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Home कविता

संजय राय की कविताएं

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in कविता, साहित्य
A A
13
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संजय राय की कविताएं अनहद पर हम पहले भी पढ़ चुके हैं। संजय की कविताएं अपने कहन की अलहदापन के कारण आश्वस्त करती हैं। इस बार प्रस्तुत है उनकी कुछ ताजी कविताएं….



संजय राय
चिड़िया, घोंसला और ‘आइला‘
उस दिन
धूप बरस रही थी
और सूरज सिर के ठीक ऊपर
चढ़कर ठहरा ही था
की डूबने लगा
काले बादलों में
आँगन में एक पेड़नुमा पौधा
पौधे पर घोंसला
और घोंसले से आती
तीन  बच्चों समेत
उस चिड़िया की चहचहाहट
मेरी नींद में घुलती रही
चिड़िया का संसार
लबालब भरा था
मेरी नींद में सेंध की तरह थी
उससे छलकती आवाज़
नहीं,
कोई आतंकी हमला नहीं था
उसके संसार पर
और न ही
कोई सरकारी अधिग्रहण था
उसके घोंसले का
कहते हैं
उस दिन 170 कि० मि० प्रति घंटा की
रफ़्तार से चली थी हवा
किसी को पता नहीं उसे कहाँ पहुँचाना था
शायद खुद उसे भी नहीं
टी० वी० में देखा
पढ़ा अखबार में
विद्वानों ने ‘आइला‘ कहा था उस तूफान को
सुना है
बड़ी तबाही हुई थी बंगाल में
आज तक उसकी क्षतिपूर्ति को तरस रहे हैं
बंगाल के गाँव
मैंने लेटे-लेटे देखा
उजड़ गया था
उस चिड़िया का संसार भी
तीनों बच्चे मरे पड़े थे नीचे
सच कहता हूँ-
कोई राजनीति नहीं थी इसके पीछे
सरकार ने किसी मुआवजे की घोषणा नहीं की
चिड़िया आती
पौधे के चारों ओर चकराती
देखती अपना उजड़ा संसार, मरे हुए बच्चे
उस दिन
पिघल रही थी चिड़िया मेरे अन्दर
बहुत पहले सुना था बुजुर्गों से-
‘रोते हैं पशु-पक्षी भी‘
चिड़िया
नोचने लगी अपना घोंसला
वह अपने बर्बाद संसार को
मिटा देना चाहती थी शायद
आती
और एक-एक तिनका नोच ले जाती
उसके तीनों बच्चे वहीँ पड़े रहे
उसने आखरी बार उन्हें देखा
और उड़ गयी
उसने अपने उजड़े संसार को
खुद उजाड़ दिया
दूसरे दिन देखा
घर के ठीक सामने वाले बड़े-से पेड़ पर
एक चिड़िया ने
नया घोंसला बनाया था
स्कूल जाते बच्चे (एक)
बच्चे स्कूल के लिए
घर से निकलते
और रास्ते के साथ हो लेते
रास्ता उन्हें अपने साथ ले जाता
चिड़ियों के देश में
चिड़ियाँ उन्हें बुलातीं
चिड़ियाँ उड़ते-उड़ते आतीं
कभी उनके कन्धों पर
कभी उनके सिर पर
बैठ जातीं
कभी-कभी वे भी
चिड़ियों के साथ उड़ लेते
इस पेड़ से उस पेड़
इस डाल से उस डाल
बादल
जैसे उनके बिल्कुल करीब आ जाता
वे बादलों को छू लेते
वे बादलों पर पैर का टेक ले
थोडा-सा उछल लेते
उनके बाल लहराते
उनके हाथ हवा में फैल जाते
जैसे आसमान
उनकी बाहों में सिमट आया हो
कोई पतंग उड़ाता
तो सभी एक-एक कर
पतंग की डोर से लटक जाते
पतंग फिर भी उड़ती रहती आसमान में
वे पतंग की डोर से लटके झूलते रहते
अपनी इस हल्की और मुलायम
दुनिया से निकलकर जब वे स्कूल पहुँचते
ग्यारह बजने में पांच मिनट कम होता
और
पृथ्वी उनके कन्धों पर हाँफ रही होती
स्कूल जाते बच्चे (दो)
स्कूल जाते बच्चे
इितहास की गलियों में नहीं
समय के भूगोल में फैल जाते
अतीत उन्हें छू नहीं पाता
वर्तमान बस्ते में उनकी पीठ पर लदा होता
भविष्य को
वे गुब्बारे में भर के उड़ा देते
स्कूल जाते बच्चे
समाय की लीक पर नहीं चलते
वे चलते तो लीक बनती
इन्तजार
भूखा चाँद
भटकता रहा सरे आसमान
माँ रोटी पकाते-पकाते
जमुहाई लेती रही
दूर कहीं
पेड़ की टहनी पर बैठी रात
सुबह होने का इन्तजार करती रही
 उसकी डायरी में मरता गुलाब
उसने जब-जब लिखा – ‘प्रेम‘
मेरी छाती पर खरोंच के निशान मिले
उसने जब-जब कहा – ‘प्रेम‘
प्रेम की हर इबारत धरी की धरी रह गयी
प्रेम उसकी आँखों से
फूल की तरह बोलता
छुपी हुई चिड़िया की तरह
प्रेम आता
और चुपके से दुबक जाता
उसकी जुल्फों में
आज वह कहती है-
‘समझ लो!
मैंने जब-जब जो-जो लिखा
पानी पर लिखा‘
उसकी डायरी में मरते गुलाब की तरह
मर रहा है प्रेम उसके भीतर
और
मेरी छाती के खरोंच
कुछ और लाल हो चले हैं 

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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Comments 13

  1. संतोष त्रिवेदी says:
    11 years ago

    संवेदना को झकझोरती रचनाएँ !

    Reply
  2. रविकर says:
    11 years ago

    वाह, बहुत सुंदर ||

    Reply
  3. डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति says:
    11 years ago

    बेहद सुन्दर कवितायें … उम्दा .. एक एक रत्न

    Reply
  4. Nityanand Gayen says:
    11 years ago

    bahut sunder kavitayein

    Reply
  5. राजेश चड्ढ़ा says:
    11 years ago

    ———–
    आज वह कहती है-
    'समझ लो!
    मैंने जब-जब जो-जो लिखा
    पानी पर लिखा'…
    …बहुत सुन्दर …किसी भी आग्रह से दूर….अपनी लय की कविताएं…धन्यवाद एवं शुभकामनाएं.

    Reply
  6. प्रदीप कांत says:
    11 years ago

    स्कूल जाते बच्चे
    इितहास की गलियों में नहीं
    समय के भूगोल में फैल जाते

    अतीत उन्हें छू नहीं पाता
    वर्तमान बस्ते में उनकी पीठ पर लदा होता
    भविष्य को
    वे गुब्बारे में भर के उड़ा देते

    स्कूल जाते बच्चे
    समाय की लीक पर नहीं चलते
    वे चलते तो लीक बनती

    ___________________________

    बेहतरीन चयन

    Reply
  7. मोहन श्रोत्रिय says:
    11 years ago

    ताज़गी भरी कविताएं. चिड़िया की सार्वत्रिक उपस्थिति इन कविताओं को आपस में जोड़ती भी है. 'चिड़िया, घोसले और आइला' हो या 'स्कूल जाते बच्चे', या फिर 'उसकी डायरी में मरता गुलाब' इन सबमें चिड़िया का होना हमारे दैनंदिन के छोटे-बड़े अनुभवों को एक अवर्णनीय आत्मीयता से रस-सिक्त कर देता है. अभिव्यक्ति की सहजता और मुहावरे का टटकापन इन कविताओं को उल्लेखनीय बना देता है. विमलेश का कवि में व्यक्त भरोसा निराधार नहीं लगता. आश्वस्त करने वाली कविताएं हैं. संजय राय को बधाई कि वह बिना झटका दिए झकझोरने की कुव्वत रखते हैं. यह कामना भी कि उनके पैर इसी तरह ज़मीन पर टिके रहें.

    Reply
  8. सुन्दर सृजक says:
    11 years ago

    हृदयस्पर्शी सुंदर कविताएँ!!!

    Reply
  9. मोहन श्रोत्रिय says:
    11 years ago

    'चिड़िया' का सभी कविताओं में होना मायने रखता है. 'चिड़िया, घोंसले और आइला' हो या 'स्कूल जाते बच्चे' या फिर 'उसकी डायरी में मरता गुलाब', चिड़िया सब जगह है, जैसे किसी अदृश्य धागे से इन सभी कविताओं को जोड़ती. अनुभव छोटे-बड़े हो सकते हैं अलग-अलग कविताओं में जो व्यक्त हुए हैं, पर वे एक सहज आत्मीयता से सराबोर लगते हैं. अभिव्यक्ति कि ताज़गी और मुहावरे का टटकापन विशेष ध्यान खींचता है. विमलेश का कवि में भरोसा निराधार नहीं लगता. बधाई संजय राय को इस उम्मीद के साथ कि उनके पैर आगे भी ऐसे ही ज़मीन पर टिके रहेंगे.

    Reply
  10. संगीता पुरी says:
    11 years ago

    वाह .. बहुत अच्‍छी अच्‍छी रचनाएं !!

    Reply
  11. Ashok Kumar pandey says:
    11 years ago

    कविताएँ उम्मीद जगाती हैं…कवि को शुभकामनाएँ विमलेश का आभार

    अन्यथा न लें तो बस इतना कहना चाहूंगा कि शब्दों की थोड़ी सी मितव्ययिता इन्हें और धारदार बनाएगी.

    Reply
  12. pradeep saini says:
    11 years ago

    स्कूल जाते बच्चे
    समाय की लीक पर नहीं चलते
    वे चलते तो लीक बनती……..
    बहुत अच्छी कविताये…बधाई…..

    Reply
  13. संदीप प्रसाद says:
    11 years ago

    अपनी इस हल्की और मुलायम
    दुनिया से निकलकर जब वे स्कूल पहुँचते
    ग्यारह बजने में पांच मिनट कम होता
    और
    पृथ्वी उनके कन्धों पर हाँफ रही होती

    Reply

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