प्रफुल्ल कोलख्यान |
सभ्यता विकास के क्रम में विपर्ययों की लंबी शृँखला है मातृ-सत्तात्मकता का पितृ-सत्तात्मकता में बदलना, मनुष्य पर मशीन का वर्चस्व बढ़ना और लोक का वेद के पीछे-पीछे चलना इस शृँखला की महत्त्वपूर्ण कड़ियाँ हैं। शास्त्र ओर सत्ता का जन्म लगभग साथ-साथ होता है। सभ्यता विकास के हर दौर में साहित्य के संदर्भ में शास्त्रीय चर्चा होती रही है। जाहिर है कि इन शास्त्रीय चर्चाओं की अपनी सुदीर्घ और समृद्ध परंपरा है ─ पूरब में भी और पश्चिम में भी। सुदीर्घ और समृद्ध शास्त्रीय परंपरा रहने के बावजूद आलोचना की जरूरत आ पड़ी तो इसका सीधा-सा मतलब यह है कि `शास्त्र-चर्चा‘ और `आलोचना‘ में कुछ मूलभूत गुणात्मक अंतर है। इसी प्रकार प्रकार `धर्म‘ और `भक्ति‘ में मूलभूत गुणात्मक अंतर होने के कारण धर्मों के रहते भक्ति का उद्भव हुआ था। यह अलग बात है कि न तो धर्म और भक्ति के अंतरों पर ही प्रभावी ढंग से विचार किया जा सका और न शास्त्र और आलोचना पर ही कोई गंभीर विचार किया जा सका है।
i. साहित्य के विभिन्न पक्षों के संदर्भ में `शास्त्र-चर्चा‘ की कतिपय अनुल्लंघनीय सीमाएँ होती हैं। कहना न होगा कि शास्त्र में सत्ता अभिमुख होते जाने की तीब्र प्रवणता अंतर्निहित होती है। इस प्रवणता के कारण शास्त्र के हृदय में लोक-संवेदना के समुचित सम्मान की कोई ईहा ही नहीं बच पाती है। ऐसा सिर्फ साहित्य-शास्त्रों के साथ ही नहीं होता है बल्कि धर्म-शास्त्रों, अर्थ-शास्त्रों और समाज-शास्त्रों आदि के साथ भी होता है। स्वाभाविक रूप से शास्त्र और सत्ता एक दूसरे के पर्याय की तरह आचरण करते हैं। शास्त्र प्रतिमान गढ़ते हैं और आलोचना प्रतिपथ तलाशती है। शास्त्र और सत्ता के पर्यायाचार और अतिचार से सभ्यता के हाशिये का निर्माण होता है। दुहराव की चिंता न करते हुए कहना जरूरी है कि जिस तरह धर्म-शास्त्र से टकराकर भक्ति का जन्म हुआ उसी तरह साहित्य-शास्त्र से टकराकर आलोचना का जन्म हुआ। यह एक मोटी सी बात है, इसके भीतर और कई महीन बातें हैं। शास्त्र और लोक के द्वंद्व में एक बात साफ समझ में आती है कि किसी बड़े सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक विवर्त्तन के क्रम में संक्रमण के अंतर्विरोधों का दबाव भाषा के प्रति सरोकार और सलूक को बदल देता है। 20वीं सदी के आखिरी दशक में उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण का दौर नये सिरे से शुरू हुआ। इस दौर में विश्व-साम्राज्यवाद का अग्रदूत बनकर बाजारवाद ने जिस प्रकार मूल्य चेतना में बदलाव शरू किया है, निश्चित रूप से यह बड़े सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक विवर्त्तन का लक्षण है। इसी दशक में रघुवीर सहाय की कविता में `भाषा का युद्ध‘ एक संकेत बनकर उभरता है तो उसके संकेतार्थों का पीछा किया जाना जरूरी है – `वही लड़ेगा अब भाषा का युद्ध / जो सिर्फ अपनी भाषा में बोलेगा / मालिक की भाषा का एक शब्द भी नहीं / चाहे वह शास्त्रार्थ न करे जीतेगा / बल्कि वह शास्त्रार्थ नहीं करेगा‘[2]।
iii. आलोचना के लिए शास्त्र म्यान सरीखा ही है। इस म्यान मोह का नतीजा है कि आलोचना का मोल इस या उस शास्त्र से उसकी तत्त्वगत अंतरंगता के आधार पर तय होने लगता है। असल बात यह है कि साहित्य का समाज शास्त्र साहित्य की आलोचना का म्यान होता है और इसी अर्थ में वह समाज शास्त्र से न-भिन्न होते हुए भी भिन्न होता है। तुलसीदास को याद करें तो`अरथ-गिरा‘ और `जल-बीचि‘ कहने को भिन्न होते हुए भी अभिन्न होते हैं। लेकिन, इसके विपरीत `कविता की आलोचना‘ और `कविता का शास्त्र‘ कहने को अभिन्न होते हुए भी वस्तुत: भिन्न होता है। कविता अपने स्वभाव से ही अपने समय की सत्ताओं तथा शास्त्रीयताओं से टकराती है। आलोचना इस टकराव में कविता का हथियार भी होती है और ढाल भी होती है। क्या कोई समाज कविता के बिना जिंदा रह सकता है ? ऐसा हो नहीं सकता। ऐसा क्यों नहीं हो सकता ? क्या है इस विश्वास का आधार ? ऐसे कुछ सवाल हैं जिन से बार-बार टकराने की जरूरत होती है। यह देखने की भी जरूरत होगी कि मनुष्य की किन अंदरुनी जरूरतों को साहित्य पूरा करता है और यह भी कि मनुष्य की किन वैयक्तिक और सामाजिक अपेक्षाओं को सिर्फ कविता ही पूरा कर सकती है ? मनुष्य के लिए भावनाओं, कल्पनाओं का अपना महत्त्व है। वास्तविकताओं और कल्पनाओं के विभिन्न स्तरों पर आवाजाही का सातत्य कविता में ही संभव होता है। एक समूह की कल्पना किसी दूसरे समूह की वास्तविकता होती है, ऐसे भी कहा जा सकता है कि एक समूह जिसे वास्तविक रूप से हासिल कर लेता है, दूसरे समूह के लिए वह सिर्फ कल्पना की वस्तु बनी रह जाती है। ऐसे में कल्पना और वास्तविकता के बीच अंतस्संघर्ष होता है और यह अंतस्संघर्ष शीघ्र ही इन समूहों के सामाजिक अंतस्संघर्ष में बदल जाता है। सामाजिक अंतस्संघर्ष धीरे-धीरे ─ कभी-कभी बहुत धीरे-धीरे ─ राजनीतिक संघर्ष में बदल जाता है। क्योंकि इन समूहों के निर्माण में राजनीतिक प्रक्रियाओं की सघन सक्रिय भूमिका होती है। कहना न होगा कि राजनीति जहाँ समूह का ढाँचा बनाती है आर्थिक प्रक्रियाएँ समूह की अंतर्वस्तु के प्राणत्व का सार बनाती रहती है। कविता समूह के प्राणत्व के संघर्षशील सार को अपने समय के महास्वप्न में निरंतर बदलती रहती है। कविता की आलोचना इस महास्वप्न की समाजिकता को हासिल करती है। कविता का समाज-शास्त्र हासिल सामाजिकता को समाज से तंतुबद्ध करता है। इस क्रम में ऐसी वैयक्तिक, सामाजिक परिस्थितियाँ बनती है कि मन कल्पनाओं और वास्तविकताओं के बीच तीब्र आवाजाही के लिए छटपटाने लगता है। इस छटपटाहट का संबंध करुणा से है। कविता के संभव होने का उत्स `कथन‘ नहीं `करुणा‘ है। कविता करुणा से संभव होती है और करुणा को संभव और संपुष्ट करती है, करने की प्रबल आकांक्षा रखती है।
iv. कविता में व्यक्तिगत ─रचना और पाठ के संदर्भ में ─ स्तर पर सुख-दुख, भाव-अभाव की अभिव्यक्ति एकाग्रत: सक्रिय रहती है। कविता के प्रभाव का यह प्रथम चरण होता है। इस प्रथम चरण को पार करते ही कविता की अभिव्यक्ति का एकाग्रत: अपनी अर्थवत्ता के साथ समग्रत: में बदलने लगती है। एकाग्रत: के समग्रत: में बदलाव की प्रक्रिया में राजनीति की भूमिका सक्रिय होती है। कहना न होगा कि सत्ता की राजनीति एवं उस अर्थ में शास्त्र की राजनीति से कविता में अनुस्यूत राजनीति भिन्न होती है। इस भिन्नता के मर्म को ठीक से नहीं समझ पाने के कारण कविता सत्ता और शास्त्र की राजनीति की चपेट में आ जाती है। किसी भी समय की कविता का अधिकांश प्रथम चरण को ही नहीं प्राप्त कर पाता है, कुछ भाग किसी तरह से अपने प्रथम चरण पर ही कुछ दिन तक टिका रहकर अंतत: इतिहास का हिससा बनकर रह जाता है। बहुत थोड़ी-सी कविता प्रथम चरण को सफलतापूर्वक पार कर एकाग्रत: से समग्रत: की ओर बढ़ पाती है। इस प्रक्रिया में आलोचना की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। अपनी इसी भूमिका के निर्वाह के लिए आलोचना को सत्ता के समाज-शास्त्र से जूझना पड़ता है। इस जूझने के क्रम में आलोचना को सत्ता के समाज-शास्त्र के मुकाबले साहित्य के समाज-शास्त्र की जरूरत पड़ती है। वेद की सहज आकांक्षा लोक को अपने पीछे रखने की होती है, कविता वेद के वर्चस्व को तोड़कर लोक के साथ खड़ी होती है। शास्त्र के राम और लोक के राम का मर्म आन ही होता है ─ तुलसी दास और कबीर दास के राम का मर्म एक ही नहीं था। दुहराव के जोखिम पर भी कहना जरूरी है कि सत्ता के समाज-शास्त्र का और साहित्य के समाज-शास्त्र का मर्म भी एक ही नहीं होता है।
शास्त्र नियमन के नाम पर अनुशासन का विधान करता है। तर्कातीत अनुशासन यांत्रिकता में ढल जाता है। इस तरह शास्त्र अंतत: जीवन को यांत्रिक बनाता है। काव्य-शास्त्र साहित्य को यांत्रिक बनाता है। साहित्य की यांत्रिकता को रीतिबद्धता के नाम से हम जानते हैं। यांत्रिकता और संवेदना में कैसा रिश्ता ! आज की स्थिति में देखें तो`करुणा‘ का संबंध `आधिकारिकता के विषम वितरण‘ से उत्पन्न जीवन की दुर्वहनीयता से है। अर्थात, करुणा का गहरा संबंध आधिकारिकता के अपचालन से भी है। शास्त्रानुमोदित`करुणा‘ की यांत्रिकता को कविता संवेदना में बदलती है और आलोचना संवेदना को चेतना में बदलने का काम करती है। इस क्रम में आलोचना खुद कई बार शास्त्रीयता की शिकार बन जाती है। कविता आलोचना की शास्त्रीयता ─अर्थात साहित्य की समाज-शास्त्रीयता की यांत्रिकता ─को निरंतर तोड़ती रहती है। समाज-शास्त्र और साहित्य के समाज-शास्त्र में यही अंतर होता है; इसलिए कविता का समाज-शास्त्र अधिक गतिशील और यांत्रिकता रहित हो सकता है। हालाँकि कई बार आलोचना का दंभ इस प्रक्रिया में रोड़े भी अटका सकता है। कविता शुरू से ही निर्विशिष्ट मनुष्य की आकांक्षा से जुड़ी रही है। जिस तरह बिना किसी विशेषण के कुछ स्थितियाँ और उपलब्धियाँ ─जैसे हवा, पानी, धूप, चाँदनी, रोटी, कपड़ा, घर, पैसा, प्यार और पुचकार आदि ─ हर मनुष्य को चाहिए वैसे ही कविता भी हर आदमी को चाहिए। यह सच है कि जीवन के संभव रहने के लिए मौलिक और अनिवार्य चीजों की हम निरंतर अन-देखी करते रहे हैं, वैसी ही अनदेखी कविता की भी करते रहे हैं। आज हवा, पानी, धूप, चाँदनी, रोटी, कपड़ा, घर, पैसा, प्यार और पुचकार आदि पर हर मनुष्य का समान अधिकार नहीं है।
i. सभ्यता के विकास ने प्रकृति को बदल दिया है। कहा जा सकता है कि संस्कृति, प्रकृति की अंतर्वर्त्ती निर्मिति है, लेकिन विकास के ढाँचे ने प्रकृति और संस्कृति के अंतस्संबंध के साँचे को बदलकर रख दिया है। विकास का रास्ता जो हमने पकड़ा वह शुरू से गलत था, `शुरु से गलत था मकान का नक्शा‘।[4]प्रकृति बहुत रहस्यमय है, संस्कृति भी उस से कम रहस्यमय नहीं है। उजाले को काँट-छाँटकर अँधेरा अपना सूट सिलवा लेता है, अमृत रावण की नाभि में डेरा डाल लेता है, जब तक सच अपना पैर सीधा करता है, झूठ रथयात्रा पर निकल पड़ता है। एक प्रच्छन्न कारोबार हमेशा चलता रहता है। कविता आदमी की निगाह के सामने धोखे की टट्टी की तरह टँगी संस्कृति की इस प्रच्छन्नता से निरंतर संघर्ष करती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते थे, `प्रच्छन्नता का उद्घाटन कवि-कर्म का मुख्य अंग है। ज्यों-ज्यों सभ्यता बढ़ती जायगी त्यों-त्यों कवियों के लिए यह काम बढ़ता जायगा। मनुष्य के हृदय की वृत्तियों से सीधा संबंध रखनेवाले रूपों और व्यापारों को प्रत्यक्ष करने के लिए उसे बहुत से पर्दों को हटाना पड़ेगा। इससे यह स्पष्ट है कि ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नये-नये आवरण चढ़ते जायँगे त्यों-त्यों एक ओर तो साहित्य की आवश्यकता बढ़ती जायेगी, दूसरी ओर कवि-कर्म कठिन होता जायगा।‘[5]
ii. यह सच है कि विज्ञान ने प्रकृति की रहस्यमयता का अनावरण किया है। प्रकृति में सक्रिय नियमों का उद्घाटन किया है, कुछ हद तक मनुष्य के मन को भी समझा है, लेकिन यह भी सच है कि `हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नये-नये आवरण चढ़ते‘ गये हैं। इन आवरणों को हटाकर मनुष्य को उसके मूल रूप में हासिल करना साहित्य का दायित्व है। `वह कौन नहीं चाहेगा उसको मिले प्यार/ वह कौन नहीं चाहेगा भोजन वस्त्र मिले / वह कौन न सोचेगा हो छत सर के ऊपर / बीमार पड़ें तो हो इलाज थोड़ा ढब से // ……// पर हमने यह कैसा समाज रच डाला है / इसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला है / वह कत्ल हो रहा, सरेआम सड़कों पर / निर्दोष और सज्जन, जो भोला-भाला है // किसने ऐसा समाज रच डाला है / जिसमें बस वही दमकता है, जो काला है ?’[6]साहित्य और समाज के रिश्ते को लेकर कुछ चिंताएँ हमें निरंतर सताती रही हैं। जब हम समाज कहते हैं तो हमारा तात्पर्य सिर्फ ढाँचे से ही सीमित न रहकर उसके भीतर की तमाम हलचलों और अंदरुनी कार्रवाइयों से भी होता है। `जब कि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति में पविर्त्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्त्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही “साहित्य का इतिहास” कहलाता है। जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है।‘[7] जनता की चित्तवृत्तियों में हो रहे परिवर्त्तनों को संचित करना ही काफी नहीं है, बल्कि परिवर्त्तन को गति-मति देनेवाले कारकों, उसके निहितार्थों, गणितार्थों एवं फलितर्थों को समझ के स्तर पर हासिल करना एवं तदनुरूप संवेदना के स्तर पर संचितकर साहित्य के प्रारुप में जनता की चित्तवृति में उसका संस्थापन करना भी जरूरी होता है। कहा जा सकता है कि जिस प्रकार `चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही “साहित्य का इतिहास” कहलाता है‘ उसी प्रकार `जनता की चित्तवृत्ति में परिवर्त्तन को गति-मति देनेवाले‘ कारकों के साहित्य में निवेश और पहचान से उसका समाजशास्त्र बनता है।
iii. महसूस किया जा सकता है कि जिस तरह सामान्य इतिहास के साथ-साथ साहित्य के इतिहास की जरूरत है, उसी प्रकार साहित्य के समाज शास्त्र की भी जरूरत है। कहना न होगा कि इतिहास ओर समाजशास्त्र एक दूसरे के पूरक होते हैं। यह विडंबना ही है कि हिंदी साहित्य के इतिहास के तो पुनर्लेखन की जरूरत बार-बार महसूस की जा रही है, लेकिन हिंदी साहित्य के समाज शास्त्र के लेखन की जरूरत को तो अभी बौद्धिक सतर पर ही महसूस किया जाना बाकी है। यह विडंबना सिर्फ हिंदी में नहीं है, लेकिन हमारा संदर्भ हिंदी साहित्य से ही सीमित है। हिंदी साहित्य और कविता का समाज शास्त्र जरूरी तो है, लेकिन इसमें कठिनाई ─ शास्त्रीय ही नहीं, सामाजिक भी ─कम नहीं हैं। हिंदी साहित्य के समाज शास्त्र पर बात करने के लिए जरूरी है कि हमारे सामने एक ठोस हिंदी समाज हो। हिंदी समाजिकता और हिंदी जातीयता के मोटे-महीन पार्थक्य को ध्यान में रखते हुए भी इस तरह के प्रयास के प्राथमिक चरण में इन्हें एक मानकर चलने के प्रारंभिक औचित्य को स्वीकारा जा सकता है। डॉ.रामविलास शर्मा ने इस हिंदी जातीयता अर्थात, हिंदी समाज की पहचान को सुस्थिर करने के लिए काफी बौद्धिक श्रम किया। भाषा, साहित्य और जातीयता के संबंध में उनका मत है कि `अंग्रेजी भाषा इंग्लैंड के अलावा अमरीका, आस्ट्रेलिया आदि अन्य कई देशों में बोली जाती है। इन में रचे हुए साहित्य का इतिहास जातीय आधार पर ही लिखा जाता है ─ इंग्लिश लिटरेचर का इतिहास अलग, अमेरिकन लिटरेचर का इतिहास अलग। मौरीशस में काफी साहित्य हिंदी भाषा में रचा गया है। वह मारीशसवासियों का जातीय साहित्य है। उसका इतिहास हिंदी जातीयता के साहित्य से पृथक लिखा जायेगा।‘[8]
iv. समाज और भाषा का अपना एक भू-खंड होता है, जबकि संवेदना का उस तरह का कोई भू-खंड नहीं होता है। उस तरह का कोई भू-खंड न हो, लेकिन ऐसा नहीं कि कोई भू-खंड होता ही नहीं हो! नहीं तो फिर साहित्य संवेदना के राष्ट्रीय सरोकारों का क्या होगा! संवेदना के वर्गीय और वैचारिक सरोकार जरूर भू-खंडों की सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं। लेकिन, भूमंडलीकरण के दौर में `अतिक्रमण‘ की नई जटिलताएँ सामने आ रही हैं ! `अतिक्रमण के समाज में जीवित रहने के लिए / सबसे पहले दूसरे के हिस्से की जगह चाहिए/ फिर दूसरे के हिस्से की स्वतंत्रता // किसी नयी वस्तु को ले सकने की सामर्थ्य बताता है / कितना दबाया है दूसरे के जीवन का रकबा / और पृष्ठभूमि में से झाँकती हैं कितनी वस्तुएँ/ इन बातों से ही फिर बनने लगती है / दुनिया में किसी की आदरणीय पहचान।‘[9]जैसा भी हो, हिंदी समाज के पास भी अपना भू-खंड है, डॉ. सुनीति कुमार चाटुर्ज्या ने ठीक ही रेखांकित किया है कि, `यह शब्द (हिंदुस्तान), मुस्लिम काल में अपने सीमित अर्थ में पंजाब और बंगाल के बीच उत्तर भारतीय मैदान के लिए प्रयुक्त होता था। पूर्वी हिंदी तथा बिहारी को बोलनेवाला पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार का भाग जो, जो पूरब कहलाता है, भी इसी हिंदुस्तान या हिंदुस्थान का ही हिस्सा है ।‘[10]बंगाल में हिंदी भाषियों को आज भी हिंदुस्तानी ही कहा जाता है। लेकिन आज सचाई यह है कि हिंदी साहित्य का सृजनात्मक और प्रसारात्मक संबंध सिर्फ हिंदी भाषी मानेजानेवाले क्षेत्र तक सीमित नहीं है। दूसरी बात यह भी कि `हिंदी भाषी मानेजानेवाले क्षेत्र‘ उस अर्थ में`हिंदी भाषी क्षेत्र‘ हैं भी नहीं, जिन अर्थों में `बांग्ला या मलयालम भाषी‘ क्षेत्र, बांग्ला या मलयाली क्षेत्र हैं। इसलिए, हिंदी साहित्य के समाज शास्त्र की तलाश अपेक्षाकृत अधिक जटिल प्रक्रिया है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि हिंदी भाषी समाज की कोई पहचान ही न हो। यह अलग बात है कि हिंदी भाषा अपनी किसी भी परिभाषा में ठीक से अँट नहीं पाती है। न अँट सके किसी परिभाषा में लेकिन दर्द तो है, परिभाषा न हो पीड़ा तो है, `रात चूँ-चर्र-मर्र जाती है / ऐसी गाड़ी में भला नींद कहीं आती है ? // इस कदर तेज वक्त की रफ्तार / और ये सुस्त जिंदगी का चलन / अब तो डिब्बे भी पाँच ऐसी के / पाँच ठुॅसा हुआ सारा वतन / आत्मग्रस्त छिछलापन ही जैसे रह आया जीवन में शेष / प्यारे मंगलेश/ अपने लोग फँसे रहे चीं-चीं-टुट-पुट में जीवन की / भीषणतम मुश्किल में दीन और देश। // उधर मेरे अपने लोग / बेघर बेदाना बेपानी बिना काम मेरे लोग / चिंदियों की तरह उड़े चले जा रहे हर ठौर/ अपने देश की हवा में। // फिलहाल श्रवण सीमा से आगे इसीलिए अश्रव्य है / उनका क्षुब्ध हा-हाकार / घनीभूत और संगठित होनी है उनकी वेदना अभी / सुरती ठोंकता हुआ कर रहा हूँ मैं / प्रागैतिहासिक रात के बीतने का यही इंतजार।/ फिलहाल तो यही हाल है मंगलेश / भीषणतम मुश्किल में दीन और देश। / संशय खुसरों की बातों में / खुसरो की आँखों में डर है / इसी रात में अपना घर है।‘[11]अंधेरे में गुम होते जीवन को उजाला सामने लाती है। उजाले में गुम होते जीवन का, रात के घर में रहनिहारों का समाज-शास्त्र कैसे लिखा जाये !
3. यहकैसे होगा, यह क्योंकरहोगा
हिंदी समाज की पीड़ा, उसकी दशा-दिशा, उसकी समकालीन सांस्कृतिक मुद्राओं, आर्थिक बहिष्करण[12]पारंपरिक रीति-रिवाजों आदि को समझने की गंभीर कोशिश का अभाव है। प्रोफेसर आशीष बोस ने हिंदी भाषी राज्यों के प्रथमाक्षर को मिलाकर एक शब्द गढ़ा था बीमारू ! बीमारू सुर्खरू कैसे बने !
i. हिंदी समाज में जिन मुद्दों को लेकर काफी आलोड़न है, उन मुद्दों की अभिव्यक्ति हिंदी साहित्य में किस तरह से हो रही है ? समाज की हालत तो यह है कि `जिसने कुछ रचा नहीं समाज में / उसी का हो चला समाज / वही है नियंता जो कहता है तोड़ूंगा अभी और भी कुछ / जो है खूंखार हँसी है उसके पास / जो नष्ट कर सकता है उसी का है सम्मान / झूठ फिलहाल जाना जाता है सच की तरह।‘[13]इसी सवाल का एक दूसरा पहलू यह भी है कि हिंदी साहित्य की व्यापक स्वीकृति हिंदी समाज में क्यों नहीं बन पा रही है ? कहीं इसका कारण यह तो नहीं कि साहित्य समाज की संवेदित करनेवाले मामलों को अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति से जोड़ कर नहीं चल रहा है ? यह एक सचाई है कि हिंदी साहित्य में कोई आंदोलन नहीं है। साहित्य में किसी प्रकार का आंदोलन होना चाहिए कि नहीं यह भी एक प्रश्न हो सकता है। इस प्रश्न की अर्थवत्ता इस मान्यता में निहित है कि मूल रूप से साहित्य में कोई आंदोलन संभव नहीं, हुआ करता है। बल्कि, समाज में चल रहे आंदोलन ही अपने ढंग से किसी-न-किसी रूप में ─ आंदोलन के पक्ष या विपक्ष में ─ साहित्य में अभिव्यक्त होते हैं।
ii. क्या इस समय कोई सामाजिक आंदोलन नहीं है? न प्रत्यक्ष, न अप्रत्यक्ष ! आंदोलन के मुद्दे तो हैं ! इसके बावजूद अगर आंदोलन नहीं हैं तो साहित्य में और बहुत संवेदनशील कही जानेवाली साहित्यिक विधा कविता में इस निर्वात पीड़ा का प्रभावी रचाव क्यों नहीं हो रहा है ! कविता में किसी आंदोलन के न होने के पीछे कविता की स्वायत्तता की आकांक्षा सक्रिय नहीं है बल्कि सक्रिय सामाजिक सरोकारों से साहित्य की विच्छिन्नता की कूट आकांक्षा है। स्थापित सत्ता आंदोलन नहीं चाहती है, स्थापित शास्त्र भी आंदोलन नहीं चाहता है। जो लोग साहित्य और समाज में आंदोलन नहीं देख पाते हैं, नहीं देख पाने के कष्ट से नहीं गुजरते हैं वे लाख इनकार करें सच बात तो यह है कि वे स्थापित सत्ता और शास्त्र की सेवा में ही सन्नद्ध होते हैं। दूसरी ओर जो लोग कविता की सामाजिक भूमिका के प्रति आदर रखते हैं उन्हें भी गंभीरता से सोचना होगा कि क्या हिंदी समाज में आज सचमुच कोई आंदोलन नहीं है ! न सतह पर और न सतह के नीचे !
iii. `हिंदी कविता में हिंदी समाज‘ जैसे विषय की पीड़ाओं को महसूस किये बिना हम अपनी चिंताओं को चिंतन में नहीं बदल सकते हैं। दुनिया में भारी बदलाव के लक्षण प्रकट हो गये हैं। इस बदलाव प्रक्रिया से गुजर रही दुनिया के विभिन्न समाजों में आत्मान्वेषण का काम नये सिरे शुरू हुआ है। इसी परिप्रेक्ष्य में आज के `नव सामाजिक आंदोलन‘ की गति-मति को समझा जा सकता है। वस्तुत: युरोप केंद्रित यह `नव सामाजिक आंदोलन‘ `उत्तर-आधुनिक‘ प्रेरणा से संचालित है। यह आंदोलन न तो जीवन के आर्थिक प्रसंगों की बात करता है और न ही राजनीतिक प्रसंगों की। यह नागरिक समाज की स्वायत्तता पर ही पूरा जोर देता है। यह राज-शक्ति से स्वायत्त समाज-शक्ति की आकांक्षा रखता है। यह एक अद्भुत आकांक्षा है। अद्भुत यह कि यह राज और समाज के संबंधों को किसी सहजता और सातत्य के सहयोजी प्रसंग में नहीं देखकर इन्हें एक दूसरे के धुर विरोधी के ही रूप में सामने लाता है। सामाजिक न्याय के नाम पर मानवाधिकारों का मामला उठाते हुए राज से छिटक जाने की पेशकश करता है। यह सच है कि समाज और राज दोनों एक ही नहीं हैं। जाहिर है कि समाज-शक्ति ओर राज-शक्ति भी एक ही नहीं हैं। लेकिन आज के समय में समाज-शक्ति हो, या राज-शक्ति हो, उन्हें राजनीतिक प्रक्रियाओं की जटिलताओं से विच्छिन्न करना संभव नहीं है। यह तो ध्यान में रखना ही होगा कि राजनीति को सिर्फ राजनीतिक दलों के सत्ता-समीकरणों तक सीमित मानकर चलना हमें भटकाव में डाल दे सकता है।
iv. सही बात तो यह है कि राजनीतिक सहयोजिता की उपेक्षा से सामाजिक न्याय की अवधारणा समझ में ही नहीं आ सकती है। यद्यपि कुछ जीवन प्रसंग वर्ग संदर्भों से बाहर रहकर भी कुछ दूर तक सार्थक ढंग से समझे जा सकते हैं, लेकिन यह कहना बचकाना ही है कि आज की एक ध्रुवीय होती जा रही दुनिया में वर्ग विलुप्त हो गये हैं। वर्ग के वैश्विक आयाम जरूर प्रकट हो रहे हैं क्योंकि, `लोगों को प्रभावित करनेवाले मामले अब सिर्फ राष्ट्र की सीमाओं में सीमित नहीं हैं। एकीकृत दुनिया में लोकतांत्रिक सिद्धांतों का वैश्विक आयाम है, क्योंकि विश्व नेता और शासक राष्ट्रीय नेताओं की तरह ही उनके जीवन को प्रभावित करते हैं। हाल के दिनों में औद्योगिक और विकसित दोनों ही प्रकार के देशों में भूमंडलीकरण विरोधी अभियान में यह नया यथार्थ उभर कर सामने आया है। हलांकि, इनके विभिन्न रूप हैं और विभिन्न कार्यसूचियाँ हैं फिर भी एक बात पर इनमें साम्य है कि विश्व के गरीब लोगों की समस्याओं के लिए विश्व संस्थाएँ और विश्व नेता जबावदेह हैं। इसे आपातकालीन समस्या माननेवाले ये विरोधी अकेले नहीं हैं।‘[14]
v. `कविता की स्वायत्तता‘ का सवाल हिंदी में भी गंभीरता से उठाया गया है। `आजादी‘ के संघर्ष के आभ्यांतरिक और केंद्रीय रुप-तत्त्व की अभिव्यक्ति कविता में होती है। संस्कृति और राजनीति में अंत:स्संबंध होने के कारण `आजादी‘ के आभ्यांतरिक और केंद्रीय रुप-तत्त्व की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के साथ ही `आजादी‘ के संघर्ष की ऊपरी एवं बाहरी रूप-तत्त्व की राजनीतिक अभिव्यक्ति भी कविता में होती है। हिंदी कविता में यह अभिव्यक्ति किस तरह हुई और हो रही है ? यह कविता के साथ ही कविता की आलोचना के विचार और चिंतन का विषय होना चाहिए। क्या यह राजनीतिक चिंतन है ? एक सवाल यह भी कि क्या इस चिंतन के राजनीतिक पक्ष से किसी जि की हद पर जाकर अलग हो जाने में ही कविता की भलाई है ? कुँवरनारायण अपनी कविताओं में राजनीतिक आग्रहशीलता का आधार ग्रहण करनेवाले कवि के रूप में नहीं जाने जाते हैं। लेकिन एक जागरुक रचनाकार होने के कारण वे अपनी कविता के संभव होने को और इसीलिए राजनीति और साहित्य के रिश्ते की बारीकियों को भी भीतर से जानते हैं। `राजनीति का गलत-सही गहरा प्रभाव साहित्य पर भी पड़ता रहा है। स्वतंत्रता के बाद से भारतीय जीवन और साहित्य में राजनीति का हस्तक्षेप तेजी से बढ़ा है : राजनीतिक चिंतन का नहीं चिंतन रहित राजनीति का और यह एक खास माने में साहित्य के लिए चिंता का कारण है। यूरोपीय राजनीति वहाँ के साहित्य के साथ जितनी गहराई से जुड़ी है उससे कहीं ज्यादा गहराई से वह वहाँ के गैर-साहित्यिक विचारकों से जुड़ी रही है। यूरोप में (अकेले वाम-पंथी चिंतन को ही सोचें तो) मार्क्स के बाद मार्क्सवाद के पक्ष-विपक्ष में सोचनेवाले सशक्त विचारकों की एक लंबी परंपरा है जिसका चिंतन और साहित्य के साथ संवाद साहित्य को अनेक स्तरों पर प्रभावित करता रहा है। लुकाच, गोल्डमान, फिशर आदि का पूरा चिंतन साहित्यिक उदाहरणों से भरा पड़ा है। ऐसी कोई स्थिति भारतीय संदर्भ में नहीं बनती, यहाँ तक की आज गाँधीवादी या समाजवादी या मार्क्सवादी विचारधाराओं और उनकी राजनीति के बीच फर्क करना ही मुश्किल हो गया है। इसीलिए शायद पिछले वर्षों में अधिकांश हिंदी साहित्य भारतीय राजनीतिक यथार्थ को लेकर उग्र और व्यग्र ही ज्यादा रही, विचारशील कम।‘[15]
vi. हिंदी साहित्य में विचारधारा से अधिक विचारधारा की उत्तेजनाएँ ही सक्रिय रही है। विचारधारा का आग्रह साहित्य के प्रतिमान की पीठिका भी बनाता रहा है। अकारण नहीं है कि विचारधारा के प्रति अत्यंत सतर्क मुक्तिबोध काव्य-प्रसंग में अक्सर `भावधारा‘ का संदर्भ लेते थे। विचार करना और भावुक हो जाना मनुष्य के स्वभाव की दो मौलिक वृत्तियाँ हैं। मौलिक वृत्तियाँ एक दूसरे के विपरीत भी हों, तो भी एक दूसरे की विरोधी नहीं हुआ करती हैं, नहीं हो सकती हैं। मनुष्य की मौलिक वृत्तियों को एक दूसरे की विरोधी बनाना मनुष्य के अंत:करण के आयतन को छोटा करने का अपराध करना है। `साहित्य में विचारों और भावनाओं की आपेक्षिक स्थितियाँ, उनके सही या गलत या कमजोर अर्थ-विन्यास पर गुणात्मक असर डालती हैं। अगर एक कवि के स्वभाव में यह आवश्यक संतुलन नहीं है कि वह कविता में विचारों के दबावों और आग्रहों को किस तरह उभारे और सुरक्षित रखे तो ज्यादा संभावना यही है कि वह उन्हें अपने उद्गारों या भावनाओं द्वारा ऊपर से चमका-दमका (ग्लेमराइज) करके रह जायेगा, हमें उनके भीतरी तर्क की शक्ति और अनुभूति तक नहीं पहुँचा पायेगा। जो कवि इस ओर पूरी तरह सचेत है कि विचारशीलता और भावनाएँ आदमी की दो भिन्न प्रकार की (विरोधी प्रकार की नहीं) क्षमताएँ हैं उसकी कविताओं में हम एक खास तरह का विचारों का उदात्तीकरण पायेंगे, मात्र उनका उीपन नहीं।‘[16]अपनी साफ समझ के बावजूद जब कविता की स्वायत्तता का सवाल अशोक वाजपेयी उठाते हैं तो अपने ही तर्कजाल में उलझ जाते हैं। वे मानते हैं कि `कविता की स्वायत्तता का आग्रह उसे राजनीति या जनजीवन से विमुख करना नहीं बल्कि इस बात पर बल देना है कि कविता की सचाई से दूसरे किसी माध्यम में अनुवाद की जा सकनेवाली सचाई नहीं है, कि कविता का सचाई से और इसलिए जीवन से उतना ही सीधा और अर्थसमृद्धिकारी संबंध है जितना कि राजनीति का, कि कविता के लिए समकक्षता की माँग शक्ति और सत्ता के राजनीति के पक्ष में झुके संतुलन को चुनौती देना है, कि कविता राजनीति की तरह पर्याप्त कर्म है और कि कविता भाषा में ऐसा कुछ करती है और उसके माध्यम से जीवन में, जो कि राजनीति या अन्य अनुशासन नहीं कर सकते।‘[17]उनकी उलझन तब हमारे सामने अधिक साफ होती है जब हम पाते हैं कि जनजीवन साहित्य के भीतर की घटना नहीं है। बल्कि, साहित्य जनजीवन के भीतर की घटना है। जनजीवन के प्रति उन्मुख होने का मतलब है साहित्य के स्वायत्त-शासी क्षेत्र से बाहर के अनुशासनों के प्रति उन्मुख होना। वैसे भी हिंदी पट्टी की व्यावहारिक राजनीति के लिए कविता की महत्त्वहीनता किसी से छिपी नहीं है। हिंदी पट्टी की व्यावहारिक राजनीति तत्काल का चारण और महाकाल का विदूषक है। सच तो यह है कि राजनीति कविता को सीधे प्रभावित करने की न तो इच्छा रखती है और न ऐसा करने से उसे कोई तात्कालिक लाभ होता है। कहना न होगा कि स्वायत्तता तो सत्ता का मामला है। सत्ता यानी इच्छित परिणाम को पा लेने की क्षमता। जनजीवन के पक्ष में इच्छित परिणाम को पा लेने की दृष्टि से कविता की सत्ता राजनीति की सत्ता के सामने काफी कमजोर होती है या होती ही नहीं है। काश कि जनजीवन की समस्याओं को लेकर लोग कवियों –साहित्यकारों के सामने भी वैसी ही गुहार लगाते जैसी कि राजनीति या राजनेताओं के सामने लगाते हैं !
vii. साहित्य की पूँजी भाषा है। उस भाषा पर ही साहित्य का कितना अधिकार है ! `जो भाषा साहित्य की बुनियाद है वही अगर समाज के निहित स्वार्थों द्वारा शोषण और झूठ का तकतवर साधन बन जाती है तो साहित्य के लिए उसमें विश्वसनीय जगह बनाना सबसे मुश्किल हो जाता है। मूल्यों को जाँचने-परखने का सबसे संवेदनशील माध्यम, यानी भाषा, अगर वयवहार में खुद ही खोटी और कुंद हो जाये तो वैचारिक और भावनात्मक स्तर पर उसकी कोई साख नहीं बचती। साहित्य की एक लड़ाई स्वयं भाषा के गिरते हुए मूल्य को, उसकी स्वतंत्रता, प्रामाणिकता और ईमानदारी को बचाये रखने की कोशिश है।‘[18]कहना न होगा कि भाषा के गिरते हुए मूल्य को, उसकी स्वतंत्रता, प्रामाणिकता और ईमानदारी को बचाये रखने की कोशिश साहित्य के अंदर से करना जरूरी है। इस तरह की कोशिश साहित्य के बाहर एवं समाज के अंदर किये जाने की भी जरूरत है। समाज के निहित स्वार्थों से मुकाबला समाज में जाकर ही किया जा सकता है ; अपने घर में बैठकर ऐसे मुकाबले नहीं किये जाते हैं! दूसरी तरफ ऐसे प्रखर विचारक भी रहे हैं जो साहित्य को विचारशीलता की छूत से दूर ही रखने के हिमायती हैं। कुँवरनारायण साहित्य में राजनीतिक यथार्थ से ऊपजी उग्रता और व्यग्रता से बचने की जितनी जरूरत महसूस करते हैं, उससे भी अधिक जरूरत विचारशीलता को बनाये रखने की महसूस करते हैं। शायद इसलिए भी कि विचार का शील कायम रहने पर विचार की उग्रता और व्यग्रता की सामाजिक स्वीकार्यता केे बनने कोे, कुछ हद तक ही सही पर, रोका जा सकता है।
viii. 1934 में निराला के कहे का हवाला देते हुए कहा जाता है कि ”जो केवल दूसरों के विचारों का संग्रह करते हैं वे लेखक नहीं। वे तो साहित्यिक मजदूर हैं। उनके परिश्रम का मूल्य अवश्य है, परंतु शाश्वत साहित्य के मंदिर में उन्हें कोई स्थान प्राप्त नहीं हो सकता।”[19] ध्वनि यह कि जिसे नश्वर संसार के शाश्वत साहित्य के मंदिर में जगह सुरक्षित रखनी हो उन्हें दूसरों के विचारों से दूरी बनाकर रखनी चाहिए ! निराला के कहे का क्या वही आशय है जिसे घ्वनित करने का भोलापन यहाँ दिखता है! वैसे भी शाश्वत के आग्रही देवपुरुषों के लिए तो पूरी दुनिया ही`द्वितीया‘ होती है। निराला का आशय तो सिर्फ इतना ही प्रतीत होता है कि विचार को अपने विवेक और काव्यचेतना की संगति के बिना ज्यौं का त्यौं काव्यारोपित करना गलत है। वे मजदूरों के महत्त्व को भी कम नहीं आँकते हैं! प्रेमचंद क्या कहते हैं ? यह जानना इसलिए भी अधिक दिलचस्प है कि उनका साहित्य महत्त्वपूर्ण भी है और उसमें विचार का भी पूरा निभाव है। वे अपने को साहित्य का मजदूर ही मानते थे `”मैं मजदूर हूँ। जिस दिन न लिखूँ, उस दिन मुझे रोटी खाने का अधिकार नहीं है” ये शब्द उनके होठों के सिर्फ आभूषण नहीं थे।‘[20] इतने साहस की माँग कवि से करना अन्याय है ! साहस न हो तो शब्द मरेंगे ही और साहित्य के सुहाग का लालित्य मलीन होगा ही !
ix. सच तो यह है कि असल संघर्ष, साहित्य की स्वायत्त सत्ता की जरूरतों से नहीं मनुष्य की बहुस्तरीय और बहुआयामी आजादी की जरूरतों से तय होता है। क्या यह अकारण है कि जिस देश-समाज में मनुष्य को जितनी बहुस्तरीय और बहुआयामी आजादी हासिल होती है उस देश समाज में कविता भी उसी अनुपात में स्वायत्त होती है। क्या जिस देश-समाज में मनुष्य को ही आजादी हासिल नहीं है उस देश-समाज में साहित्य की स्वयात्त सत्ता का सवाल मनुष्य को उद्वेलित करने के बजाये उलटे उसका मुँह नहीं बीराने लगता है ? यह सवाल इसलिए भी जरूरी है कि स्वायत्तता का मुा अपने निहितार्थ में समाज के संघर्ष से ही विच्छिन्नता का आधार बनाता है सत्ता से संघर्ष करने का आधार नहीं बनाता है। बाह्य औपनिवेशिक वातावरण के अंदर और उससे मुक्ति के संघर्ष के बीच आधुनिक भारत का गठन हुआ। औपनिवेशिकता का महीन तंतुजाल ऐसा होता है कि उसके अन्वयों और अवयवों को अलग से पहचानना भी मुश्किल होता है। इसका एक प्रभाव यह है कि भारत में `बाह्य औपनिवेशिक वातावरण‘ से मुक्ति और `आजादी‘ एक दूसरे के समव्यापी पर्याय बनते चले गये। यद्यपि`आंतरिक औपनिवेशिक वातारण‘ से मुक्ति का सवाल भी बीच-बीच में सिर उठाता रहा, इस संदर्भ में कुछ सक्रियता भी उस दौर में देखने को मिलती है लेकिन इस सक्रियता को अनिवार्यत: `बाह्य औपनिवेशिक वातावरण‘ से मुक्ति के सवाल से नत्थी करके ही समझा गया। इस प्रसंग में, महात्मा गाँधी और डॉ. आंबेदकर के संदर्भ का स्मरण भर कर लेना पर्याप्त है। उस समय यह मान्यता बनी कि एक बार अगर`बाह्य औपनिवेशिक वातावरण‘ के सवाल को हल कर लिया गया तो `आंतरिक औपनिवेशिक वातारण‘ से मुक्ति के सवाल को हल कर लेना आसान हो जायेगा। कुछ लोग तो यह मानते थे कि `आंतरिक औपनिवेशिकता‘ से मुक्ति का कोई सवाल है ही नहीं, और अगर हो भी तो यह स्वत: हल हो जायेगा ! कुछ लोग ऐसे भी थे जो इसे अपनी सांस्कृतिक विशिष्टता ही मानते थे। इसको लेकर आजादी के आंदोलन के महानायक महात्मा गँधी के अंतर्मन में भी कम उलझनें नहीं थीं। भारतीय समाज ─ खासकर हिंदी समाज ─ के हिंदु-पक्ष की सवर्ण-चेतना में इस तरह की उलझनें आज भी बनी हुई हैं। इन उलझनों को सांस्कृतिक स्तर पर काटने के बदले साहित्य में इसी मनोभाव के समावेश के लगातार सुदृढ़ होते चले जाने के कारण दलित लेखन के संदर्भों को अलग से देखने और उसके लिए सम्मानजनक जगह बनाने की अनिवार्यता हमारे सामने है।
x. `स्वायत्तता‘ और `आजादी‘ से कविता के रिश्ते को सामने रखते हुए एक बात निर्विवाद ढंग से कही जा सकती है कि कविता से मनुष्य की मुक्ति के सपनों का संबंध प्रारंभ से ही रहा है। हाँ यह जरूर है कि मुक्ति का स्वरूप और निहितार्थ सब समय एक ही नहीं रहा है। मोक्ष, निर्वाण जैसे प्रसंग तो हैं, इसके सामाजिक और सामुदायिक प्रसंग भी हैं। पूरी दुनिया में भूमंडलीकरण के प्रभाव के प्रतिकार में स्थानिकता, जो अधिकतर मामलों में सभ्यता का हाशिया ही ठहरती है, का नया प्रक्षेत्र बन रहा है। इस हाशिये पर नये संघर्ष का कोलाहल है। हिंदी समाज के हाशिये पर वर्ग के साथ ही दलित और स्त्री सवालों के नई रस्साकशी चल रही है। भूमंडलीकरण के दौर में सभ्यता और इसलिए कविता और साहित्य का ही`विचारधारा‘ और `भावधारा‘ का भी पैराडाइम बदल गया है। हिंदी साहित्य में भी इस बदलाव के नजरिये से काव्य-प्रमाण जुटाये जा सकते हैं। आनेवाले दिनों में रची जानेवाली कविता में इसे पकड़ पाना और समझ पाना अधिक आसान होगा।
i. आज कुछ लोग एक-ध्रुवीय बनती जा रही दुनिया में वर्गबोध को अप्रासंगिक मान रहे हैं। ध्यान में रखने की बात यह है कि दुनिया में वर्गों की अवस्थिति या वर्गविभाजन का कारण दुनिया की बहुध्रुवीयता नहीं थी, इसलिए दुनिया के एकध्रुवीय, जो हकीकत से अधिक बोध है, होते जाने से वर्गसंरचना में ही क्या अंतर आ सकता है ! उदाहरण के लिए कहा जा सकता है कि पर्यावरण को लेकर चलनेवाला आंदोलन एक गैर-वर्गीय आंदोलन है। लेकिन क्या सचमुच ? `भूमंडलीकरण ने बहुत बहुत सारे लोगों की पारंपरिक आजीविका और स्थानिक समुदाय को छिन्न-भिन्न कर देने के साथ ही पर्यावरण की अक्षुण्णता एवं सांस्कृतिक विविधता के लिए खतरा पैदा कर दिया है।‘[21]तो क्या पर्यावरण के उच्चवर्गीय, मध्यवर्गीय और कामगारों एवं आदिवासियों के जुड़ाव और मुद्दे क्या बिल्कुल एक ही हैं ? साहित्य को `पर्यावरण की अक्षुण्णता एवं सांस्कृतिक विविधता‘ को बचाने के लिए अपने उत्स में विस्तार करना होगा रचनाकारों के जीवनानुभव का विस्तार ही सांस्कृतिक विविधता को बचाये रख सकता है। इसके अभाव में कविता सिर्फ मध्यवर्गीय हाहाकार या फिर जयजयकार बनकर रह जायेगी।
ii. आज विराजनीतिकरण पर काफी जोर दिया जा रहा है। विराजनीतिकरण पर जोर देने के पीछे राजनीति की इकहरी और राजसत्तात्मक समझ है। सामाजिक परिवर्तन के लिए किया गया कोई भी प्रयास श्रम और संपत्ति के संबंधों में बदलाव, संसाधानों के वितरण, चिरंतन विकास के लिए भूमंडलीय पर्यावरण के संदर्भों से जोड़कर ही संभव होता है। समग्रता से इन्हें राजनीति ही संगठित कर सकती है। इालिए मुक्तिबोध ने कहा था कि `जो लोग साहित्य के केवल सौंदर्यात्मक मनोवैज्ञानिक-पक्ष को चरम मानकर चलते हैं, वे समूची मानव-सत्ता के प्रति दिलचस्पी न रखने के अपराधी तो हैं ही, साहित्य के मूलभूत तत्त्व, उनकेे मानवी अभिप्राय तथा मानव विकास में उनके ऐतिहासिक योगदान अर्थात दूसरे शब्दों में साहित्य के स्वरूप-विश्लेषण तथा मूल्याँकन न कर पाने के भी अपराधी हैं। साहित्य का अध्ययन एक प्रकार से मानव-सत्ता का अध्ययन है; अतएव जो लोग केवल ऊपरी तौर पर साहित्य का ऐतिहासिक सिंहावलोकन अथवा साहित्य का समाजशास्त्रीय निरीक्षण कर चुकने में ही अपनी इति-कर्तव्यता समझते हैं, वे भी एकपक्षीय अतिरेक करते हैं। ऐसे व्यक्ति साहित्य के ऐतिहासिक अथवा समाजशास्त्रीय परिवेश की बात कर चुप हो जाते हैं। आवश्यकता तो इस बात की है कि आलोचना में ऐतिहासिक-समाजशास्त्रीय तथा मनोवैज्ञानिक-सौंदर्यात्मक विवेचना की संपूर्ण एकात्मकता रहे।‘[22]अतिरेकों से बचते हुए संपूर्ण मानव-सत्ता कविता के होने और पढ़े जाने का आधार है। असामाजिक अतिरेकों से बचने और सामाजिक आवश्यकताओं को बरतने में ही कविता के लिए अपने समाजबोध को पाना संभव हो सकता है। यह समाजबोध ही कविता की समाज-सापेक्ष समझ हासिल करने का आधार तैयार करेगा।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
बहुत ही विचारोत्तेजक लेखक। साहित्य के समाज शास्त्र की तरह कविता के समाज शास्त्र के लिए एक सार्थक पहल। बधाई प्रफुल्ल भाई और अनहद को…..
अनिमेष रंजन
मन में अनेक सवाल जगाने वाला आलेख है |किन्तु कविता के समाजशात्र की बजाय कविता और समाज के रिश्तों के सभी आयामों का तर्कसंगत एवं प्रामाणिक विश्लेषण करते हुए जो निष्कर्ष निकलेंगे ,उनसे आगे के लिए स्थिति साफ़ होगी | कविता और समाज के बीच उस कवि-चरित्र का विश्लेषण भी बहुत जरूरी है ,जिसके ऊपर मुक्तिबोध ने अपने समय में बहुत जोर दिया था |उस समय उनको अपने आस-पास के साथी मित्र -कवि उच्च एवं उच्च-मध्यवर्गीय जीवन जीने की आंकाक्षाओं के जंगल के भीतर विचरण करते दिखाई देते थे इस उत्तर -आधुनिक समय में तो हालात और विकट हो गए हैं |इसलिए जो भी विचार-प्रक्रिया बनती है वह बहुत ऊपरी और सतही चर्चा की तरह होकर रह जाती है |मुक्तिबोध की इस बात का हमारे पास क्या जवाब है —–जिसमें डोमाजी उस्ताद के साथ जुलूस में साहित्यकार भी शामिल है |इसलिए कविता की चिंता के साथ-साथ जीवन की चिंता उससे ज्यादा होनी चाहिए ,|खासतौर से उस समाज-वर्ग की, जहाँ समाज के साथ- साथ जीवन भी बचा हुआ है |समाज तो अनेक तरह के लोगों से मिलकर बनता है किन्तु जीवन —-सच्चे अर्थ में वहीँ होता है जहाँ लोगों की 'आत्मा'' जीवित रहती है |इसलिए मुक्तिबोध ने आत्मा के सवाल को कविता में जिस तरह से रचाया-बसाया है ,वैसा कोई दूसरा नहीं कर पाया |उनके लिए कविता ,जीवन-मरण जैसा प्रश्न बन गया था उन्ही के शब्दों में " जीवन चिंता के बिना साहित्य -चिंता नहीं हो सकती |जीवन चिंता के अभाव में साहित्यिक आलोचना निष्फल और वृथा है |किन्तु यह जीवन – चिंतन व्यापक जीवन जगत में घनिष्ठ और गंभीर भाग लिए बिना रीता है |" कहने की जरूरत नहीं कि मुक्तिबोध ''व्यापक जीवन-जगत में घनिष्ठ और गंभीर भाग " लेने की बात करते हैं |इसके अभाव में कविता का जो समाजशास्त्र बनेगा वह मध्यवर्गीय समाज की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर पायेगा , जैसे कविता नहीं कर पाती है |
आदरणीय भाई जीवन सिंह जी के प्रति मैं आभार प्रकट करता हूँ कि उन्होंने मेरे इस आलेख को गंभीरतापूर्वक पढ़ा। न सिर्फ पढ़ा बल्कि अपनी राय से भी अवगत कराया। मैं इस प्रतीक्षा में था कि और कुछ मित्रों की राय सामने आ जाये फिर अपने इस आलेख की कतिपय सीमाओं को समझकर उस पर अपनी बात कहूँ। मित्रों की राय की प्रतीक्षा अभी बनी हुई है। इस प्रतीक्षा को बनाये रखते हुए भी आदरणीय जीवन सिंह की बात को आगे बढ़ाने जरूरी लग रहा है।
आदरणीय जीवन सिंहजी ठीक ही कहते हैं कि कविता के समाजशात्र की बजाय कविता और समाज के रिश्तों के सभी आयामों का तर्कसंगत एवं प्रामाणिक विश्लेषण करते हुए जो निष्कर्ष निकलेंगे, उनसे आगे के लिए स्थिति साफ़ होगी | कविता और समाज के बीच उस कवि-चरित्र का विश्लेषण भी बहुत जरूरी है। मैं सिर्फ कविता के समाजशात्र की बजाय, के बदले कविता के समाजशात्र के साथ को जोड़ना चाहता हूँ। पहली बात तो यह है कि कविता और समाज के रिश्तों के संदर्भ में कवि के जीवन चरित के विश्लेषण के लिए कवि के संबंध में अधिक व्यापक और प्रामाणिक जानकारी की जरूरत होगी। इस जरूरत को पूरा कर पाना कठिन होगा। खासकर प्रामाणिकता के मामले में। दूसरी और कदाचित अधिक ध्यान देने योग्य बात मुझे लग रही है वह यह कि किसी खास संदर्भ में किसी खास साहित्यकार के जीवन चरित के बारे में कुछ हद तक बात करना और बात है लेकिन आम तौर पर प्रत्येक साहित्यकार के जीवन चरित के बारे में बात करना कितना उचित होगा, उसकी निजी जिंदगी में ताक-झाँक का कितना अधिकार आलोचक को होना चाहिए इस पर भी विचार करना उचित होगा। इन सबके बाद अंततः इसकी उपयोगिता कितनी होगी रचना के सामाज-केंद्रित और पाठक-उपयोगी विवेचन-विशलेषण में यह भी विचारणीय है। इस समय मुझे लगता है कि आलोचक के पास प्रमाण तो विशिष्ट साहित्य का पाठ और निर्विशिष्ट समाज ही होता है। पाठ की स्वतंत्र सत्ता के लिहाज पर भी बात करनी होगी। मेरी यह धारणा है इस समय कि आलोचना की भूमिका पाठ और पाठक के संबंध के संदर्भ में तो बहुत आवश्यक होती है लेकिन पाठ के प्रस्तोता व्यक्ति (अर्थात रचनाकार) और पाठ के आधार-स्रोत (अर्थात समाज) के बीच आलोचना की क्या भूमिका बन सकती है इसे बहुत सावधानी से समझे जाने की जरूरत है। डोमाजी उस्ताद के साथ जुलूस में साहित्यकार भी शामिल हैं यह बात सच है। डोमाजी उस्ताद का सयानापन आज जिस तरह से अपनी बहुवचनीयता को विकसित कर पाया है उसे देखते हुए यह समझ पाना बहुत मुश्किल नहीं होना चाहिए कि डोमाजी उस्ताद का नहीं उस्तादों का जुलूस हमारे समय में निकला करता है। डोमाजी की शख्सियत आज शतरूपा-सहस्त्र-रूपा है। रही बात कविता के समाज शास्त्र के मध्यवर्गीय समाज की सीमाओं के अतिक्रमण कर पाने की तो मुझे लगता है कि जिस सीमा को कविता नहीं तोड़ पा रही है उस सीमा को तोड़ने की कोशिश का अच्छा खासा खमियाजा हिंदी साहित्य और हिंदी समाज को भोगना पड़ा है। हिंदी में विचार, आलोचना और साहित्य भी बहुत प्रगतिशील है लेकिन सामाजिक रूढ़ियाँ ? और इस साहित्यिक प्रगतिशीलता के साथ सामाजिक संबंध? आलोचना को अपने रचनाकारों से सामान्य तौर पर, सहानुभूति रखनी होगी उन पर दोषारोपण कतई उचित नहीं होगा। आलोचना को रचना से होड़ लेने की बात सोचनी भी चाहिए। रूपक में कह रहा हूँ, रूपक की सीमा होती है उसके कथ्य को भटकाया जा सकता है फिर भी रूपक में कह रहा हूँ कि बैल-गाड़ी को बैल खींचते हैं जिनके कंधे पर जुआ लदा होता है, वे कुत्ते नहीं जो आगे-आगे दौड़ रहे होते हैं।
लेकिन मैं आभारी हूँ, बहुत आभारी हूँ कि आदरणीय भाई जीवन सिंह ने एक महत्त्वपूर्ण आयाम का ध्यान दिलाया है। मैं इस दिशा में गंभीरता से सोचूँगा साथ ही अन्य साथियों से भी उम्मीद करता हूँ कि वे भी जरूर सोचेंगे और मुझे तथा विषय को समृद्ध करेंगे। अभी तो इतना ही।