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सौमित्र |
सौमित्र की कविताएँ घर आँगन से होती हुई प्रकृति के विशाल फलक तक तो जाती ही हैं वे उम्मीद और प्रेम सहेजे रखना भी जानती हैं। स्नोतकोत्तर की पढ़ाई के बाद सौमित्र प्राय़ः देश से बाहर ही रहे लेकिन उनकी कविताओं में भारतीय संस्कृति और परम्परा की गहरी अनुगूँज देखने को मिलती है। सौमित्र व्यक्तित्व के जितने सरल और सहज हैं उनकी कविताएँ भी उतनी ही सहज-सरल हैं। वे धीरे से उंगली पकड़ कर एक ऐसे लोक में लेकर जाती हैं जहाँ परदादी की संदुकची है और है ढेर सारी स्मृतियाँ जिससे जीवन सुंदर बनता है।
अनहद पर हम सौमित्र की कविताएँ पहली बार पढ़ रहे हैं- हमें यकीन है कि हम आगे भी इन्हें पढ़ते रहेंगे। आपकी प्रतिक्रियाएँ हमारी पूँजी है अतएव अपनी प्रतिक्रियाओं से हमें अवगत जरूर कराएँ।
बेला
दूसरी सुहागिनों के साथ
घर की वृद्धाएँ भी
पूजने चली गयी हैं पेड़।
लौटने पर
वो ले लेंगी
दूध की थैली
इंगुर की नई डिबिया
और कफ़ सिरप भी।
घर आके
कुछ फुलौरियाँ तल के
वो भी
आँगन में दे आएँगी अर्घ्य।
आज उनके आदमी भी
नहा-धोके बैठे हैं-
वो विसूख गए थे
उनकी अनुपस्थिति में
अब फिर बोलने लगे हैं।
उन्हें जब अपनी पत्नियों की आवाज़ आती है तो वो
तसल्ली से खाँसने लगते हैं
उनकी खाँसी सुनकर
वृद्धाएँ-
बहुत तेजी से
हड़बड़ी में
व्रत-कथाएँ बोल जाती हैं।
गठबंधन
कल विवाह था
आज गठबंधन है।
तुम ले लो अपने
मन की निरंतरता
जो सम्हाली हुई हो
उस पल से
जब
गढ़ी गयी थीं तुम
दिए से प्रज्ज्वलित दिए सी
मेरे साथ ही पर
भूली हुईं मुझे-
मैं ले लेता हूँ
अपनेप्रेमकासातत्य !
आओ मिल जाते हैं फिर
एक बार और
नईं स्मृतियों का निर्माण करने को !
कल पर्व था
आज
धुली वंदन है।
व्रत-संध्या
एक पत्ता फिर
निवेदित हुआ है-
इस घड़ी भी
वो उड़ चला है दूर
हवा की काँख में दबी
नमी छूकर
ठहर गया वहीं
और फिर
खो गया है गिर कर
मिट्टी में मिला सा लुप्त !
आज फिर किसी
व्रत की संध्या है
चन्द्रमा के बहुत से छीटें
इस ओर भी गिरे हैं
और उसकी ओर बह निकले हैं।
जन्मांतर
एक बार और
आना चाहता हूँ तुम्हारे पास
चेतन की निरंतरता हो जाती है अवरुद्ध
तुम्हारे ओझल होते ही-
पिछला पल
लगता है पूर्व-जन्म सा
मैं उपनिषदों में ढूँढ़ने लगता हूँ
उसका हिसाब-किताब
विश्वास हो भी जाता है
फिर भी
नहीं होता विश्वास
कि क्या तुम
सचमुच थीं यहाँ।
उत्तरदायित्व
मैं हो आया हूँ घर-
बस
भीतर जाके बात करनी शेष है !
कल सुरक्षित है –
तुम्हारे गर्भ की कन्दराओं में
विश्राम कर रहे
स्त्री-बीजों सा-
वो ठीक है-
क्योंकि
सकुशल हो तुम !
उमड़ना चाहता हूँ मैं
अपने धर्म के अतिरेक में
आख़िर
उत्तरदायित्व के दस्तावेज़ों में तुमसे
प्रेम करना
रेखांकित जो हुआ है।
ज़रूरी चीज़
सींकें
जड़ पकड़ गयी हैं
मिट्टी के करवे में-
ऐपन
आटे और रोली के छींटों में सनी
वो उग आई हैं
फिर से-
उनके पास
किनारों पे हरी घास भी जन्मी है
वो त्योहारों के दिनों में
मिट्टी में ही छिपी थी
अब निकल आई है
अर्घ्य दिए पानी में भीगी
रात के चन्द्रमा में
वो हिल रही है
सृष्टि की कोई
जरूरी चीज़ सी।
शिल्पकार
उन मूर्तियों को उसने
छैनी-हथौड़े से
तराशा नहीं था
चोटें नहीं दी थीं उसने
जन्म लेते आराध्य को।
ना ही
बारीक नक्काशी से
शक्ल दी थी
किसी भव्य रूप में
कि जो बाद में फिर
ऊँचे परकोटों वाले मंदिरों में
या सँकरे गर्भगृहों में रखी जातीं
और पूजी जाती सदियों तक –
वो तो
हथेलियों से थपथपा के
ढाल लाया था
मिट्टी के लोंदे को-
उसमें कंकड़ थे
बालियों की फांसें थीं
गोबर की चित्तियाँ भी थीं
कुछ कुछ !
अपनी उँगलियों से
मनचाहा आकार देकर
उसने आले में रख लिया था घरके
एक दिए की बाती और
एक रोली का टीका
निवेदित करके
उसने
मॉंग ली थी
सुरक्षा और
द्वार की किवाड़।
परदादी
पहली परदादी को
बनाया होगा ख़ुद
उनकी माँ ने-
दे दी होंगी
कंठी माला
बिछिया, गिन्नी
सिन्दूर की डिबिया
सूत की धोती और बाँचने को कुछ
पोथियाँ
स्नेह भी भर दिया होगा बहुत-बहुत
और घुटनों का दर्द भी
किसी परदादी की
पर-पर
पर-पर
परपोती
मेरी परदादी की
सहेजी हुई एक संदूकची
मिली मुझे उस दिन
और उसमें जगह-जगह
कत्थे-सा जमा हुआ
उन्नीस सौ उनतीस का
सिन्दूर
मैंने छूकर उसे
जी लिया एक पल
उनके सुहाग का-
और फिर शायद
ख़ुद को उसी कारण
हुआ पाया।
साड़ियाँ
बक्से में रखी हैं सब साड़ियाँ वो
तुम्हारी देह से
भरी हुई थीं जो-
एक दिन
सबकी याद में
चित्रित एक दिन !
वे मानी नहीं थीं
इतनी जल्दी
पसरी थीं अकड़ी
बंधने को न थीं तैयार
फिर डाह हुआ था उनमें
जब जगी थी ललक
जी में भर लेने को तुम्हें।
सब सकुचा के
तुम्हारी
दृष्टि की उमंग को
मोहित करने
झलमला गई थीं अतिरिक्त
रंगीन भी हुई थीं बहुत।
फिर तुमने चुना उस पीली वाली को
ज़री के काम वाले फूल थे जिसमें
और फेरे लिए थे तुमने
मेरे साथ-
फिर चुना तुमने
उस लाल वाली साड़ी को
गोटे के सितारों वाली
और लिवा लाया था मैं
तुम्हें
अपने घर।
सब तस्वीरों में सजी तुम पे
ये दोनों
आज भी बक्से में
इतराई बैठी हैं
बाक़ी सब रूठियों के साथ।
मैं फिर-फिर
ले आता हूँ
साड़ियाँ
तुम्हारी तस्वीर के नयेपन
और उनकी किस्मत को-
जो भरेंगी तुमको
अपने भीतर
और फिर
मेरे मानिंद लिपटी हुई सी
प्यार देंगी।
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सौमित्र (1976)
सौमित्र पिछले ढाई दशकों से कविताएँ लिख रहे हैं। सौमित्र का जन्म उत्तर प्रदेश के ऐतिहासिक शहर मेरठ में हुआ था। भारत से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद, सौमित्र केमिकल इंजीनियरिंग में पीएच-डी करने के लिए शिकागो चले गए।
उनके कई कामों के बीच, सौमित्र का पहला कविता संग्रह, ‘मित्र’ प्रकाशित हुआ। यह संग्रह समीक्षकों द्वारा प्रशंसित किया गया था, और उन्हें 2008 में, भारत की अग्रणी साहित्यिक फाउंडेशन, भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रतिष्ठित भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार मिला। ‘मित्र’ का अंग्रेज़ी अनुवाद प्रसिद्ध मीडियाकर्मी और लेखक धीरज सिंह ने किया और जो ‘I like to wash my face with seawater’ शीर्षक से 2020 में प्रकाशित हुआ है। एक लंबी कविता, ‘एक स्वप्नद्रष्टा का रोमांटिसिज़्म’ रचना समय पत्रिका में 2011 में प्रकाशित हुई थी। प्रकाशन पथ पर कई पुस्तकों में एक कविता संग्रह “कहीं दूर जाकर दम तोड़ने का मन होता है” शामिल हैं।
स्नातकोत्तर शिक्षा के बाद सौमित्र ने अपना अधिकांश जीवन भारत से बाहर गुजारा। वर्तमान में, वे मध्य-पूर्व एशिया के एक प्रमुख विश्वविद्यालय में वैज्ञानिक के रूप में काम करते हुए कार्बन फुटप्रिंट में कमी और जलवायु परिवर्तन शमन के क्षेत्र में अनुसंधान कर रहे हैं ।
Email: saumitra.saxena@gmail.com
मेरी कविताओं को साझा करने के लिए आपका बहुत धन्यवाद, विमलेश भाई। आभार और प्यार।
सही कहा आपने विमलेश जी सौमित्र जी की कविताएं सहज सरल और सीधे हृदय में अंकित होने की काबिलियत रखती है। साड़ियाँ, परदादी, शिल्पकार, जन्मांतर कविताएँ बेहतरीन हैं। यूँ तो सभी कविताएं अच्छी है।
– अनिला राखेचा