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ज्ञानोदय में छपी कहानी “‘चिन्दी चिन्दी कथा” पर वरिष्ठ साहित्यकार प्रताप सहगल की प्रतिक्रिया

ज्ञानोदय के जून अंक में छपी कहानी चिन्दी चिन्दी कथा पर पाठकों की इतनी अच्छी प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं थी। कहानी को इतनी प्रसंशा मिल रही है कि मैंने सोचा भी न...

कथांश

जानने वाले जानते हैं कि इन दिनों मेरा लिखना-पढ़ना लगभग बंद ही रहा। कुणाल, निशांत, प्रफुल्ल कोलख्यान, नीलकमल जैसे मित्रों को हमेशा यह शिकायत रही कि मैं क्यों ऐसा कर रहा हूँ।...

2005 की एक कविता

लोहा और आदमीवह पिघलता है और ढलता है चाकू मेंतलवार में बंदूक में सुई मेंऔर छेनी-हथौड़े में भीउसी के सहारे कुछ लोग लड़ते हैं भूख सेभूखे लोगों के खिलाफखूनी लड़ाइयां भी उसी...

संकलन “कविता से लंबी उदासी” की एक कविता

सपना                                  गाँव से चिट्ठी आई है                                                                         और सपने में गिरवी पड़े खेतों कीफिरौती लौटा रहा हूँपथराये कंधे पर हल लादे पिताखेतों की तरफ जा रहे हैंऔर मेरे सपने में बैलों के गले...

कहना सच को सच की तरह : विमलेश त्रिपाठी

कुछ अरसा पहले वागर्थ के संपादक विजय बहादुर सिंह ने अपने संपादकीय में एक बहुत ही अच्छी कविता लिखी थी। कविता के रूप में संपादकीय लिखने का शायद पहला सिससिला उन्होंने शुरू...

कथाकार मार्कण्डेय का न रहना

उनसे हमारा परिचय बस एक पाठक साहित्यकार का था। हमारी नजर में वे हमेशा एक बड़े कथाकार रहे। तमाम साहित्यिक गुटों से परे और बहुत सालों से चर्चा में न रह कर...

उसे सुनो कभी अपने एकांत में….

रविन्द्र, सच सिर्फ वही नहीं होता जो दिखता है, उसके आगे भी सच के कई छोर होते हैं। मुझे इस बात का कोई मलाल नहीं कि तुम उन छोरों तक पहुँचने की...

लौट आना चाहता हूँ…..

दोस्तों की शिकायतें बाजिब हैं, लेकिन क्या करूं कि कोई एक कहानी पूरी हो जाय। आपको जानकर शायद ही विश्वास हो कि मेरे पास १५ अधूरी कहानियाँ हैं, जो रोज रात को...

करता हूँ प्यार….

कहते हैं दुनिया जा रही नाउम्मिंदी की ओरसमय की पीठ पर रह गए हैं महजहमारी अच्छाईयों के निशानआज जो दिखतावह एक अंधी दौड़किसे किसकी फिकरभागते लोग बेतहासा स्वयं में सिमटे ऐसे सपनों...

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