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Home Uncategorized

अनुपमा की कविताएँ

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर शुरू हुए एक विशेष श्रृंखला के तहत प्रकाशित

by Anhadkolkata
March 21, 2025
in Uncategorized
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अनुपमा

कुछ कविताएं ऐसी होती हैं, जिन्हें ठहर कर पढ़ना पड़ता है। अनुपमा की कविताएं भी ऐसी ही हैं। यूं ही नहीं वे भाषा में सुस्ताने की बात करतीं हैं। इसके गहरे अर्थ हैं। यहां सुकून की भाषा है।वह इस भागदौड़ भरे जीवन में अर्ध विराम को अपना दर बनाने की प्यारी कामना करती हैं। शब्दों के मामले में वह मितव्ययी हैं। उनकी कविताएं गहन संवेदना से भरी हुई हैं। यहां दुःख है लेकिन निराशा नहीं है। बैठे-बैठे वे यात्राओं पर ले जातीं हैं। कविता की इस मनोरम यात्रा में अधिक शब्दों को खर्च किए बिना अनहद कोलकाता अनुपमा की कविताओं से गुजरने के लिए आपको आमंत्रित करता है।
अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस से प्रारंभ इस अभियान में आज विश्व कविता दिवस पर अनुपमा की कविताओं को प्रस्तुत करते हुए हमें प्रसन्नता हो रही है।

आपकी राय का इंतजार तो रहेगा ही।

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  • संपादक

सुख

एक बूँद आँसू
एक व्यथा समंदर भर

एक क्षण की कोई बात
जो न भूले मन जीवन भर

ऐसे कैसे-कैसे घाव समेटे
हम जीते हैं
जीते हुए घूँट ज़हर के
कितने हम पीते हैं

मन में जाने कैसा
पर्वताकार दुःख है
अब धीरे-धीरे उसी को
कहने लगे हम-

सुख है!

 

अंतर्ध्यान

जीवन के हर क्षण में
जीवन की हर श्वास में
उसके घटित होने की संभावना शामिल थी

फिर भी
मृत्यु जीवन रहते सदैव अंतर्ध्यान ही रहती है

अंतर्ध्यान ही रही

उसकी तरह
अपनी उपस्थिति में भी
न्यून रहो, गौण रहो, अंतर्ध्यान रहो

जीवन को मारूत सम बहने का पूरा अवसर मिले
मृत्यु-शैय्या हो
वहाँ भी जीवन गहो

आँखों के पानी में
आशा से आप्लावित मन कहो।

जीवन की महानदी में

धागे को बांधो
गाँठ पड़ जाती है
गाँठ अपने आप में इतराती है–
मैंने कुछ तो जोड़ा है
सरलता-सौन्दर्य का वितान तोड़ा है

गाँठ कह उठती है–
खोल सको तो मुझे खोलो
जो स्नेहिल प्रतिमानों पर ग्रहण लगा है
उस सूतक को मिटा सकते हो, बोलो

जीवन की महानदी में प्रतिबिम्बित
सहृदयता का सूर्य
कुछ नहीं कहता

बस मुस्कुराता है

भावों के मरुथल में खिल आना उसे आता है।

गुम होने की जगहें बची रहें

बहुत दिनों बाद लौटो कहीं तो
बहुत कुछ बादल गया होता है
बहुत कुछ हमेशा के लिए अदृश्य भी
यह रेखांकित करता हुआ
कि कुछ भी हमेशा के लिए नहीं है

न हम
न हमारे दुख ही

कुछ सुखद अंकुरण तसल्ली भी देते हैं
कि ज़िन्दगी के साथ चलते रहो
तो एक दिन मुस्कुराती भी है वह
तुम्हारे साथ
तुम्हारे लिए

गुम होने की जगहें बची रहें
और लौट पाने का चमत्कार भी।

प्रार्थना

भाषा में सुस्ता लूँ
अक्षर-अक्षर घर हो जाए

सरपट दौड़ते जीवन में
वाक्यों के बीच कहीं कोई अदृश्य सा अल्पविराम
मेरा दर हो जाए

जहाँ प्रज्वलित कर एक दीप प्रखर
देर तक उसका जगमगाना देखूँ

देर तक, दूर तक, उस दर से, न दरके मन
देना, तो हे विधाता! देना यह सुख सघन।

मृत्यु

नियत वक़्त पर
पहुँचें ही गंतव्य तक
ऐसा कब ज़रूरी है

लेकिन हर यात्रा
अपने गंतव्य तक
समय-असमय पहुँचती ही है
शत-प्रतिशत सत्य न हो फिर भी इसकी संभावना पूरी है

निकलो किसी राह
ज़रूरी नहीं वो स्थूल यात्रा ही हो
सूक्ष्म यात्रा तो है हर क्षण विद्यमान
गतिमान जीवन धुरी है

बैठे-बैठे भी
कई बार
यात्रा के मानक पूरे हो जाते हैं
एक धुंध अवतरित होती है कहीं शून्य से
और हम जैसे हैं
वैसे ही उसमें आधे-अधूरे खो जाते हैं।

आह्वान

यायावर, स्मरण रहे
अंतहीन समय नहीं है तुम्हारे पास
जो है सो थोड़ा है!

और तुम्हारी राह में
पल-पल कितने ही उद्विग्न पलों का रोड़ा है!

अनावश्यक कोलाहल से किनारा कर चलना है
तुम्हें बहुत बातों का ज़हर
मन ही मन निगलना है!

यायावर, स्मरण रहे
तुम्हें बादलों के बीच से सूर्य सा निकालना है!

पतझड़ में अनावृत हुए दुखों पर मरहम-से उजले फ़ाहे

जो चिट्ठियाँ
लिखीं जानी चाहिए थीं
पर लिखी न गयीं

जो शब्द
कागज़ पर उतरने के बाद भी
कभी अपने अभीष्ट तक न पहुँचे

जिनकी यात्रा
शुरू होने से पहले ही
रद्द हुई

वो
अधूरे वाक्यों के बीच पसरे
रिक्त स्थानों का व्याकरण
बन कर रह गए

रुई के फ़ाहों-से बर्फ़ीले आसमानी संदेशों को
तकते हुए
कितने जमे हुए बर्फ़-से शब्द पिघले
पानी हो कर बह गए

ज़मीं पर बिछी उजली रेत में
फिर हमने
कुछ अक्षर लिखे मिटाए
कुछ वैसे ही
जैसे हमारे हिस्से मुस्कान लिख
फिर नियति उसे मिटा देती है

ये बस इतना ही है–

बिछी हुई बर्फ़ पर
उँगलियों से कुछ लिख जाना
फिर गिरती हुई बर्फ़ की बारिश में
उसका ढक जाना
मिट जाना

चिट्ठियों का न लिखा जाना
और जो लिख भी गयीं तो
उनका अपने पते पर न पहुँच पाना

ये सारे लुके-छिपे दुःख
बर्फ़ के फ़ाहों संग बरसते हैं
और ढक लेते हैं
पतझड़ में अनावृत हुए दुःख को

न पहुँचने वाली चिट्ठियाँ भी फिर
जाने कैसे तो
गंतव्य तक की राह पर
निकल पड़ती हैं

रिक्त स्थानों का
उलझा सा व्याकरण
फिर संभावनाओं का आयाम हो जाता है

सुख-दुःख
आपस में अनौपचारिक सी कोई संधि कर लेते हैं

बर्फ़ की बारिश थम जाती है!

परिचय
अनुपमा
६ अक्टूबर १९८० जमशेदपुर में जन्म।
प्रारम्भिक शिक्षा जमशेदपुर में। स्नातक जीव विज्ञान, रसायन शास्त्र, वनस्पति विज्ञान (BZC combination) काशी हिंदू विश्वविद्यालय से। इलाहबाद ऐग्रिकल्चर यूनिवर्सिटी AAIDU से Bioinformatics में परास्नातक।
१० वर्ष के स्वीडन प्रवास के दौरान विभिन्न विश्वविद्यालयों में अध्ययन व विद्यालयों में अध्यापन। स्वीडिश भाषा का अध्ययन और इस फलस्वरूप अन्यान्य स्वीडिश कवियों की कविताओं का अनुवाद जिनमे से कुछ कविताएँ कविता कोश पर भी हैं।
लौ दीये की (कविता-संग्रह) २०२१ में प्रकाशित।
वर्तमान निवास ब्रहपुर, ओड़िसा।

 

 

 

 

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

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