना
नहीं उठ सका उसका अधूरापन जीता हुआ। आधा ख्वाबों में
जीता हुआ, आधा हकीकत की जमीन पर खड़ा। आधा जगा हुआ, आधा
अपने सोने से बेखबर। आधा भारत के साथ, आधा भारत के
असाथ। आधा हाँ जी, आधा नहीं जी। आधा बेमिसाल, आधा
बदमिसाल। इसकी परिधि में कदम रखते ही विद्यार्थी किसी तीसरे ग्रह के नौजवान बन
जाते हैं, जो भारत के बारे में भारत की आँखों से नहीं, अपनी
बदलावकारी आँखों से सोचते हैं, जिनके लिए देश एक प्रयोगशाला है, जहाँ
असंभव परिवर्तन के विचार गढ़े जा सकते हैं। यहाँ का करीब प्रत्येक छात्र बहस का
अंदाज चमकाए रहेगा, या फिर बहस की स्टाइल में मुस्कुराएगा या बहस
की चाय-दर-चाय पिलाएगा। यहाँ की फ़िजा में विदेशी विद्वानों की भटकती आत्माएं विचरण
करती हैं वो भी अंग्रेजी स्टाइल में। यहाँ देशी युवा प्रचंड अंग्रेजी छांटने में
उस्ताद हैं। यहाँ के अल्ट्रा प्रगतिशील शिक्षक भारत को रूस के सांचे में ढालने का
सपना गढ़ते हैं। छात्र-छात्राओं के बीच बेलगाम प्रेमालाप के दृश्य ऐसे सुलभ हैं, जैसे
कस्बे के हर नुक्कड़ पर चाय की दुकान। इस परिसर में यूं तो न जाने कितने जोड़े बनते
हैं, बिगड़ते हैं, तोड़े जाते हैं, जोड़े
जाते हैं, पर एक ही वक्त में पाँच-पाँच प्रेमियों के साथ
यहीं देखा जा सकता है। यही वह परिसर है, जहाँ दुर्गनुमा
बिल्डिंग्स के प्रवेशद्वार प्रेम की सीढ़ियां हैं। जहाँ प्रेम के नयेपन या पुरानेपन
के मुताबिक खड़े होकर या बैठकर सिगरेट की कश में प्रेमिका की फरियाद की जाती है।
जहाँ प्रेम करना क्रांति लाने की अनिवार्य शर्त है। जहाँ प्रेम की ऊँचाई को स्थायी
करने के लिए बना है- ‘लव-प्वांइट’ जिसे
अंग्रेजी स्टाइल में ‘पार्थ सारथी राॅक’ कहते
हैं।
जे.
एन. यू. ऐसा स्तम्भ है, ऐसी चट्टान एक ऐसा समुद्र जिसका विकल्प
वह स्वयं है, दूसरा कोई विश्वविद्यालय नहीं। यहाँ साल भर
बसंत के फूल खिलते हैं, हिलते, मिलते, गिरते।
जिसे देखो वही टनों ज्ञान का तनाव लेकर भागता हुआ। प्रोफेसरान वैसे तो दिल्ली की
राजनीति संभालने से फुरसत नहीं पाते और इंडिया हैवीटेट सेंटर, सिरीफोर्ट
आडिटोरियम, साहित्य अकादमी और संगीत-नाटक अकादमी की
रेटकारपेट युक्त कार्यक्रमों की खुशबू में मदहोश रहते हैं, पर
ठीक वक्त पर कक्षाओं को भारी-भरकम ज्ञान से लाद देना, उनकी
लत है। यहाँ देशी और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों पर चक्रवाती बहसें मचती हैं, छात्र-छात्राएं
डफली की कच्ची धुन पीटते हुए मशाल जुलूस लहकाते हैं और क्रांति-क्रांति बुदबुदाते
हुए सुबह तक के लिए सो जाते हैं। यदि माता-पिता को गुमान है कि मेरा बेटा बड़का
अफसर बनकर दहेज में नोटों की गड्डी लाएगा तो यहाँ न भेजें, क्योंकि
सुपुत्र आई. ए. एस. के लिए तप करेगा जरूर, गाइड-दर-गाइड और
नोट्स पर नोट्स पीएगा जरूर- पर दहेज के
लिए नहीं, एक आई. ए. एस. प्रेमिका की सिद्धि के लिए। धर्म
की ध्वजा फहरती होगी देश में, यहाँ नींव की पहली ईंट ही पड़ी है- धर्म
ध्वजा को उतारकर। वामपंथ, दलितवाद, प्रतिरोध, आंदोलन
और स्वप्न जैसे पंचतत्वों से मिलकर बना है उसका जे. एन. यू.। हकीकत बदले न बदले, जीत
मिले न मिले, स्वीकार्यता बने न बने, पर
मोर्चा खोलना है तो मतलब खोलना है, लाल सुबह का
तराना बुलंद रखना है तो रखना है। अब ‘लाल’ शब्द
आ जाने पर इस रहस्य से पर्दा हटा ही दिया जाय कि न सिर्फ जमीन लाल, चट्टानें
लाल, आकाश लाल और मस्तिष्क लाल है, बल्कि आँखें भी
लालमलाल हैं। प्रोफेसरान और लेक्चरान न सिर्फ पंजीकृत ब्रांड की लाल बोतलें थामते
हैं, बल्कि अपने मौन व्यवहार से अनुमति बांटते हैं कि नशेड़ियों के गंगाजल
का आचमन करो। धारणा बड़ी पक्की प्रचलित है कि बिना सिगरेट उड़ाये बुद्धि में सरस्वती
नहीं आतीं और बिना दारू का अमृत पीए साहित्य-वाहित्य में अमरता हासिल नहीं होती।
यहाँ अहम विषय से बहस शुरु तो होगी पर थमेगी अन्तर्राष्ट्रीय चिन्ता और तत्कालीन
सत्ता से बगावत के रूप में। न केवल धर्म, बल्कि जाति, सम्प्रदाय, क्षेत्रवाद, रंगभेद
इस कैम्पस के जन्मजात शत्रु हैं, जिससे लड़ने का एक मात्र हथियार बाबा
माक्र्स हैं, ईसामसीह का क्रास गले में लटकाए कार्लमाक्र्स।
मरिते चाहिना आमि सुंदर भुवने:
‘मास्टर
आॅफ आर्ट’ इन हिन्दी की डिग्री पाने के दौरान आधुनिक
हिन्दी कविता के कई उद्दाम स्वरों का साक्षात्कार हुआ, पर
इन सबमें जिसने सबसे विकट, विषम और अद्वितीय खलबली मचाई, वे
थे- मुक्तिबोध। मतलब समझिए कि आतंक जमाने की हद तक चित्त और मस्तिष्क पर कब्जा जमा
लिया था। वक्त के अंधकार से आँखें मिलाती उनकी क्लासिक कविता – ‘अंधेरे
में’ किसी ओझा का भयावह मंत्र लगती थी, जिसका न वाक्य
पकड़ में आता, न ही अर्थ, बस ध्वनि का
रहस्य खींचता, चेतना को बांधता, मोहविष्ट करता
चला जाता। कविता का गुल्ली-डंडा भांजती मेरी बबुआनुमा बुद्धि मुक्तिबोध का मतलब
क्या समझती ? पर दो साल तक स्वातंत्र्योत्तर कविता के इस
लौहद्वार से माथा पीटते-पीटते एक आत्मज्ञान पा ही लिया कि एम. फिल. के लघु शोध
कार्य की नैया इसी बीहड़ जंगल के बीच से पार करनी है। प्रसाद और निराला के कद की
छाया मस्तिष्क पर बार-बार पड़ रही थी, दूसरी तरफ
समकालीन कविता के अनिवार्य अध्याय गुरुवर केदारनाथ सिंह स्वयं एक प्रत्यक्ष उदाहरण
बने खड़े थे। पढ़ाते थे ‘कामायनी’ और ‘राम
की शक्ति पूजा’, मगर रोमांटिक रसमयता लिए-दिए। सूर, कबीर, तुलसी
ठहरे भक्त कवि, जिनका हमारे माक्र्सपरस्त बुद्धि से तालमेल
गड़बड़ ही रहता था। कबीर की कविताई से दिल की पटरी बैठ सकती थी, पर
वे भी निकले साधु-महात्मा, मिनट-मिनट पर उपदेशों की बौछार करने
वाले, ऊपर से आला दर्जे के रहस्यवादी और उलटबांसीकार, सो
मन का एक कोना उनसे भी चिढ़ा रहता। गाहे-ब-गाहे मशाल-जुलूस का रात्रिकालीन
क्रांतिकारी बनने के दौरान गोरख पांडे, अवतार सिंह पाश, बल्ली
सिंह चीमा और सुदामा पांडेय जैसे खांटी किसिम की बगावती आवाजों को सुनने
का मौका मिला । इतना ही नहीं, हिन्दी विभाग
में बीते हुए वर्षों के वृक्ष से प्रतिदिन दैनिक कवि पक कर तैयार हो रहे थे, उनको भी सुनना, सुनकर सिर धुनना
दिनचर्या में शुमार था।
पर जे. एन. यू. परिसर छोड़ते-छोड़ते जिन
दो कवियों ने हृदय पर स्थायी सिक्का जमाया – वे हैं – कबीर और मुक्तिबोध। आदमी की
असलियत का नक्शा खींचते समय दोनेां कालदर्शी कवि कैसे एक होते हैं, देखिए
जरा –
ऐसा कोई ना मिले, जासौं
रहिए लागि,
सब जग जलता देखिये अपणीं-अपणीं आगि।
(कबीरदास)
मन की काली-सूनी अकादमी में,
कोई दिलचस्प नहीं आदमी में। (मुक्तिबोध)
सोते
क्या जागते, हँसते क्या रोते, अकेले क्या
तिकेले ऐन सिर पर बेरेाजगारी का काला भूत मंडराने के दिन, दशमलव
शून्य एक प्रतिशत मन से प्रशासनिक परीक्षाओं में जूझते अतः शतप्रतिशत असफल होने
दिन, इण्टरमीडिएट से लेकर राज्य लोकसेवा आयोग में प्रवक्ता का अमरफल पाने
हेतु राजनीतिबाज एक्सपर्टों का मुकाबला-दर-मुकाबला करने के दिन। हिन्दी में मास्टर
आॅफ आर्ट की उपाधि पाने के ठीक बाद का वर्ष – 1997, अपने छात्र जीवन
के रोल माॅडल, विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष कामरेड
चन्द्रशेखर की हत्या सीवान, बिहार के सदर चैराहे पर हो गयी, जिसका
भूकंप सीधे जे. एन. यू. तक पहुँचा। कैम्पस की दिशाएं आन्दोलन की बुलंदी से कांप
उठीं, दिल्ली शहर की सड़कें निर्भीक आक्रोश की बाढ़ में डूब गयीं और केन्द्र
की सत्ता को भान हो गया कि जे. एन. यू. का बौद्धिक युवा न बुझाई जा सकने वाली किस
आग का नाम है। यही-यही-यही वह घटना है, जिसने कांटेदार
कुरूप और हृदयहीन वक्त से आँखें मिलाने वाली जिद्द का बीज रोप दिया, लय-तुक-ताल
और छंद की अदाओं में डूबने-तैरने वाली कविताओं को सदा के लिए विदाई मिली और अपनी
दरहकीकतों की जमीन पर खड़ी पहली गद्य कविता- ‘तुम रहोगे
चन्द्रशेखर’ ने आकार लिया। जाहिर बा, यह
आक्रोश, बेवशी, संकल्प और
स्वप्न के ताने-बाने में बुनी हुई थी- चन्द्रशेखर की सोच, चिन्ता
और इरादे को पुनर्जीवित करने की भूख जगाती हुई। उठाता हूँ कुछ पंक्तियाँ-
चन्द्रशेखर ! क्या तुम चले गये ?………
आज के, कल के विश्वास, प्रकाश, आश
तुम थे चंदू !
जमीन की छाया कल ही तो बनते
खुद को फैलाकर
संकल्प संघर्ष का तुम्हारा सुना था
हमने भी
सिर्फ शब्द नहीं थे, कल
का सच था
और सच का स्वप्न भी।।……
ठीक
एक वर्ष बाद हिन्दी का अग्रधावक, चैकीदार जनकवि हमारे बीच से विदा हुआ।
बाबा नागार्जुन, औघड़ इंसान, कविता पुकारने
वाला, बुद्धि को रगड़कर मांजने वाला एक पहरूवा कवि। यह वर्ष – 1998
रहा। जे. एन. यू. की फिजाओं को अपनी आक्रोशवादी कविताओं से आन्दोलित भी किया था-
औघड़ बाबा ने, परनतु हम कभी उनका साक्षात्कार न कर सके। इस ‘आधुनिक
कबीर’ के अवसान पर एक अहक फूट पड़ी- कविता बनकर- ‘बाबा
नागार्जुन’ शीर्षक से। रमणिका गुप्ता जी ने अपनी ‘युद्धरत
आम आदमी’ पत्रिका में इसे प्रकाशित किया, जो
कि किसी भी साहित्यिक पत्रिका में छपी अपनी पहली कविता थी। याद करता हूँ – वर्ष था
– 2001।
साल-दर-साल
की तरंगों में उठता गिरता, थपेड़े खाता बहता हुआ अड़तालीस पार का जीवन। कलम का युवा खेतिहर बना, सृजन
को निगाहें समर्पित की, साहित्य को कर्मभूमि चुना, पर
आजतक खुद के द्वारा कुछ भी लिखे हुए से आश्वस्त नहीं, तृप्त
नहीं। बल्कि आज खुद के सामने खड़े होकर सवाल खड़ा कर रहा हूँ कि लिखा क्या अब तक, जिसे
समय अपना ले, दिया क्या साहित्य को जो बचने योग्य हो। कोई
प्राणमय कविता, कोई बेलिक विचार, कोई अलग शैली ?
यह अवश्य है कि सृष्टि से, प्रकृति
से, दृश्य और अदृश्य से, सामने और दूर से नैसर्गिक अनुभूतियां
बरस रही हैं चित्त में, आत्मा पर, चेतना
में। बूझ पा रहा कि दिन-रात बरसती अनमोल अनुभूतियों के घटाटोप में भीगने की दुर्लभ
जीवनबेला है, जिसे बता पाने में जुबान तो क्या, कलम
तो क्या, यदि रोम-रोम की जगह जुबान हो जाय तो भी कह नहीं
पाऊँगा। अजीब बेवशी है- नहीं बोलता, नहीं लिखता तो
लगता है सम्पन्न हूँ- जैसी ही कलम उठती है, अनुभूतियेां के
आकाशीपन के आगे बौना और क्षुद्र हो जाता हूँ। ये अनुभूतियां हमें संभाले हुए हैं-
पर मैं इन्हें संभालने लायक नहीं। अब यही ले लीजिए कि जमीन में धंसी सदियों की
जड़ें हमसे संवाद करती हैं कि बताओ ! शिखरत्व आकाश में है या जमीन में, प्राण
वृक्ष में है या माटी में ? सुगंध, फल या हरियाली
वृक्ष से उठती है या माटी से ? दिशाएं सावधान करती हैं- मेरे भ्रम में
न रहना, हम कहीं नहीं हैं – न चार, न
आठ, न ही दस। ये सब दुनियाबी नासमझी है, न कहीं पूरब है
न पश्चिम। एहसासों की उलटबांसी चेतना में इस हद तक गूंजने लगती है कि वृक्षों की
छालें अनगिनत श्रमिकों, किसानों, मजदूरों की चमड़ी
नजर आती है, जिसने जाना तो सिर्फ सहना और जलने के लिए
समर्पित रहना। पास बुलाती हंै गुमनाम घासें जरा हिलती र्हुइं, कहती
हुईं कि स्पर्श कर जानो मेरी कीमत, तुम्हारे खून
में हमारा होना शामिल है। केवल प्रकृति की माया ही क्यों, पढ़े
गये जीवित शब्द सबक सिखाते हैं, नाचते हैं सिर में, पाठ
पढ़ाते हैं – गुरु जैसे, मार्ग दिखाते हैं मशाल बनकर।
पाब्लोनेरूदा, महमूद दरवेश, ब्रेख्त, खलील
जिब्रान, नाजिम हिकमत ऐसी असंख्य प्रतिभाएं हैं जो काया
के कोने-कोने में अनहद ध्वनियां बनकर गूंजती हैं, पुकारती हैं-
पढ़ो नहीं मुझे, पा लो, पी जाओ, जी
जाओ। हम बीत गए पर बीते नहीं हैं। अब नहीं हैं- पर हर कहीं हैं। नाम से भ्रम में
मत पड़ना। अपनी, पराई भाषा के जाल में मत फंसना, देश, विदेश
के बंटवारे में मत उलझ जाना। क्या फर्क पड़ता है कि टालस्टाय रूसी भाषा में आवाज
दिए और प्रेमचन्द हिन्दी में ? ज्योति एक है, चेतना
एक है, तड़पन की अद्वितीयता एक जैसी। मरे हुए बीत गये कबीर को 600
साल, पर दिन में एक बार जरूर भेंट, मुठभेड़़ हो जाती
है- आत्मा के भटकाव में, मस्तिष्क के दरपतन में, कलम
की कायरता में। अपने लिए यह पूरा जगत असंख्य समुद्रों की राजधानी है। रंगों, रूपों, अर्थों, विचारों, अनुभूतियों, प्राणों, आंसुओं
और खुशियों का समुद्र। जिसके ओर-छोर का कुछ पता नहीं। कैसे कहूँ कि मैं दीवाना
गायक हूँ- सृष्टि के समुद्रपन का। कैसे कहूँ कि मेरे शब्द, मेरी
कल्पना, मेरी कला, और रचना धूल के
कण से भी मामूली से भी मामूली है इस मुखर, मौन सृष्टि की
महिमा के आगे। क्यों न कहूँ कि इसकी सत्ता के आगे पराजित होने से बढ़कर विजय न हमें
मिली, न कभी मिल पाएगी। उस दिन, उस घड़ी की
कल्पना करके रोम-रोम से उछल पड़ता हूँ- जब सृष्टि के आश्चर्य में विभोर हृदय केवल
और केवल अकथ विलाप को नाच उठेगा। जब हंसना चाहूँगा खुद पर इतना कि थमने का नाम न
लूंगा। जब दशों दिशाओं को हाथ जोड़ूंगा इस कदर कि अंगुलियों को एक-दूसरे से अलग
करना असंभव हो जाएगा और यही सनक प्रगाढ़ और गहनतम होकर बरसती रहेगी जीवन भर। को
कविवर टैगोर की पंक्तियां उठा लूं तो यही रटूंगा- ‘मरिते चाहिना
आमि सुंदर भुवने।’ क्या हमारी रचना किसी रोते बच्चे को सुला सकती
है ? क्या हत्या के लिए उठे हथियारों को नीचे गिरा सकती है ? क्या
वह बेजुबानों की आवाज बन सकती है ? क्या श्रमिक के
बदन से रक्तनुमा बहते पसीने की जगह ले सकती
है ? यदि हाँ- तो हमें लिखना है- यदि नहीं- तो आज से
लिखने को बाय-बाय कह देना चाहिए।
*****
भरत प्रसाद
प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग
मो. 9774125265
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
याद रहने वाला संस्मरण।
◆ शहंशाह आलम
जीवन,माटी,परिवेश,अंतर बाहर के संघर्ष,कवि आलोचक ,चिंतक भरत प्रसाद को समझने के साथ या उससे ज्यादा जेएनयू और वहाँ के बाहर की दुनिया को समझने की पीड़ा,जिद और बहुत कुछ अनकहे का संस्मरण और जीवन संग्राम की भाषा गद्य का जीवंत संस्मरण…बेमिसाल भरत भाई…
आत्मीय संस्मरण । गाँव, इलाहाबाद और जेएनयू तीनों गुंथे हुए दिखे । आपकी कलम का कमाल है यह ।
न आपने अपने किसी इलाहाबादी और न किसी जेएनयू वाले मित्र का उल्लेख किया । साहित्यप्रेमी युवा (कवि भरत) मित्ररहित विश्वविद्यालयीन संस्मरण लिखे, यह बात हजम नहीं हो रही ।
-बजरंगबिहारी
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