लेकिन ये अजीब ही बात है कि सबलोग यहाँ बोलते ही हैं, या बोलते रहना चाहते हैं। बोलने वाला सुनना नहीं चाहता, अब वो जमाना नहीं रहा जब लोग बोलते भी थे और सुनते भी थे और परस्पर बोलने और सुनने के बीच से कोई बड़ी बात उभर कर सामने आती थी। अच्छा, आज जितना बोला जा रहा है, पहले क्या इतना बोला जाता था। पहले कम बोलकर लोग अधिक कर गुजरते थे, आज बोलने के नाम पर सभी कमर कसे बैठे हैं और कर गुजरने का वक्त भी इस ‘बोलने ने ही ले लिया है। सोचते हुए एक सोच उभर कर आई कि कितनी पत्रिकाएं, कितनी किताबों के ढेर, और आज के इस इंटरनेटी समय में हजारों ब्लॉग।।। लेकिन रोना वही, साहब कोई देखता तक नहीं, पढ़ने की बात तो दूर है।।
इतने सारे बकवासों के बीच यह बकवास भी क्या उसी बोलने की आवृति..?????…पता नहीं।।।
अर्चना लार्क की सात कविताएँ
अर्चना लार्क की कविताएँ यत्र-तत्र देखता आया हूँ और उनके अंदर कवित्व की संभावनाओं को भी महसूस किया है लेकिन इधर की उनकी कुछ कविताओं को पढ़कर लगा...