प्रदीप सौरभ |
अभी कुछ दिन पहले ही प्रदीप सौरभ का आने वाला उपन्यास “देश भीतर देश” पढ़कर खत्म किया है। मैं कुछ उन सौभाग्यशालियों में हूं जिन्हें यह उपन्यास एक दम टटका-टटका पढ़ने को मिला। उपन्यास की खास बात यह है कि यह आपको बोर नहीं करता। पदीप जी के इस उपन्यास में गजब की किस्सागोई है जो पाठक को जकड़े रखती है। साथ ही उसमें असम के बहाने देश के भीतर पैदा हो रहे कई देशों की पड़ताल की गई है। यह उपन्यास विनय और मिल्की की प्रेम कथा की मार्फत एक ऐसे देश की कहानी कहता है, जो आजादी के छः दशकों के बाद भी मुख्य धारा में शामिल नहीं हो सका है। वहां के लोग दिल्ली को अपनी राजधानी नहीं मानते और पूरा भारत उनके लिए एक दूसरे देश की तरह है, एक पराया देश। उपन्यास की नायिका मिल्की असम के बारे में एक जगह कहती है – “यह देश भीतर देश है, जिस पर दिल्ली ने हमारी मर्जी के विपरीत कब्जा कर रखा है। विश्वास नहीं है तो इतिहास को जाकर खंगाल लो।“ उपन्यास बहुत जल्दी छपकर आने वाला है। इस बार प्रस्तुत है उपन्यास “देश भीतर देश” का एक अंश……
…विनय दिन पर दिन चिडचिडा होता जा रहा था। उसे नहीं समझ आ रहा था कि उसका नर्म स्वभाव कैसे चिडचिडेपन में बदल रहा है। चिडचिडापन उसके काम पर असर डाल रहा था। एक आध बार कंपनी के एमडी ने उसे काम को लेकर टोका था। काल को लेकर पहले उसकी कोई शिकायत नहीं थी। वह अब भुलक्कड भी हो रहा था। वह चीजों को भूल जाता था। कई बार वह पैंट की चैन बंद करना और टाई की नाड कसना भी भूल जाता था। उम्र के साथ देश भीरत देश का दौरा और मिल्की की याद उसे अब कुछ ज्यादा ही सताने लगी थी। ऐसे में उसने फैसला किया कि थोडे दिन के लिए वह अपने माता पिता को दिल्ली बुला लेता है। खाना-पीने की रोज रोज की हाय हाय खत्म हो जायेगी। मां के हाथ का खाना मिलेगा तो गिर रहा स्वास्थ्य भी ठीक हो जायेगा। अकेलापन भी कम हो जायेगा। यही सोच कर उसने प्रयागराज एक्सप्रेस के दो टिकट उसने अपने पिता को कूरियर से भिजवा दिये।
रातभर फेसबुक में घुसे होने के चलते विनय सुबह आठ बजे के बाद ही उठता था। कई बार उसे और देर हो जाती थी। ऐसे में वह तैयार हो कर बिना ब्रेकफास्ट किए हुए ही आफिस में चला जाता था। सुबह टाइम पर न उठ पाने के डर से उसने उस दिन सोचा कि आज रात को वह नहीं सोयेगा और माता-पिता को स्टेशन से लाने के बाद सोयेगा। वैसे भी उस दिन रविवार था। छुट्टी का दिन। रात को अपनी प्रिय दलिया खाने के बाद पहले तो वह आफिस की कुछ मेल लिखने में लगा रहा। बाद में उसने अपनी आदत के अनुसार फेसबुक पर लाग आन कर लिया। वह फ्रेंडस लिस्ट इतनी बडी थी कि जब भी वह लागआन करता, ढेर सारे अनचाहे मेल बाक्स उसके स्क्रीन पर उभर आते। किसी में हैलो होता, किसी में हाय तो किसी में आप कैसे हैं जैसे औरचारिक सवाल। पहले तो विनय शिष्टाचारवश सबके बाक्स में जा कर लिख देता था ‘बिजी’। इसके बाद एक एक करके गैर जरूरी चैट बाक्स बंद हो जाते थे। इसके बाद भी कुछ बिजी के सवाल पर भी सवाल कर देते थे कि लगता है आजकल आप नाराज हैं जो ठीक से बात नहीं करते हैं। इस तरह के सवालों का वह फिर जवाब नहीं देता था।
इन तमाम चैट बाक्सों के बीच में उसे अहमदाबाद में रहने वाली मिष्ठी बनर्जी का चैट बाक्स दिखा। उसमें गुजराती में लिखा था-‘केम छो।’
मिष्ठी का परिवार अहमदाबाद के पाश सेटेलाइट इलाके में रहता है। उसके पिता ने रिटायरमेंट से पहले ही सेटेलाइट में एक बडा फलैट ले लिया था। कमोबेश गुजरात को तरक्कीपसंद और शांत राज्य मानने के चलते ही उन्होंने अहमदाबाद में बाकी का जीवन बिताने का फेसला किया था। लेकिन गुजरात दंगों के दौरान अल्पसंख्यकको पर किये गए जुल्म से वह दुखी हो उठे थे। वह इस बात से कुछ ज्यादा दुखी थे कि इन दंगों में गुजरात सरकार पर्दे के पीछे से शामिल थी। दंगों के बाद से वह लगातार अहमदाबाद छोड कर कोलकत्ते में बसने की सोचने लगे थे। लेकिन इसी बीच उनकी एक लौती बेटी मिष्ठी की एक बडी फार्मा कंपनी में अच्छे पैकेज में नौकरी लग गई थी। मिष्ठी का करियर न खराब हो इसलिए उन्होंने कोलकत्ते में बसने के अपने फैसले को फिलहाल स्थगित कर रखा था। लेकिन यह तय कर लिया था कि जैसे ही मिष्ठी की शादी वह कर देंगे तो अपना बोरिया बिस्तर अहमदाबाद से लपेट लेंगे। वैसे मिष्ठी की उम्र तीस पार थी, लेकिन वह शादी के लिए तैयार नहीं थी। उसका कहना था कि अभी उसे यूएसए में और पढाई करनी है। उसके बाद ही वह शादी-ब्याह के बारे में सोचेगी।
विनय ने भी अपने चैट बाक्स में उसे गुड नाइट लिख कर विदा ले ली। सुबह होने में अभी वक्त था। विनय अभी अपने को मिष्ठी के साथ जोडे रहना चाहता था। लेकिन वह चली गई। वह गूगल इमेज खोल कर असम की तस्वीरें देखने लगा। सर्च स्पेस में मिल्की डेका नाम टाइप किया। सर्च रिजल्ट में मिल्की बस्आ दिखी। मिल्की बरूआ उल्फा के कमांडर इन चीफ परेश बरुआ की मां हैं। परेश बरुआ नामी आदमी हैं, तो उनकी मां भी नामी हो गई और सर्च रिजल्ट में उनकी तस्वीर आ गई। मिल्की डेका कोई नामी शख्सियत तो थी नहीं कि उसकी तस्वीर सर्च रिजल्ट में निकले। इसके बाद वह गूगल अर्थ में जा कर उसने पुबसरणिया पहाड को फोकस किया। इमेज को बडी कर वह अपने घर को देखने लगा। इसके बाद वह मिल्की के घर की इमेज को बडा कर देखने लगा। उसे उसका घर तो दिखा लेकिन वो खिडकी नहीं दिखी, जिससे वह मिल्की को अपने घर से देखता था। उसने फिर उस सडक पर फोकस किया, जिसमें मिल्की के साथ वह रोज आफिस जाता था। इसके बाद कामख्या मंदिर के आसपास का जंगल, पैराडाइज रेस्तरां, डिब्रूगढ के चाय बगान, काजीरंगा पार्क, शिलांग पीक आदि पर पर क्रशर ले जाकर मिल्की के साथ बिताये अपने दिनों को याद करता रहा।
असम की गूगल अर्थ में सैर करते करते सुबह के पांच बज गये थे। विनय की आंखों में नींद भर आई थी। वह सोना चाहता था लेकिन माता-पिता को लेने स्टेशन जाना था। इसलिये वह उठ गया और फ्रेश होने के लिए बाथरूम में चला गया। फ्रेश होने के बाद उसने घर से बाहर निकल कर टहलने का फैसला किया और वह सोसायटी के पार्क में चक्कर लगाने लगा। सुबह के छ: बजने पर उसने अपनी कार निकाली और स्टेशन की ओर चल पडा। उसके माता-पिता घर आ गए थे, लेकिन विनय के देश भीतर देश देखने की बीमारी जस की तस बनी हुई थी।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
इस छोटे से अंश को पढ़ कर ही लगता है कि उपन्यास पठनीय होगा. कथा-विकास कि दिशा के बारे में तो कयास ही लगाए जा सकते हैं.
प्रदीप जी को बधाई ,और विमलेश आपका आभार इसे पढ़वाने का !!!