भरत प्रसाद द्वारा लिखे जा रहे उपन्यास ‘लाल क्षितिज का पक्षी’ का एक रोचक अंश

उपन्यास अंश

लाल क्षितिज का पक्षी

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भरत प्रसाद

           

जे0एन0यू0 अर्थात् जानते नहीं तुमया जीवन को करो उदास चाहो तो जे0एन0यू0 का गूढ़ार्थ ‘‘जाम नहीं है उपेक्षणीय’’ वैसे तो मध्यकालीन राजसी किले की तरह आंखों पर चढ़ बैठता प्रशासनिक भवन अपने बाएं प्रदेश में प्रथम प्रधानमंत्री की पत्थर प्रतिमा धारण किए हुए है। लगता है जैसे जवाहर लाल आतेजाते, देखते देखते, भागते रूकते, प्रत्येक ज्ञानबाज से कुछ कहने के लिए उत्सुक हैं। धवल के लिए यह प्रतिमा इसलिए भी कुतूहल का मुद्दा थी, क्योंकि वह नेहरू के अपने कद से बड़ी और काले रंग की थी। मूर्ति जिस किसी की भी हो, उससे अलग हो जाती है। मूर्ति का अपना प्राणत्व है, प्रभाव है, पुकार है और प्रेमाकर्षण भी। केवल शरीर में व्यक्ति जीवित नहीं रहता, अपने चित्रों में, शब्दों में, हंसी में, मूर्तियों में भी साकार होता है। कई महीने लग गये धवल को यह समझने में कि जे0एन0यू0 को भारतभूमि का विश्वविद्यालय कहे या सोवियत रूस का? यहाँ पढ़ने वाले छात्रों को राष्ट्रीय स्वभाव का कहे या अन्तर्राष्ट्रीय स्वभाव का? यहाँ जुबानजुबान पर चमकती हिन्दी को अपने देश की हिन्दी कहे या खास लंदन में प्रचलित हिन्दी? प्रवेश पाने के प्रारम्भिक दिन धवल के लिए अतीतमोह की बाढ़ में बहते जाने और चित्त पर जे0एन0यू0 के आकर्षण आतंक जमने के दिन थे। वह यहाँ के कच्चे अनगढ़ रास्तों पर चलता तो सहमकर, रूकरूककर जैसे पैरों में एकएक किलो के पत्थर बांध दिए गये हों, जैसे अपनी छाया में उलझीपुलझी आदमकद झाड़ियाँ अपने मौन इशारों में निरंतर बुलाती कहती हों। यहाँ कदमकदम पर चित्त को अस्थिर करने वाले इतने आश्चर्य फैले हुए थे कि धवल अपने हाथ से छूटने को विवश था। वह ठीकठीक समझ भी नहीं पा रहा था कि खुद को, बहते जाने से रोक क्यों नहीं पा रहा?

            सेंटर ऑफ इंडियन लैंग्वजेसके हिन्दी विभाग में धवल का दाखिला उबड़खाबड़ रास्तों वाले मैराथन दौड़ की तरह था। धवल ने बचपन से लेकर मौजूदा उम्र तक जाने कितने उतारचढ़ाव के मोर्चे जीते थे, इसीलिए भव्य न्यायालय जैसी चेतावनी देते स्कूलसी0आई0एल0 की तीन सीढ़ियां को फतह करने की क्षमता ही गयी। यहाँ प्रेम के नव साधकों के बीच इन्हें स्वर्ग की सीढ़ियाँ कहा जाता है। जिस पर बैठे बगैर, चढ़ेउतरे बग़ैर छात्र जीवन की आयु से मुक्ति नहीं मिलती। धवल को कावेरी छात्रावास में कमरा भी सिद्ध हुआ, चारों तरफ से परम चुप, केवल ऊपरनीचे जमे हुए कमरों की बालकनी से खुद के बारे में बोलता हुआ।

            धवल के लिए सबसे प्यारी, जादुई, मोहक और मादक जगह थी, कावेरी छात्रावास की मेस, जो कि हॉस्टल के हृदय में खड़ी थी, जहाँ पहुँचकर दोनों विंगस (खण्ड) के रास्ते खुलते थे, जहाँ के रोशनदान, खिड़कियों और नशेड़ी के मुंह की तरह परमानेंट खुले दरवाजों से पकते हुए भोजन की महक प्रेमिका की याद को पीछे छोड़ देती थी। धवल के रूममेट थे प्रशांत मणि जो सिर से पांव तक अशांतमणि थे। जब तक कमरे में उपस्थित, तब तक सद्यः पठित पुस्तकों के ज्ञान का रौब झाड़कर धवल का माथा चाटते ही थे, रहने पर उनसे जुड़ी हुई दैनिक घटनाओं की बौछार धवल को अशांत किए रहती। फिर तो अक्सर होता यह कि जब तू हैतब मैं नहीं, जब मैं हूँ तू नाहींकी अघोषित नीति सक्रिय थीधवल के चित्त में। दशा इस हद तक पहुँच गयी कि प्रशांत बबुआ के कमरे में दाखिल होते ही, धवल कुर्सीमेज को नमस्कार बोलते हुए बिस्तर में चू जाता, मानो कि कई हफ्तों से नींद का स्वाद पाया हो, जबरन खुद को सुला लेने का यह रहस्य प्रशांतमणि को मालूम था, परन्तु कुछ कहे कैसे; खुद की अशांत आदतों के आगे लाचार जो थे मर्दवा।

            अपने गांव से जे0एन0यू0 की दूरी धवल को सात समुन्दर सही, सात नदियों पार की कसक उठाती ही थी। जुलाई माह में जब परिसर के आसमान ने बारिश का रंगढंग दिखाया तो धवल के गंवई चित्त में बन्नीपुर की क्षितिज की बारिश छा गयी। धवल ने महसूस किया बारिश की दौलत में डूबी प्रकृति स्त्री की तरह झुक जाती है, उसने यह भी पाया कि उस क्षण दरख्त प्रार्थना की मुद्रा में खड़े आकाश को धन्यवाद देते हैं और दिशाएं मानो सतरंगी चूनर ओढ़कर अलौकिक नृत्य को तैयारी कर रखी हों। ऐन बारिश की बेला जे0एन0यू0 कैम्पस धवल का मन मोह लेता था, यहाँ तक कि धुलीचिकनी चट्टानों में जैसे कोई जुबान गयी हो और वे स्पर्श पाने के लिए, हमें बैठने के लिए आमंत्रित कर रही हों। परिसर का आकाश कुछ इस कदर पास गया था, मानो पैंतरा बदलते बादलों के आन्दोलन ने अपने जलभार से उसे झुका मारा हो।

            धवल की पहली क्लास का दिन, तैयार कुछ ऐसे हुआ, मानो मोर्चे पर कोई सिपाही जा रहा हो। घुमाव खाई हुई पक्की सड़क पर धवल के पांव सध नहीं रहे थे। हास्टल के गेट के बाहर निगाहों को हर वृक्ष से टकराता, गदबदाई झाड़ियों में उलझाता और उत्सुकता से लबरेज करता हुआ बढ़ रहा था। यह आया प्रशासनिक भवन, यह दृष्टिगोचर हुआ पुस्तकालय यह साकार दिखाभारतीय भाषा अध्ययन संस्थान और उसकी सीढ़ियाँ, जिसके बारे में सर्वव्यापी मुहावरे को उसने पहले ही सुन रखा था। सुबह के साढ़े नौ बजे किसका दीदार होगा? हाँ! भगत सिंह, पाश, चेग्वेरा, नागार्जुन, ब्रेख्त, नेरूदा, अपनी बुद्धिप्रेरक पंक्तियों के साथ दीवालों पर विराजमान थे। कुछ पोस्टरों की पेंटिंग ऐसी चुम्बकीय पहेली जैसी थी, जिसका मतलब बूझ लेना दुनिया की कठिन परीक्षा उत्तीर्ण करने जैसा था।

           


भारतीय भाषा केन्द्र, हिन्दी विभाग, प्रथम सत्र, पहला दिन, पहली क्लास। एक छोटे कद के, दुबलेपतले शरीर के अध्यापक खुल्ले दरवाजे पर दस्तक देते हुए चुपचाप प्रधान कुर्सी पर आकर स्थापित हो गये, योगियों जैसा चेहरा लिए दूरदूर बैठे नवमित्र यंत्रवत् उठ खड़ हुए, शिक्षक ने बैठने को कहा मानो कहना चाहते होंअब खड़ेखड़े क्लास लोगे क्या? बैठ जाना भी कोई चीज होती है। मित्रों की जिज्ञासा ने आंखोंआंखों में एकदूसरे की ओर प्रश्न फेंकाये कौन हैं? धवल की स्मृति में अनुमान चमका ये तो मेरे गाँव के मास्टर साहब लगते हैं, जो कांख में छड़ी दबाए दिन भर पैंतरा बदलते थे, जो विद्यालय को अनुशासन में रगड़कर और श्रम के पसीने से सींचकर छतनार वृक्ष बनाने को संकल्पित थे। पहले ही दिन मास्टर साहब नुमा गुरुदेव ने मार्क्सएंगेल्स की कला और साहित्यपरक पुस्तक सामने रख दी और नोंक पर आग लिए हुए तीर जैसा प्रश्न माराहाँ तो आप लोगों में से किसनेकिसने यह किताब देखी है?’ सवाल सुनना था कि धवल को लगा आधा शरीर वहां है और आधा शरीर कहीं उड़ गया है। आंखे उपस्थित हैं, परन्तु मन विलुप्त हो गया है। आज पहले दिन शिक्षक ने ट्रेनर की तरह क्लास ली मार्क्स और एंगेल्स को लेकर। ‘‘तो कार्लमार्क्स जर्मनी में पैदा हुए, वहीं पढ़ाईलिखाई की। दर्शन, अर्थशास्त्र और साहित्य उनके प्रिय विषय थे। हिगेल का दर्शन उन्हें बहुत भाते हुए भी असंतुष्ट कर रहा था। एपिक्यूरस का भौतिकवादी दर्शन युवा मार्क्स की आँखों में खोजी चमक ला रहा था। शेक्सपीयर की कविताओं के कायल थेमार्क्स। इन सबसे प्रभावित, प्रेरित, उद्वेलित होते हुए भी कार्लमार्क्स अपनी राह खोजने के जिद्दी जीनियस थे। जर्मनी के मजदूरों का संगठन खड़ा किया और महज 29 साल की उम्र में कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणपत्रलिखा। बात यह है कि इसी, उम्र में आप लोग प्रेम की नाव में बैठे हुए जवानी की नदी पार करते हैं। है कि नहीं? ऐं!’’

            तकरीबन एक घंटे की क्लास डेढ़ घण्टे में खत्म। श्री गणेश के दिन ही किलोकिलो भर के ज्ञान की झमाझम बारिश। अधिकांश नव ज्ञानाकुंरों के लिए सन्नसन्न उड़ती पहेली की तरह थी। धवल ने कार्लमार्क्स और उनके मस्तिष्क से फूटी विश्वध्वनि को सुन रखा था, उड़ती हुई जिज्ञासा की प्रेरणा में मुट्ठी भर अध्ययन भी किया था, परन्तु आज जो मैनेजर पांडे के मुख से ध्वनि हुआ, वह मनोमस्तिष्क की तहों को आन्दोलित करने जैसा था। कक्षा के पूर्ण विराम पर धवल के चित्त में एक नन्हें प्रश्न ने पक्षी के घोंसलाजीवी बच्चे की तरह सिर उठाया, परन्तु डर मन में नाच रहा था कि पूछते ही डपट कर कहीं बैठा दिया जाऊँ, परन्तु परमाश्चर्य। गुरुवर खुद ही सवाल किए दबे हुए दबंग स्वर में….‘‘हाँ तो मैं कह रहा था कि तुममें से किसी को सवाल करना है?’’ धवल कुर्सी पर बैठे मेढ़क की भांति उछल खड़ा हुआसर। मेरा एक सवाल है।

            ‘‘हाँ पूछो, मैं खाली मुँह देखने के लिए थोड़ी कह रहा हूँ।’’

सर! कार्लमार्क्स यदि धर्म को अफीम मानते थे, तो गले में ईसा मसीह के क्रास का चिह्न क्यों पहनते थे?’ गुरु को कल्पना थी, पहले ही दिन, पहली ही कक्षा में, पहेली जैसी आँखों वाला छात्र इतना पक्का सवाल पूछ लेगा, मगर गुरुवर संभल गये, उत्तर का ठंडा शर्बत भी पिलाया‘‘अच्छा किया पूछकरतुम्हारा नाम क्या है? कार्लमार्क्स ईसाई परिवार में पैदा हुए थे। बचपन से लेकर नौजवानी तक कभी चर्च, कभी बाईबिल अक्सर नेत्रबंद प्रार्थनाएं करनामतलब समझो कि उनका आरम्भिक जीवन ईसाई धर्म के प्रभाव देखरेख और शासन के बीच निर्मित हुआ। वे धर्म के अवैज्ञानिक तौरतरीकों के कठोर आलोचक थे, परन्तु एक असाधारण करूणा के धनी ईसा के प्रति उनके भीतर प्रेम था इसीलिए क्रास पहने हुए हैं। धर्म के मनुष्यता विरोधी स्वरूप की आलोचना कीजिए, वह भी आँखें खोलकर। आँखें मूंदकर निन्दा गाने वाले सूरदास कहलाते हैं।’’

            कक्षाएँ समाप्त करके धवल ने बाहर आकर आकाश को निगाहें समर्पित की। लहलह चमकती हरी पत्तियों की ठाट के बीच में झलकता सूरज अजनबीपन का खिंचाव भर रहा था। जैसेजैसे ऊपर चढ़ता हैसूर्य छोटा हो जाता है, किन्तु रोशनी धारदार और परिपक्व। चारों ओर लहराती प्रकृति के कोरे सौन्दर्य में बहता हुए धवल भूल ही गया कि मार्क्सवाद का ककहरा सीखकर आया है, उसे तो गुरुदेव के तर्कमय विचार आकर्षक होते हुए भी इस जादुई अबाध सौन्दर्य के आगे फीके लग रहे थे। धवल का युवकोचित हृदय रहरहकर अनोखी अनुभूतियों में आन्दोलित हो चला। मनुष्य के पास बुद्धि है, तो वह सोचने का हकदार हो गया। मुँह है तो बोलने का अधिकारी मौलिकता है तो सृजन करने का कौशल और शक्ति हैतो शासन जमाने की योग्यता। मगर एक मिनट धवल। यह बुद्धि, यह वाणी, यह स्वभावगत मौलिकता या शारीरिक शक्ति आयी कहाँ से? जिसे मनुष्य अपना कहता हैवह अपना है कहाँ? आदमी तो स्वयं को भी अपना नहीं कह सकता। सांसे सौंपती हैंहवाएँ, दृष्टि देता हैसूर्य की कृपा पर निर्भर दिन, ईश्वर से बढ़कर कीमती अन्न हासिल होता हैधूसर, बेरंग, अनाकर्षक धरती से। और इस साढ़े तीन फुटिया हाड़मांस के ढांचे में पानी, लोहा, जिंक, कैल्शियम जैसे अदृश्य, गुमनाम तत्वों के सिवाय और है क्या? धवल अप्रत्याशित एहसासों की झड़ी में सिहर उठा कि सभी दृश्यअदृश्य में मौजूद हैं, सब कुछ का होना, कुछ भी होने में संभव हुआ है। सौन्दर्य का कारण असौंदर्य है। यहाँ तक कि सारे नये और मौलिक विचार, विचारों की गुलामी से मुक्तिपाने के बाद जन्म लेते हैं।  

            आज क्लास का दूसरा दिन, एकदूसरे शिक्षक का टेंस माहौल विषय है चिट्ठीपत्रों में प्रेमचन्द का व्यक्तित्व।अर्थात् दर्जनों उपन्यास और तीन सौ से अधिक कहानियों का पहाड़ खड़ा करने के बावजूद प्रेमचंद और कहाँकहाँ बाकी रह जाते हैं। तनिक तिरक्षी निगाहों से पड़ताल की जाय कि मुंशी जी महामना कद के थे या और लेखकों की तरह पैसाचूस व्यक्ति थे। अपने शिक्षक से विद्यार्थियों को ज्ञान मिला कि प्रेमचन्द अपनी कहानियां छपने के एवज में नकद नरायन मिलने पर सम्पादकों से कभी छाता, कभी कुछ, कभी कुछ ले लिया करते थे। पत्नी शिवरानी देवी दबाव बनाकर कहानियाँ इसलिए लिखवातीं, ताकि लक्ष्मी का दर्शन मिले। सरस्वतीप्रेस खोलना, महंगा शौक साबित हुआ प्रेमचन्द के लिए। नायाब रचनाएँ रचने वाला कलम पुरुष सरस्वती प्रेस के चक्कर में अपना माथा पीट रहा था। ऊपर हंस, मर्यादा, माधुरी और जागरण निकालने की खून सुखाऊ जिद। शुरू तो सब कर दिया, परन्तु लंबे वक्त तक कायम रहना एक का भी संभव हुआ। प्रेस में पसीना बहाने वाले मजदूरों के साथ प्रेमचन्द का व्यवहार मसीहाई था, परन्तु सही वक्त पर कई बार मेहनताना नहीं दे पाते थे, जिसके कारण प्रेस में ताला लगाने का दौरा प्रेमचन्द की चित्त में बारबार पड़ता था। गुरुवर ने अधिक इत्मीनान से, चुटकी भर मुस्कान बिखेरते हुए, अंगूठे के ठीक बाद वाली अंगुली दिखाते हुए एकएक छात्र की आँखों में झांकझांककर बताया, प्रेमचन्दी रहस्य से चद्दर हटायी कि पहले विवाह के तुरन्त बाद पहली पत्नी को नमस्कार कह लिया, कालांतर में शिवरानी देवी से सात फेरे लिये। आगे जो आश्चर्य से सन्ना देने वाली बात गुरुवर्य ने कही, वो यह कि शिवरानी देवी के रहते हुए प्रेमचन्द एक और स्त्री के साथ प्रेम में थे। इतना ही नहीं, पहली पत्नी के जीवित होने का रहस्य तब खोला जब वह मर गयीं, वो भी लंबी उम्र अकेले ही काटकर। रिकार्ड के बाहर पता तो यह भी चलता हैप्रेमचन्द की इस पुरुषोचित चालाकी पर शिवरानी देवी ने पत्नियोचित झापड़ यथास्थान रसीद किया था।

            धवल का कच्चा विवेक उलझ उठा हकीकतों के खुलेछिपे जंगल में। वह तय नहीं कर पा रहा थाकिस प्रेमचन्द को आंखों में बसाए? उस कद को जिसे हजारी प्रसाद द्विवेदी, राम विलास शर्मा और शरतचन्द जैसे कलमप्रतीकों ने स्थापित किया या फिर उस कद को, जिसकी परतें यहाँ क्लास में गुरुजी तारतार कर रहे हैं। प्रेमचन्द का एक अदृश्य कद वह भी तो झांकता रहता है, जो उन्होंने अपनी नायाब कहानियों और छतनार बरगद जैसे उपन्यासों के भीतर खड़ा किया। जो केवल अपने दीवानों के सिर चढ़कर बोलता है। लगातार कुछ दिनों तक मानसिक उठापटक और मथनामथानी के बाद धवल एक धारणा तक पहुँचा कि किसी के भी बारे में अंतिम धारणा मत बनाओ, क्यांकि किसी के बाहरी और आन्तरिक यथार्थ को पूर्णतः जान ही नहीं सकते। जब व्यक्ति खुद को प्रकट कर रहा, तो बदनामी, शर्म, मर्यादा, सामाजिक प्रतिष्ठा या जहरीले विवाद के भय से खुदको छिपा भी रहा। खुद को जितना छिपा रहा, उसी में उसका एक और चेहरा मौजूद है, जो निजी इच्छाओं, वासनाओं, स्वार्थों और स्वच्छंद रुचियों से संचालित है। सामाजिक तौरतरीकों का लौह तानाबाना इस चेहरे को जाहिर करने का अवसर देता है, इजाजत। इसीलिए जब, जहाँ, जैसे जिस हद तक इस स्वादप्रेमी चेहरे को मौका मिलता है, लुकेछिपे अपनी भूख शांत करता रहता है। चूंकि यह अप्रकट हैइसलिए रहस्यमय और व्याख्या से परे। यह अवश्य है कि मनुष्य के व्यक्तित्व की कसौटी उसका प्रकट यथार्थ नहीं, अप्रकट यथार्थ है। धवल रोमांचित हो उठा, इस अनोखे सत्य का एहसास करते ही कि प्रत्येक मनुष्य के यथार्थ के तीन आयाम हैंएक वह जो वह कर्म, व्यवहार, वाणी के द्वारा प्रकट करता है, दूसरा वह जो वह चाहता है, सोचता है, आकांक्षा रखता हैपरन्तु प्रकट नहीं करता और तीसरा वह जिसके बारे में उसे खुद भी पता नहीं। व्यक्तित्व का यह जो तीसरा आयाम हैवह इन दो आयामों की बादशाही दबदबे के कारण इतना दबा हुआ कि खुद की संभावनाओं की अथक खुदाई करने के बाद ही सामने आता है। यह अद्वितीय तीसरा आयाम ही व्यक्ति का सर्वोच्च यथार्थ है। किसी शरीर से फूटती प्रतिभा की जादूगरी इसी तीसरे, निहायत अप्रकट आयाम की तरंग है, प्रतिध्वनि है, क्षणिक प्रवाह मात्र है।

            धवल की कल्पना में आदमी की एक और छवि पानी पर उभरी परछाईं की भांति नाचने लगी यह कि मनुष्य एक समय में कई मुद्दों, सवालों, सपनों, चाहतों और यादों में बंटा होता है। इतना भर से बात नहीं पूरी होतीवह जो कह रहा है ठीक वही नहीं सोच रहा, जो सोच रहा, ठीक वही नहीं लिख रहा, जो लिख रहा है, मन में पहले चबाकर, फिर नफानुकसान की छननी से छानकर लिख रहा है। अपनी प्रत्येक हँसी के साथ शतप्रतिशत नहीं, अपनी प्रत्येक स्वीकृति के साथ पूरापूरा नहीं। आज वह जो भी है, भविष्य के किसी भी काल में होगा। वह कभी वह नहीं होता, जो होना चाहता है, बल्कि हमेशा वह हो जाता है, जो उसकी चालाकी, गूढ़ स्वार्थ, मौका परस्ती और मजबूरियों ने गढ़ दिया। एकाश्मक व्यक्तित्व का पुरुष मोमबत्ती लेकर ढूंढे मिलेगा। हर व्यक्ति का ढांचा केवल खंडित हैबल्कि परस्पर विपरीत, विरोधी आदतों, रुचियों, स्वभाव और व्यवहार का मामूली दास है।

            इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में क्लास लेना गांव की कुश्ती लड़ने जाना है, परन्तु जे0एन0यू0 के हिन्दी विभाग में कक्षाएँ अटेंड करना मनमाने शरीर, बुद्धि और आदतों के विचारों की छेनी से गढ़ना, छांटना, तराशना है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय अघोषित आजादी देता हैजी चाहे तो क्लास लेने विराजो, मन कहीं और रमा हुआ है तो क्लास में जाने की जरूरत नहीं। परन्तु जे0एन0यू0 में एक भी क्लास छूटा कि गुरुओं की चेतावनी वर्षा में चुपचाप भीगने को तैयार रहिए। क्लास बंक मारने पर यदि बिजूका की तरह पांच मिनट खड़ा करते तो गनीमत थी। यहाँ तो ऐसा डंडा मारते हैं, कि अपने सिवा और कोई नहीं देख सकता, मजाकिया व्यंग्य का डंडा। मसलनआज भी आने की क्या मजबूरी गयी। 10 या 12 बजे तक सोते कान में तेल डालकर फिर उठते और गंगा (हॉस्टल) के आसपास एक चक्कर मार आते फिर दंडबैठक वगैरह कर लेते। अरे भाई, दुकेले बनने  के लिए ट्रेनिंग तो लेनी पड़ती है न। ऐं?’’ धवल को रहरहकर यह अन्तर्ज्ञान मथता रहता कि जे0एन0यू0 में ट्रांसफारमेशन या कहिए कि व्यक्तित्व के रूपान्तरण का अदृश्य चुम्बकत्व सक्रिय है। धवल एक और दिन एक और आलोचनापुरुष सेएक सवाल कर बैठा, बेंच पर बैठेबैठे‘‘सर यदि हिन्दूअखबार मार्क्सवादी विचारधारा का हैतो सौ से अधिक वर्ष बीत जाने के बावजूदएक धार्मिक शीर्षक से क्यों बंधा है?’’ फिर क्या था, आलोचनागुरु वाणी, हावभाव और तमतमाते आवेश के साथ बरस पड़े‘‘तुम भी कैसेकैसे सवाल पूछते हो यार! अब कहो कि बी0एच0यू0, जामिया का नाम बदल दिया जाय, क्योंकि उनके नाम धार्मिक रंग लिए हुए हैं। धर्म से इतनी चिढ़ क्यों? धर्म कोई बहुरूपिया है क्या? कुतूहल से देखो भी और दस कदम दूर भी भागते रहो। मेरे कहने का मतलब समझो यार! तुम भी …. अरे, केवल धार्मिक नाम रखने के कारण ग़ैर प्रगतिशील नहीं साबित हो जाता।’’

            धवल की दशा उस तैराक की तरह थी, जो किनारे से चला तो नाव साथ थी, ऐन मजधार में पहुंचते ही नाव डूब गयी, मजा यह कि तैराकवीर भी था वह, परन्तु जीवन बचाने के लिए हर जतन करना ही था।

            धवल ने पाया कि शिक्षकों के व्यक्तित्व के भी कई स्तर हैं। एक तो वह जब पढ़ाते समय सुकरात का अवतार होता है, दूसरा वह जब कॉफी की सिप बजाने के दौरान अपनी साहित्यिक उपलब्धियों के कसीदे पढ़ रहा होता है और तीसरा वह जब किसी यारबाज शिक्षक के साथ अपनी फुसफुसाहट भरी मुस्कुराहटों से खेल