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Home कथा

जयशंकर प्रसाद के जीवन-युग पर केंद्रित उपन्यास ‘कंथा’ का एक महत्वपूर्ण अंश

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in कथा, विविध, साहित्य
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  कंथा

 श्याम बिहारी श्यामल


सुपरिचित कथाकार श्याम बिहारी श्यामल ने अपनी इस कृति में प्रसाद का जीवन-चित्र तो आँका ही है, बीसवीं सदी के आरम्भिक दौर के उस पूरे परिदृश्य को उसके सम्पूर्ण रूप-गुण, राग-रंग और घात-प्रतिघातों के साथ साकार कर दिया है, जिसमें प्रसाद का कृति-व्यक्तित्व विकसित हुआ था.

–  साभार राजकमल प्रकाशन समूह


सागर संगम अरुण नील

डेक पर पहुंचकर प्रसाद ने आसमान की ओर ताका। अधनींदा समुद्र और खुमार से उबरता आकाश! दोनों के बीच फटता अंधेरा, ध्ज्जी-धज्जी उड़ता हुआ। अपना नामोनिशान मिटते देखता-सा। फटी-फटी आंखों से। अचानक एक चाक्षुष अनुभूति पर चकित रह जाना पड़ा- सागर के समानांतर यह आसमान तना हुआ है या श्यामपट? क्वींस कालेज की शुरुआती कक्षा के दिन आकाश पर रेंगने लगे! रचनाह्वान के क्षण सृजन-पटल पर चलते गीत-कणों की तरह! पूरब से धमक जगाता, क्रमशः पुष्ट होता उजास। हाथ बढ़ाता-हिलाता, आहिस्ते डस्टर चलाता हुआ! निर्जन डेक, खालिस समुद्र और कच्चा-कुंवारा आसमान! लगने लगा जैसे नील जल-तल और आरुण-क्रीड़ा-स्थल के बीच फैला हुआ है चिरन्तन अडिग-अक्षुण्ण वायु-सागर! रचनारत गतिमान मस्तिष्क की तरह। इस असीम विस्तार में सिर्फ और सिर्फ एक कवि-मन है जो अपने पंख लहरा रहा है। एकल उड़ान! अक्लान्त-शान्त, एकान्त-तृशान्त आनन्द!

आसमान का हृदय मीठी ललौंही किरणों से धुल रहा है! धाराप्रवाह, लगातार। धुंध-धूल, धुंए, दाग-धब्बे… सब हवा होते चले जा रहे हैं! देखते-देखते चम्पई प्राची की कुसुमित प्रतीक्षा परागान्वित हो चली। सस्मित झांकती वह मुस्कुरायी। दूसरे ही पल कोमल कर-कमल बढ़ाया और अपना असीम आंगन लीपने लगी, नव्य-नवेली पलाशार्क रश्मियों से। गगन रंग-राग से पुतने लगा। काल कविता के सुरीले कण्ठ से अकुण्ठ महा-आलाप! चप्पा-चप्पा प्रकाश से पग गया। दिव्य दिपदिपाहट।

अब सामने है मुक्त मन जैसा प्रसन्न, रस-रंग से नहाया चमकता निस्सीम नील आंगन! अभिधा दिशाएं, व्यंजना चहक-चहचहाहट से आप्यायित! सही अवसर पहचान नन्हा सूरज कोटर के भीतर जाग उठा है। एक नन्ही चहक हुई, जिसने राग-रंग के खुले चोंच से अमर्त्य रस टपका दिया। अग-जग ध्वनित-रंजित!

सूरज ठमका। हुलका-झांका। प्रभा-दृष्टि के प्रथम प्रभाषित संस्पर्श से अद्भुत संगीत तरंगित! कोटर से बाहर निकल रहा है नन्हा! ठमकता-ठुमकता, पैजनिया रुनझुनाता। अखण्ड संसार प्रचण्ड महाझंकार में रूपान्तरित। चिर-नवीन प्रकृति-लीला! बहुविध जीवन-जन का जाग्रत कवि एक अपूर्व सामुद्रिक भोर के जन्म का साक्षी बन रहा है। मन के भीतर लहराता ध्वनित नवल-धवल आनन्द, तरंगित नील-शील सागर से तनिक भी कम कहां!

जॉन ब्लेयर जब खुला तो खुलता चला गया। प्रसाद को यह समझते देर नहीं लगी कि जलसैनिक रह चुका यह व्यक्ति अति उत्साही है। पक्का वाचाल, किंतु हृदय-मन का कच्चा-खिंच्चा, कुचकुच हरा-दूधा। प्रसन्न-प्रच्छन्न, भद्र जन। बोलने पर आ जाये तो वाग्धारा बहा दे। बिना किसी फिक्र-परवाह के, धाराप्रवाह बोलने वाला। लक्षित श्रोता कुछ समझ रहा हो या नहीं, यह समझने की उसके पास फुर्सत कहाँ! यह विशेषता तो सचमुच दिलचस्प है! किसी हद तक हार्दिक निश्छलता का प्रमाण भी। तब तो जन्मना वह भले अंगरेज हो, मन से तो भारतीय निष्कपटता का प्रतीकमान ही निकला!

शान्त-झिलमिल जल पर सरपट भागता स्टीमर, हवा को खदेड़ता-सा।

नीचे केबिन में घर की महिलाएं गंगा जी के गीत गा रही हैं। ऊपर डेक पर जम गयी है गप्प-चौपाल! बिछी हुई बनारसी तोशक! गद्देदार टनाटन फर्श पर तकिये की चौचक टेक। चारों टनाका कहकहों में डूब गये हैं।

बोलते-बोलते ब्लेयर अचानक ठेहुनिया गया है। खमखमाकर तेज-तेज शुरू! सबको चुप किये वह अपने विषय का विशिष्ट अनुभव उड़ेलने लगा, ‘‘…जल का संचार-संसार विशिष्ट है …सर्वथा मौलिक पराक्रम और भिन्न विडम्बनाओं की दुनिया! कोई भी एक साधारण बोट अथवा नाव सातों समुन्दरों की परिक्रमा करके कुछ वर्षों में अपने प्रस्थान-स्थान को सकुशल लौट आये तब भी कोई आश्चर्य नहीं! इसके समानान्तर एक ऐतिहासिक विडम्बना-तथ्य तो यही कि कभी न डूबने की घोषणा के साथ अपार सुविधाओं और बहुस्तरीय सुरक्षा-कवचों के साथ निर्मित टाइटेनिक महाजलपोत अपने प्रथम जलावतरण के दौरान ही कितने सारे लोगों को समेटे डूब गया था! … ’’


एक पर एक प्रसंग उसके मुख से फूट रहे हैं, जल-धार की तरह। सूत्र-रूपों में। कोई चाहकर भी बीच में प्रश्न उठाने की गुंजाइश नहीं तलाश पा रहा। वह बोलता ही चला जा रहा है, ‘‘…दुनिया का रंग निराला है! जिस व्यक्ति को कभी किसी दिन एक टाइम भी भर पेट अन्न तक नहीं मिलता या न ढंग से मौके पर इलाज, वह शतायु हो सकता है और तमाम सुख-सुविधाओं की गोद में तैरता कोई भी रईस असमय काल-कवलित! एक से एक जर्जर स्टीमर नगण्य मेन्टेनेन्स में ही वर्षों से सक्रिय-संचालित हैं… उनके साथ न कभी कोई हादसा हुआ न कभी किसी को ऐसा कोई खतरा ही महसूस हुआ! दूसरी ओर टाइटेनिक महापोत या ल्यूसिटानिया के हश्र देख लीजिये…! मैं तो कहता हूं कि गॉड की इच्छा को कभी कोई चैलेंज कर विक्टरी पा ही नहीं सकता… उसका मैथेमेटिक्स सर्वथा पेटेंट है और न्याय-आधारित भी! व्यक्ति जब अपने को स्वयं संतुलित नहीं कर पाता तो वह अंततः ऊपर से सीधे हस्तक्षेप करता है… जो व्यक्ति समाज में लूट-मार मचाकर धन का पहाड़ खड़ा कर लेता है उसकी हालत पता कर लीजिये.. जिसके पास अपार धन है उस पर इससे अधिक दुःख लदा मिलेगा! न्याय-नीति तोड़ने वालों का अंजाम देख लीजिये… धन आ गया तो जन गायब! जन भर गये तो धन नदारद! पैसा बटोर लिया तो भूख गायब, भूख बढ़ा ली तो रोटी तक का इंतजाम मुश्किल! दुनिया भर की नदियों को सोखे पसरे इस समुद्र को ही देख लीजिये न… चुल्लू-भर भी इसका पानी किसी काम का रह गया है? … समुद्र खुद अपना गला तर करने के लिए चार घूंट मीठे पेयजल को अनादि काल से तरस रहा है और अनन्त युगों तक तरसता रहेगा! …‘‘ बोलते-बोलते वह ठिठक गया। चेहरे पर बून्द-बून्द थकान चुहचुहाने लगी।

उसने विराम लिया। पुरुषोत्तम दास ने सामने रखा पीतल का बक्सानुमा पात्र झटके के साथ खोल लिया। हल्के लाल रंग की एक बड़ी-सी मिठाई निकाली और लप्प-से उसके मुंह में डाल दी। भरा हुआ मुंह खोले-खोले उसने चौंककर ताका। अब स्वाद ने स्वमेव मुंह में गति उत्पन्न कर दी। जबड़े पहले हल्के हिले, फिर तेज-तेज चलने लगे। मुँह हल्का होते ही हँसा, ‘‘ वंडरफुल! वेरी टेस्टी! नाइस!! ’’

प्रसाद बुदबुदाये, ‘‘ देखो, कैसी अनोखी है प्रकृति की भाषा-नीति! मर्म-स्पर्श के आकस्मिक कोमल क्षणों में औचक-अकृत्रिम प्रतिक्रिया मातृभाषा में ही छलकती है! ’’

हापुस-हापुस चलते मुंह में स्वाद तो घुलता रहा किंतु इस बीच सामने की बुदबुदाहट को भी वह नहीं सुन सका। उसकी नाचती पलकें प्रश्न-विकल हो उठीं।

बोलने के लिए उसने ज्योंही मुंह खोला, पुरुषोत्तमदास ने फिर एक बड़ी मिठाई अंटा दी, ‘‘ …यार, अपने व्याख्यान में कुछ कॉमा-फुलस्टॉप आदि की भी गुंजाइश रखा करो… श्रोता को इतनी रियायत तो दिया ही करो… अपने ही जुनून में भाषण पर भाषण न ठोंकते चलो… डेक पर यह सामूहिक चौपाल है! यहां कहकहे तो हो सकते हैं किंतु एकतरफा कर्कश मौखिक पथराव कदापि नहीं! यदि कवि का अन्तस जाग उठा और यह गुरु-गम्भीर बैठे महाशय कहीं बोलने पर उतर आये तो तुम्हें भागने का मौका भी नहीं मिल सकेगा… पुरातन से लेकर अधुनातन तक ज्ञान-विज्ञान और चिन्तन के ऐसे-ऐसे पहाड़ तुम्हारे सिर पर ठांय-ठांय टपकने-टकराने लगेंगे कि तबाह होकर रह जाओगे.. चिंगुरे-दुबके नजर आओगे!’’

ब्लेयर ने जैसे यह बात सुनी ही न हो। मुंह खाली होते ही वह फिर शुरू हो गया, ‘‘ … जर्मन पनडुब्बी ‘एडमेन’ से जब मद्रास में गोली-बारी शुरू हुई तो मैं… ’’

पुरुषोत्तमदास ने लपककर उसके मुंह को पुनः भर दिया। अब उसने स्वयं ही बक्सानुमा पात्र अपनी ओर खींच लिया। निकाल-निकालकर खाने लगा। बीच में रत्नशंकर कब वहां से लापता हो गया किसी को पता ही नहीं चला। अचानक मुकुन्दीलाल चौंके, ‘‘ …अरे! रत्नशंकर कहां चला गया भई! ’’

पुरुषोत्तमदास की आंखें चौकन्ना। प्रसाद मुक्त रहे। मुंह चलाते हुए ब्लेयर ने संक्षिप्त सूचना दी, ‘‘…वह मुझसे सहमति लेकर चालक-कक्ष में गया है.. अभी मजे से दूरबीन पकड़े जल-जीवों की जीवन-लीला के नजारे ले रहा होगा! इस ओर उसकी रूचि जाग गयी है… मैंने कुछ देर पहले जब उसे दूरबीन पकड़ाया तो वह शीशे के पार समुद्र की भीतरी दुनिया के दृश्य देख रेमांचित हो उठा.. देर तक देखता रहा… अब तो वह इसका दीवाना हो चुका है…’’

मुकुन्दीलाल को अचानक कुछ याद आया। थोड़े रोमांचित हुए। दूसरे ही पल सम्भले, ‘‘…भैया, गान्धी जी का जो सविनय अवज्ञा आन्दोलन चल रहा है.. इस पर आपके क्या विचार हैं?’’

सभी एक साथ प्रसाद की ओर ताकने लगे। वह तटस्थ भाव से समुद्र का नील-ऐश्वर्य ताक रहे हैं। मुकुन्दीलाल की आवाज में सावधानी से भरी नम्रता, ‘‘..गान्धीजी ने जो नमक सत्याग्रह चलाया इससे तो…’’

प्रसाद का मद्धिम किन्तु ठोस हस्तक्षेप, ‘‘..नमक स्वाद बनाता भी है और बिगाड़ कर भी रख देता है!’’

सभी उनका मुंह टकटक ताके जा रहे हैं! वह चतुर्दिक् लहराते सतत् नील आंदोलन को जैसे तौल रहे हों। ब्लेयर के चेहरे पर भाव तेजी से बदल-टहल रहे हैं। प्रसाद ने उस पर दृष्टि टिका दी, ‘‘…श्वेत-धवल नमक तो इस नीले समुद्र का ही आत्मज है! ..युगों-युगों के अनन्त आलोड़न का लहराता खारा अनुभव जब वाष्पीकृत हो ठोस संकल्प बनता है तो उसे नमक की संज्ञा मिलती है… यह जिन्दा जिह्वाओं को सहलाता है तो मुर्दा त्वचा-अस्थियों को गलाकर माटी में विलीन भी कर देता है… ’’

पुरुषोत्तमदास ने ध्यान से एक दृष्टि ब्लेयर पर डाली। वह तकिये से उठंगा फर्श को ताकता एक हाथ से अपने सिर के बाल सहला रहा है। मुकुन्दीलाल ने फिर मुंह खोला, ‘‘…आप तो रुपकों में ही बोल भी रहे हैं.. एकदम कविता की तरह.. अगर मेरे प्रश्न का यही अन्तिम उत्तर हो तब तो सचमुच इसे भी समझने के लिए हमें अलग से कुछ बौद्धिक उद्यम करना होगा…’’

जल-विस्तार पर प्रसाद की दृष्टि चकरी की तरह चौतरफा घूम-रेंग रही है।

फिर ठेहुनिया गया है ब्लेयर, ‘‘…मेरे विचार एकदम साफ हैं.. यूरोप किसी ज्यादती के पक्ष में कभी नहीं रहा.. वह विकास का दूत है.. भारत में ही देख लीजिये न.. हमारे अंगरेज बन्धुओं ने यहां आकर इस भूखण्ड को पिछड़ेपन की खाई से बाहर निकालने का ही तो काम किया है! …साथ ही पढ़ाया है सबको आधुनिक जीवन-दर्शन और विचार की सभ्यता का पाठ! ’’

जयशंकर प्रसाद
‘‘..हमें किसने पढ़ाया है सभ्यता का पाठ? ..क्या यूरोप को सम्पन्नता और सभ्यता का अन्तर आज तक भी पता चल सका है? मैं पूछता हूं, किसने कह दिया कि यूरोप सभ्य हो गया है?’’ प्रसाद जैसे अपने समय के विद्रूप से टक्कर लेने लगे हों, ‘‘..पता नहीं यूरोप उस समय कहां किस गर्भ-गुहा में हतचेत पड़ा था जब पहली बार वहशाली का गणतंत्र आविर्भूत हुआ था.. कहां? यहीं! इसी भारत-भूमि पर तो!.. गणतंत्र तक के सोच की हमारी यह अर्वाचीन यात्रा क्या औचक थी? इसके अतीत में निःसंदेह चिन्तन के विकास और व्यावहारिक अनुभव की एक प्रदीर्घ काल-विस्तारित प्रक्रिया रही..’’ सभी मुंह ताक रहे हैं। प्रसाद के उद्गार जारी हैं, ‘‘..इतिहास साक्षी है दुनिया को पहली बार हमींने बताया था- सभ्यता का सत्व.. और धर्म का मर्म! नैतिकता की नींव हमने डाली है… त्याग की वह आग हमींने जलायी जो ‘सीमित निज’ को राख कर ‘असीम हित’ का स्वर्ण-मूल्य प्रच्छन्न करती है… ‘शासन’ को सम्पूर्ण ‘जनसेवा’ का पर्याय बना देने और खाली पांव चलने वाला मुकुटविहीन भिक्षु-वहशी अजेय कुशल सम्राट संसार ने यहीं देखा है… परहित, समरसता और शांति की परिभाषा तो हमने गढ़ी है…  ज्ञान का सूर्य सबसे पहले इसी पूरब में उगा.. आदिकविता की कला-संवेदना यहीं जन्मी… हमने दिया है षब्द को मंत्र-सीमा तक का ब्रह्माकार सिद्ध विस्तार और नृत्य-कला को विध्वंस-सृजन तक का ताण्डव-लास्य कौशल! …तन-मन से लेकर गगन तक के रेशा-रेशा विश्लेषण का हमारा अथर्व-ज्योतिष आदिप्रयास आज भी सप्रमाण विश्व के सामने है… सच तो यह कि कालान्तर के बर्बर वस्तुवादी विश्व में हमारी यही उन्नत उदात-कोमल सूक्ष्म ज्ञान-सम्पदा और तरल मानवीय संवेदन-सजगता स्वयं हमारे ही भौतिक विकास-मार्ग में बाधा बन गयीं… हम बुद्ध-महावीर से दीक्षित होकर विस्तार-विमुख न हुए होते तो इस तथाकथित विश्व-विकास की धारा का प्रवाह आज उल्टा होता, यह तथ्य भला किससे छिपा है! हम अहिंसा, अपरिग्रह, नैतिकता, धर्म, कला, साहित्य, संगीत जैसे आत्मा के हरित प्रदेश विकसित करते रहे और मानव-स्वतंत्रता की सामूहिक हत्या का उन्मादी उत्सव मनाने वाला विक्षिप्त ‘पश्चिम’ चारों दिशाओं में परतंत्रता का कोढ़ फैलाता रहा… पृथ्वी की समूची देह छेदता और विश्व-विजय की खूनी पताकाएं खोंसता हुआ… उसी ने यह घिनौना और जघन्य मुहावरा तक चलाया कि उसकी साम्राज्य-परिधि में कभी सूर्यास्त नहीं होता! ..मैं तो यह पूछता हूं कि जहां मानवीय विवेक और नैतिकता का अंतरिक्ष- विस्तार ही अनुपस्थित हो, वहां कैसा सूर्योदय, कैसा सूर्यास्त! …शर्मनाक अनैतिकता और पाशविक क्रूरता का पर्याय यही ‘पश्चिम’ आज स्वयं को हमारा त्राता बता रहा है? जो चारों ओर परतंत्रता के रक्तरंजित जाल फेंकता-फैलाता चल रहा हो और पूरे संसार को गुलाम-घायल रूप में कराहता हुआ देखने का खूंखार आकांक्षी बना हुआ हो ; वह मनुष्यता तो कदापि नहीं, राक्षसपन का प्रतीक ठहरा! …और इतिहास के किसी भी पड़ाव पर जब कभी भी ‘हत्या’ की पड़ताल होगी तो बकरे की विवशता नहीं, कस्साब की ‘क्रूरता’ ही अपराधी करार दी जायेगी! …जो यूरोप दुनिया के करोड़ों लोगों की आजादी का गला दबोचे बैठा हो, वह विश्व-मानवता का सिर्फ और सिर्फ हत्यारा है… मानव सभ्यता के इतिहास का सबसे भीषण अपराधी!… उसकी पाशविकता को किसी भी तर्क-कुतर्क की कैसी भी गाढ़ी चादर से नहीं ढंका जा सकता! …सच्चाई तो यही है कि इस सूर्यास्त-मुक्त साम्राज्य के पाप से आज अखिल विश्व के चिन्तन- दर्शन और कला-साहित्य की आंखें बरस रही हैं… मुझे अपने चारों ओर फैला यह खारा-विस्तार फिलहाल अरब-सागर नहीं, बल्कि अश्रु-समुद्र दिख रहा है! अखिल विश्व के व्यग्र स्वांतन्न्य-चेता विचारकों, उद्विग्न चिन्तकों, चिन्तातुर कवि-कलाकारों और बिसूरते असंख्य गुलाम नागरिकों की अनगिनत बहती-बरसती आंखों के जल का दुर्भाग्यपूर्ण संग्रह! …मैं तो यहां बस इतना कहना चाह रहा हूं कि यूरोप पहले मानवीयता का मान तो समझे, इसके बाद ही वह सभ्यता पर बात करने या इसका प्राथमिक पाठ धारण करने की पात्रता पा सकेगा …इसी के बाद उसकी मृत चेतना में प्राण-तत्व लौट सकेंगे.. अन्यथा वह पाशविक का पाशविक ही बना रहेगा.. सर्वथा त्याज्य, घृणित!’’

सभी चुप, लेकिन सबकी शिराओं में जैसे अग्निगंगा लपटती-लपलपाती दौड़ रहीं हों।

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ब्लेयर मर्माहत। उसके करुणा-विगलित शब्द मोती की तरह चमकने लगे, ‘‘…एग्री! आई एम हंड्रेड परसेंट एग्री विद यू! …मनुष्य या उसके समाज पर गुलामी लादने वाला तो बेशक समूची इंसानियत का ही दुश्मन साबित हुआ.. ऐसे में उसे सभ्य, सुसंस्कृत, धार्मिक या कलावंत आदि-आदि जैसा कुछ भी मानने का बेशक कोई प्रश्न ही नहीं! ’’ सबकी निगाहें ब्लेयर पर ही टिक गयी हैं। उसके स्वर में हाहाकार उमड़ रहा है, ‘‘..आज आपने मेरी आंखें खोल दीं… बेशक जो पश्चिम मानव-समाज का अपराधी है, वह पूरे संसार का षत्रु ही हुआ… उससे कोई भी निकटता सर्वथा अनुचित है.. कोई भी भेदभाव… उसका आधार राष्ट्र हो या नस्ल, घृणित है तो घृणित है..’’

 

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गंगा का सागर में विलय का अद्भुत दृश्य! रोमांचक! उद्वेलक! लोमहर्षक!

प्रसाद के मन-प्राण झंकृत! लगा, यह तो महीयसी गंगा और महासागर के मिलन का संगम-तीर्थ भर नहीं, बल्कि एक महानायिका के आत्मोत्सर्ग की जीवंत लीलास्थली है! चिरदृश्यमान! समुद्र के संस्पर्श से पहले गंगधार में यह कैसी दग्ध फेनिल विकलता! मन आहत- सशंकित। प्रश्न उमड़ने लगे- गोमुख से यहां तक की जीवनधर्मिणी-प्राणदायिनी महायात्रा का यह कैसा समापन? इतने बड़े भूभाग, अरबों-खरबों छोटे-बड़े दृश्य-अदृश्य जीव-जन्तुओं और विराट् जनसमुद्र को प्राण-अस्तित्व और जीवन-धारा बांटती आने वाली एक ममत्व-प्रवह माता के अपने अस्तित्व का अंततः यह ऐसा निरुपाय-निश्चेष्ट लोप क्यों? क्योंकर ऐसा असहज करुण ध्वंस? क्यों उसका ऐसा अचूक संहार? महाकर्मठता और महासेवा का यह कैसा हश्र? —सोचते- सोचते मन विह्वल हो उठा है।

अनुभूति-पटल के रंग-रूप गतिमान हो उठे हैं। अब लगा, यह संगम-छवि तो गजब दृश्यबहुल है! हर दृश्यकोण मुग्धकारी। तृप्ति-जल सींच रहे हैं आत्मा को: सागर पर गिरने- बिलाने से क्षणांश पहले तक विद्यमान गंगधार की दुर्द्धर्षता और संघर्ष-संकल्प-क्षमता तो सचमुच अनोखी हैं! अंतिम मोक्ष-क्षण तक वह अपनी पहचान नहीं खो रही! सागर भी सिद्ध हो रहा है करुणा का सागर ही! उसे अंगीकार करता हुआ वह आगत एक-एक बूंद को अपना वर्ण दान करता नहीं थक रहा! …लेकिन, ऐसा अभूतपूर्व उन्मुक्त-उदार यह है कौन? अंतस्-तल से विवेक -स्वर गूंज उठा- गंगा को अपने महांक में विराम-विश्राम और अपना अक्षर-अनन्त श्यामल रंग देने वाला यह कोई ऐरा-गैरा सागर-गागर भला कैसे हो सकता है! अवश्य ही वह स्वयं वही सागर-सायी हैं जिनके पद से निकली वह संसार-भ्रमण के बाद थकी-मांदी अंततः उन्हीं के हृदय-प्रदेश में लौट रही हैं! व्यग्र और उतावली, किंतु समग्र संतोष-सुख व चरम आश्वस्ति- संतृप्ति से भरी हुई। चिरंतन ‘परम‘ के पास लौटती हुई लहराती अनादि आत्मा! महानतम् महामिलन। लगा, यह तो सृष्टि का अलौकिक दृश्य है, पृथ्वी पर अनन्य-दुर्लभ क्षण!

धीमा होते-होते स्टीमर जाकर सट गया चौकोर मंच से। ऐन संगम स्थल के निकट ऐसे कई-कई जलस्थिर मंचनुमा तख्त। गतिबाधित किंतु डोलते पोतों पर टिके-हिलते हुए। जनसंकुल। चहल-पहल से भरे। ब्लेयर स्टीमर से उचककर मंच पर जा चढ़ा। तख्त के कोरों पर लटकती कई बड़ी-बड़ी चूड़ीनुमा कीलें। उसने एक में मोटा रस्सा डालकर तुरंत गांठ लगा दी। गति टूटने लगी। स्टीमर धीमा हो चला। केबिन में लोग उठ खड़े हुए। खिड़की के शीशे से बाहर का जनसमृद्ध दिख रहा है। पुकारता हुआ-सा! जल का अक्षत विस्तार और जन का आसक्त समूह। चहल-पहल में जिज्ञासा-पुलक, भक्ति-भावों की सतरंगी अनुगूंज।

भाभी प्रसन्न, ‘‘ बच्चा, देखाऽ! इहौं मकर संक्रांति पर बनारसे जइसन भीड़ हौ! ’’

प्रसाद ने किंचित विस्मय के साथ सिर खुजलाया, ‘‘ अच्छा तऽ आज मकर संक्रांति हौ… तब तऽ बहुत बढ़िया तिथि पर गंगासागर पहुंचल गइल हौ…’’

सामने मंचों-तख्तों पर लदी हुई-सी भीड़। विराट् जनासक्ति। आसपास स्नान-पूजन के दृश्य! मन में औचक अपना बनारस नगर जाग उठा। संगम-स्थल को संबोधित जलते-बलते धूप -दीप। श्रद्धालुओं के बीच मंत्र बुदबुदाते कई-कई त्रिपुण्डधारी तीर्थपुरोहित। दशाश्मेधघाट की छवि तैर गयी! हाथ जोड़े श्रद्धालुओं पर ध्यान गया, वह तो ऐसे मग्न हैं, जैसे आसपास से गुजरते छोटे-बड़े किसी भी स्टीमर या नाव के शब्द-शोर उन्हें सुनाई ही नहीं पड़ रहा हो! एक प्रश्न कौंधा- यह समुद्र में कूदती व आत्मलीला का विसर्जन करती गंगा का पूजन-कीर्तन है या तर्पण-विलाप! अथक अनहद सेवा-यात्रा का सोल्लास समादर अथवा सकरुण श्राद्ध?

तख्त पर भीड़ के बीच ब्लेयर सक्रिय। सहयात्री स्त्रियों के लिए जगह बनाने में मशगूल। कुछ ही देर बाद उसके संकेत पर सभी उतरने के लिए आगे बढ़े। आगे-आगे प्रसाद, उनके पीछे पुत्र रत्नशंकर, भाभी लखरानी, पत्नी कमला देवी, कलकतिया भाई पुरुषोत्तमदास, थोड़ा पीछे अनुज मुकुन्दीलाल और लालो।

सभी आ गये हैं तख्त पर। चहल-पहल के बीच। अन्य सहयात्री भी शामिल होते जा रहे हैं। भीड़ बढ़ती जा रही है! साथ के बाकी लोग स्नान के जुगाड़ में जुट गये हैं किंतु ब्लेयर स्टीमर में लौट गया। प्रसाद भी तख्त की भीड़ का हिस्सा बन गये हैं। वह बहुत ध्यान से अवलोकन कर रहे हैं, चतुर्दिक् फैले जल के आन्दोलित नीले साम्राज्य का। मन में भाव उमड़ने लगे। बहुरंग-बहुतरंग। फेनिल-उत्पल लहरों से भी तेज। यह गति लगातार बढ़ती ही जा रही है। अनुभूति प्रखर और प्रज्वलित। अभिव्यक्ति पाने को बेचैन। लगा, अब इसे लिपिबद्ध करना ही होगा! वह तत्काल फर्श पर बैठ गये। सामने पड़ा कागज का कोरा पृष्ठ तत्पर है मन का बेकाबू भाव-समुद्र थामने को। देखते ही देखते लेखनी से अक्षर-गंगा फूट पड़ी है —

 

हे सागर संगम अरुण नील!

 

    अतलान्त महा गम्भीर जलधि-

    तज कर अपनी यह नियत अवधि

लहरों के भीषण हासों में

आकर खारे उच्छवासों में

    युग युग की मधुर कामना के

    बन्धन को देता जहां ढील

    हे सागर संगम अरुण नील!

 

पिंगल किरणों-सी  मधु-लेखा

हिम-शैल बालिका को तुमने कब देखा!

    कलरव  संगीत  सुनाती ,

    किस अतीतयुग की गाथा गाती आती

आगमन अनन्त मिलन बनकर-

बिखराता फेनिल तरल खील।

हे सागर संगम अरुण नील!

     

    आकुल अकूल बनने आती

    अब तक तो है वह आती

देवलोक की अमृत कथा की माया-

छोड़ हरित कानन की आलस छाया-

    विश्राम मांगती अपना

    जिसका देखा था सपना

अरुण ज्योति की झील बनेगी कब सलील?

निस्सीम व्योम तल नील अंक में

    हे सागर संगम अरुण नील!

 

गंगा-सागर के संगम में पहली बार सम्मिलित हो रही है सद्यः प्रकटी सरस्वती की समुज्ज्वल भाव-धार भी। इस अपूर्व क्षण की साक्षी बन रही हैं नील-नवल छंदोबद्ध जल-तरंगें। मुग्ध-मुदित। सस्वर मृदुल नर्तन करती हुईं। अनवरत!  

                       ***

कंथा का अगस्त 2021 में राजकमल से प्रकाशन हुआ है।

 

  श्याम बिहारी श्यामल

 ● जन्म : 20 जनवरी, 1965; डालटनगंज, पलामू, झारखंड।

 ● प्रमुख कृतियाँ : पलामू के सूखा-अकाल और दुर्धर्ष जीवन-संघर्ष पर आधारित उपन्यास ‘धपेल’ का 1998 में प्रकाशन। दूसरा उपन्यास ‘अग्निपुरुष’ भी चर्चित। यह भी पलामू की पृष्ठभूमि व जनजीवन में चर्चित एक पात्र सतुआ पांडे के वृत्तान्त पर केन्द्रित।

 कहानी-संग्रह—‘चना चबेना गंग-जल’; संस्मरण—‘वे दिन जो कभी ढले नहीं’; ग़ज़ल-संग्रह—‘श्यामलकदा’ और कविता-पुस्तिका—‘प्रेम के अकाल में’ भी प्रकाशित।

 पहली किताब ‘लघुकथाएँ अँजुरी भर’ सत्यनारायण नाटे के साथ साझे में 1984 में प्रकाशित। उसी दौर से लेकर अब तक लेखन और पत्रकारिता।

फ़िलहाल, आधुनिक हिन्दी भाषा-साहित्य के पितामह भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के मनोसंघर्ष पर आधारित उपन्यास के सृजन में रत।

‘कंथा’ का इससे पूर्व ‘नवनीत’ (मुम्बई) में मई 2010 से अक्टूबर 2012 तक के अंकों में धारावाहिक प्रकाशन और पाठकों के बीच चर्चित।

 

सम्प्रति : वाराणसी में ‘दैनिक जागरण’ के मुख्य उप-सम्पादक।

फोनः 7311192852

ई-मेल : shyambiharishyamal1965@gmail.com

 

 

 

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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Comments 1

  1. साहित्यिक सफ़र says:
    4 years ago

    धन्यवाद

    Reply

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