अभी न होगा मेरा अंत -2
नील कमल
आलोचक का ज़रूरी काम अच्छी कविताओं को सामने लाने के साथ-साथ कमज़ोर कविता को हतोत्साहित करना भी है(“कवियों की पृथ्वी”, अरविन्द त्रिपाठी)। बेशक, यह आलोचना का निजी क्षेत्र है। यहां ध्यान देने की बात यह भी है कि आलोचक को कविता के पास चिकित्सक के मनोभाव से जाना चाहिये। वह उसका रोग तो अवश्य बताए किन्तु उसका वास्तविक काम रोग का निदान और कविता की सेहत का ख़्याल रखना है। हिन्दी आलोचना में इस चिकित्सक मनोभाव की बड़ी कमी है। साहित्य के बाज़ार मे, रचनाकार के, ब्रान्ड में तब्दील होने का यह जादुई समय है, जिसकी तहक़ीकात हिन्दी आलोचना को अभी करनी है।
कविता में जनतांत्रिक मूल्यों की स्थापना के लिये पिछले दशक को याद किया जाएगा। कविता का जगत अब दो-चार या दस बड़े नामों या घरानों की किलेबन्द दुनिया नहीं है । कविता के जगत में “मोनोपोली”का टूटना संतोष का अनुभव देता है । यहां नित नवागतों की आवाजाही है । आलोचना यदि सभ्यता -समीक्षा है तो कविता समग्र रूप में जीवन की ही आलोचना है । यह संतोष की बात है कि विचार , शिल्प और रचना-विधान के घेरे से बाहर समकालीन हिन्दी कविता में जीवन की यह आलोचना विविध रूप में दिखाई देती है । हिन्दी कविता अब इस मुगालते से उबर चुकी है कि वह सामाजिक ढांचे में कोई व्यापक फ़ेरबदल कर सकती है । लेकिन समाज को बेहतर बनाने की लड़ाई में कविता पीछे नहीं है । कविता के केन्द्र का महनगरों से बाहर छोटे-छोटे कस्बों , शहरों और गांवों में प्रतिष्ठित होना कविता के जनतन्त्र को ज्यादा भरोसेमन्द बनाता है । समय के जादुई यथार्थ को समकलीन हिन्दी कविता बराबर तोड़ती है । इसमें उन थोड़े से कवियों की भूमिका कम नहीं है जिनके पास साहित्य में बतौर ताकत न तो जोड़-तोड़ का गणित होता है और न ही भरोसेमन्द कोई आलोचक । अभिव्यक्ति की ईमानदारी और भाषा का कौमार्य ऐसे कवियों को महत्वपूर्ण और विश्वसनीय बनाते हैं । ऐसे कवि ही भविष्य की कविता के धारक और वाहक बनेंगे । और भविष्य की कविता ? उसके बारे में हम वही सुनना पसन्द करेंगे जो ब्रेख्त अपनी कविता के बारे में सुनना चाहते थे – “तुम्हारे पंजे देख कर / डरते हैं बुरे आदमी / तुम्हारा सौष्ठव देख कर / खुश होते हैं अच्छे आदमी / यही मैं सुनना चाहता हूं / अपनी कविता के बारे में ।” (ब्रेख्त की कविता “एक चीनी शेर की नक्काशी देखकर” की पंक्तियां) ।
जीवन में कविता की जरूरत किसी मांग और आपूर्ति के अर्थशास्त्रीय सिद्धान्त से तय नहीं होती । एक कवि को कविता तब लिखनी चाहिए जब उसे लगे कि यह काम सांस लेने जितना जरूरी है । “समकालीन कविता कोई स्वायत्त घटना नहीं , उसे हमारे समय में उपस्थित सामाजिक और राजनीतिक दृश्य की सापेक्षता में ही देखा जा सकता है ।”(आलोचना – अप्रैल-जून २००३ , किसी भी समाज में आलोचना स्वायत्त घटना नहीं होती – कुमार अम्बुज) । कविता की समस्याएं जीवन जगत की समस्याओं से अलग नहीं । यह साहित्य के लिए सर्वथा नई स्थिति है कि कविता के क्षेत्र में ढेरों पुरस्कार सम्मान , ढेरों कवियों की उपस्थिति के बावजूद , कविता हाशिए पर पड़ी है ।
साहित्य के क्षेत्र में प्रदत्त पुरस्कारों तथा सम्मानों का एक आंकड़ा जुटाएं तो सम्भवत: इनमें सबसे बड़ा हिस्सा कविता का ही बनेगा । किताबें भी सम्भवत: सबसे ज्यादा कविता की ही छपती हैं । बिना कविताओं के उद्धरण के कोई बात पूरी नहीं होती । फ़िर भी रोना धोना चलता है कि कविता की किताबें तो बिकती ही नहीं । हिन्दी का कवि कितना दयनीय है इसका अन्दाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि पुस्तक की रॉयल्टी तो दूर , उल्टे (किताब छपवाने के लिए) प्रकाशक कवि से ही खर्च वहन करने की बात करता है । छोटे बड़े और मंझोले , सारे कवि इस हकीकत को जानते हैं पर बोलता कोई नहीं ।
किताबें छप भी जाएं तो थोक सरकारी खरीद के दलदल में डूब जाती हैं । कीमत इतनी ज्यादा कि साधारण आदमी चाहे भी तो खरीद नहीं सकता । पाठक तो दूर , खुद कवि को अपनी किताब प्रकाशक से मूल्य चुका कर खरीदनी पड़ती है । हिन्दी के किसी बड़े या छोटे लेखक संगठन ने इस बाबत कोई आवाज उठाई हो ऐसा कोई वाकया याद नहीं आता । लघु पत्रिकाओं में कविता के पन्ने भरती के लिए रखे जाने लगे । लघु पत्रिकाएं कलेवर में मोटी होने लगीं । इन्हें सरकारी विग्यापन और बड़े वित्तीय संस्थानों से सहायता मिलने लगी । सफ़ल कवि सोशल नेटवर्किंग के मकड़जाल में फ़ंसी मक्खी बन कर रह गए हैं । समकालीन कविता के लिए यह स्थिति सुखकर तो नहीं है । सचमुच यह चिन्ता का विषय है कि ऐसे समय में अपने कवि होने पर गर्वबोध होना चाहिए या शर्मसार होना चाहिए । ये काव्य पंक्तियां इस सन्दर्भ में देखी जा सकती हैं – “एक ऐसे समय में / शब्दों को बचाने की लड़ रहा हूं लड़ाई / यह शर्म की बात है कि मैं लिखता हूं कविताएं / यह गर्व की बात है कि ऐसे खतरनाक समय में कवि हूं” ( कविता से लम्बी उदासी – विमलेश त्रिपाठी ) । हिन्दी का कवि ज्यादा लम्बे समय तक इस लड़ाई में टिका नहीं रह पाता । यह अकारण नहीं कि हिन्दी के कई समर्थ कवि अब सफ़ल कथाकार बन चुके हैं । उदय प्रकाश से लेकर संजय कुन्दन तक इनकी लम्बी फ़ेहरिस्त है ।
इधर समकालीन हिन्दी कविता के दो कोटि के आलोचक मोटे तौर पर परिदृश्य में देखे जा सकते हैं । एक वे हैं जिन्हें सावन के अन्धे की तरह कविता का क्षेत्र सदा हरा भरा दिखता है । अन्धे के हाथी देखने की तरह ये कविता को अपनी तरह से देखते और समझते हैं । दूसरे वे जिन्हें कविता की मृत्यु की घोषणाएं करते ही सुख मिलता है । इन्हें लगता है कि निराला और मुक्तिबोध जैसे युगान्तकारी कवि हर दस पांच साल में एक-दो तो आना ही चाहिए । ये दोनों विचारक सम्यक दृष्टि के अभाव में कविता पर फ़तवे देते रहते हैं । इनके पास अपने प्रिय कवियों की सूची होती है जिसके बाहर के कविता संसार को ये खारिज ही कर देते हैं । हिन्दी के कुछ महत्वपूर्ण कवियों – आलोचकों से पूछा गया कि अपने दस प्रिय कवियों के नाम बताएं और यह भी कि किस समकालीन कवि के मूल्यांकन में अन्याय हुआ है , तो अधिकांश ने नाम लेने से ही मना कर दिया ( समकालीन सृजन – कविता इस समय अंक २००६) ।
एक को प्रिय कहेंगे तो तो दूसरे को अप्रिय बनाने का संकट है । इसी तरह यदि कहें कि अमुक के साथ अन्याय हुआ है , तो आरोप सीधे आलोचना – पीढ़ी पर जाता है । निरापद यही है कि चतुराई से सवाल की दिशा ही बदल दी जाए । इसे कायरता कहें या चतुराई , साहित्य के लिए यह एक भ्रामक स्थिति है जहां आप खुल कर अपनी पसन्द या नापसन्द भी जाहिर नहीं कर सकते । स्मरण रहे कि “जो आलोचक कविता में अर्थवान शब्द की समस्त सम्भावनाओं की खोज किए बिना ही एक सामान्य वक्तव्य या संदेश के आधार पर किसी कविता पर मूल्य- निर्णय देने का दावा करता है , वह कविता का आलोचक नहीं है , न होगा । इसके मूल में कविता के स्वकीयता , स्वायत्तता और सापेक्ष -स्वतन्त्रता तथा इंटिग्रिटी से जुड़े मूल्य हैं । यह मान्यता कविता के तथाकथित सभी नए प्रतिमानों की आधारशिला है “(कविता के नए प्रतिमान – नामवर सिंह) । हिन्दी में दर असल आलोचना का मूल चरित्र ही नकारात्मक है । आलोचना को बृहत्तर अर्थों में रचना से संवाद करना चाहिए , तभी रचना का सही मूल्यांकन हो सकेगा ।
अच्छी कविताएं कई बार जीवन के लिए “ऑक्सीजन” का काम भी करती हैं । जीवन के भीतरी दबावों के लिए कविता एक “सेफ़्टी वाल्व” भी है । हरिवंश राय “बच्चन” की “नीड़ का निर्माण फ़िर फ़िर नेह का आह्वान फ़िर फ़िर..” कविता आज भी जीवन में हार की कगार पर खड़े आदमी को पुन: जीवन की ओर मोड़ देती है । ग़ालिब का शेरो-सुखन “होता है शबो रोज तमाशा मेरे आगे..” हाले-वक्त की तस्वीर आज भी पूरी सिद्दत के साथ पेश करता है । मुक्तिबोध की काव्य पंक्तियां ” हमारी हार का बदला चुकाने आएगा / संकल्प धर्मा चेतना का रक्त प्लावित स्वर / हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर / प्रकट हो कर विकट हो जाएगा..” आज भी परिवर्तनकामी आंखों में सपने की तरह जगमगाती हैं । “सारा लोहा उन लोगों का अपनी केवल धार..” कहते हुए अरुण कमल अपने लोगों के बीच भरोसे के कवि बनते हैं । ऐसे टुकड़ों की लम्बी सूची बनाई जा सकती है ।
कहते हैं “राग रसोइया पागरी कभी कभी बन जाय.” – अच्छी कविताएं भी बन जाया करती हैं । कभी -कभी अच्छी कविताएं बनाने की कोशिश में कवि अतिरंजित बातें करते हुए अविश्वसनीय और हास्यास्पद लगने लगता है । अरुण कमल की स्थूल पैरोडी करते हुए अष्टभुजा शुक्ल जब कहते हैं , “सारा लोहा अष्टभुजा का अष्टभुजा की धार” , तो वे असहज ही दिखते हैं । भरोसे का कवि अपने “लोक” के प्रति कृतग्यता बोध से भरा हो यह उसके लिए विश्वसनीयता की पहली शर्त है । निरन्तर काव्याभ्यास , लोक-सम्पृक्ति , गहन जुवनानुभव (मुक्तिबोध के “ग्यानत्मक संवेदन” और “संवेदनात्मक ग्यान” का स्मरण कर लें) के द्वारा अच्छी अर्थात बड़ी कविताओं तक पहुंचने का एक रास्ता बनता है । काव्याभ्यास केदारनाथ सिंह से लेकर कविता की नवीनतम पीड़ी तक देखा जा सकता है । भक्ति के किस क्षण में भक्त अपने आराध्य को पा लेगा , कहना कठिन है । वैसे ही , काव्याभ्यास के किस मुहूर्त में बड़ी कविता लिखी जाएगी , बताना बहुत कठिन है ।….
(“
सेतु” के कविता विशेषांक , जनवरी- जून २०११ अंक में प्रकाशित आलेख “अभी न होगा मेरा अन्त” का दूसरा भाग)
|
नील कमल समकालीन कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं। |
(…. जारी )
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
अभी न होगा मेरा अंत -2
नील कमल
आलोचक का ज़रूरी काम अच्छी कविताओं को सामने लाने के साथ-साथ कमज़ोर कविता को हतोत्साहित करना भी है(“कवियों की पृथ्वी”, अरविन्द त्रिपाठी)। बेशक, यह आलोचना का निजी क्षेत्र है। यहां ध्यान देने की बात यह भी है कि आलोचक को कविता के पास चिकित्सक के मनोभाव से जाना चाहिये। वह उसका रोग तो अवश्य बताए किन्तु उसका वास्तविक काम रोग का निदान और कविता की सेहत का ख़्याल रखना है। हिन्दी आलोचना में इस चिकित्सक मनोभाव की बड़ी कमी है। साहित्य के बाज़ार मे, रचनाकार के, ब्रान्ड में तब्दील होने का यह जादुई समय है, जिसकी तहक़ीकात हिन्दी आलोचना को अभी करनी है।
कविता में जनतांत्रिक मूल्यों की स्थापना के लिये पिछले दशक को याद किया जाएगा। कविता का जगत अब दो-चार या दस बड़े नामों या घरानों की किलेबन्द दुनिया नहीं है । कविता के जगत में “मोनोपोली”का टूटना संतोष का अनुभव देता है । यहां नित नवागतों की आवाजाही है । आलोचना यदि सभ्यता -समीक्षा है तो कविता समग्र रूप में जीवन की ही आलोचना है । यह संतोष की बात है कि विचार , शिल्प और रचना-विधान के घेरे से बाहर समकालीन हिन्दी कविता में जीवन की यह आलोचना विविध रूप में दिखाई देती है । हिन्दी कविता अब इस मुगालते से उबर चुकी है कि वह सामाजिक ढांचे में कोई व्यापक फ़ेरबदल कर सकती है । लेकिन समाज को बेहतर बनाने की लड़ाई में कविता पीछे नहीं है । कविता के केन्द्र का महनगरों से बाहर छोटे-छोटे कस्बों , शहरों और गांवों में प्रतिष्ठित होना कविता के जनतन्त्र को ज्यादा भरोसेमन्द बनाता है । समय के जादुई यथार्थ को समकलीन हिन्दी कविता बराबर तोड़ती है । इसमें उन थोड़े से कवियों की भूमिका कम नहीं है जिनके पास साहित्य में बतौर ताकत न तो जोड़-तोड़ का गणित होता है और न ही भरोसेमन्द कोई आलोचक । अभिव्यक्ति की ईमानदारी और भाषा का कौमार्य ऐसे कवियों को महत्वपूर्ण और विश्वसनीय बनाते हैं । ऐसे कवि ही भविष्य की कविता के धारक और वाहक बनेंगे । और भविष्य की कविता ? उसके बारे में हम वही सुनना पसन्द करेंगे जो ब्रेख्त अपनी कविता के बारे में सुनना चाहते थे – “तुम्हारे पंजे देख कर / डरते हैं बुरे आदमी / तुम्हारा सौष्ठव देख कर / खुश होते हैं अच्छे आदमी / यही मैं सुनना चाहता हूं / अपनी कविता के बारे में ।” (ब्रेख्त की कविता “एक चीनी शेर की नक्काशी देखकर” की पंक्तियां) ।
जीवन में कविता की जरूरत किसी मांग और आपूर्ति के अर्थशास्त्रीय सिद्धान्त से तय नहीं होती । एक कवि को कविता तब लिखनी चाहिए जब उसे लगे कि यह काम सांस लेने जितना जरूरी है । “समकालीन कविता कोई स्वायत्त घटना नहीं , उसे हमारे समय में उपस्थित सामाजिक और राजनीतिक दृश्य की सापेक्षता में ही देखा जा सकता है ।”(आलोचना – अप्रैल-जून २००३ , किसी भी समाज में आलोचना स्वायत्त घटना नहीं होती – कुमार अम्बुज) । कविता की समस्याएं जीवन जगत की समस्याओं से अलग नहीं । यह साहित्य के लिए सर्वथा नई स्थिति है कि कविता के क्षेत्र में ढेरों पुरस्कार सम्मान , ढेरों कवियों की उपस्थिति के बावजूद , कविता हाशिए पर पड़ी है ।
साहित्य के क्षेत्र में प्रदत्त पुरस्कारों तथा सम्मानों का एक आंकड़ा जुटाएं तो सम्भवत: इनमें सबसे बड़ा हिस्सा कविता का ही बनेगा । किताबें भी सम्भवत: सबसे ज्यादा कविता की ही छपती हैं । बिना कविताओं के उद्धरण के कोई बात पूरी नहीं होती । फ़िर भी रोना धोना चलता है कि कविता की किताबें तो बिकती ही नहीं । हिन्दी का कवि कितना दयनीय है इसका अन्दाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि पुस्तक की रॉयल्टी तो दूर , उल्टे (किताब छपवाने के लिए) प्रकाशक कवि से ही खर्च वहन करने की बात करता है । छोटे बड़े और मंझोले , सारे कवि इस हकीकत को जानते हैं पर बोलता कोई नहीं ।
किताबें छप भी जाएं तो थोक सरकारी खरीद के दलदल में डूब जाती हैं । कीमत इतनी ज्यादा कि साधारण आदमी चाहे भी तो खरीद नहीं सकता । पाठक तो दूर , खुद कवि को अपनी किताब प्रकाशक से मूल्य चुका कर खरीदनी पड़ती है । हिन्दी के किसी बड़े या छोटे लेखक संगठन ने इस बाबत कोई आवाज उठाई हो ऐसा कोई वाकया याद नहीं आता । लघु पत्रिकाओं में कविता के पन्ने भरती के लिए रखे जाने लगे । लघु पत्रिकाएं कलेवर में मोटी होने लगीं । इन्हें सरकारी विग्यापन और बड़े वित्तीय संस्थानों से सहायता मिलने लगी । सफ़ल कवि सोशल नेटवर्किंग के मकड़जाल में फ़ंसी मक्खी बन कर रह गए हैं । समकालीन कविता के लिए यह स्थिति सुखकर तो नहीं है । सचमुच यह चिन्ता का विषय है कि ऐसे समय में अपने कवि होने पर गर्वबोध होना चाहिए या शर्मसार होना चाहिए । ये काव्य पंक्तियां इस सन्दर्भ में देखी जा सकती हैं – “एक ऐसे समय में / शब्दों को बचाने की लड़ रहा हूं लड़ाई / यह शर्म की बात है कि मैं लिखता हूं कविताएं / यह गर्व की बात है कि ऐसे खतरनाक समय में कवि हूं” ( कविता से लम्बी उदासी – विमलेश त्रिपाठी ) । हिन्दी का कवि ज्यादा लम्बे समय तक इस लड़ाई में टिका नहीं रह पाता । यह अकारण नहीं कि हिन्दी के कई समर्थ कवि अब सफ़ल कथाकार बन चुके हैं । उदय प्रकाश से लेकर संजय कुन्दन तक इनकी लम्बी फ़ेहरिस्त है ।
इधर समकालीन हिन्दी कविता के दो कोटि के आलोचक मोटे तौर पर परिदृश्य में देखे जा सकते हैं । एक वे हैं जिन्हें सावन के अन्धे की तरह कविता का क्षेत्र सदा हरा भरा दिखता है । अन्धे के हाथी देखने की तरह ये कविता को अपनी तरह से देखते और समझते हैं । दूसरे वे जिन्हें कविता की मृत्यु की घोषणाएं करते ही सुख मिलता है । इन्हें लगता है कि निराला और मुक्तिबोध जैसे युगान्तकारी कवि हर दस पांच साल में एक-दो तो आना ही चाहिए । ये दोनों विचारक सम्यक दृष्टि के अभाव में कविता पर फ़तवे देते रहते हैं । इनके पास अपने प्रिय कवियों की सूची होती है जिसके बाहर के कविता संसार को ये खारिज ही कर देते हैं । हिन्दी के कुछ महत्वपूर्ण कवियों – आलोचकों से पूछा गया कि अपने दस प्रिय कवियों के नाम बताएं और यह भी कि किस समकालीन कवि के मूल्यांकन में अन्याय हुआ है , तो अधिकांश ने नाम लेने से ही मना कर दिया ( समकालीन सृजन – कविता इस समय अंक २००६) ।
एक को प्रिय कहेंगे तो तो दूसरे को अप्रिय बनाने का संकट है । इसी तरह यदि कहें कि अमुक के साथ अन्याय हुआ है , तो आरोप सीधे आलोचना – पीढ़ी पर जाता है । निरापद यही है कि चतुराई से सवाल की दिशा ही बदल दी जाए । इसे कायरता कहें या चतुराई , साहित्य के लिए यह एक भ्रामक स्थिति है जहां आप खुल कर अपनी पसन्द या नापसन्द भी जाहिर नहीं कर सकते । स्मरण रहे कि “जो आलोचक कविता में अर्थवान शब्द की समस्त सम्भावनाओं की खोज किए बिना ही एक सामान्य वक्तव्य या संदेश के आधार पर किसी कविता पर मूल्य- निर्णय देने का दावा करता है , वह कविता का आलोचक नहीं है , न होगा । इसके मूल में कविता के स्वकीयता , स्वायत्तता और सापेक्ष -स्वतन्त्रता तथा इंटिग्रिटी से जुड़े मूल्य हैं । यह मान्यता कविता के तथाकथित सभी नए प्रतिमानों की आधारशिला है “(कविता के नए प्रतिमान – नामवर सिंह) । हिन्दी में दर असल आलोचना का मूल चरित्र ही नकारात्मक है । आलोचना को बृहत्तर अर्थों में रचना से संवाद करना चाहिए , तभी रचना का सही मूल्यांकन हो सकेगा ।
अच्छी कविताएं कई बार जीवन के लिए “ऑक्सीजन” का काम भी करती हैं । जीवन के भीतरी दबावों के लिए कविता एक “सेफ़्टी वाल्व” भी है । हरिवंश राय “बच्चन” की “नीड़ का निर्माण फ़िर फ़िर नेह का आह्वान फ़िर फ़िर..” कविता आज भी जीवन में हार की कगार पर खड़े आदमी को पुन: जीवन की ओर मोड़ देती है । ग़ालिब का शेरो-सुखन “होता है शबो रोज तमाशा मेरे आगे..” हाले-वक्त की तस्वीर आज भी पूरी सिद्दत के साथ पेश करता है । मुक्तिबोध की काव्य पंक्तियां ” हमारी हार का बदला चुकाने आएगा / संकल्प धर्मा चेतना का रक्त प्लावित स्वर / हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर / प्रकट हो कर विकट हो जाएगा..” आज भी परिवर्तनकामी आंखों में सपने की तरह जगमगाती हैं । “सारा लोहा उन लोगों का अपनी केवल धार..” कहते हुए अरुण कमल अपने लोगों के बीच भरोसे के कवि बनते हैं । ऐसे टुकड़ों की लम्बी सूची बनाई जा सकती है ।
कहते हैं “राग रसोइया पागरी कभी कभी बन जाय.” – अच्छी कविताएं भी बन जाया करती हैं । कभी -कभी अच्छी कविताएं बनाने की कोशिश में कवि अतिरंजित बातें करते हुए अविश्वसनीय और हास्यास्पद लगने लगता है । अरुण कमल की स्थूल पैरोडी करते हुए अष्टभुजा शुक्ल जब कहते हैं , “सारा लोहा अष्टभुजा का अष्टभुजा की धार” , तो वे असहज ही दिखते हैं । भरोसे का कवि अपने “लोक” के प्रति कृतग्यता बोध से भरा हो यह उसके लिए विश्वसनीयता की पहली शर्त है । निरन्तर काव्याभ्यास , लोक-सम्पृक्ति , गहन जुवनानुभव (मुक्तिबोध के “ग्यानत्मक संवेदन” और “संवेदनात्मक ग्यान” का स्मरण कर लें) के द्वारा अच्छी अर्थात बड़ी कविताओं तक पहुंचने का एक रास्ता बनता है । काव्याभ्यास केदारनाथ सिंह से लेकर कविता की नवीनतम पीड़ी तक देखा जा सकता है । भक्ति के किस क्षण में भक्त अपने आराध्य को पा लेगा , कहना कठिन है । वैसे ही , काव्याभ्यास के किस मुहूर्त में बड़ी कविता लिखी जाएगी , बताना बहुत कठिन है ।….
(“
सेतु” के कविता विशेषांक , जनवरी- जून २०११ अंक में प्रकाशित आलेख “अभी न होगा मेरा अन्त” का दूसरा भाग)
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नील कमल समकालीन कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं। |
(…. जारी )
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
बेहद विशद अवलोकन्।
हरिवंश राय "बच्चन" की "नीड़ का निर्माण फ़िर फ़िर नेह का आह्वान फ़िर फ़िर.." कविता आज भी जीवन में हार की कगार पर खड़े आदमी को पुन: जीवन की ओर मोड़ देती है ।
गहन विश्लेषण…