
चित्रा पंवार संभावनाशील कवि हैं और इनकी कविताओं से यह आशा बंधती है कि हिन्दी कविता के भविष्य में एक सशक्त स्त्री कलम की उपस्थिति होगी। यदि कविता को हृदय की चीख मान लिया जाय तो ये कविताएँ वे चीखे हैं जो असंख्य स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। चित्रा की कविताएँ सादगी में ही अपने सौन्दर्य और कवित्व को बचा लेती हैं।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस से शुरू हुई अनहद कोलकाता की एक विशेष श्रृंखला के तहत प्रस्तुत है युवा और संभावनाशील कवि चित्रा पंवार की कविताएँ।
आपकी राय का इंतजार तो रहेगा ही।
-संपादक
सुन चिड़िया!
सुन चिड़िया!
विद्रोह जताने के लिए
चीखना चिल्लाना नहीं
मौन, शांत रह कर
अपनी गोल आंखों में निडरता लिए
गर्दन ताने
नन्हें पंजों को साध कर
वृक्ष के तने से सीढ़ियों की तरह
एक –एक शाखा से होते हुए
आकाश के अनंत में अपने असल ठिकाने तक
चढ़ती चली जाना
इतिहास गवाह है
सबसे बड़ी क्रांति
दबे पाँव उतरती है
युद्ध के मैदान में
जैसे पलाश वनों में धीरे से दाख़िल होती है आग
तुम वैसे ही उतरना अपने हक़ के सीने पर
चुपचाप मगर अपने होने का
शोर मचाती हुई..!
दिलों की चिठ्ठियां
प्रेम करने के नुकसान
और न करने के असंख्य फायदों में
मुझे बताया गया कई बार
लड़के थाल के पहले कौर सा चखते हैं लड़कियों को
फिर जूठा कर छोड़ देते हैं उन्हें
प्रेम में पड़ी लड़कियां नदी हो जाती हैं
और लड़के मन भर जाने पर
नदी को खाई में धकेल देने वाले पहाड़
स्त्री आत्मा की तरह धारण करती है प्रेम को
पुरुष कपड़ों की तरह हर रोज़ बदलता है नया प्रेम
फूलों की तरह कुर्बान हो जाने वाली प्रेमिकाओं को
जूतों के नीचे मसल बेपरवाह आगे बढ़ जाते हैं आवारा प्रेमी
तुमसे मिलने से पहले
लड़कों द्वारा लड़कियों को
बीच राह छोड़ जाने के असंख्य उदाहरण थे
मेरे सामने
मैंने जितनी भी कहानियां सुनी
उनकी नायिकाएं बेचारी, बेसहारा सताई हुई प्रेमिकाएं थीं
और प्रेमी!
साधु वेश में उन्हें छलने निकले रावण के प्रतिरूप
तुमसे मिलने से पहले मैं नहीं मिली थी
पलटकर उस पहाड़ से
जो चंचल नदी प्रेमिका की खुशी के लिए पाषाण हो गया था
तुमसे मिलने से पहले
मैं नहीं देख पाई थी उन पूर्व जन्म के प्रेमियों को
जो भूले–भटके राहगीर के रूप में ही सही प्रिया के लौट आने की आस में रास्ते बन गए थे
तुमसे मिलने से पहले
मैं शिव को जानती थी एक ईश्वर के रूप में
प्रेयसी के शव को पीठ पर लादे रुदन करते प्रेमी तथा अर्धनारीश्वर शिव से मेरा साक्षात्कार
तुमसे मिलने के बाद ही हुआ
तुमसे मिलने से पहले किसी ने नहीं बताया मुझे
प्रेम में ठहरे उन लड़कों के बारे में जो
राह किनारे ऊंचे दरख्त बने आज भी कर रहे हैं
कल आने का वादा करके आज तक नहीं आई प्रेयसी का इंतजार
तुमसे मिलकर मैंने जाना
लड़कियों को प्रसाद समझ माथे से लगाने वाले लड़को के बारे में
तुमसे मिलकर मैं मिली देह से पहले आत्मा में उतरने वाले पुरुष से
तुमसे मिलकर समझ पाई
मैंने जो कहानियां सुनी वो मनगढ़ंत थीं, झूठी और बेबुनियाद थीं
अच्छा होता विशुद्ध प्रेमी प्रेम के कवि होते, कहानीकार होते
कहानियों में पिरोते अपने सच्चे मोती सरीखा प्रेम
अच्छा होता प्रेम में पड़े लड़के अधिकारी होते, पाठ्यक्रम बनाते, स्कूल चलाते
स्कूल की किताबों में अनिवार्यतः छपती प्रेम कहानियां
कितना अच्छा होता अगर प्रेमी ही होते पुजारी
पूजा स्थानों में चमत्कारों के स्थान पर गाए जाते प्रेम के गीत
कितना अच्छा होता अगर स्त्री विमर्श की सीढ़ी पर चढ़ कर
शीघ्र अतिशीघ्र नामचीन लेखिका बन जाने के मोह को त्याग कर
लेखिकाएं लिखती सच्चे प्रेमियों को खत
बांचती उनके दिलों की चिट्ठियां….।
तुम लड़ो
तुम लड़ो..
गिरोगी ही
धूल झाड़कर
फिर उठ खड़ी होना
तुम लड़ो…
अधिक से अधिक क्या होगा
हार जाओगी
कम से कम मन में ना लड़ने का मलाल तो नहीं रहेगा
तुम लड़ो…
मारी ही जाओगी ना!
उससे पहले साबित करके मरो
कि तुम लड़ी थी
इसका मतलब कभी जिंदा भी थी
तुम लड़ो
अगर तुम्हारे साथ गलत हुआ है
बदल दो लोगों की यह मानसिकता
कि गलत करने वाले मर्द से बड़ी गुनहगार
होती है सहने वाली स्त्री
तुम लड़ो….
ताकि आने वाली बेटियों के मुंह पर
परंपरा के नाम का ताला ना पड़ने पाए
तुम लड़ो…
क्योंकि स्त्री होने का अर्थ ही है
योद्धा होना…
तुम लड़ती आई हो
गर्भ से शमशान तक।
जुलाई
दुनिया की पहली क्रांतिकारी स्त्री थी
जुलाई !!
इसने पैदा की क्रांतिकारी बेटियां
उनके पंखों में भरी
शिक्षा की मजबूत उड़ान
जिसके बलबूते
वो चूल्हे–चौके से लेकर
आसमान तक में टांक आईं
अपने हुनर के अनगिनत सितारे
इन बेटियों की जेबों में
दुःख और अभाव की कतरनों की जगह
खनखना रहे थे स्वाभिमान के सिक्के
उसने कहा–
मेरी बच्चियों तुम मजलूम और बेचारी नहीं
योद्धा बनना !!
ज्ञान की पताका ले
दुनिया की तमाम लड़कियों तक पहुंचना
उन्हें ‘शिक्षा के लिए युद्ध’ को ललकारना
जब वे नींद में देख रहीं हो
किसी राजकुमार का स्वप्न
जो उनका हाथ थामे
पार करा रहा हो पीड़ा व बंधनों की नदी
ठीक उसी समय
चुपके से उनके सिरहाने रख देना कोई किताब
उसमें लिखना
स्कूल बाहें फैलाए तुम्हारी राह देखता है
कागज–कलम से प्रेम करना सीखो
लड़कियों !!
जरूरत पड़ने पर
यही बनेंगे बाधाओं की नदी का पुल…!!
सेल्फ लव
तुम ढूंढो अपने लिए
सबसे सुरक्षित हथियार
‘अपने हाथों में’
कि उनसे शक्तिशाली नहीं है कोई मिसाइल, ऑटोमेटिक गन, हाइड्रोजन, परमाणु बम
मर्द तो खैर जन्मा ही तुमसे है, इन्हीं हाथों में झूला है
तुम ढूंढो अपनी आंखों में
सबसे निडर स्थान
उन्हीं की कालिख से रात श्रृंगारित है
और उम्मीद से रोशन है दिन
मर्द को तो खैर तुम्हीं ने पढ़ाया है
‘बस तुम्हीं बहादुर हो इस दुनिया में और मेरे रक्षक भी’ का झूठा पाठ
तुम अपने एक कंधे पर थोड़ा सा लुढ़क कर
दूसरे हाथ से सहला लो अपने बाल
फिर गाल थपथपा कर स्नेह से बुदबुदाओ ‘मैं हूं न तेरे साथ, मेरी प्यारी लड़की! ’
अगर सहारे को खोजने निकलोगी किसी ओर का कंधा
तो खुद को गिरवी रखकर ही लौटोगी..
खोलोगी मन की गांठ किसी दूसरे के सामने
तो अख़बार की सुर्खियां बन कर घर–घर में बट जाओगी
ख़ुद के लिए लिखो एक लंबा प्रेमपत्र
अपने पंखों को रंग लो स्वप्नों के सुनहले रंग से
खुशियों की गुल्लक में डालो
अपनी मर्जियों के सिक्के
एक बार खुद से प्रेम करके तो देखो लड़की!
देखना बदले में धोखा नहीं प्रेम ही पाओगी…
राखो
मैं वही हूं
पहचाना नहीं मालिक
ध्यान से देखो!
मैं उसी रमबतिया की बेटी हूं
जो तुम्हारे भट्ठे पर ईंट पाथती थी
अरे वही
जिसका मरद तुम्हारे भट्ठे की चिमनी झोंकता था
और एक दिन उसे ही जलावन में झोंक
उसकी औरत के साथ मुंह काला किया था तुमने
वह चीखी थी, पुरजोर चीखी थी
तुम्हारे बदबूदार जूते के हलक में गहरे उतर जाने तक चीखी थी
आत्मरक्षा में चलते उसके हाथ पैर अपने ऊपर सवार
तुम्हारी घिनौनी काया को धूल की भांति उतार फेंकने ही वाले थे
कि इतने में दहकती ईंटें अपना भूत भूल कर उसकी देह पर आ धमकी
सुलगती राख से भरे उसके छत विक्षत यौनांग से जन्मी
राखो हूं मैं
राख, मिट्टी में सनी मां की आग बेटी
जिसे छूने पर मुट्ठी भर राख भी न बच सकेगा तू!!
जंगल की बेटी
घने एकांत वनों में
फिरती हो बेखौफ
कितनी सहजता से!
ऊंचे पेड़ों पर गुलाटी मार चढ़, उतर जाती हो
खाला का घर समझ
उछलती कूदती घूम आती हो पहाड़ की चोटी तक
नदी की तेज धारा से खेलती हो
शेर की दहाड़ पर बांस में हवा फूंक संगीत की मधुर धुन बनाती हो
बुलंद आवाज़ में वन देवी का कोई गीत गाती हो
हवा के बवंडर में गोल–गोल गुड़िया सी नाचती हो
हाथी की सूंड पर झूला झूलती तो कभी सांपों का हार बनाती हो
ओ जंगल की बेटी !
क्या तुम्हें डर नहीं लगता?
मैं कभी जंगल नहीं गई
वहां के जानवरों को नहीं देखा
पहाड़ नहीं चढ़ी
मां कहती है भले घर की लड़कियों को नाचना, गाना शोभा नहीं देता
घर से अकेले निकलना तो कतई नहीं…
फिर ऐसा क्या है
जो तुम्हें निडर और मुझे डरपोक बनाता है?
आख़िर क्यों?
बंद घर में कैद रहकर भी
मेरे भीतर का डर नहीं जाता !
और एक तुम हो कि
खुले आसमान की चादर तान
धरती के कलेजे पर
बेधड़क सोती हो!
उत्तराधिकार
उड़ जाना चिड़िया के पंखों पर बैठ
तोड़ लाना चांद, तारे
सूरज को उतार कर अपने शीश पर सजा लेना
उसकी सही जगह वहां आसमान में नहीं
उससे भी ऊंचे तुम्हारे मस्तक पर है
किताबें ले जाएंगी तुम्हें
उस सत्य तक
जिसे पढ़ कर जान सकोगी तुम
सवाल करना, अपना हक मांगना
अपराध नहीं होता
ज्ञान तर्क करना सिखाता है
और अज्ञान सहमति
विज्ञान के रहस्यों से पर्दा उठाते तुम्हारे हाथ
कुप्रथाओं की जड़ों में कुल्हाड़ी का काम करेंगे
तुम नेकी कर दरिया में मत डाल देना
बल्कि अपने काम का बराबर हिसाब रख
गलत साबित कर देना
उनकी ये धारणा
कि लड़कियां गणित में कच्ची होती हैं
जब लोग तुम्हारे चरित्र पर बातें करें
तुम अपनी कामयाबी का परचम
उनकी जीभ के बीचोबीच गाड़ देना
तुम जरूर ढूंढना
वो सपने, वो उम्मीदें
जिन्हें हम स्त्रियां
रसोई घर के ताखे पर रखा भूल गईं
तो कभी मिट्टी में घोल कर चूल्हे पर पोत दिया
अपने घर में हमारा अपना कोई कोना जरूर ढूंढना
कमर पर पड़े नीले दाग धब्बों के नीचे दबी
रोशनाई से अपना नाम लिखने की चाहत
को जरूर पढ़ना तुम
जरूर पूछना बड़की, छुटकी, मझली बहू
पुरबनी, पछाई, गंगा पारो चाची
रमासरे की दुल्हिन, कुलशेखर की माई
से उनका अपना असली नाम जरूर पूछना तुम
मेरी बच्चियों तुम्हारी माँएं
उत्तराधिकार में बस यही दे रही हैं तुम्हें
कुछ सवाल
कुछ हिसाब
चंद ख्वाब
रत्ती भर साहस
और ढेरों आशीष ..!!
***
संक्षिप्त परिचय –
नाम– चित्रा पंवार ।
जन्मस्थान– गांव– गोटका, मेरठ, उत्तर प्रदेश।
संप्रति– अध्यापन ।
साहित्यिक यात्रा –प्रेरणा अंशु, कथाक्रम, इंद्रप्रस्थ भारती, सरस्वती, दैनिक जागरण, कथादेश, वागर्थ, सोच विचार, परिकथा, बाल भारती, हिंदवी, समकालीन जनमत, किस्सा कोताह, पाखी, गाथांतर, वर्तमान साहित्य, समकाल, कविताकोश, मधुमती, परिंदे, वनमाली, गुलमोहर, रचना उत्सव, ककसाड, अरण्यवाणी आदि अनेक पत्र पत्रिकाओं, तथा कई साझा संकलनों में रचनाएं प्रकाशित ।
उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की प्रकाशन योजना के अंतर्गत ‘दो औरतें ’ नाम से कविता संग्रह प्रकाशित।
‘दो औरतें’ संग्रह कलावती स्मृति उदीयमान रचनाकार प्रोत्साहन सम्मान से सम्मानित।
संपर्क सूत्र:– chitra.panwar20892@gmail.com