बेचूलाल का भूत उर्फ बेलाकाभू
पंकज मित्र
पंकज मित्र |
से क़यामत तक’ को ‘क्यू एस क्यू टी’ और ‘दिलवाले दुल्हनिया लेजाएँगे’ को
डी डी एल जे कहने का प्रचलन हुआ तकरीबन उसी वक्त यह तय हो गया था कि‘बेचूलाल
का भूत’ को ‘बे ला का भू’ कहा जाएगा, हालाँकि इसकी और कई ठोस
किस्म की वजहें भी थीं। मसलन बेचूलाल खुद इस बात के सख्त खिलाफ था कि उसका पूरा
नाम ‘बेचूलाल गुप्ता’ (जो कि उसकी नज़र में एक निहायत ही पिछड़ा और बोदा नाम
था) सार्वजनिक रूप से पुकारा जाए और दूसरी वजह यह कि ‘बे
ला का भू’ में एक भयोत्पादक ध्वनि है जो भूत-प्रेत वगैरह के अस्तित्व रक्षा के लिए
बहुत जरूरी भी है। वैसे पूरा यकीन न हो तो किसी बच्चे के सामने ज़रा भारी आवाज में ‘बे
ला का भू’ बोलकर देख लें। लेकिन ये बातें तो तब हो रही है जब बेचूलाल का भूत मोहल्ले
में एक स्थापित भूत हो चुका है। हालाँकि बहुत सारे लोग अब भी ऐसे हैं जो बेचूलाल
की मौत की खबर को ही पक्की नहीं मानते तो उसक भूत हो जाना तो दूर की बात है। -‘‘दुर
सरवा, पूरा खान्दाने झूट्ठा हौ जी। एकर बाप हलौ कारेलाल गुप्ता। सब भूंइवन के नाम
के फर्जी राशन कार्ड बनाके, फौल्स यूनिट देखाके, अब चीनी आर मट्टी तेलवा बेच
हलथु। ओकरे ने बेटा ही बेचुआ। अभिए तो एक हफ्ता पहले महतोजी देखलथु बेचुआ के सेठ
महल्ला के गलियें-गली छछून्दर ऐसन भागते। केतना आवाज देलथु महतोजी जी-ए बेचू!
काहेला सुनती। एकदम तिडिंग पों…।’’
ये विस्तृत मौलिक टिप्पणी थी मिसिर
बाबा की जो रोज आस-पड़ोस के शौकिया बगीचियों से अलसुबह फूल तोड़ते थे, कभी-कभी
तो सबको आश्चर्यचकित करते हुए इस उमर में भी धोती समेटकर छोटे-मोटे गेटों को फलाँग
जाते। ‘बड़ा ही तेज चैनल’’ के नाम से मोहल्ले में बिख्यात।
-‘‘मिसिर बाबा तू तो ऐसने बोला हौ। अरे महतोजी के साँझ के
बेरिया सूझऽ हौ कुच्छो। पेठियाटाँड में कोबी-टमाटर बेच हथु। फेर उहैं दम तक चढ़ाके
हो गेलथु जब सिरी राम। जहिया से बेचुआ महतोजी के पैसवा डुबौलको तभिए से ओकरा सब
दने (सभी दिशाओं से) बस बेचुए नजर आव हो। मोरल आदमी अब कहाँ (मरा हुआ आदमी अब
कहाँ)….’’ –रजुआ की चाय दुकान पर किसी ने पिनका दिया।
-‘‘तोहरिन से तो बोलने बेकार हौ। जानों हि बार नै पढ़ो
लागल है अखबार। मोरल आदमी! हुँह! जै सिरी सीताराम।’’ –कहते
हुए गिसिर बाबा आगे बढ़ गए रजुआ की चाय दुकान से मोड़ तक। वहाँ पर सब्जीवालियाँ
बैठती हैं। उनसे हँसी-ठिठोली करना दिनचर्या में शामिल है मिसिर बाबा के-‘‘कैसे
करैला महतोआयन‘‘
–मिचमिचाती हुई मुस्की के साथ…। -‘‘मर
बुढ़वा, मरबो नाय करो है (मरता भी नहीं)’’-महतोआइन का पलटवार मिसिर
बाबा के द्विअर्थी संवाद (करैला सब्जी भी है और करवाया भी) के जवाब मे।
-‘‘बेचुआ के भूत नाय मिलो हो तोहरिन के?’’- मिसिर
बाबा हँसकर पूछते हैं। महतोजी तो पूरे विश्वास के साथ कहते हैं कि उन्होंने किसी
और को नहीं, बेचूलाल को ही देखा था, वो भी ज़िन्दा। अलबत्ता दाढ़ी-बाल बढ़े हुए थे उसके। कुछ
बिड़-बिड़ करता हुआ,
सहमी-सहमी चाल, छोटे-छोटे कदमों से लेकिन
तेज-तेज चलता हुआ,
इधर-उधर देखता…. पुकार सुनते ही और तेज चलने लगा था। शाम के
समय महतोजी को वैसे देखने में दिक्कत होती थी – कुछ आँखों की तकलीफ,
कुछ संध्या टॉनिक का असर। फिर भी दावा है कि उनका, वह कोई और नहीं बेचुआ ही
था- ‘‘फटाक दने केन्ने बिला गया।’’
-‘‘एही, एही तो भूत का मेन क्वालिटी है। फटाक दने बिला जाता
है।’’ –चंदर ने टिप्पणी जड़ी थी- ‘‘जब तक लंगटा बाबा को बोलाके
ग्रह-शान्ति नहीं होगा बेचुआ के आत्मा को शान्ति नहीं मिलेगा।‘‘ – अपनी
छोटी-सी स्टेशनरी दुकान में टंगी लंगटा बाबा की तस्वीर को प्रणाम किया था।
आँखें बन्द करते ही सिहर उठता था
चंदर। बेचू की पत्नी का उस दिन का वह रूप….। महतोजी सांध्य टॉनिक के प्रभाव में
थे। पहुँच गए पूछने-‘‘बेचू आया था क्या?‘‘ बस फिर क्या था?
मर्दसूरत-गर्मसीरत बेचू की पत्नी खड्गहस्त। मर्दानी आवाज में फोश गालियाँ। महतो को
भागने का रास्ता न सूझे। आसपास के लोग जमा हो गए। भीड़ देखते ही और भी उग्रतारा…।
फिर हूँ-हूँ-हूँ,
गों-गों करते हुए लाल-लाल आँखें करके, बाल
खोलकर बैठ गई धरती पर, डोलने लगी-हूँ-हूँ-गों-गों। ज़रूर बेचूलाल का भूत ही
सवार हो गया होगा उस पर, तिस पर मंगल का दिन-शक की कोई गुंजाइश ही नहीं-‘‘भूत-प्रेत
निकट नहीं आवे, महावीर जब नाम सुनावे’-चंदर बार-बार लंगटा बाबा की तस्वीर के पास चला जाता
है। खासकर मंगल और शनिवार को तो अगबत्ती जलाना बिल्कुल नहीं भूलता। यह डर और बढ़
जाता है जब तकरीबन रोज शाम और शनिवार को तो निश्चित रूप से। काली किनारी की सफेद
साड़ी पहने बेचू की पत्नी को बुढ़वा पीपल के नीचे दीया जलाने उसी ओर जाते देखता है, जिधर
कारेलाल गुप्ता का कभी पुश्तैनी मकान था और पुटूस की झाड़ियों से इस कदर घिर गया था
कि दूर से सिर्फ मकान का आधा गिरा हुआ छप्पर ही नजर आता था। एक भुतहा किस्म का
तालाब था जिसे इलाके के लोग प्यार से मीठा तालाब कहते थे। इन झारियों का सदुपयोग
तालाब के उस पार की भुँइया टोली की औरतें शाम के वक्त प्राकृतिक पुकार का
प्रत्युत्तर देने में करती थीं और कभी-कभी प्रेम में अतृप्त-तृप्त-संतृप्त आत्माओं
से भी टकरा जाती थीं। मीठा तालाब का अब इतना योगदान रह गया था कि प्रेम या परीक्षा
में असफल किशोर-किशोरियों को आत्महत्या की प्रेरणा देता था या फिर कुँआरी माँओं के
बच्चे से छुटकारा पाने का स्थान मुहैया कराता। अब जब ऐसा परिदृश्य हो और शाम के धुँधलके
में मर्दसूरत-गर्मसीरत एक औरत सफेद साड़ी में बुढ़वा पीपल के नीचे दीया जलाने जा रही
हो तो बजता क्या है-सिर्फ डरावना संगीत और पृष्ठभूमि में गूँजती लता मंगेशकर की
आवाज ही न ‘‘होऽऽ-ओ-ओ कहीं दिल….जरा देख ले आकर परवाने-ए-ए…’’
अब चंदर की तो हिम्मत भी नहीं थी
कि जाकर देखता। कई बार रात में दुकान में सोए-सोए उसने देखा भी है वो रोशनी का
नाच। अधगिरे मकान में टिमटिमाती-सी रोशनी कभी उधर। कभी उधर-चादर को अच्छी तरह ओढ़कर
गुड़ी-मुड़ी हो गया है ऐसे मौकों पर चंदर। यहाँ तक कि पेशाब का कार्यक्रम भी स्थगित
कर दिया है उसने। अब उसकी दुकान ही ऐसी जगह पर थी कि कोई भी आए, बेचूलाल
के भूत की चर्चा निकलती ही थी। एक तो चंदर के बचपन का दोस्त और सामने ही वह पूरा
डरावना लैंडरस्केप-पुटूस की झाड़ियों के बीच अधगिरा मकान। फिर मींठा तालाब जिसे कुछ
डरपोक किस्म के लोग भुतहा तालाब भी कहने लगे थे-गाढ़े काले अँधेरे के साम्राज्य के
उस पार से भुंइयाँ टोली की एकाध टिमटिमाती रोशनी… अब ऐसे में बेचूलाल के भूत की
चर्चा निकल जाए तो किसका दोष? वैसे भी जब भूत की चर्चा है तो आसपास ही कहीं होता है
भूत-ऐसा मानता था चंदर।
लेकिन भूत बना कब बेचूलाल और मौत
ही कब हुई थी उसकी?
मौत के बारे में निश्चित तौर पर तो कुछ कहा नहीं जा सकता।
वहीं मायके से लौटकर जो बेचू के अचानक लापता हो जाने की कहानी उसकी बीवी ने सुनाई
थी वही न? और ज्यादातर लोगों ने यकीन कर लिया था कि जिन हालातों का सामना कर रहा था
बेचू, उसमें आत्महत्या के अलावा और सोचा क्या जा सकता था और आत्महत्या के बाद तो
भूत हो जाना तय है। एक दिन बल्कि, एक रात तो दिखा भी था उसको यानी चंदर को या शायद बहम
रहा हो सिर्फ उसका। किसी से कह भी तो नहीं सकता। लोगों का क्या है, खासकर
मिसिर बाबा तो तेज चैनल की गति से फैला देते खबर और बेचू का भूत आकर चंदर का
टेंटुआ दवा देता एक रात-जैसा कहा था भूत ने। लंगटा बाबा की तस्वीर के सामने जाकर
धकाधक प्रणाम करने लगा चंदर। कितनी बार कहा है छोटे भाई को आकर दुकान में सोने, लेकिन
सुनता कहाँ है? आवारा है पूरा। दुकान में आकर सोएगा तो मुहल्ले
के शोहदों के साथ नाइट शो पिक्चर
कैसे जाएगा। इतनी दूर से…. -‘‘ढन-ढन, ढन-चंदर, ऐ
चंदर, माचिस दें तो‘‘- चंदर ने टीन के दरवाजे में एक छोटी-सी फाँक रखी थी, उसी
से देखा, चाँदनी रात थी-एक दाढ़ी-मूँछों से भरा चेहरा, अस्त-व्यस्त, गन्दे-शन्दे
हुलियेवाला एक आदमी,
आँखें लाल-लाल, उसी फाँक से झाँक रहा है।
चाँद की रोशनी में उसके पीले दाँत और पीले और दाढ़ी-मूँछें काली-पीली लग रही थीं। ‘जय
हनुमान ज्ञान गुणसागर’-ये तो बेचू है-बारह-एक तो बज ही रहा होगा।
-‘‘तू तो जानता है न चंदर सब बात। हमने पैसा नहीं मारा
किसी का’’ –आसमान में किसी से सम्बोधित था बेचूलाल-‘‘सबका पैसा लौटा दूँगा-दे दे
माचिस दे।’’ चंदर के हाथ ने खुद-ब-खुद माचिस को फाँक से बाहर गिरा दिया। माचिस लेकर वह
दाढ़ी-मूँछोंवाला (अगर वह बेचूलाल ही था) हल्का-सा लँगड़ता हुआ चला गया। थोड़ी दूर पर
एक बीड़ी या सिगरेट जैसी चीज़ सुलगाई और बढ़ गया था उसी अधगिरे छप्परवाले मकान की ओर।
चंदर ने दुबारा फाँक से झाँका तो वह कहीं नहीं था। आपादमस्तक चादर ओढ़कर ‘महावीर
विक्रम बजरंगी’-सुना था भूत तो आग वगैरह से डरते हैं फिर….लेकिन भूतों के बीड़ी-सिगरेट
माँगने के किस्से भी तो हैं ही। उसी रात सपने में देखा था चंदर ने-उसके सीने पर
बेचूलाल का भूत बैठकर कह रहा है-‘टेंटुआ दबा दूँगा अगर किसी से कहा मेरे बारे में।’’ अब
यह सपना था या सच,
चंदर दावे से कह नहीं सकता। फिर भी सच मानते हुए कहा नहीं
किसी से भी…सुबह दरवाजे के बाहर माचिस भी गिरी हुई मिली थी… लेकिन बेचू और
इतना गन्दा-शन्दा हुलिया! कहाँ तो हरदम टंच रहने की आदत उसकी! यही आदत तो कई लोगों
के दिलों में हसद पैदा करती रहती थी बराबर। -‘‘आर जे कहीं के जज्ज कलट्टर
रहतिऔ बेचुआ। घरे-घर पैसा जमा करले चलो हों आर पादो हौ फुटानी।’’ चंदर
भी साथ लगा हुआ था उन दिनों बेचूलाल के-नहीं बी.एल. के-‘मायसेल्फ
बी.एल.गुप्ता फ्रॉम मोर एण्ड मोर इन्वेस्टमेन्ट्स एण्ड मार्केटिंग’-अरे
चंदरवा हमर बाप हलौ न एक नम्बर के चपंडूक। एगो नाम भी ढंग के नाय रखलकौ जी। बेचू!
हुँह! कोय नाम होलौ जी।’’ उसके नाम का इतिहास मालूम है, मिसिर
बाबा को। हालाँकि बेचूलाल कोई इतनी बड़ी हस्ती नहीं था कि उसके नाम पर शोध हो, लेकिन
लोग कहते हैं नाम का कुछ असर पड़ता है। कारेलाल गुप्ता के घर जब लगातार दो सन्तानों
की प्रसव काल में ही मृत्यु हो गई तो लोगों ने कहा कि ये भुंइयाटोली की औरतों का
शाप है जो हर बार किरासन तेल लेकर जाते वक्त तालाब के पास गुजरते हुए कहती जाती
थीं-‘‘निपूतरा मोरवो नाय करो है कारेललवा। अबरियों आधे लीटर मिट्टी तेलवा देलको।’’ शाप-ताप, नजर-गुजर
की काट यूँ हुई कि किसी ने टोटका बताया-इस बार सन्तान हो तो किसी भुँइया को बेच
दो-एक रूपया लेकर और फिर सात रूपया देकर खरीद लो। टोटका काम कर गया। फेंकनी की माय
जो घर का चैका-बरतन करने आती थी उसी को बेच दिया गया नवजात शिशु को और तभी से नाम
पड़ गया बेचूलाल और सात तो नहीं, पाँच रूपये में वापस खरीद लिया। कारेलाल गुप्ता ने आज
तक कोई भी चीज बिना मोल-भाव के खरीदी ही न थी तो बेटा क्या चीज था। बेचूलाल भी जुट
गए बचपन से ही अपने नाम को सार्थक करने में – पूत के पाँव पालने में देखे जाते हैं
और भूत के पाँव उल्टे हैं कि नहीं देखा जाता है। -‘‘बूझलहिं चंदर! हमर बाबा तो
हलौ बड़का तान्त्रिक। एक से एक जब्बर भूत के काबू करलथु। उहें बतैलथु जेकरा पर शक
है टंगरिया देख। तलुआ देख सीधा हौ कि उल्टा…. मर सरवा इ उल्टा खोपड़ी एन्ने काहे
ऐते हो….?
चंदर ने देखा बेचू की पत्नी थी।
कुछ अस्त-व्यस्त कुछ खोई-सी आँखें लाल, परेशान दिख रही थी।
-‘‘चंदर जी, सोफ्रामायसिन है दीजिए तो।’’
-‘‘क्या हुआ भाभी….किसको…’’
-‘‘इनको पैर में चूहा कुतर दिया है… रात को। एतना
पुराना घर है….।’’
-‘‘किनको….पुराना घर….किसके बारे में बोल रही है भाभी?’’
बेचू की बीवी सँभली। अचकचाकर मिसिर
बाबा को देखा। मिसिर बाबा इधर-उधर देखने लगे मानो कुछ सुना ही नहीं।
-‘‘अरे छोटेवाले को। एतना चूहा हो गया है घर में….।’’
सोफ्रामायसिन लेकर चली गई बेचू की
बीवी अन्यमनस्क-सी जैसे आई थी वैसे ही।
-‘‘कुच्छो बूझलहिं चंदर बाबू! हम कहैत कियौ न बेचूए के
पैर कुतुर देलकौ चूहवा। उ राते जरूर नुका (छिपा) के सुती हौ कारेलालवाला घरवा में।‘‘
-‘‘नाय बाबा! एतना आदमियन में कोय ना देखलौ जी अभी तक।’’
-‘‘देखतौ रे देखतौ….’’ मिसिर बाबा न भविष्यवाणी
की-‘सम्भे देखतो धीरे-धीरे। भूतवैन भी कहाँ जैथु। ओन्ने तालाब प्लाटिंग कर
देलथु, बड़का इमलिया के गछवा भी कट के मकान बनना शुरू हो गेलों, त
भूतवैन रहथु कहाँ?
वोही से न बेचुआ के भूत ढबढियैले (घूमता) चलो हौ टाउन में।’’
–मिसिर बाबा की चिर-परिचित मुस्की।
दूसरे दिन बेचू के दोनों बच्चे टॉफी
लेने आए स्कूल जाते वक्त तो चंदर ने खासतौर से छोटेवाले की पैर की तरफ देखा…नहीं, कहीं
कोई घाव का निशान नहीं।
-‘‘का छोटू! कहाँ पर काटा चूहा? दिखाओ
पैर दिखाओ?’’ बड़ेवाले ने बरजा-‘‘चल छोटू! ममी ने मना किया न किसी से बात करने। चल….!’’ दोनों
दौड़ गए। चंदर को बेचूलाल के भूत की हल्की-सी लंगड़ाती चाल याद आई।
हल्की-सी परमानेन्ट रूप से लंगड़ाती
चाल थी कारेलाल गुप्ता की भी फीलपाँव के कारण और चंदर ने देखा था कई बार फीलपाँव
वाले पैर से ही बेचू को लात खाते। बेचू ने जब कई बार अपने नाम को सार्थक करने के
चक्कर में कुछ खरीदने-बेचने का धंधा किया था। पाँचवीं-छठी में रहा होगा बेचू। एक
दिन कापियों-किताबों के साथ गया स्कूल, लौटा सिर्फ कॉपियों के साथ।
बाप के सामने मुँह बनाकर कह दिया स्कूल में चोरी हो गई। गद्द से पीठ पर लात पड़ी थी
–‘‘सूरतहराम! पढ़ना-लिखना साढ़े-सत्ताईस।’’ सबेरे पड़ोस के स्टेशनरी वाले
लल्लूलालजी एक लड़के का कान पकड़े हाजिर-‘‘देख तो कारेलाल भाय! तोर
बेटवा के किताब हौ?
नाम लिखल हौ-इ आयल हलथू बेचे।’’ लड़का रूआँसा-‘‘बेचुए
तो इ बेचा था हमको। पूछिए न चंदरवा से भी। इ भी तो खाया था हरिललवा का चाट वोहीं
पैसा से।’’ चंदर एक-दो-तीन। स्कूल के बाहर ठेला लगानेवाले एक हाथ से बार-बार नाक
पोंछनेवाले हरिलाल के हाथों में जादू था और स्कूल के बच्चों के लिए स्थायी
प्रलोभन। बेचू ने कई बार चाट खिलाकर चंदर समेत कई दोस्तों को अपना मुरीद बना लिया
था। इतना पक्का कि बहुत बाद में चंदर की मौसेरी बहन से बेचू के इश्क फरमाने पर भी
उसने कुछ नहीं कहा उल्टे कासिद की भूमिका निभाता रहा। ये भूमिका तभी समाप्त हुई जब
प्रेम संदेशों की एक कॉमन नोटबुक बेचू ने फिर बेच दी थी। चंदर की मौसेरी बहन और
बेचू के प्रेम की प्रतीक वह नोटबुक जिसमें दोनों प्रेमी बारी-बारी से अपने दिलों
की बाते लिखते थे और चंदर इधर-उधर पहुँचाता रहता था-एक रहस्यमयी, कीमती
वस्तु की तरह सुरक्षित। पर बेचू ने एक इलेक्ट्रानिक घड़ी और एक काले गॉगल्स के बदले
वह नोटबुक दे दी थी चंदर की मौसेरी बहन के एक उम्मीदवार प्रेमी को, इस
मुफ्त वादे के साथ कि अब कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा उससे। चंदर को तकलीफ हुई थी और जी
मैं आया था उसके कि बेचू का बाप आपने फीलपाँव वाले पैर से गद्द से एक लात जमाता
बेचू की पीठ पर तो कितना अच्छा
होता लेकिन यह हो नहीं पाया था। उस
वक्त और आखिरी बार जब पाँव उठा था तो उठा ही रह गया था और कारेलाल गुप्ता
का पूरा शरीर थरथराता हुआ गद्द से गिर पड़ा था जमीन पर। यह चित्रगुप्त पूजा के कुछ
दिनों के बाद की बात थी।
मोहल्ले में चार-पाँच घर कायस्थों
के थे जो हर साल सार्वजनिक रूप से पूजा करते थे चित्रगुप्त महाराज की। दरअसल वक्त
तब तक वैसा न हुआ था कि एक खास जाति-समुदाय की कोई पूजा हो और दूसरे लोग शामिल न
होते हों। मसलन चित्रगुप्त पूजा में जब मोहल्ले के कायस्थ लड़कों ने बेचूलाल को
खजांची बनाने का विरोध किया तो उन्हीं में से कुछ ने कहा-‘‘बनने
दो। बेचू है तो अपना दोस्त ही न।’’ बेचूलाल गुप्ता ने हँसते हुए कहा था-‘‘देख
भाय, भगवान के नाम देख ले न…गुप्ता जीए के न पूजा हों चित्रगुप्त माने शॉर्ट
में सी.एच. गुप्ता। हमहियौ बी.एल. गुप्ता तो तोहरिन के कौन प्राब्लम हौ?’’ लड़के
हँस पड़े थे। वैसे भी बेचू की वाणिज्यिक और हिसाब-किताब सम्बन्धी दक्षता पर किसी को
कोई संदेह न था। दरअसल उसका शुमार उन लोगों में होता था जो रेल के बर्थ के नीचे
कितने इंच की जगह होती है, यह भी सही-सही बता सकता है ताकि सामान का कार्टन कितना
बड़ा हो कि पूरी तरह फिट हो जाए। पर जब चित्रगुप्त महाराज की मूर्ति आई तो सबको शक
हुआ क्योंकि चित्रगुप्त महाराज कुछ ज्यादा ही बलिष्ठ लग रहे थे-उभरी हुई
मांसपेशियाँ, हाथों की मुद्राएँ भी कुछ अलग ही। मुश्किल तो तब हो गई जब लेखनी-कटनी-दवात
वगैरह पकड़ाने का वक्त आया तो हाथों में दवात समाए न कलम। बेचू जितनी ज्यादा
सक्रियता दिखाए,
लड़कों के मन में शक गहराए-‘‘अरे दवात नै फिट हो तो धागा
बाँध के लटका दे न और कलम पकड़ा दे न ऐसे।’’
-‘‘अरे कलम ऐसे हथौड़ी टाइप से थोड़े पकड़ल जाहौ जी’’ – किसी
ने शंका ताहिर की।
-‘‘त का करबहीं, कुम्हरवा ऐसन बनाइए देलकौ’’ –बेचू।
–कोन कुम्हरवा के औडर हलो जी’’ – आशंका-आक्रोश।
-‘‘छोड़ न अब, अबरी पूजा करवे कि कुम्हरवा
से लड़े जैबे’’ –बेचू ने लपेटा। खैरं किसी तरह पूजा-वूजा सम्पन्न हुई, हिसाब-किताब
के समय फिर बवाल- मूर्ति-250/- सभी बमक गए- ‘‘हर साल तो सौ-सवा सौ में
आता है।’’
-‘‘अरे भाय! महँगाई बढ़ न गया है।’’ –बेचू
ने सफाई दी।
-‘‘चल तो देखें कोन कुम्हरवा मूर्ति दिया। एक तो साला
मूर्ति का डिजाइन दोसरे कर दिया और पैसा भी जादे’’- लड़के चले, रास्ते
से बेचू खिसक लिया और कुम्हार के यहाँ से लौटकर लड़के बेचूलाल को ज्यादा शिद्दत से
ढूँढ़ रहे थे। रहस्य पर से पर्दा उठ चुका था। कुम्हार ने लड़कों के धौल-धप्पे के डर
से सारी बात उगल दी थी- ‘‘असल में मूर्तिया हलो बिसकर्मा जी के। बिसकर्मा पूजा
में बच गेलौ ई वाला मूर्ति तो बेचू बाबू बोललो कि एकरे रंग-पेन्ट कर दे आर दे दे।
सत्तर रूपिया में फरिया लेलकौ।’’ बेचूलाल की मरकर भूत हो चुकी माँ-बहनों के साथ तरह-तरह
के सम्भव-असम्भव किस्म के सम्बन्ध बनाते हुए और ढूँढ़ते रहे बेचू को। –‘‘मामा
के यहाँ चला गया है बेचुआ, काहे का बात है’’-कारेलाल गुप्ता ने खाँसते
हुए और फीलपाँव को सहलाते हुए पूछा था। फिर सारी बात सुनकर-‘‘आवे
दे सार के’’ और फिर एक शाम जब पिछले दरवाजे से चुपचाप घुस रहा था बेचू गद्द से पीठ पर
मारने के लिए पाँव उठाया तो वही घटना हो गई जब पाँव उठा ही रह गया था और
थकथकाकर….दरअसल सिर्फ गिरे थे उस रात कारेलाल, भरभरा तो पहले ही गए थे।
मिट्टी तेल के घपले में दुकान का लाइसेन्स कैन्सिल हो चुका था। खर्चा चलाने के लिए
मकान में एक किराएदार रखा तो मुकद्दमेबाजी हो गई और सरकारी दर पर किराया फिक्स
करवा दिया था। पाँव उठाने से पहले बाप-बेटे में बाकायदा बहस भी हुई थी जिसमें
नैतिकता-अनैतिकता,
धर्म-अधर्म पर विमर्श जैसा हुआ और बेचूलाल ने घोषणा की थी कि
बड़े-बड़े लोग जब कमीशन पर जी-खा रहे हैं तो उसने कौन-सा गुनाह कर दिया। बेचूलाल की
इस घोषणा से कुछ दिन पहले विद्वान प्रधानमंत्री और विशेषज्ञ वित्तमन्त्री ने देश
के दरवाजे-खिड़कियाँ हर तरह की हवाओं के लिए पूरी तरह खोलने की घोषणा की थी और
बाजार की उमगती-इठलाती लहर में सुटकेस इधर-उधर जाने लगे थे-हो सकता है बेचूलाल की
घोषणा भी इस भुतही हवा से प्रभावित रही हो।
मिसिर बाबा हमेशा परेशान रहने लगे
थे उन दिनों बेचू की ‘हावागाड़ी’ देखकर। मोटरबाइक को
हावागाड़ी कहते थे बाबा-’’आँय रे चंदर, इ कौन एजेन्टी करो लागल हौ
बेचुवा जेकरा में तुरन्ते हावागाड़ी मिल गिलौ। कारेलाल मरलो तो महतो के घरे
खाना-पीना करो हलौ,
लागो हलौ एकदम टूअर जैसन। त महतो कै महिना खरचा पानी चलैलको
ओकर। अब कारेललवा के गाड़ल कोनो खजाना-उजाना मिल गेलौ का रे बेचुआ के? के
जानो बप्पा-सड़लो तेली तो नौ सौ अधेली।’’ लेकिन चंदर को तो मालूम ही
था कि नौ सौ क्या एक अधेली भी छोड़कर नहीं गए कारेलाल। वो तो महतो जी ने माथे पर
हाथ रख दिया बेचू के, नहीं तो खाना-पीना पर भी आफत था। अपने किसी
मोटरपम्पवाले परिचित को कहकर बतौर कमीशन एजेन्ट रखवा दिया और कुछ समय का तकाजा कि
अब तक ऐसा दौर आ चुका था जब कमीशन एजेन्ट को दलाल, दल्ला, जोंक
आदि अपमानजनक शब्दों से नहीं नवाजा जाता था बल्कि कुछ हद तक इज्जतदार व्यवसाय माना
जाने लगा था। ये भी शायद उन्हीं खुशगवार हवाओं का असर रहा होगा। बेचू भूत की तरह
खटता-आसपास के किसानों से सम्पर्क कर एजेन्सी के लिए ऑर्डर लाना, डेमो
(प्रदर्शन) करना,
दुकानदारों से राब्ता कायम करना, फिर
शाम को शहर में एल.आई.सी. का कुछ काम-एकबग्धा भूत की तरह काम-काम और काम – बदले
में सिर्फ पैसा,
पैसा और पैसा…. साइकिल से खटारा स्कूटर और फिर सेकण्ड हैण्ड
बाइक से नई चमचमाती हीरो होण्डा (इसे ही मिसिर बाबा हावागाड़ी कहते थे) की सीढ़ियाँ
जल्दी-जल्दी चढ़ गया था वह। इस सीढ़ी को स्वर्ग तक की सीढ़ी बना देने का वादा करते
हुए ओ.पी. सर ने उन्हीं दिनों बेचूलाल के जीवन में एन्ट्री मारी थी। ओ.पी. सर…
क्या हैण्डसम पर्सनालिटी। जोडियक के सी. ग्रीन शर्ट, रीड एवं टेलर के बॉटल ग्रीन
सूट और मैरून सिल्क टाई-पास से गुजरते तो खुशबू का एक बवंडर-सा उठता था। परिचय
करानेवाले ने बताया था कि कई बार तो फिल्मों के लिए ऑफर मिल चुका है ओ. पी. सर को, जिसे
ठुकरा देना पड़ा था उतना टाइम ही कहाँ था उनके पास? एक नई दुनिया का दर्शन
करानेवाले ओ.पी. सर को शायद कुछ ज्यादा गदगद होकर ओ.पी. भइया कह गया था बेचू।
ओ.पी. सर ने इण्डिया किंग की डिब्बी से एक सिगरेट निकालकर बड़ी अदा के साथ एक
गोल्डन म्यूजिकल लाइटर से सुलगाया। बेचू मुग्ध होकर देखता रहा-‘‘लुक
बी. एल.!’’ बेचू इधर-उधर देखने लगा, किसे कह रहे हैं। अरे! उसे ही कह रहे हैं बी. एल., कितना
अच्छा लगा सुनने में बी. एल…ल…ल…ल…गूँजती रही आवाज।
-‘‘दिस इज बिजनेस। यहाँ भइया, चाचा
ये सब नहीं चलता है। गीता पढ़ी है तुमने? कोई किसी का नहीं है। सब
अपना काम करने आए हैं। सो कॉल मी ओनली ओ. पी. और ओ. पी. सर, अण्डरस्टैण्ड!’’ बेचू को सकपकाते देखकर एक
परफेक्ट क्लोजअप स्माइल-‘‘सीख जाओगे धीरे-धीरे। सुना है तुम्हारे बारे में। तुम
एसेट हो सकते हो हमारी कम्पनी के लिए। कल ऑफिस में आना। मोर-एण्ड-मोर
इन्वेस्टमेन्ट के बारे में हम बाते करेंगे। कहाँ इन छोटे-मोटे कामों में फँसे हो, लाइफ
स्पॉयल कर रहे हो अपना। लाइफ में कुछ बड़ा करना है तो बड़े सपने चाहिए। डैम बिग
ड्रीम्स।’’
चंदर के सपने पर भी बेचूलाल का भूत
कब्जा जमाए बैठा था। उसे लगा फिर किसी ने उसके टीन के दरवाजे पर ढन-ढन किया
है-पसीने-पसीने चंदर…खर्र….खर्र की आवाज, जैसे नाखूनों से दरवाजे को
खरोंच रहा हो कोई-जय हनुमान… वही पुराना हथियार, हनुमान चालीसा का और सुमिरन
लंगटा बाबा का – यही बचा सकते थे उसे। उसी फाँक से आँख सटाकर देखा तो कोई
नहीं-खर्र-खर्र-अरे! से कानी कुतिया है जो ठण्ड से बचने के लिए घुसना चाहती थी।
तभी नजर दूर कारेलाल के अधगिरे घर की तरफ गई, तो जी धक से रह गया। ठीक
बेचू की तरह की आकृति का एक आदमी बुढ़वा पीपल के पास टहल रहा था-दाढ़ी-मूँछोंवाला
मुँह, मुँह के पास जलती-बुझती चिनगारी। मिसिर बाबा से चर्चा की तो-‘‘दुर
पगला! हम हियो न जी। बाबा से तनी-मनी तन्तर-मन्तर हम भी सिखलियो। बेचूआ के भूत के
काबू में करवो एक दिन, देख लिहौ। अरे सरवा! जे मोरबे नाय करलो जी, ओकर
भूत कैसन? कोई देखलको,
बेचूआ के लहाश?’’ सच भी तो यही था, किसी
ने देखी नहीं थी बेचू की लाश। देखता भी तो कैसे, सपरिवार अपने ससुराल गया था
रातों-रात और वापस लौटी थी सिर्फ बेचू की बीवी सफेद साड़ी में दोनों बच्चों के साथ।
किसी ने टोका था पहली बार तो लगी भलर-भलर रोने और फिर वही गों-गों, लाल-लाल
आँखें। बाल खोलकर धरती पर बैठकर डोलना, वही डरावना रूप। तब पहली
बार देखा था सबने। हर मंगल-शनिवार को भुइयाँ टोली की औरत आने लगी थीं ढोल-झाल
लेकर। सवाल पूछे जाते, मरदानी आवाज में जवाब मिलता। लेकिन ये सब तो बहुत बाद
की बातें हैं, उस वक्त तो ओ. पी. सर का जिन्दा भूत बेचू के ऊपर चढ़ा हुआ था। दिन-रात बस
ओ. पी. सर ने ये कहा…. ओ. पी. सर ने वो कहा…महतोजी से आर्शीवाद लेने गया था
बेचू-‘‘चचा, नया काम शुरू कर लियौ, तू भी लगा दे पैसा, डेढ़ साल में दुगुना करके
लौटेबो। मार्केट में भी ना मिलतौ इतना सूद।’’ महतोजी पुराने आदमी थे। तब
तो हँसकर टाल गये थे। लेकिन टाल कहाँ सके ज्यादा दिन? ओ.
पी. सर ने कह जो दिया था बेचू को-‘‘कोई दादा, भइया, चाचा
नहीं। सब तुम्हारे क्लाइंट्स है। कोशिश करते रहो, ट्राई ट्राई एण्ड ट्राई।
चेज बिग ड्रीम्स। क्या कहा है माडर्न गुरू शिव खेड़ा ने? नाम
सुना है या नहीं?
अब तो हिन्दी में भी आ गई है। पढ़ो ‘यू
कैन विन’। क्या बात कही है! एकदम कोटेबल कोट है- ‘‘अ सक्सेसफुल मैन इजन्ट डू
डिफ्रेन्ट थिंग्स,
ही डज ओन्ली डिफ्रेन्टली।’’ मतलब अलग तरीके से। ‘‘डू
थिंग्स डिफ्रेन्टली।’’ अब इतनी तो अंगे्रजी सीख ही गया था बेचू घिस-घिसकर। तो
डिफ्रेन्टली ये किया उसने कि महतोजी को पटाया, शकीला बुआ को मजबूर कर दिया
कि अपने मरे हुए पति के पैसे को लगा दे, नारायण चा को फुसलाया कि
अपने रिटायरमेन्ट के बाद मिले पैसे को इतने कम समय में दुगुना करने का इससे अच्छा
मौका नहीं आयेगा कभी। हवाओं में लखपति, करोड़पति बनने के सपनों के
रंगीन बुलबुले तैर रहे थे। इन बुलबुलों ने भी उनके मनों को रँगा थोड़ा। कुछ महीनों
में भारी ब्याज के साथ कुछ लोगों के पैसे भी, मिसिर बाबा पछताने लगे कि
क्यों नहीं बेचू की बात मानकर कुछ पैसा लगा दिए। खैर, अभी
भी कुछ बिगड़ा थोड़े ही था। बिगड़ने से पहले महतो चा जो पादकर मुट्ठी बाँध लेने के
लिए मशहूर थे, अपनी गाढ़ी कमाई को दुगुना-तिगुना करने का सपना पाल बैठे थे। आखिर बेचू भी
तो है बीच में। ओ. पी. सर खुश थे बेचू से-‘‘गुड गोइंग बी.एल.। जल्दी ही
एक्जीक्यूटिव कटेगरी में जाओगे।’’ शिव खेड़ा की किताब रोज रात को सोने से पहले धर्मग्रन्थ
की तरह पढ़ने लगा था बेचू। नीचे के एजेन्टों को प्रवचन भी देता था-‘‘जो
कन्विंस ना हो हमको बोलो, हम चलेंगे साथ, सपना दिखाओ। अभी के समय में
दो का चार कौन नहीं करना चाहता। पैसा तो उड़ रहा है, खाली पकड़ने का काम है।’’ एकदम
ओ. पी. सर की तरह महसूस करने लगा था बेचू।
रामस्वरूप वकील ने उसी दौर में बड़ी
तैयारी के साथ पकड़ लिया था बेचू को। आखिर मुहल्ले के फिटतम उम्मीदवारों में
था-चंदर ठेल-ठालकर बाप की स्टेशनरी दुकान चलाने की कोशिश कर रहा था। साथ ही बेचू
के साथ टूँग-टाँग कर लेता था। मिसिर बाबा का बेटा राकेश परीक्षाएँ देकर आता और
बाप-बेटे मिलकर एक भूतपूर्व प्रधानमन्त्री को गालियाँ देते थे। शकीला बुआ का इदरीस
बैट्री की दुकान की जुगत में लगा था। और बाकी होलटाइमर बेरोजगार थे। अब ऐसे घोर
बेरोजगार वातावरण में बाइक पर उड़ते अपनी ही बिरादरी के बेचू पर वकील साहब की नजर
कैसे न पड़ती-बुलवा लिया अपनी पितृहीन भांजी को और मकान के केस के सिलसिले में बेचू
को बार-बार घर बुलाकर चाय-मठिया भांजी के हाथ से ही भिजवाने लगे और एक बार तो फीस
के पचास रूपये तक वापस करवा दिए उसी के हाथों। मगर बेचू को मिले सिर्फ चालीस।
हँसकर कहा था उसने-‘‘दस मेरे कमीशन के हो गए। आप लोग भी तो रख लेते हैं न कमीशन!’’ तभी
बेचू ने तय लिया कि वही एकदम जोड़ी नम्बर वन है उसके लिए। यही कमीशनवाली प्रेमगाथा
बाद में बेचूलाल की शादीगाथा बनी और वही मुस्कुराती भांजी मर्दसूरत-गर्मसीरत बीवी
के रूप में रूपान्तरित हुई। खैर, ये तो क्षेपक हुआ, असली कथा तो बेचूलाल के भूत
की है। अजब ये कि बेचूलाल का भूत अक्सर उन्हीं लोगों को दिखता था जिनके पैसे
बेचू…। अब उमर ज्यादा थी उनकी उस पर मोटे शीशे का चश्मा-दरअसल नारायण चा को हर
शाम को तालाब किनारे जाने की आदत पड़ गई थी जबकि घर में एक किनारे शौचालय बना था।
लेकिन टहलने-का-टहलना और तालाब किनारे घास पर बैठकर हवा की फुरहरी का लुत्फ ही और
था। लौटते हुए एक दिन कारेलाल की टूटी खिड़की से दिखा था रोशनी की नाच। जरा-सा रूक
गए तो लगा कि दाढ़ी-मूँछोंवाली आकृति जैसे ढिबरी लेकर एक दीवार के पास जाती है, कुछ
देखती है, फिर दूसरी दीवार के पास-एक बार…दो बाद…..पुकार लिया था नारायण चा ने।-‘के
है रे!’ झप से ढिबरी गुल। और फिर गाढ़े
काले अँधेरे में सब गुडुप। चंदर ने मान लिया वहम होगा नारायण चा का। लेकिन एक-दो
बार उसने भी तो….नारायण चा ने भी मान लिया था कि वहम था, विश्वास-अविश्वास
के बीचवाले हिस्से में झूलते हुए…।
हवा में काफी देर झूलने के बाद
एम.डी. साहब का हेलिकॉप्टर लैण्ड कर गया था। मोर-एण्ड-मोर इन्वेस्टमेन्ट के एम.डी.
…सारे छोटे, मंझोले,
बड़े कार्यकर्ता-उत्साह का और हेलिकॉप्टर के पंखे से उड़ती हुई
धूल का गुबार – चंदर भी पहुँचा था बेचू के साथ। बेचू एकदम टाई-वाई लगाकर ओ.पी. सर
जैसा दिख रहा था। दिख रहे थे चारों तरफ ग्वाला टोली के ग्वाल-बाल सब। हेलिकॉप्टर
का स्वागत हो-हो,
ही-ही की हर्षध्वनि के साथ। बेचू ने कहा था चंदर के कान में-‘‘देखों
ही चंदर! रंक से राजा बन गेलो इ आदमी। पर्सनल हेलिकॉप्टर हौ एकर। जैसन हमर हीरो
होंडवा हौं ना वैसने। ठीक से काम चलते रहलौ ना तो हमनियों के ऐसन हेलिकॉप्टर होतो।’’ – चंदर
ने उड़ती गर्द के बीच में भी बेचू के आँख की चमक देखी थी। कार्यकर्ताओं की एक लम्बी
लाइन – बेचू कहीं दोसौंवे नम्बर पर खड़ा था। ओ. पी. सर पचीस तक के बीच। एम. डी. ने
पचीस तक ही हाथ मिलाया, फिर एक बड़ी-सी गाड़ी में बैठ गए हाथ हिलाते हुए। बेचू
ने भी खूब जोर-जोर से हाथ हिलाया था। बेचू के उत्साह से चंदर भी संक्रमित हो चुका
था। और दोनों ने फिर कर्जन ग्राउण्ड में बड़े पैमाने कर आयोजित पार्टी में ठेल-ठाल
कर गिरते-पड़ते खाना खाया और दो-तीन कप कॉफी पी गए थे। हेलिकॉप्टराना उत्साह के साथ
घर आया था बेचू। पत्नी ने भी लिपिस्टिक वगैरह लगाकर पूरी तैयारी कर रखी थी। बेचू
का मन और गनगना आया-‘‘अब जल्दीये मैडम के लिए कार लेना पड़ेगा। आगे सर-मैडम, पीछे
बच्चा लोग।’’
-‘‘और उ कुत्ता भी, अलसेसनवाला। पिछला सीट पर
से हुलकते रहेगा।’’-पत्नी ने भी उत्साह के हेलिकॉप्टर को हवा दी थी।
-‘‘नहीं! बच्चा लोग को नोच-काट सकता है, कुतवा।
इससे अच्छा झबरा,
छोटावाला।’’-सम्मिलित खिलखिलाहट। फिर कार की सवारी बदल गई एक बड़े
गुब्बारे की सवारी में, गुब्बारा फूलता गया, ऊँचे उड़ता गया, फूलता
गया- ऊँचे- ऊँचे और ऊँचे और फूलते-फूलते फट। फचाक!-बेचू हड़बड़ाकर उठा-स्नेह निर्झर
बह गया था, रेत ज्यों तन रह गया था-पर उस रेत में भी खूबसूरती थी, उत्साह
था..
इस उत्साह पर पानी फिरने लगा था, जब
कई दिनों से कई लोगों के पैसे लेकर बेचू ओ. पी. सर को ढूँढ़ रहा था। कुछ बड़े
क्लाइन्ट्स की भी सम्भावना थी, जहाँ ओ.पी. सर को ले जाना था लेकिन ओ. पी. सर के तो दर्शन
दुर्लभ। जब हुए दर्शन तो एक बड़े से काले लेदर बैग के साथ। बैग पर पढ़ा था बेचू
ने-ड्रीमवे। सपन राह। रास्ता सपनों को साकार करने का-‘‘बी.
एल.! मैंने कम्पनी छोड़ दी है। आर.बी.आई. ने पॉलिसी चेन्ज कर दी है। टाइम भी लिमिट, इन्टरेस्ट
रेट भी फिक्स्ड। अब नहीं चलेंगी ये चीजें। इट इज बेटर टू जम्प आऊट ऑफ द टाइटेनिक।
अब तो बस नेटवर्क मार्केटिंग में स्कोप है। ड्रीमवे। वैसे तुम्हारा ड्रीम क्या है? पचास
हजार महीना कमाना चाहते हो तो कम टू मी। देखो ये है क्वालिटी प्रोडक्ट्स कम्पनी का
कार वाश, बॉडी लोशन,
डिटर्जेन्ट, शैम्पू। सिर्फ पाँच हजार में मेम्बरशिप शुरू। फिर
बनाओं नेटवर्क। लो ये कैसेट सुनना, फिर डिसाइड करना। याद है
ना-यू कैन विन। मेरी मानो तो तुम भी छोड़ दो वो सब।’’-ओ. पी. सर खुशबू का बवंडर
उड़ाते हुए चले गए और बेचू सोचने लगा कि कम्पनी तो छोड़ दे लेकिन महतो चा, शकीला
बुआ, नारायण चा को कहाँ छोड़ दे? किस द्वीप पर चला जाए कि
उनसे भेंट ना हो कभी। ओ. पी. सर ने दुविधा के अँधेरे में फिर से उसी गीता की ही
टार्च दिखाई-‘‘कोई नहीं है तुम्हारा अपना, पराया, तुम्हारा
काम है कर्म किए जाना, फल की चिन्ता छोड़ दो।’’ और फिर झक मारकर बेचू
ड्रीमवे का बैग लेकर लौटा था और बीवी की डाँट भी खाई थी।-‘‘ये
क्या सब अनाप-शनाप उठा लाए। महतो चा आए थे क्या सब अखबार में पढ़के।’’
-‘‘हूँ।’’
-‘‘हूँ का! कुछ गड़बड़ है का?’’
-‘‘पता नहीं।’’ वह करवट बदलकर सोने की
कोशिश करने लगा। कमीशन के मोटे पैसे मिल जाते थे, मकान का काम शुरू करवा दिया
था। प्लास्टर बाकी था। किसी तरह एक कमरा फिनिश करवाके गृह-प्रवेश कर गया था।
अब…दो दिन, तीन, चार हफ्ता इस दिन उन तमाम नम्बरों पर कोशिश करता रहा-वर्माजी, खोसला
साहब, पोद्दारजी – हर नम्बर पर वही जवाब-दिस नम्बर डज नॉट एक्जिस्ट-अस्तित्व ही
मिट गया था उन तमाम चेहरों का जिन्हें एम.डी. साहब के साथ हाथ मिलाकर चमकते-दमकते
देखा था। कुछ दिन तो आश्वासनों से काम चलाया, फिर नजरें बचाकर चलने लगा।
एक दिन शकीला बुआ मुँह अँधेरे पूछने आ गई तो बाथरूम में ही इतनी देर बैठा रहा कि
उकताकर बाद में आने की बात कहकर चली गई। रात में भी काफी देर से लौटने लगा था।
नारायण चा ने उस दिन कानूनी नोटिस वगैरह की बात की तो मिसिर बाबा ने चुटकी ली-‘‘नरायन
भाय, कानून के हाथ लम्बा हो लेकिन अँखिया अन्धा हौ। कभी ओकर मुँह-पेट के भी बात
सुनला? पेट भरा जा हौ बस मुँहवा बन्द। का करवहा। बड़का लोग करथु तो रासलीला, तू
करवा तो करेक्टर ढीला।’’
बेचू आँख-मुँह बन्द कर ड्रीमवे के
काम में मन लगाने की कोशिश करता रहता। कई मीटिंग्स में गया भी। शुरूआत सपनों से – आपका
सबसे बड़ा सपना क्या है! छोटे-छोटे सपनों को मारिए लात, बड़े
सपनों को पकड़िए,
बड़ा सोचिए-वह ओ. पी. सर के नेटवर्क में था। उन्हीं के चेन का
हिस्सा-कुछ बिजनेस मिल भी रहा था। पचास हजार महीने का सपना अभी तक आँखों में अँट
नहीं रहा था। ओ.पी. सर भी अभी नहीं पहुँचे थे, जबकि काफी आगे थे वे। वैसे
एक-दूसरे से आमदनी के बारे में बात करने की भी मनाही थी शायद। ओे.पी. सी कभी इधर
कन्विस करने जा रहे हैं, कभी उधर। दिल्ली जाकर इन्दिरा गांधी स्टेडियम से
अमेरिका से आए मिस्टर मैकेन्जी का भाषण भी सुन आए थे। कहा जाता था उनको करोड़ों डॉलर
सिर्फ इसी ड्रीमवे से बतौर कमीशन मिलते थे। ज्यादातर वक्त दुनियाभर की हवाई
यात्राएँ करते गुजारते थे-‘‘यू कैन नॉट इमेजिन बी.एल.! भीड़! दो-दो हजार सिर्फ
इन्ट्री फीस। नो फूड, नो लाजिंग इन्क्लूडेड। फिर भी स्टेडियम भर लोग हो गए
थे। हाथ में एक रिस्टबैन्ड ही गेट पास, और लेजर शो, लाइटिंग
साउण्ड सिस्टम ऐसा कि मि. मैकन्जी की साँस भी सुनाई पड़े, और
लेक्चर सो इलेक्ट्रिफाइंग, तो इन्स्पाइरिंग‘-बेचू कल्पना कर रहा था, हजारों
की भीड़ में ओ.पी. सर कहीं धक्के खाते हुए, रिस्ट बैण्ड उचकाते हुए
घुसने की कोशिश कर रहे हैं, सपनों की भीड़ में -रेलम-पेल-बड़े-बड़े सपनों से टकराते
हुए छोटे-छोटे मासूम सपने, मटमैले-धूसर-सुस्त सपनों पर हावी होते रंगीन चटकीले, शोख
सपने…….
-‘‘आपका सबसे बड़ा सपना क्या है?’’ बेचू
पूछ रहा था, मोटे लैन्स के चश्मे से झाँकती उबली आँखोंवाले दढ़ियल शख्स से।
-‘‘बस वही जो चेखव या तुर्गनेव किसी ने कहा था-‘‘वन
ब्रेड टू ईट एण्ड टू लिप्स टू किस’ और दोनों चीजों मेरे पास।’’
-‘‘फिर भी….’’
बेचू ने ओ. पी. सर का सुमरिन करते हुए कोशिश की।
-‘‘बस! आप अपना वक्त बर्बाद कर रहे हैं।’’ – उबली आँखों वाला बोला।
बेचू
भुनभुनाता हुआ बाहर आ गया-‘‘साला जात्रा ही खराब था। बोहनी में ही ये मिल गया।’’ रात
को पलंग के किनारे पड़े ड्रीमवे के बैग को देखते हुए सोने की कोशिश करने लगा। बच्चे
सो चुके थे। पत्नी बर्तन वगैरह माँजकर आई।
-‘‘सुने! मिसिर बाबा का कह रहे थे?’’
-‘‘का?’’
-’’आपका कम्पनी भाग गया सबका पैसा लेके। एम.डी. को गोरखपुर में गिरफ्तार कर
लिया पुलिस।’’
-‘‘हाँ, कौन बोला।’’
-‘‘आजतक चैनल बोला, आर के बोलेगा?’’
यानी
एक तेज चैनल से दूसरे तेज चैनल तक खबर पहुँची और प्रसारित हो गई हर जगह। बेचू बाहर
रहा था देर रात तक,
तो टी.वी. कहाँ देख पाया था।
-‘‘बड़ी उछल रहे थे, मिसिर बाबा। कह रहे थे कि वन-टू का फोर का चक्कर में
सब चला गया भितरामपुर। बेचूआ डुबा दिया सबको। कल्ह भोरे आएगा सब। का कीजिएगा अब?’’
एक
लम्बे से हूँ….के बाद लम्बी चुप्पी। चिन्ता, तन्द्रा में हाथ शायद पत्नी
के ऊपर आ गया होगा बेचू का, कि झटक दिया गया-‘‘यहाँ जान पर आफत है, और
आपकी इ सब सूझ रहा है।’’ किनारे पर रहा होगा बेचू, या
झटकना कुछ ज्यादा जोर का रहा होगा कि बेचू गिर पड़ा धड़ाम से उसी ड्रीमवे के बैग पर
जो पड़ा था पलंग के पास ही। बॉडी लोशन की शीशी का ढक्कन खुलकर बॉडी लोशन बॉडी के
पिछवाड़ेवाले हिस्से में लग गया था। हालाँकि मिसिर बाबा ने बाद में अपनी टिप्पणी
में कहा था, जब मिसिर रिक्शेवाले ने मुँह अँधेरे बेचू को सपरिवार बस अड्डे पर पहुँचाते
समय बेचू को हल्का लंगड़ाकर चलते हुए देखा था और तब से बात फैली थी मुहल्ले में-‘‘मार
देले होतौ एक लात छतिया में लप-झप करे में। अरे! जनी (औरत) के का हौ, जब
तक हौ नोट, तब तक लोट-पोट। खत्म होलौ नोट, खाओ करेजवा पे चोट।’’
कई
महीनों बाद लौटी थी काली किनारी की सफेद साड़ी में वह रामस्वरूप वकीले की भांजी और
बेचू लापता था या मरकर भूत हो चुका था क्योंकि, गाहे-बगाहे दिखता था वैसे
लोगों को जिनके पैसे बेचू ने डुबाए थे और ज्यादातर लोग वहम मानते थे उनका। इस
लम्बी भूत चर्चा से ऊबकर एक शनिवार की शाम जब मिसिर बाबा ने तय किया कि आज तो
बेचुआ के भूत को काबू करके छोड़ेंगे। चंदर ने साफ मना कर दिया साथ देने से। काली
किनारी की सफेद साड़ी पहनकर बेचू की बीवी चली, बुढ़वा पीपल के नीचे दीया
जलाने शाम के झुटपुटे में। तो पीछे-पीछे चले मिसिर बाबा और ढिबरी की रोशनी में
अधगिरे मकान की टूटी खिड़की से जो अशरीरी दृश्य देखा वो ऐसा था – बेचू की बीवी सिर
झुकाए बैठी है नीम अँधेरे में, सामने एक कटोरी, शायद रोटी-सब्जी रही होगी-
तो आँचल में छुपाकर दीया नहीं, यही ला रही थी-बोलती जा रही थी धीमी आवाज में, जिसको
सुनने के लिए मिसिर बाबा को आगे-पीछे होना पड़ा छिपकर-‘‘सब
खत्म हो रहा है अब,
गहना-गुरिया बेच के जो था सब, किसी तरह चला इतना दिन, घर
गिरवी रखके सोचते हैं बैंक से लोन ले लें। कुछ दिन तो चलेगा। पता नहीं मिलेगा भी
कि नहीं। बच्चा लोग को स्कूल छोड़ा दें। अब पार नहीं लग रहा है।’’
बेचू
कुछ नहीं सुन रहा है। भूत की तरह हँसता है। फिर ढिबरी लेकर इस दीवार पर बने कोयले
के निशानों तक जाता है, फिर उस दीवार तक। बिड़बिड़ करता जा रहा है-’’गिनों, गिनों
ये सब लाइन। तीन साल कम्पलीट। सात साल पूरा कि बी.एल. मरा। बी. एल. मरेगा, इन्श्योरेन्स
मिलेगा। सबका पाई-पाई चुका देगा बी. एल.। महतो चा, शकीला बुआ, नारायण
चा सबका।….’’
ढिबरी
की रोशनी, काले-पीले दाढ़ी बालों पर। पैर का घाव, फदफदा गया था शायद, गन्दी
पट्टी बँधी है पैर पर। चाल कुछ ज्यादा लंगड़ाती-सी, लाल-लाल उबली-सी आँखें, जैसे
वर्षो से सोया न हो।
मिसिर
बाबा के पैरों से कुछ खटका हुआ था शायद। चैकन्ना होकर बेचू छिप गया अधगिरी दीवार
के पीछे। झाँककर वहीं से हाथ हिला-हिलाकर नहीं-नहीं का इशारा-‘‘कहिएगा
मत किसी से, किसी को भी कि हम जिन्दा हैं। चुका देंगे, सबका चुका देंगे तभी
छुटकारा होगा भूत योनि से।’’
हालाँकि मिसिर बाबा दिखे
नहीं होंगे बेचू को,
क्योंकि अँधेरे में थे वे। पत्नी उठ कर इधर-उधर देखने लगी-‘‘कौन
है, कहाँ है कोई?’’ बेचू फिर भी नहीं-नहीं किए जा रहा है। आँखों से रिस
रहा है कुछ, शायद आँसू या फिर कीच….मिसिर बाबा ने चंदर को कहा करीब-करीब दौड़ते हुए
आकर, कुछ जोर से ही कहा ताकि आसपास के कुछ लोग भी सुन लें-‘‘नाय
रे चंदर! नाय पारलियो हम काबू करे। सच्चे बड्डी जब्बर भूत हलौ बेचुआ के!!! (नहीं
रे चंदर! काबू कहीं कर सका मैं, सचमुच बड़ा जब्बर भूत था बेचुआ का)।
***
पंकज मित्र इस दौर के बहुत
चर्चित और महत्त कथाकार हैं।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad