एक पाठक का आलाप : ‘आधी सदी का कोरस’ के बहाने
मदन पाल सिंह
और उसका कामना युक्त, प्यासा मुख नभोनील पीने के लिए व्याकुल है
जैसे अपनी तरुणाई में वह आनंद का रसपान
करने के लिए पहुँचा करता था
अपने उस पुराने समय की अछत त्वचा का तब एक
लम्बा तिक्त चुम्बन
मंदोष्ण सुनहरे फलकों को आद्र कर देता था।
और अब यह मत्त अंतिम संस्कार
के समय मले जाने वाले पवित्र तेलों को
भूलता हुआ,
जीता है शामक चाय,
घंटा,बलगम के साथ,
बिस्तर पर पड़े रहने के लिए दण्डित-अभिशप्त और
जब साँझ की धूप खपड़ैलों को रक्तिम आभा से
नहला देती है तब उसकी दृष्टि
टिक जाती है प्रकाश को निगले हुए छितिज पर, वह देखता है हंस जैसी सुघड़,
सुनहरी,लम्बी पतवारवाली नौकाएँ
—बैगनी आभा और सुप्त सुगन्धि से आप्लावित
धारा पर जो झुलाती जा रही हैं हिंडोले की
तरह हल्का पीला प्रकाश और
उनकी रेखाएँ, स्मृतियों से परितृप्त गहन विरक्ति में !
—मालार्मे की कविता ‘खिड़कियाँ’
का अंश
अशोक अग्रवाल |
है खिड़की के उस पार बैठे श्री अशोक अग्रवाल की । अपने बिस्किटों के साथ सहज महसूस
करने वाले अशोक जी टका-तराजू से जुड़े अनुभव बयान करने वाले ऐसे वणिक पुत्र कभी
नहीं रहे, जो अपनी गद्दी सभालते।
पराठे, दही, सब्जी का नियमित सेवन करते
हुए, गैस की समस्या से पीड़ित हो, बही
लिखते, शेयर बाजार के आकड़ों पर नजर रखते। वह आकड़ों पर तो नजर
रखते हैं लेकिन उनके सन्दर्भ दूसरे हैं। दरअसल इन दिनों वह मूर्खता व अमानवीयता के
बढ़ते ग्राफ से छुब्ध दिखाई देते हैं।
वह जोखिम उठाने वाले,
मानव मन व प्रकृति के प्रति सहज गुगुप्सा लिए एक साहित्यिक हैं,
जिनकी स्मृति के खजाने में बाबा नागार्जुन, समशेर
बहादुर सिंह, त्रिलोचन, निर्मल वर्मा,
अशोक वाजपेयी, गगन गिल, कृष्ण
बलदेव वैद, विनोद कुमार शुक्ल, हरजीत
सिंह, हिमा कौल, विश्वेश्वर, पंकज सिंह, ज्ञानेन्द्रपति, तेजी
ग्रोवर, लाल्टू, सविता सिंह, अनिल
जनविजय जैसे न जाने कितने साथियों के संस्मरण-स्मृति-रेखाचित्र कैद हैं ! खतरा बस
यही है कि उनके लेखन में कृपणता न आये।
हालाँकि कृपणता और कतरब्योंत करने के उनके
पास अनेक दुनियावी व मानवीय तर्क मौजूद हैं।
उनके पास
डायरियों और प्रेम पत्रों के ऐसे विस्तार हैं, जिनमें
यात्रा करते हुए उनकी आँखें आद्र हो जाया करती हैं। इन पत्रों-डायरियों में ऐसे
अनेक पात्र-स्थितियाँ कैद हैं, जो अपनी रिहाई चाहते हैं।
उम्र–कैद से भी बड़ी इस कैद का अब ख़ात्मा होना ही चाहिए।
उन्हें अब बाहर की दुनिया से मिलने दिया
जाये। आधी सदी कोई छोटा काल नहीं होता। यहाँ स्मृतियों का भरापूरा कोलाज है तो
कहानियों का भी।
बाबा नागार्जुन
पर बेहतरीन संस्मरण उस इलाके के मेहमान नवाज़ द्वारा लिखे गए हैं, जिसे मैं आज अपना क्षेत्र कहकर गर्व महसूस कर रहा हूँ। उन्ही का संस्मरण
पढ़कर रूचि जागी और फिर उनके यात्रा वृतांत, संस्मरण तथा
सम्पूर्ण कहानियाँ मँगवा लीं। पढता हूँ और कभी-कभी फोन पर भी बात हो जाती है।
बातचीत के संक्षिप्त दौर में वह गंगा, गढ़मुक्तेश्वर और
ब्रजघाट दर्शन की जिद्द करने लगे हैं। जैसे किसी गृहस्थ को नवरात्रों से पहले नया
घर देखने की इच्छा होती है। जैसे जल्दी से नए घर में बस जाने के लिए कोई मचलता है।
पर फ़िलहाल उनके तेवर बदले हैं। गंगा से हटकर, इन दिनों वह मारगिरित दूरास के उपन्यास ‘प्रेमी‘ से आपने आपको सम्पृक्त करने की अमूर्त
बेचैनी से घिरे हैं।
‘‘बालू
रेत में धवल पंख बिछाए मीरा वहाँ इनका इन्तजार कर रही है।’’ —मैं उनसे कहता हूँ। और यह भी कि ‘’वह खाली हाथ जाएँ, जैसे सब जाते हैं। आप जो अनुभव और संस्मरण की पोटली पीठ पर बाँधे रहते हो,
उसे यहीं पटक दीजिए’’ पर वह मुझे अनसुना करते
हुए, आवाज धीमी कर अशरीर, कस्बे-देहात
की तरफ निकल जाते हैं, जहाँ से अपने परिवेश को लिए हुए उनके
असंख्य पात्र उनकी कहानियों में आए हैं।
इसी दौरान मेरे
मन में ख़्याल आता है कि कुछ आलोचकों के कूर्म अवतार होने व लेखक के कभी-कभी घाघ न
होने से पाठक कूप मंडूक भी रह सकता है। मैं उन पर कुछ लिखने के लिए कहता हूँ तो वह हल्के से हँसकर टालते हैं। कहते हैं— ‘‘क्या
बात करना काफ़ी नहीं, क्या लिखना ज़रूरी है?’’
मैं दो वर्ष पहले
तक उनके लेखन से अनजान रहा हूँ। अपनी दादुर वृत्ति को स्वीकारते हुए कुछ अर्थों
में मुझे पर्याप्त आनंद आ रहा है। क्योकि मैं ‘आधी
सदी के कोरस’ से गुज़र रहा हूँ। और यह पुस्तक मेरे स्थानीय
समाज, उसकी भाषा, विश्वास तथा उनके समय
के सघन कोलाज़ बनाते हुए, मुझे बिसरी हुई अनुभूतियों से घेर
रही है।
वह मेरे गांव के पास का चिर-परिचित क़स्बा है। जहाँ धीमे-धीमे एक अनजाना हाथ—भटकते पात्रों के विषाद और भ्रम से पार पाने का कारण बन गया। अवश मोह का
आनंद इस कहानी में संती, गोगो और नत्थू को एक बंधन में बांध
देता है। ‘मशरूम कट’ को मैं अपने आप
में एक तुच्छ विवशता का बयान समझता हूँ। अपने वजूद व चेहरे की पहचान अमित को जिस
अजीब परिवेश में होती है वह अपने सकल रूप में हमेशा की तरह कायम है। मौसेरे भाई का
व्यवहार तो अपमानित करने वाला है ही। इस अंतर को अपने स्तर पर पाटने के लिए अमित
को फै़शनेबल हेयर कटिंग के लिए, सौ रुपए की चोरी करनी पड़ती
है।
‘सोख़्ते’
कहानी में मानव मन की उलझन एवं प्राथमिकताएँ ही मानव के व्यवहार को
नियंत्रित करती हैं। कहानी की मुख्य पात्र शकीला है, जो अपने
मरहूम खाविंद की लायब्रेरी से ग़ायब और उधार दी गई किताबों को खोजने के लिए परेशान
रहती है। उस ग़रीब की दुश्वारियों भरा सफ़रनामा, अपनी
दुनियादारी में ग़ायब किताबों जैसी जिंदगी, लाल फीताशाही—इन सबसे सामना होता है। अंततः क्या होता है यह बताने की बिलकुल भी ज़रूरत
महसूस नहीं होती। सुविदित है कि मानवीय मनोस्थिति के वर्णन के स्तर पर सुदर्शन व
मुंशी प्रेमचंद की कहानियों से आगे जैसे एक लकीर और खिंच जाती है।
लेखन-पाठन के
अतिरिक्त रचनाकार और पाठक का एक रचनात्मक अन्तर्सम्बन्ध भी है। इसमें सहजता श्वास
फूँकती है। ‘शिकंजा’ एक ऐसी ही कहानी है, जिसे पढ़कर अपने अनुभव भी बाहर
आने लगते हैं। प्राचार्य तथा गाइड का थैला थामकर चलने वाले शिष्य या शिष्यवत्
जीवों को एक दिन खीसे में नागराज के दर्शन हो ही जाते हैं।
नींद आदि से अंत
तक हमेशा से ही विमर्श का विषय रही है। पर जब नींद हराम होने लगे तो विमर्श,
स्पर्श की तरफ खिसकने लगता है। इस संग्रह की कहानी ‘उसके हिस्से की नींद’ अपने एकांत में पसीजती श्रीमती
खरबंदा का वृतांत मात्र न होकर उनकी नौकरानी की परिस्थिति तथा नियति की भी कहानी
है। इस प्रकार आवश्यकता व आवेग की समाप्ति के बाद मैडम खरबंदा द्वारा सहवासिनी को
गंदे वस्त्रों की तरह तन से अलग कर दूर उछाल दिया जाता है। और वह एक बार फिर
अनिद्रा की शिकार होने लगती है। इस पाखण्ड में कमोबेश अभी तक कोई ख़ास विचलन दिखाई
नहीं देता।
कुछ पाठकों को
सबसे प्रीतिकर वे किताबें लगती हैं जिन्हें पढ़ने के बाद एक अधूरापन घेरता है। और वे
बार-बार उसी पोथी की और लौटते हैं। इसका कारण अधूरेपन से पार पाना नहीं होता। इसके
पीछे खण्डित स्मृति के नैरन्तर्य की दुर्विनार इच्छा मानस में कहीं छिपी रहती है।
वह अपनी खुराक माँगती है। मेरे लिए यह कहानी संग्रह कुछ इस तरह के अनुभव का बिछुड़ा
हुआ अंश है।
तमाम वाद,
आंदोलन व कला के काल परिसीमन से ऊपर उठकर यह पृथुल संग्रह मेरी
याद्दाश्त पर गिरी ख़ाक-धूल झाड़ने में सक्षम है। इसके अतिरिक्त इस संग्रह की अन्य
कहानियों को पढ़ने के बाद, उनसे उबरना उतना ही मुश्किल है
जितना निर्लिप्त होकर लगातार जीने का दिखावा करना। कहना होगा कि बिना अनावश्यक
चमत्कार किये हुए, इनमें से कुछ रचनाएँ धैर्य के लम्बे मार्ग
को साधकर ही रिसी हैं।
मदन पाल सिंह
जन्म : 1 जनवरी, 1975। तहसील गढ़मुक्तेश्वर (उत्तर प्रदेश ) के एक किसान परिवार में। भारत और
फ़्रांस शिक्षित। कुछ वर्ष चाकरी और अब खेती-किसानी तथा पूर्णकालिक लेखन। एक
उपन्यास त्रयी का लेखन, जिसका प्रथम भाग ‘हरामी‘ के नाम से प्रकाशित। दूसरे और तीसरे भाग
क्रमशः ‘गली सैंत कैथरीन‘ और ‘डाकिन‘ के नाम से। मध्यकाल से समकालीन फ़्रेंच काव्य
को समेटे छब्बीस पुस्तकों की श्रृंखला —‘फ़्रांसिसी कवि एवं
कविता‘, जिसके अंतर्गत बोदलेअर, वेरलेन,
रैंबो, मालार्मे इत्यादि पर पुस्तके प्रकाशित।
फ़िलहाल, उपन्यास, जीवनी, समालोचना और अनुवाद पर कार्यरत।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad