नील कमल का आज जन्म दिन है। उन्हें ढेरों बधाईयां व शुभकामनाएं । उनका लेख आज
अनहद पर
अभी न होगा मेरा अंत
नील कमल
|
नील कमल – 9433123379 |
सभ्यता के विकास के साथ कविता की ज़रूरत के बढ़ते जाने और कवि–कर्म के कठिन होते जाने की बात आचार्य रामच्न्द्र शुक्ल ने बहुत पहले ही उठाई थी।सम्भवत: आज हम सभ्यता के उसी बिन्दु पर हैं जहां कविता जरूरी भी है और दुखद ढंग से अप्रासंगिक भी।
हिन्दी आलोचना ने तो कविता का मर्सिया बहुत पहले ही पढ़ना शुरू कर दिया था।हमारे समकालीन हिन्दी कवि कविता के तट पर चलने से अधिक कहानी और उपन्यास की फेनिल लहरों पर तैरना जरूरी समझने लगे हैं।फिर भी कविता है कि साहित्य के मैदान में दूब की तरह उगी है और बार–बार झुलस कर भी हरी है।कुछ तो बात है कि कविता की जरूरत अभी भी बची है।जैसे मन्दिर–मस्जिद–गिरजा–गुरुद्वारे जाकर मनुष्य मन से थोड़ा अधिक निर्मल और उदार हो जाता है; जैसे नदी के तट पर,पहाड़ों की गोद में या हरे–भरे खेतों के पास जाकर मनुष्य का मन थोड़ा अधिक उन्मुक्त हो जाया करता है, कविता के पास आकर मनुष्य पहले से थोड़ा बेहतर मनुष्य जरूर बनता है।इसका यह अर्थ बिलकुल न लगाया जाए कि कविता सभी दुखों की दवा है। आधुनिक हिन्दी कविता के सबसे भरोसेमन्द कवि “मुक्तिबोध“ ने स्पष्ट चेतावनी दी है कि कविता पर जरूरत से ज्यादा भरोसा करना मूर्खता होगी।
जीवन के जटिल यथार्थ और संश्लिष्ट अनुभवों की अभिव्यक्ति के लिये कविता से बेहतर औजार भला क्या हो सकता है।अभिव्यक्ति के लिये उठाया गया औजार ही रचना की शक्ति और सीमा को तय करता है।देखा जाए तो साहित्य की सभी विधाएं कविता का ही विस्तार हैं।हिन्दी में कवियों की कमी नहीं। अच्छे और सच्चे कवि फिर भी कम ही देखने में आते हैं।कविता न तो बन्दूक है, न ही बुलेट।वह तो बस रास्ता बताती है, चलना खुद को ही होता है।अपना काम कविता के जिम्मे सौंप कर हम सो नहीं सकते।हिन्दी में अच्छी कविताएं भी लिखी जा रही हैं। फिर भी ये उन तक नहीं पहुंच रही हैं जिनको ये सम्बोधित होती हैं।कविता का दायरा पढ़े–लिखे लोगों तक सिमटा हुआ है।क्या कविता में जीवन का ताप भी है?या फिर वह संवेदनशील हृदय का काव्याभ्यास भर ही है?क्या कविता का सच कवि का भोगा–जिया सच भी है?दृश्यगत यथार्थ और अनुभूत यथार्थ के बीच की फांक क्या हिन्दी कविता में नहीं दिखती?इधर हिन्दी कविता में छ्न्दों की वापसी की सुगबुगाहट भी चल निकली है।छन्द में लौटने का अर्थ दोहा,चौपाई, रोला, सोरठा और छ्प्पय के जाल बुनना नहीं हो सकता।छन्द की वापसी दर असल कविता में जीवन की वापसी होगी।यह काम कविता की नई पीढ़ी को ही करना होगा।कविता को कृत्रिम–यथार्थ के दलदल से निकालना होगा।यह काम विचार के प्रति गहरी ईमानदारी से ही सम्भव है।अगर भूख के नाम पर आपके पास एक या दो व्रत–उपवास की ही अनुभव–जन्य पूंजी है तो भूख पर कविता लिखने का नैतिक हक़ आपका नहीं बनता।कबीर–तुलसी यदि खेत–खलिहान और चौपाल से लेकर बड़े अकादमिक संस्थाओं तक समान रूप से समादृत हैं तो इनकी जड़ों को पहचानना, कारणों को जानना बेहद जरूरी है।अब जरूरी है कि कविता की दुनिया कागजी नहीं, जमीनी हो।लगभग कदमताल करती हिन्दी कविता के सामने आगे बढ़ने की चुनौती है।आलोचनाइस काम में कविता की मदद कर सकती है।आलोचना और रचना के बीच का रिश्ता लोहा और लोहार का है।उसका काम सिर्फ़ लोहे पर चोट करना नहीं बल्कि इस तरह चोट करना है कि लोहे में धार पैदा हो।यही धार लोहे को हथियार में बदलती है।हिन्दी कविता को शिल्प के अपर्याप्त होने के मिथकों को भी तोड़ने की जरूरत है।उससे भी बड़ी चुनौती है जन–जन तक पहुंचने की,उनकी खैर–खबर लेने की।
इन दिनों हिन्दी कविता में सत्रह से लेकर सत्तर–पार तक की पीढियां एक साथ सक्रिय हैं।कविता के लिये कोई समय आसान नहीं होता,पर कठिन और चुनौतीपूर्ण समय में किसी दौर की कविता अपने पूर्ववर्ती समय से अलग और व्यतिक्रमी हो यह तो जरूरी है।कठिन समय के दुख अनेक हैं।आने वाले समय में कविता की चुनौती होगी जनतन्त्रिक मूल्यों की स्थापना के साथ इन दुखों को कम करना।ऐसे में प्रतिबद्धता और पक्षधरता द्वारा ही कवि की अपनी समकालीनता तय होगी।समकालीन कविता को लेकर शिकायतें तो हो सकती हैं किन्तु दुर्भाग्य से इसे उस अबला की तरह मान लिया गया है जिसके बगल से कोई भी छुटभैया आलोचक राह चलते टिटकारी मार कर गुजर सकता है।
विजय कुमार हिन्दी के चर्चित आलोचक हैं।हिन्दी कविता से इनकी शिकायतें गम्भीर किस्म की हैं(“अनुभव के मानकीकरण के खिलाफ़“-वागर्थ,अक्तूबर २००४)- शिकायत यह कि:१.हिन्दी की युवा कविता इधर पिछले अनेक वर्षों से आख्यानात्मक एकरसता का शिकार हो गई है।
२.कविता में लम्बे–लम्बे ब्यौरों और तथ्यपरकताओं का अम्बार लगा है।
३.यह एक शिथिल और मोनोलिथिक संसार भी है।
४.लगता है जैसे ज्यादातर कवि अपने प्रामाणिक होने को लेकर जरूरत से ज्यादा सतर्क हैं।
५.भाषा में अर्थ की व्यापक अनुगूंजों की तलाश का मसला फ़िर भी बाकी रहता है।
यह हिन्दी कविता से शिकायत कम उसपर आरोप ज्यादा है।इसके लिये वे कवि भी जिम्मेदार हैं जो कविता के नाम पर अल्लम–गल्लम कुछ भी लिख मारते है।अखबार की रिपोर्ट की तरह ये कविताएं दूसरे ही दिन अपनी प्रासंगिकता खो देती हैं।दुर्भाग्यजनक होते हुए भी सच है कि हमारे समय की अधिकांश कविताएं सतही हैं।इसका खामियाजा उन“जेनुइन“ कविताओं को देना पड़ता है जो समय से गहरे में जाकर संघर्ष कर रही होती हैं।समकालीन कविता को सही परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की जरूरत बहुत ही मुनासिब जान पड़ती है।
पंकज चतुर्वेदी ने कविता पर कई हल्की–फ़ुल्की टिप्प्णियां की हैं(“पड़ताल“-वागर्थ,जनवरी–जून २००५)-वे प्रमाणित करना चाहते हैं कि:१.यह स्पर्श–कातर कवियों का समय है।
२.हिन्दी कविता की एक पूरी पीढ़ी लम्बे अरसे से बिना किसी विश्वसनीय आलोचना के अपनी उत्कृष्टता का दावा कर रही है।
३.अन्यथा सफ़ल, सन्तुष्ट सी दिखती इन कविताओं का ऋण–पक्ष यह है कि यह महत्वाकांक्षी लेखन नहीं है।
ध्यान देने की बात यह है कि हिन्दी कविता का आलोचक बड़ी हड़बड़ी में है।वह बहुत जल्द कविता की बनावट और बुनावट में व्यापक तोड़–फ़ोड़ देखना चाहता है, हालांकि जानता वह भी है कि यह काम कितना आसान है।तभी तो मैनेजर पाण्डेय लिख पाते हैं कि,”समकालीन कवियों पर लिखने के लिये कोई इसलिए भी तैयार नहीं है कि जरा सा सच बोल देने पर ये लोग बुरा मान जाते हैं“।
समकालीन हिन्दी कविता का दुर्भाग्य है कि उसके पास समर्थ और विश्वसनीय आलोचक नहीं हैं।जो आलोचक हैं वे भी “ज़रा सा सच“ही बोल पाते हैं।नतीज़ा यह होता है कि घूरे पर फ़ेंके जाने लायक साहित्य को तो पुरस्कारों–सम्मानों से लाद दिया जाता है लेकिन मूल्यवान–साहित्य नेपथ्य में उपेक्षित पड़ा रह जाता है।वरना क्या कारण है कि वीरेन डंगवाल जैसे ज़रूरी और महत्वपूर्ण कवि को यह कहना पड़ता है कि,”कवि का सौभाग्य है पढ़ लिया जाना“(“वीरेन डंगवाल की कविता“-समकालीन कविता,अंक–४)। सचमुच, कवि का सौभाग्य उसको पढ़ लिया जाना ही है।यह पढ़ने वाला अर्थात पाठक कौन है?क्या कविता के आलोचक कविताएं पढ़ते भी हैं?……….. { ..जारी...}
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
पहले तो लेखक को जन्मदिन कि बधाई….
इस लेख के सन्दर्भ में एक बात अच्छी लगी कि यह लेखक के जन्मदिन पर प्रस्तुत किया गया है. जन्मदिन मानने का यह तरीका बेहतर लगा….
मैनेजर पांडे ने जो कहा उससे पुरी सहमति. अभी जो भी नौजवान लेखक लिख रहे हैं उनकी रचना पर 'बेबाक' देना उन्हें अपना दुश्मन बनाना है.
एक दिक्कत यह भी है कि, कोई आदमी दो-चार चालू कवितायेँ या कहानियाँ लिख कर 'लेखक' बन सकता है. उसे इनाम-अकराम भी मिलने लगेंगे. लेकिन युवा आलोचक को प्रोत्साहन कहाँ से मिलेगा !! देवीशंकर अवस्थी जैसे आलोचना पुरस्कार की आयु-सीमा ४५ साल है ! यह आयु-सीमा अपने आप में एक बड़ा फ्रॉड है.
आलोचना की दूसरी बड़ी दिक्कत है कि नए से नए आलोचक को जमे जमाये बरगदों से टकराना पड़ता है. शुक्ल जी,द्विवेदी जी.रामबिलास जी.नामवर जी,साही जी.तलवार जी.अग्रवाल जी, धर्मवीर जी,पांडे जी की बातों को काटना पड़ता है. यानी वह स्वयं को अजगर के मुँह में डाल रहा होता है. जो जीवित हैं वो खुद उस युवा से निपट लेते हैं और जो मृत हैं उनके चेले ऐसे नौजवानों कि खबर लेते हैं… जबकि तथकथित कवि और कहानीकार सभी की गोद में बारी-बारी बैठने को स्वतंत्र होते हैं. वह अपने रचना के माध्यम से साहित्य के मठाधीशों से कोई सीधी टक्कर नहीं लेते. सुखी रहते हैं. जबकि कोई नौजवान आलोचना में 'बागी' तेवर अपना ले तो उसका भविष्य अन्धकारमय होना तय है…
और बहुत कुछ है कहने को. कभी इत्मिनानन से इस विषय पर लिखा जायेगा. मेर राय में यह लेख समकालीन आलोचना पर मुरारी बापू के प्रवचन सरीखा है.
लेखक अमूर्त में विचरते रहा है. अधिकांश कवितायेँ सतही हैं, अधिकांश पुरस्कार सतही लोगों को दिए गए…ऐसे चालू बयान खाचिया भर दिए जा चुके हैं. लेखक को थोड़ा 'स्पेसिफिक' होकर भी बात करनी चाहिए थी. जिससे प्रवचन और आलोचना में थोड़ा अंतर दिखे.
जन्मदिन की बधाई…लेख पूरा पढ़ने के बाद ही कुछ कहूँगा. हालाँकि शुरुआत उम्मीद जगाने वाली है.
ना सिर्फ कविता बल्कि उत्तर अद्धुनिकता का टैग लगाये ज्यादातर कहानियों में भी ब्योरों ,संकेतों प्रतीकों की भरमार है ,प्रमाणिकता ‘’की ‘सतर्कता’ का संकट भी कमोबेश हर विधा का संकट है !1985 के नोबेल पुरूस्कार विजेता क्लाउड सिमोन कहते हैं ‘’लेखक को सोचना चाहिए कि इस श्रम द्वारा उसके वर्तमान में क्या लिखा जा रहा है ?इस प्रकार हम एक नई चीज़ की खोज करते हैं जिस प्रकार एक चित्र ध्येय ये नहीं कि किसी खास विषय का सार लिख दिया जाये उसका ध्येय है कि वे विचार उससे प्रतिबिंबित होने चाहिए जिस प्रकार संगीत का प्रभाव होता है !’’कवियों की भीड़ में (सुयोग्य –जेन्युइन)कवी का पढ़ लिया जाना वाकई उस कवी का सौभाग्य है!…सारगर्भित, पठनीय लेख!बधाई
जन्मदिन की ढेरों शुभकामनायें नीलकमल जी !……. ''जैसे मन्दिर-मस्जिद-गिरजाघर-गुरुद्वारे जाकर मनुष्य मन से थोड़ा अधिक निर्मल और उदार हो जाता है; जैसे नदी के तट पर,पहाड़ों की गोद में या हरे-भरे खेतों के पास जाकर मनुष्य का मन थोड़ा अधिक उन्मुक्त हो जाया करता है, कविता के पास आकर मनुष्य पहले से थोड़ा बेहतर मनुष्य जरूर बनता है।…सभी विधायेँ कविता का ही विस्तार हैं । ''…… सही कहा आपने !!!
नीलकमल जी जन्मदिन की ढेरों शुभकामनायें ! आपने मुद्दे सही उठाए हैं …. चर्चा को सार्थकता प्रदान करना … शुभकामानाएं
janmdin ki ashesh shubhkamnaaye aur lekh ke liye badhai.. abhi haal he me maine ankur mishr ki smriti me aayojit kavi goshthhi me upasthit rahi. vahan manglesh dabraal ji ne aur arun kamal ji ne saaf taur par hindi sahity me hone vaali khemebazi ka zikr kiya. aur yah bhi sweekar kiya ki chhapne ke liye jo kavitaye aati hain unke saath tippaniya natthi hokar aati hain. to kavita chhapvaane ke liye pahle aap sampark sadhiye.. phir gut me shamil hoiye.. tab jaakar agar kavita chhapi to vah rachnakar ko kitna sukh degi ? akhir sahity ke kshetr me ghus aai ye rajneeti kitni ghatak hogi yah sawal siharan hi paida karta hai.
Rangnath Singh ji , Ashok Kumar Pandey ji , yah alekh "Setu" ke kavita kendrit ank me prakashit hai … yahan Bimlesh ji ne iska ek ansh hi sajha kiya hai ..aap poora alekh dekh lein..main jald hi upalabdh karane ki koshish karta hoon ..agar yah pravachan jaisa kuchh hai to main apani kahi hui har baat ko saaf karne ko prastut hoon ..sabhi mitron ko dhanyavad .
आभार, अगर नील कमल अनुमति देंगे तो उनका पूरा लेख यहीं आप अनहद पर ही पढ़ पाएंगे। अगले कुछ दिनों में। बहर हाल आप सभी के महत्वपूर्ण टिप्पणियों के लिए पुनः आभार…
बहुत उपयोगी लेख !!…..कुछ अंश अपने लिए फेसबुक पर पोस्ट करने की अनुमति चाहूँगा!!