भाई महेश वर्मा ने परस्पर के लिए जो प्रश्नों की श्रृंखला तैयार की थी, उसके उत्तर में ये कुछ बेतरतीब बातें….
कविता मूल विधा है – अन्य विधाएं बाद की उपजी हुई हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो कविता ने बहुत लंबा सफर तय किया है। कई परिवर्तनों से गुजरते हुए आज की कविता का जो स्वरूप खड़ा हुआ है उनमें उन पड़ावों के निशान के साथ आज के समय की नुतनता भी है। एक विधा के रूप में कविता में जो परिवर्तन घटित हुए हैं, उससे अधिक परिवर्तन हमारे समय में है – समय लागातार जटिल से जटिलतर हुआ है। आज की कविता की सबसे बड़ी चुनौती समय की इस जटिलता को अपनी पूर्ण कलात्मकता और संजीदगी-सच्चाई से उकेरने की है। कविता की संरचना की सबसे बड़ी चुनौती वर्तमान जटिल सामयिक परिप्रेक्ष्य में स्वयं को उतनी ही ताकत के साथ खड़ा करना है। जाहिर है कि रूप और अंतर्वस्तु में एक व्यापक परिवर्तन की जरूरत है – यह वह जरूरत है जो आगे बढ़कर अपठनीयता के संकट से भी जुड़ती है।
शुरू दौर में जब लेखन की शुरूआत हुई तब हमारे सामने पाठ्य पुस्तकों की कविताएं थीं। उस समय केदारनाथ अग्रवाल, आरसी प्रसाद सिंह, रामधारी सिंह दिनकर, निराला, प्रसाद आदि कवियों की रचनाएं पढ़ने को मिली थीं. वह भी भारी मात्रा में नहीं, एक-आध कविताएं ही। बाद में निराला और मुक्तिबोध ने बहुत प्रभावित किया। निराला, मुक्तिबोध के साथ एक और नाम सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का लेना चाहिए जो पसंद सूची में चुपके से शामिल हो गया था। निराला और मुक्तिबोध के अलावा जिस कवि की कविताएं कंठस्थ हुईं, उनमें सर्वेश्वर दयाल सक्सेना भी थे। केदार नाथ सिंह से होते हुए उदय प्रकाश आदि कवियों की एक लंबी सूची है जो अब काफी बड़ी हो चुकी है। जो कल प्रिय थे वे आज भी हैं। हां, बच्चन, नीरज और दिनकर अब उतने प्रिय नहीं रहे।
शुरूआती लेखन में पाठ्य पुस्तकों के कवियों का प्रभाव था। शुरू की लिखी हुई देश भक्ति की कविताएं आज बहुत ही बचकानी लगती हैं। उस समय कविता का मतलब तुक और लय हुआ करता था मेरे लिए। लेकिन मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि मेरे लेखन में भोजपुरी लोक गीत और लोक संस्कृति का गहरा प्रभाव रहा। गंभीर लेखन जब शुरू हुआ तो मेरे जेहन में मेरा गांव था, एक ऐसा गांव जो आजादी के लंबे वर्षों बाद भी जरूरी सुख-सुविधाओं से बहुत पीछे छुटा हुआ था। जब कविताएं लिखनी शुरू की तो एक कवि ने अप्रत्यक्ष तौर पर हमेशा साथ दिया, वह कवि थे केदारनाथ सिंह जिनके यहां लोक की एक लंबी परम्परा दृष्टिगत होती है। लेकिन मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि उन्ही से सीख लेते हुए ही उनसे अलग मैंने अपने समय के गांव को एक अतिरिक्त सजग निगाह से देखने की कोशिश की।
लिखने की प्रक्रिया या रचना प्रक्रिया का कोई खास ढर्रा मेरी समझ में नहीं आता। मुझे आस-पास की चीजें हमेशा प्रभावित करती हैं। कई बार मैं चुप-चाप लोगों की नजर बचाकर किसी खास चीज या किसी खास व्यक्ति को निहार सकता हूं। यदि मैं रेल में सफर कर रहा हूं और दो लोग आपस में बात कर रहे हों तो उनकी बातें बहुत ध्यान से सुनने से खुद को रोक नहीं पाता। उनकी बातों में उनका अपना दुख हो सकता है, अपने अनुभव हो सकते हैं। मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बात करने वाले समाज के किस श्रेणी से आते हैं। लेकिन इस तरह बहुत धीमें मैं उनके दुख या खुशी में शामिल हो जाता हूं। इस तरह मेरे अपने जीवन के सरोकार और बाहर की दुनिया में घटित परिवर्तन मिलकर मेरे अंदर कविता का एक संसार रचते हैं। जिसे मैंने झेला नहीं, जिस अनुभव से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष मैं गुजरा नहीं, उन अनुभवों को मैं अपनी कविता का विषय बना ही नहीं सकता। किसी राह में मिल गया कोई मुसाफिर, आपस में अपने सुख-दुख बांटते कुछ लोग, मेरे गांव के निठाली हरिजन या और ऐसे ही कई लोग मेरे साथ बैठकर मेरी कविता पूरी करने में मदद करते हैं। और समय का दबाव अपना काम करता ही है।
कविता में विचार होना तो बेहद जरूरी है। विचार कविता में मेरूदण्ड की तरह है। विचारों के अलग-अलग खाने हो सकते हैं या कई बार कई विचारों की एक जटिल श्रृंखला भी कविता में व्यक्त हो सकती है। लेकिन कविता में आए विचार कई बार बेहद सुक्ष्म या अदृश्य रूप में आने चाहिए, यह कविता को कविता बने रहे देने की पहली शर्त है। विचारों का स्थूल प्रयोग काव्यात्मकता को नष्ट कर सकता है। विचार या विचारधाराओं के आधार पर कवि और कविताओं को विभिन्न वर्गों में बांटकर देखने की प्रवृति का मैं कभी कायल नहीं रहा। कविता का एक ही वर्ग कविता हो सकता है। लेकिन इसको वर्ग में बांटना ही पड़े तो कविता के दो वर्ग खराब और अच्छी कविताओं के हो सकते हैं। यह खराब और अच्छा कहने की कसौटी भी इमानदारी, मानवीय प्रेम और ऐसे अच्छे व्यवहार और कृत्य होने चाहिए जिनसे यह दुनिया अच्छी और सुंदर बनती है। मेरा हमेशा मानना है कि साहित्य की ( कला की भी) सभी विधाएं इस दुनिया को सुंदर बनाए रखने के उद्देश्य से ही बनी हैं। यह जिम्मदारी कविता पर मैं कुछ अधिक महसूस करता हूं।
कविता की समकालीन समस्याओं के बारे में कई लोगों ने इशारा किया है। मेरे अग्रज तुल्य प्रफुल्ल कोलख्यान ने मुझसे कई बार यह बात कही है कि कविता से नीजपन गायब होता जा रहा है। आजकल कविताएं ‘ट्रिक’ से लिखी जा रही हैं। कई बार उनकी बातें सच लगती हैं। हम कविता लिखते समय अपने अनुभव संसार का इस्तेमाल करने की बजाय कविता को वैश्विक बनाने की फिराक में लग जाते हैं। कविता की जनपदीयता और व्यापक सरोकारों से संश्लिष्ट नीजपन आज की कविता से गायब होता जा रहा है। यह मेरी नजर में कविता की एक बड़ी समस्या है। आज कविता पढ़कर कविताएं लिखी जा रही हैं। जाहिर है कि कविताएं छप तो बहुत रही हैं लेकिन अच्छी कविताओं की संख्या बहुत ही कम है। एक संकट कविता की अपठनीयता का भी है।
ऐसा नहीं है कि यह समस्या सिर्फ हिन्दी की है। अन्य भारतीय भाषाओं में भी यह संकट है। कविता अपने फॉर्मेट और कथ्य के स्तर पर निरंतर संघर्ष कर रही है। बांग्ला की कविताओं के पाठक बहुत रहे हैं। लेकिन बाजार के दबाव ने बांग्ला में भी यह संकट पैदा की है। बांग्ला में जय गोश्वामी मेरे प्रिय कवियों में रहे हैं।
समकालीन कविता के मूल्यांकन के उपकरण आज भी वही हैं जो कल थे। लेकिन मेरे खयाल से आज जो कविताएं लिखी जा रही हैं उनके मूल्यांकन के लिए अन्य नए उपकरणों की दरकार तो है ही। कविताएं समय की जटिलता के साथ और जटिलतर हुई हैं। आज तेजी से परिवर्तित हो रहे समय के प्रभाव कविताओं में भी संश्लिष्ट हैं। उन प्रभावों को खोलना और उनका साकारात्मक विवेचन भी बेहद जरूरी है। यह अलग तरह के उपकरण की मांग करता है।
कविता के पाठक कम हैं, यह सच है। आज की कविता की एक बड़ी समस्या यह भी है कि वह निरंतर पाठकों से दूर हुई है। कवियों के दो वर्ग यहां देखने में आते हैं। एक वह कवि जो अकादमिक हैं दूसरे वह जो मंचीय कवि हैं। अकादमिक कविता इतनी अधिक बौद्धिक हो गई है कि आम पाठक उससे डरकर कोशों दूर भागता है और मंचीय कवियों ने लोगों को चुटकुले सुनाने शुरू कर दिए हैं। एक रास्ता बाबा नागार्जुन ने दिखाया था, वे समान रूप से आम और बौद्धिक दोनों पाठकों के पसंदीदा कवि थे। बांग्ला में यह समस्या नहीं रही है। इसका कारण यह रहा है कि यहां नवजागरण हो चुका है और साहित्य के विकास के साथ यहां के लोगों का बौद्धिक विकास भी समान रूप में हुआ। हिन्दी का विकास तो बहुत हुआ। साहित्य में नए परिवर्तन और आंदोलन हुए लेकिन उसी अनुपात में आम लोगों की साहित्यिक-बौद्धिक समझदारी नहीं बढ़ी। बांग्ला या अन्य भाषाओं की तरह पढ़ने की संस्कृति का भी हिन्दी क्षेत्र में सदा से घोर अभाव रहा है। इस तरह आज यह गैप और बढ़ा है।
समकालीन पत्रिकाएं कविता के लिए स्पेस तो रखती हैं लेकिन जिस तरह कहानी केन्द्रित पत्रिकाएं हैं उस तरह कविता केन्द्रित कोई उल्लेखनीय पत्रिका नहीं है। कई पत्रिकाओं में कविताएं एक कोरम की तरह छाप दी जाती हैं। कविता के छापने-छपने का कोई समाजिक सांस्कृतिक आधार भी कम ही देखने में आता है। कुछ पत्रिकाएं बीच-बीच में कविता विशेषांक निकालती हैं, तो कविता के लिए एक जगह-सी बनती दिखती है, वरना आजकल प्रकाशक भी कविता को घास डालते नजर नहीं आते। कुछ लोगों ने आजकल यह कहना भी शुरू किया है कि यह गद्य का दौर है, लेकिन मेरा मानना है कि कविता हर दौर में सबसे अधिक महत्वपूर्ण होती है। उसे आज अधिक स्पेस देने के साथ ही कविता को खुद भी बदलना होगा। यह बदलाव कैसा होगा यह तो अभी कह पाना बिल्कुल कठिन है, लेकिन अकादमिक और मंचीय कविता के बीच से कोई रास्ता निकल सकता है। साथ ही कविता के प्रति लोगों के रूझान में भी वृद्धि करने के साथ ही एक विवेकवान पाठक वर्ग को निर्मित करना भी एक बड़ी चुनौती है।
जिन कवियों को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है वे तथाकथित बड़े और स्थापित कवि हैं। कविता की समृद्ध परंपरा की समझ के लिए तुलसी, कबीर से होते हुए प्रसाद निराला, अज्ञेय नागार्जुन, मुक्तिबोध और केदारनाथ सिंह आदि को शामिल करना जरूरी भी है लेकिन मेरा मानना है कि समकालीन कवियों को भी पाठ्यक्रम में शामिल करना एक सार्थक कदम होगा। यह इसलिए भी कि केदारनाथ सिंह के बाद भी हिन्दी कविता ने एक लंबी, सार्थक और समृद्ध दूरी तय की है। उदय प्रकाश, अरूण कमल, राजेश जोशी से लेकर आज के कवि मनोज कुमार झा, नील कमल, निशांत, गीत चतुर्वेदी, अशोक कुमार पाण्डे, महेश पुनेठा, व्योमेश शुक्ल ( यह सूची काफी लंबी है) तक की कविताओं को पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए। मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं कि महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले अधिसंख्य विद्यार्थियों के पास समकालीन कविता की कोई सही जानकारी नहीं है। वे केदारनाथ सिंह को तो जानते हैं लेकिन बोधिसत्व, बद्री नरायण, एकांत श्रीवास्तव और अरूण शीतांश को नहीं जानते। समकालीन कविता को पाठ्यक्रम में शामिल कर समकालीन कविता के प्रति एक तरह की अजनबीयत को दूर किया जा सकता है।
छन्द की विदाई तब भी नहीं हुई थी जब निराला मुक्त छंद की वकालत कर रहे थे। मुक्त छंद भी एक तरह का छंद ही था, हां, उसने शास्त्रिय रूढ़ियो से कविता को मुक्ति दिलाई। यह सही है कि यह दौर गद्य कविताओं का है, लेकिन मैं उसमें भी एक तरह के लय और छंद की उपस्थिति को स्वीकार करता हूं। बहुत सारे कवियों ने छन्द ( हालांकि वह भी एक तरह का मुक्त छंद ही है) में भी कविताएं लिखी हैं। अब भी लिखी जा रही हैं, हां यह जरूर है कि ऐसी स्तरीय कविताएं बहुत कम हैं।
समकालीन कविता की कोई प्रतिनिधि दार्शनिक प्रवृति आज देखने में नहीं आती। हम इतिहास से जानते हैं कि कविता से जुड़े कई आन्दोलन हुए और उन आन्दोलनों के मूल में कोई न कोई दार्शनिक प्रवृति या सोच जरूर थी। मेरा मानना है कि बड़ी कविताएं बड़े जनआन्दोलनों के समय लिखी जाती हैं। सामाजिक आन्दोलन का कविता पर और कविता का समाजिक आंदोलन पर प्रभाव मेरी समझ में एक निर्विवाद तथ्य है। समकालीन मनुष्य जिस तरह आत्मकेंद्रण का शिकार हुआ है और लोगों की जनसहभागिता घटी है, ऐसे में कविता के कमजोर हो जाने की आशंका तो उठ खड़ी होती ही है। लेकिन अगर मुझसे कोई पूछे तो मैं अपनी कविता की दार्शनिक प्रवृति भले बता दूं लेकिन वह समकालीन कविता की भी दार्शनिक प्रवृति होगी, यह जोर देकर नहीं कह पाऊंगा। बहरहाल, इस सवाल को मैं अपने अग्रज कवियों के लिए छोड़ देता हूं।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
महत्वपूर्ण लेख…धन्यवाद बिमलेश जी
बेहद उपयोगी लेख!!धन्यवाद!!
कविता पर ये बातें बेतरतीब ज़रूर हो सकती है, वो भी आपकी नज़र में। किंतु ये तमाम बातें कविता की आवश्यकता, प्रवृत्ति और संरचना व रचना प्रक्रिया आदि को समझने में आधार बातें बनाई जा सकती हैं।
Bahut behtarin lekh ! vastav me kavita se samanya jan ki duri ban rahi hai! Aaj Hindi ke vidyarthiyo me bhi kavitao ko yaad karna unhe samajhna duskar lagta hai ! vastav me aisa hai nahi shayad sampreshniyata ya anubhuti paksh ki shithilta ho inme ! Ya fir aaj ke yantrik yug me arthtantra itna havi hai ki vidyathiyo ko shuru se hi vyavsayik pathyakramo ki or aakarshit karaya jata hai ! Jo bache huye hote hai unme se adhiktar padhayi ki khana purti karte hai aur inme bhi jo bach jate hai ve vastav me kavita ki bhav-bhumi, anubhuti aur aalochna ki ojaswita, kahani ka samaj , natak ka tarang samajh pata hai ! sahitya ke pratyek vidha se samanya jan ka jo tartamya hai use nichit taur par sinema ne todne ka prayas kiya hai ! Ant me punah yah lekh bahut achha hai ham hindi logo ke liye !Padhvane hetu dhanyavaad !
bhai aapke kavita sambandhi vichar janne ko mile. achha laga ….aapake in vicharon se meri bhi sahmati hai….आज की कविता की सबसे बड़ी चुनौती समय की इस जटिलता को अपनी पूर्ण कलात्मकता और संजीदगी-सच्चाई से उकेरने की है।….. जिसे मैंने झेला नहीं, जिस अनुभव से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष मैं गुजरा नहीं, उन अनुभवों को मैं अपनी कविता का विषय बना ही नहीं सकता।….कविता में विचार होना तो बेहद जरूरी है। विचार कविता में मेरूदण्ड की तरह है।….लेकिन कविता में आए विचार कई बार बेहद सुक्ष्म या अदृश्य रूप में आने चाहिए, यह कविता को कविता बने रहे देने की पहली शर्त है। ….कविता की जनपदीयता और व्यापक सरोकारों से संश्लिष्ट नीजपन आज की कविता से गायब होता जा रहा है। यह मेरी नजर में कविता की एक बड़ी समस्या है।… समकालीन कविता को पाठ्यक्रम में शामिल कर समकालीन कविता के प्रति एक तरह की अजनबीयत को दूर किया जा सकता है।
….समकालीन मनुष्य जिस तरह आत्मकेंद्रण का शिकार हुआ है और लोगों की जनसहभागिता घटी है, ऐसे में कविता के कमजोर हो जाने की आशंका तो उठ खड़ी होती ही है।
बहुत जरुरी है कविता पर ऐसी बहस. काफी सूक्ष्म विचारों से सहेजा गया आलेख. धन्यवाद.