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Home कविता

2005 की एक कविता

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in कविता, साहित्य
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2
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लोहा और आदमी


वह पिघलता है और ढलता है चाकू में
तलवार में बंदूक में सुई में
और छेनी-हथौड़े में भी

उसी के सहारे कुछ लोग लड़ते हैं भूख से
भूखे लोगों के खिलाफ
खूनी लड़ाइयां भी उसी से लड़ी जाती हैं

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कई बार फर्क करना मुश्किल होता है
लोहे और आदमी में।।

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Comments 2

  1. Anonymous says:
    13 years ago

    अच्छी कविता विमलेश जी, बहुत पहले इसे वागर्थ में पढ़ टुका हूँ..
    –नगेन्द्र सिंह

    Reply
  2. Rahul Singh says:
    13 years ago

    सच में फर्क करना मुश्किल होता है कई बार लोहे और आदमी में…..एक मंजी हुई कविता।।। बधाई…….

    Reply

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

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