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Home कला

कला दीर्घा – ख्यात भारतीय चित्रकार रामकुमार पर पंकज तिवारी का आलेख

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in कला, पेंटिंग, साहित्य
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अर्चना लार्क की सात कविताएँ

भारतीय अमूर्तता के अग्रज चितेरे : रामकुमार
पंकज तिवारी
भारतीय चित्रकला यहाँ की मिट्टी और जनजीवन की उपज है। इसमें उपस्थित सभी तत्व भारतीय है। उनपर किसी अन्य क्षेत्र की कला को आरोपित नही किया जा सकता। यह कथन है, ठण्डी जलवायु, सुरम्य प्राकृतिक दृश्य, हिमाच्छादित पहाड़ियों से सजी धरती जो सदा से ही अपनी सुंदरता पर नाज करती आयी है, चीड़ व देवदार के वृक्ष जिसके जेवर हैं, ऐसे आकर्षक भूदृश्यों से युक्त पहाड़ों की रानी, शिमला में जन्में चित्रकार और कहानीकार रामकुमार के। रामकुमार ऐसे ही अमूर्त भूदृश्य चित्रकार नहीं बन गये अपितु शिमला के हसीन वादियों में बिताये बचपन की कारस्तानी है, रग-रग में बसी मनोहर छटा की ही देन है इनका रामकुमार हो जाना। अपने में ही अथाह सागर ढूढ़ने वाले शालीन, संकोची रामकुमार बचपन से ही सीमित दायरे में रहना पसंद करते थे पर कृतियाँ दायरों के बंधनों से मुक्त थीं शायद यही वजह है उनके अधिकतर कृतियों का ‘अन्टाइटल्ड’ रह जाना जहाँ वो ग्राही को पूर्णतः स्वतंत्र छोड़ देते हैं भावों के विशाल या यूँ कहें असीमित जंगल में भटक जाने हेतु। किसी से मिलना जुलना भी कम ही किया करते थे। उन्हे सिर्फ और सिर्फ प्रकृति के सानिध्य में रहना अच्छा लगता था – उनका अन्तर्मुखी होना शायद इसी वजह से सम्भव हो सका और सम्भव हो सका धूमिल रंगों तथा डिफरेंट टेक्स्चरों से युक्त सम्मोहित-सा करता गीत। 
मिडिल क्लास संयुक्त परिवार में आठ भाइयों-बहनों के बीच बड़े हुए रामकुमार देश की राजधानी दिल्ली से अर्थशास्त्र की पढ़ाई कर रहे थे जिस समय उन्हे कला के कीड़े ने काट खाया और सदा के लिए अपने गिरफ्त में ले लिया। जिस प्रकार मोहब्बत एक ऐक्सीडेंटल प्रक्रिया होती है जो कहीं भी किसी भी समय किसी पर भी घटित हो जाती है जिसके होने के कारण का अंदाजा लगा पाना कठिन होता है। उसे होना होता है सो हो जाता है। कुछ ऐसी ही घटना घटित हुई रामकुमार के कला को लेकर अन्यथा अर्थशास्त्र का मास्टर, कला का मास्टर स्ट्रोक कैसे खेल पाता। कलाकार शैलोज मुखर्जी जो पूर्व व पश्चिम की कला के बीच समन्वय स्थापित करने में सफल हुए, के सानिध्य में आते ही रामकुमार कला के प्रति बावले-से हो उठे और मुखर्जी के शिष्य बन गये। शारदा उकील कला बिद्यालय के इवनिंग कक्षाओं में बारीकियां सीखने के बाद इन्हे आगे की शिक्षा हेतु पेरिस जाना पड़ा जहाँ आन्द्रे लहोत तथा फर्नाण्ड लींगर के निर्देशन में इनके कला को और धार मिली। लींगर के कला का ही असर रहा कि क्यूविज्म को इतनी अधीरता से अपनाने में सफल हुए कलाकार रामकुमार – जिसकी जकड़ से ये कभी मुक्त नही हो पाये और जो इनकी पहचान बनी। इन्हे यात्राओं का कलाकार भी कहा जाता रहा है जिसकी स्पष्ट छाप इनके कृतियों पर दिखाई पड़ती है।
मनुष्य जिस दशा को जी रहा होता है, जो कुछ भी आस-पास घटित हो रहा होता है उसी के सापेक्ष ही अधिकतर का सोचना होता है पर उससे इतर सोच पाना ही एक सफल कलाकार का कौशल माना जाता है जो हमेें जीवन के गूढ़ रहस्यों के अधिक निकट ले जाने में सक्षम हो, तभी तो हसीन वादियों के इस कलाकार के अधिकतर शुरूआती चित्रों में ब्लैकिस व ब्राउनिस टोन की अधिकता है जो कहीं से भी जीवन की सम्पन्नता को उजागर नही करता। शिमला के खुबियों के सम्पन्नता के बीच दबे दमित कुंठित विभाजन में विस्थापित भावनावों के संकलन इनके फिगरेटिव कृतियों में स्पष्टतः उजागर है जो मानव जीवन के भयावह समय को दर्शाता है। एक ऐसा कलाकार जो बचपन में ही चीड़ के पेड़ों से मोहब्बत कर बैठा, जिसके फल व पत्ते तोड़ने वाले भी उसे राक्षस जान पड़ते थे, जो चीड़ के फलों को तोड़ लिए जाने पर झरे हुए पत्तों को देखकर घण्टों रोता रहा, रात को खाना तक नही खाया,  प्रकृति प्रेम उसके चित्रों में आसानी से देखा जा सकता है, जिया जा सकता है प्रकृति का असली वजूद उनके चित्रों का दीदार करके। शिमला में पैदा होने की वजह से ही उनके बनारस के चित्रों में भी कुछ-कुछ पर्वतीय छवि दिखाई देती है यानी शिमला के पहाड़ बनारस की गलियों, घाटों में आकर समाहित से हो गये हैं। बनारस जो कई नामों से जाना जाता है, जहाँ मस्ती, सरलता, बम-बम के बोल, निश्छलता, मानवता, सांस्कृतिक- समभाव, मिलनसार व्यक्तित्व की गहनता, धर्म और संस्कृति की प्राचीनता स्पष्ट झलकती है,  जहाँ का अतीत ही रहा है कि जो यहाँ आया यहीं का हो गया और बनारसी खुमार से बच नही पाया – कुछ ऐसा ही रामकुमार के साथ भी हुआ। हुसैन के साथ कहीे बाहर चलके रेखाँकन करने की बात पर रामकुमार चलने को सहर्ष तैयार हो गये और कलाकार द्वय चल दिये प्रयाग नगरी। यहाँ पहुँचने पर प्रेमचंद के पुत्र श्रीपत राय ने इनका स्वागत किया और अपने घर बनारस ले गये। जहाँ हुसैन और रामकुमार ने मिलकर ये तय किया कि हम दोनों दिन भर अलग-अलग दिशा में काम करेंगे और शाम को क्या खोया क्या पाया पर बहस। फलतः अपने उद्धेश्य में रमें दोनो कलाकार बनारस की छटा को निहारने और पेपर व कैनवास पर उतारने में लगे रहें – जहाँ से हुसैन जल्दी ही उब गये और मुंबई वापस चले गये पर रामकुमार को बनारस में अपना व दृश्यकला का भविष्य दिखाई दे रहा था।  यही वजह है कि बनारस ही रामकुमार की पहचान बनी। शुरूआती बनारस घाट के भूदृश्यों में रामकुमार ने चित्रों की गंभीरता को दर्शाया है जो डार्कनेस की वजह से और भी सटीक प्रतीत होते हैं और कलाकार मझे हुए चित्रकारों की श्रेणी में आ खड़ा होता है। आकृतियां आयत व वृत्त के बड़े-बड़े पैचेज तक भले ही सिमट गयी हों पर इसी बहाने भारतीय कला में आव्स्ट्रैक्ट आर्ट का एक नया प्रतिमान गढ़ा जा रहा था। कहना गलत ना होगा कि भारतीय चित्रकला में अमूर्तता विशेषतः भूदृश्य चित्रों में शुरूआत करने वाले पहले भारतीय चित्रकार रामकुमार ही हैं। 

भारतीय दर्शन को ज्यामितीयता का अमली जामा पहनाने का प्रथम श्रेय भी इन्हीं को जाता हैै। इनके 60 के दशक के भूदृश्य चित्रों विशेषतः बनारस श्रृंखला में अधिकतर चित्र काले और भूरे रंगों की गहरी पृष्ठभूमि से सजे हुए हैं जो बनारस को भी एक नये अध्याय के रूप में प्रस्तुत करते हैं। बनारस को अपने ढंग से प्रस्तुत करने वाले अभी तक के पहले और आखिरी कलाकार भी रामकुमार ही हैं। गहरे सन्नाटे में बिथा घाट,ज्यामितीय आकृतियों में गलियां, काले भूरे रंगों की वजह से गहरी अभिव्यक्ति को प्रकट करते हैं और कहीं न कहीं से शिव जैसी विशाल, न समझ पाने वाली दुनिया का सृजन भी करते हैं। हालांकि बनारस विषाद से भरा शहर नही हो सकता ये तो हरफनमौलाओं का शहर है पर इनके चित्रों में बनारस एक नये ही रूप में प्रस्तुत हुआ है। धीरे-धीरे समय के साथ इनके चित्रों में नीले और पीले रंगो की छाप भी दिखने लगती है आगे के चित्र और भी रंगीन होते गये हैं साथ ही जो गंभीरता शुरू के चित्रों में थी फीकी पड़ती गयी है। इसके बाद भी रामकुमार का बनारस आना जाना लगा ही रहा।

रामकुमार कला में प्रयोग के पक्षधर थे पर अतिक्रमणता पर शालीनता ही हावी रही। शालीन स्वभाव उनके कला पर भी स्पष्ट झलकती है। कम बोलने व मिलने वाले रामकुमार अपनी कृतियों में खुलकर बतियाते हैं फिर चाहे वह कहानी हो या चित्र। बन्धन से परे अपने पर को खोलकर ये समाज के दुःख, दर्द यथा बेरोजगारी, बेकारी, दिन-ब-दिन नष्ट होती मानवीयता पर स्पष्ट तूलिका संचालन करते हैं जो ज्यामितीय व गहरे रंग संयोजन की वजह से और भी सटीक तरीके से उजागर हुआ है। निश्चित आयाम, संतुलन तथा सामंजस्य जो सौंदर्य की विशेषतायें हैं रामकुमार के चित्रों में भी कायम है अर्थात सौंदर्यबोध की दृष्टि से भी इनके चित्र अनमोल हैं। बड़े ही धीरे से अपने कृतियों के माध्यम से सौंदर्यबोध के साथ ही पर्यावरण के रोचक रहस्यों को भी प्रस्तुत कर देने में रामकुमार को महारत हासिल है। भारत में और बाहर भी तमाम सफल प्रदर्शनियां करने वाले और बिकने वाले रामकुमार का मुख्य उद्देश्य मानवदशा पर चिंतन करना और उसके अनुभूतियों को उजागर करना था जो प्रथमतः छोटी-छोटी कहानियों के रूप में स्फुटित हुई और आगे चलकर विशालतम रूप अख्तियार कर ली। चित्रों में शुरूआती चित्र फिगरेटिव पोट्रेट जैसे हैं जो अर्बन वातावरण की निरीहता को दर्शाते हैं। लाचार, निराश, भूखा, मरियल, हतास व्यक्तित्वों का रामकुमार के फलक पर जगह पाना और समस्त बेवशी का उदास आँखों में समा जाना उनके आम इंसान के प्रति  उनकी सहानुभूति की ही उपज है। 1975 में निर्मित अन्टाइटल्ड वर्क (इंक ऐण्ड वैक्स आन पेपर) में एक व्यथित मनुष्य की वेदना इसी का उदाहरण है। इनकी कला कृतियाँ खुद अपनी बात कह पाने में सक्षम है। भूमि, आसमान, कौतुहल, विस्मय, पीड़ा, बोझ, खण्डहर, घाट, परिवार, शहर जैसे इनके अधिकतर चित्रों में विषाद की भरमार है। पेरिस, प्राग, कोलम्बो, पोलैंड, अमेरिका आदि जगहों पर व्यक्तिगत प्रर्दशनी करने वाले रामकुमार भारतीय लोककलाओं पर भी अधिकार रखते हैं।
रामकुमार के प्रारंभिक चित्रों में भले ही स्याह और भूरे रंगों का सामंजस्य रहा हो पर समय के साथ रंगों का मल्टी हो जाना चित्रकार के चित्रों का निखरते जाना था और उनके यात्राओं का, वहाँ के परिवेश का प्रतिफल भी। उनके बाद के चित्रों को देखकर कहा जा सकता है कि समय के साथ ही उनके एकाकी व्यक्तित्व में भी निखार आया है। पर यह निखार रचनाओं की गम्भीरता को कहीं से भी कमतर नही होने देता, रंगों में भले ही विविधता रही हो पर धूमिलता और उदाशीनता सदा ही कायम रही है यही वजह है कि उनके अधिकतर चित्रों मे प्रकृति का नैसर्गिक रूप परिलक्षित नहीं हुआ है बल्कि पैचेज और ज्यामितियों से खेलते हुए ही आखिरी समय तक उनका का सफर जारी रहा। माध्यम में भी बंधे नही थे रामकुमार, प्रस्तुती भी विशेष थी। ऑयल, एक्रेलिक, इंक तथा वैक़्स आदि माध्यम से खेलना उन्हे शुरू से ही भाता रहा था। जहाँ कहीं झरोखों से युक्त बनारस नजर आता है वहाँ गोल्डेन यलो का प्रयोग चित्र को जीवंत बना देता है। ज्यामितीय आकृतियों – युक्त  छोटे-छोटे मोनोक्रोमिक मंदिर, काली-काली पट्टियाँ लाल रंग के बिंदियों का प्रयोग बनारस को रहस्यमयी बना देते हैं। टूटे-फूटे लकड़ियों का दिवालों में खोंस देना डिस्टर्ब रेखाओं का प्रयोग, सैप ग्रीन, यलो, डार्क ब्लू के परफेक्ट स्ट्रोकों के बीच बड़े-बड़े व्हाइट पैचेज-युक्त सीढ़ियां जो परिप्रेक्षानुसार धीरे-धीरे घटती गयी है –  बनारस को मोक्ष द्वार के रूप में उजागर करती हुई सी प्रतीत हुई हैं।
अधिकांशतः देखा गया है कि लोग पुरानी मान्यताओं को ढोते हुए उनके अनुकूल ही बिना किसी फेरबदल के उसी रास्ते पर बढ़ते रहे हैं फिर चाहे वह अंधविश्वास का पिटारा ही क्यों ना हो, बिना परखे कि यह सही है या ढोंग मात्र उसको अमल में बनाए रखते हैं और नये सृजन से वंचित रह जाते हैं पर रामकुमार ऐसे नही थे। वे चाहे शिमला में रहे हों, बनारस, लद्दाख या फिर विदेशों में, पुरानी मान्यताओं पर चलना उन्हे अखरता था। और नित नये प्रयोगों से साक्षात होना अच्छा लगता था। काम और समय के प्रति एकदम से सजग रामकुमार बड़े शहरों के साथ ही छोटे शहरों में भी कला प्रदर्शनियों के पक्षधर थे। उन्हे लगता था कि कला के कद्रदान छोटे शहरों में भी बहुतायत में हैं पर दुर्भाग्य कि उन तक प्रदर्शनियों की पहुँच न के बराबर है। छोटे शहरों की प्रदर्शनियों पर उन्हे बड़ी खुशी होती थी। प्रदर्शनियों में लोगों का कम आना उन्हे विचलित करता था, कला के प्रति लोगों की उदासीनता से वे आहत थे और कलाकारों को सलाह दिया करते थे कि जैसे भी संभव हो कला के प्रति लोगों को जागरूक करने का प्रयास करें। इस दिशा में सरकार का रवैया भी कुछ खास नही है दो एक वार्षिक प्रदर्शनियों को छोड़ कर।
मध्यप्रदेश सरकार द्वारा कालीदास सम्मान से सम्मानित रामकुमार को भारत सरकार द्वारा पद्मश्री की उपाधि से भी सम्मानित किया गया। 1959 के साओ पाआलो द्विवार्षिक प्रदर्शनी में भी आप सम्मानित हुए। केंद्रीय ललित कला अकादमी, मुम्बई आर्ट सोसायटी, अकादमी ऑफ फाईन आर्ट्स द्वारा भी आप सम्मानित हुए। आप साहित्यकार निर्मल वर्मा के भाई भी हैं। हुस्ना बीबी, दीमक, समुद्र, एक चेहरा आदि कहानियों के अलावा चार बने घर टूटे तथा देर-सबेर उपन्यास भी आपने लिखा। भारत विभाजन के समय विस्थापित विलखते परिवारों पर निर्मित आपकी कृतियाँ चित्त प्रसाद के अकाल, वदेलाक्रा के नरसंहार  वाली कृतियों के नजदीक प्रतीत होती हैं माध्यम तथा आकार भले ही अलग रहे हों पर दर्द लगभग समान अवस्था में प्रकट हुए हैं – कराह और वीभत्स वातावरण जीवन्त से हो उठे हैं।
 23 सितम्बर 1924 को शिमला में जन्मां ये कलाकार 14 अप्रैल 2018 को इस संसार से विदा हो गया। उनकी कृतियों की थाती भले ही हम सबों को विरासत में मिली हो पर उनका जाना उनके ही चित्र आहत पक्षी के नीले आसमान का स्याह रंगों में विलय हो जाना सिद्ध हुआ है।
**********
पंकज तिवारी

पंकज तिवारी युवा चित्रकार एवं साहित्यकार हैं।

संपर्कः पंकज तिवारी
बिलोंई, मधुपुर
मुँगरा बादशाहपुर
जौनपुर
उत्तर प्रदेश
9264903459

तस्वीरें गुगल से साभार।

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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Comments 12

  1. Ravindra Singh Yadav says:
    4 years ago

    नमस्ते,

    आपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
    ( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
    गुरुवार 1 नवम्बर 2018 को प्रकाशनार्थ 1203 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।

    प्रातः 4 बजे के उपरान्त प्रकाशित अंक अवलोकनार्थ उपलब्ध होगा।
    चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर।
    सधन्यवाद।

    Reply
  2. अमित निश्छल says:
    4 years ago

    एक आम जीवन के अलौकिक बनने का उत्तम वर्णन… बहुत ख़ूब आदरणीय। अनुकरणीय👌👌👌

    Reply
  3. विवेक मिश्र says:
    4 years ago

    अच्छा आलेख पंकज बधाई।

    Reply
  4. Manoj says:
    4 years ago

    सुंदर लिखा है भाई… बहुत बहुत बधाई

    Reply
  5. vandan gupta says:
    4 years ago

    सारगर्भित आलेख

    Reply
  6. बखार / पंकज तिवारी says:
    3 years ago

    शुक्रिया

    Reply
  7. बखार / पंकज तिवारी says:
    3 years ago

    बहुत-बहुत आभार आपका। अब आप कला से जुड़ी बातें बखार पर भी पढ़ सकते है।

    Reply
  8. बखार / पंकज तिवारी says:
    3 years ago

    आभार सर आपका और विमलेश भइया का भी 

    Reply
  9. बखार / पंकज तिवारी says:
    3 years ago

    आभार आपका

    Reply
  10. बखार / पंकज तिवारी says:
    3 years ago

    शुक्रिया मैम।

    Reply
  11. Unknown says:
    3 years ago

    वाह

    Reply
  12. बखार / पंकज तिवारी says:
    3 years ago

    शुक्रिया

    Reply

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

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