हिन्दी का साहित्यिक इतिहास कैसे
लिखें?
डॉ. अजय तिवारी
डॉ. अजय तिवारी |
पिछले दिनों भारतीय भाषा परिषद ने इस विषय पर लंदन, श्रीलंका, मॉरीशस और भारत समेत कई देशों के
हिन्दी सेवियों के साथ ‘हिन्दी साहित्य
का इतिहास: नये परिप्रेक्ष्य’ विषय पर चर्चा
की। इससे यह तो स्पष्ट है कि ‘इतिहास के अंत’ की बातें व्यर्थ सिद्ध हो चुकी हैं। अब सवाल साहित्येतिहास की
नयी दृष्टि का है। यह नवीनता अब तक लिखे गए इतिहास-ग्रन्थों के संदर्भ में है।
रामचन्द्र शुक्ल ने औपनिवेशिक दृष्टि का प्रतिवाद करते हुए अपने समाज में विकासमान
प्रवृत्तियों को लक्षित करते हुए पहला व्यवस्थित इतिहास लिखा ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’, हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लोक और शास्त्र के द्वंद्व के आधार पर दूसरा
इतिहास लिखा ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’, रामविलास शर्मा ने जातीय चेतना की कसौटी पर लोकजागरण और
रीतिवादी संस्कृति की टकराहट के आधार पर तीसरा इतिहास लिखा ‘हिन्दी जाति का साहित्य’। इक्कीसवीं सदी में नये प्रश्नों की रोशनी में इतिहास-लेखन का क्या
परिप्रेक्ष्य हो, यह सवाल महत्वपूर्ण है।
इस बीच अनेक नयी खोजें हुई हैं, नयी सामाग्री सामने आयी है, इतिहास-विवेचन की नयी दृष्टियाँ और नयी पद्धतियाँ विकसित हुई हैं। किसी एक
स्थान और कालखंड को लेकर अध्ययन हुए हैं। इनमें विकासक्रम पर ध्यान न देकर समांतर
प्रवृत्तियों के विश्लेषण का प्रयत्न है। इतिहास यदि विकास का अध्ययन है तो यह
पद्धति अंशतः काम आ सकती है, पर इतिहास लेखन
का सुसंगत आधार नहीं बन सकती। नये इतिहास लेखन में इन सामग्रियों,खोजों, दृष्टियों का लाभ
उठाना उचित है। किन्तु, अब तक के
इतिहास-लेखन में हिन्दी और उसकी बोलियों-उपभाषाओं के समावेश की सुसंगत पद्धति नहीं
है। खड़ीबोली के प्रतिष्ठित हो जाने के बाद ब्रज, अवधी, मैथिली, राजस्थानी का साहित्य इतिहास विवेचन में नहीं लिया गया, जबकि पहले हिन्दी की इन बोलियों-उपभाषाओं का साहित्य प्रमुख
था। इस बीच छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी,बुन्देली आदि के साहित्य का विकास भी कमोवेश हुआ है। इनमें
कुछ अपने स्वतंत्र अस्तित्व की माँग करने लगी हैं। इन सब बोलियों और उपभाषाओं के
समावेश से हिन्दी साहित्य का नया इतिहास लिखा जाय तो वह अधिक प्रतिनिधिमूलक होगा
और हिन्दी से अलग होने की क्षेत्रीय भावना कमजोर होगी।
यही नहीं, बहुत से देशों में भारतीय प्रवासी या
भारतीय मूल के नागरिक (जैसे ‘गिरमिटिया’) हिन्दी में रचना करते हैं और भारत की स्मृतियों में जीते हैं।
फ़िजी के एक लोकगायक ने अपने पुरखों की यातना को सहेजकर लिखा एक गीत सुनाया था—‘कहे ऊ भारत छोड़िस ई तो हम जानीला, भारत ओका नाहीं छोड़िस, ई तो हम सहीला। ‘डेढ़-दो सौ सालों
में जिन्हें भारत ने नहीं छोड़ा, उन्होंने भी भारत
की भाषा नहीं छोड़ी। इनके साहित्य को हिन्दी के व्यापक इतिहास का अंग मानना उचित
है। जिस प्रदेश की भाषा हिन्दी है,उसी प्रदेश की भाषा उर्दू है। दोनों एक ही समाज की भाषाएँ हैं। न हिन्दी
से हिंदुओं का विशेष संबंध है, न उर्दू से
मुसलमानों का। खड़ीबोली के पहले कवि अमीर खुसरो हिन्दू नहीं थे और पहले कहानीकार
रेवरेंड जे. न्यूटन भी ईसाई पादरी थे। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवी सदी के
पूर्वार्ध में हिन्दी-उर्दू के बीच सांप्रदायिक रूप में कृत्रिम विभाजन का प्रयत्न
हुआ। इसका श्रेय अँग्रेजी कूटनीति और पुरोहितवादी-मुल्लावादी भाषाप्रेमियों को है।
आज इस ग्रंथि से निकलकर दोनों का समन्वित इतिहास देखना आवश्यक है। इलाहाबाद
विश्वविद्यालय में हिन्दी पाठ्यक्रम का एक पर्चा उर्दू साहित्य का इतिहास है और
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में एक पर्चा उर्दू साहित्य है। जिस तरह जनपदीय बोलियों
को मिलाकर देखने से क्षेत्रीय अलगाव कम होगा, उसी तरह हिन्दी-उर्दू को मिलाकर देखने से सांप्रदायिक अलगाव कम होगा।
बहुलता का समावेश प्रथकट का विकल्प है।
हिन्दी अब दक्षिण भारत में खूब पढ़ी और लिखी जाती है। हिन्दी समाज में
दक्षिण की भाषाओं के प्रति जितनी विरक्ति है, उतनी दक्षिण के प्रान्तों में हिन्दी के प्रति नहीं है। मुख्यतः आंध्र
प्रदेश और केरल हिन्दी के लेखन और चिंतन के महत्वपूर्ण केंद्र हैं। इन रचनाकारो, शोधर्थियों और विवेचकों के लेखन को हिन्दी साहित्य से अलग
रखना राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से अनुचित है। हिन्दी ही वह भाषा है जिसने राष्ट्र
के एकीकरण से लेकर स्वाधीनता आंदोलन तक व्यापक भूमिका निभायी है। इस बीच कुछ नये
अध्ययन-क्षेत्र भी इतिहास-लेखन में उभरे हैं। हिन्दी साहित्य का ‘आधा इतिहास’ स्त्री-दृष्टि से
आधी आबादी के लेखन को महत्व देते हुए लिखा गया है। हिन्दी साहित्य का ‘मौखिक इतिहास’ भी लिखा गया है, जिसमें किस्सों, किंबदंतियों और लेखकों के प्रवाद इत्यादि शामिल हैं। ऐसे
प्रयत्न अभाव को दूर करने के प्रयास कहे जा सकते हैं। ‘मौखिक’ इतिहास की
सामाग्री तो अधिक नहीं,पर ‘आधे’ इतिहास की दृष्टि
अवश्य ग्रहण करने की आवश्यकता है।
लगभग तीन दशकों में अनेक विमर्श सामने आये हैं। इनमें दलित, स्त्री और आदिवासी विमर्श मुख्य है। सभी विमर्श अनुभव के
विशेष क्षेत्रों पर बल देते हैं। इनमें आग्रह का अतिरेक हो सकता है लेकिन सामाजिक
अनुभव के इन क्षेत्रों की साहित्यिक अभिव्यक्ति को स्वीकार करना जनतान्त्रिक
दृष्टि से अनिवार्य है। कोई भी कसौटी अपनायी जाय, जनतान्त्रिक दृष्टि के अभाव में वह इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों के लिए
अप्रासंगिक होगी। साहित्य को प्रभावित करने वाली अन्य सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों का
अध्ययन भी इन दिनों होता है। हिन्दी के लोकवृत्त पर अनेक कार्य हुए हैं। यह
लोकवृत्त लोकसंस्कृति से पृथक है। यह ‘सांस्कृतिक उत्पाद’ के युग की वस्तु
है। सहज प्रेरणा पर आधारित लोकसंस्कृति से अलग सोद्देश्य निर्माण से परिचालित
फिल्म, सीरियल आदि का प्रभाव केवल जनसमाज पर नहीं
पड़ता, साहित्य पर भी पड़ता है। मीडिया के साथ ही
सोशल मीडिया ने बड़े समाज की रुचि और अभिव्यक्ति को प्रभावित किया है। नये
इतिहास-लेखन को इन सभी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। इनके जटिल सांस्कृतिक
प्रभाव ने विशेषतः युवाओं के साहित्य को अभिव्यक्ति, कला, स्वरूप, भाषा सभी दृष्टियों से प्रभावित और परिवर्तित किया है।
इतने प्रकार की विविध सामग्रियों, दृष्टियों, समस्याओं, पद्धतियों और क्षेत्रों को मिलाकर इतिहास लिखने में दो बड़े
प्रश्न उठते है। पहला, बोलियों,समुदायों, जेंडर, संप्रदाय और कलारूपों आदि को किस दृष्टि से एकसूत्रता प्रदान
की जाय? और दूसरा यह विराट कार्य किस प्रकार
सम्पन्न हो? पहले प्रश्न का समाधान यह है कि इनकी
एकसूत्रता दो आधारों पर कायम हो सकती है—भाषा (हिन्दी) और समाज (हिन्दी जाति)। इस जातीय चेतना के साथ राष्ट्रीय
विवेक और अंतर्राष्ट्रीय भावना को जोड़कर यह निश्चय किया जा सकता है कि हिन्दी में
लिखनेवाले सभी रचनाकार इस इतिहास की विषय परिधि में हैं। बेशक, उनमें इन रचनाकारों के अवदान और उनके लेखन के महत्वपूर्ण अंश
का चयन और विवेक आवश्यक है। लेकिन भाषा को आधार बनाते समय हम जाति और धर्म की
विखंडनकरी प्रवृत्तियों को निरस्त करेंगे क्योंकि हिन्दी के अनेक महत्वपूर्ण
रचनाकार हिन्दू हैं तो मुसलमान भी हैं,सिक्ख हैं तो ईसाई भी है; इनमें द्विज कहे
जाने वाले हैं तो दलित बताये जाने वाले भी हैं; पुरुष और स्त्रियाँ हैं तो अब ‘थर्ड जेंडर’ भी आ रहे हैं।
दूसरा प्रश्न संसाधनों से जुड़ा है। इतने प्रकार के क्षेत्रों से विपुल
सामाग्री का संकलन संस्थागत प्रयत्न और समन्वित कार्य (टीमवर्क) से ही संभव है।
शुक्लजी ने अपना इतिहास नागरी प्रचारिणी सभा के सहयोग से किया था। इस समय देश में
अनेक सरकारी, स्वायत्त या निजी संस्थान हैं जो
आर्थिक संसाधन से लेकर स्रोत सामग्री तक ज़रूरी सहयोग कर सकते है। हालाँकि हिन्दी
प्रदेश के राजनीतिज्ञों की तरह इनमें अधिकांश संस्थाओं में सांस्कृतिक चेतना का
अभाव हैं और सरकारों का रुख साहित्य के प्रति काफी शत्रुतापूर्ण है। फिर भी यदि यह
कार्य होगा तो इसके लिए समर्पित विद्वानों के दल की आवश्यकता होगी। इन विद्वानों
के लिए एक ही शर्त है, वे विचारधारा की
अपेक्षा दृष्टि और मूल्यों से प्रतिबद्ध हों। प्रवृत्तियों के विकास और ह्रास को
वे सामाजिक-ऐतिहासिक दृष्टि से परखें, साहित्य की विकासमानता पर ध्यान रखें और किसी युग के साहित्य में निहित
द्वंद्व को आज की चुनौतियों दृष्टि से विश्लेषित करें।
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अजय तिवारी, बी-30, श्रीराम
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हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad