स्याह की धुंध में उपजी कथाओं का लोक : मुक्तिबोध की कहानियाँ
डॉ0 शिवानी
जीवन जिसके लिए सूरज की चटख रोशनी में गुंजायमान जादू नहीं, न ही विकास का वह पैमाना है जिसे नापकर इंसान अपने कर्तव्यों की इतिश्री ही मान ले बल्कि जीवन वह स्याह धुंध है जिसपर उकेरी गई इबारतें कभी स्पष्ट नहीं बनती या बनते-बनते धुंधलाने लगती है फिर से उकेरे जाने के इंतजार में – गजानन माधव मुक्तिबोध का रचना संसार इसी स्याह धुंध में लिपटी जिंदगीयों की कथा का वितान है। लम्बे अरसे से कविता की जटिल बुनावट और मनःस्थितियों के लंद-फंद में घिरे मुक्तिबोध को जब उनकी ‘कथा‘रचना पक्ष में तलाशने की कोशिश की गई तो संवेदना के ऐसे गहरे शेड्स सामने आये कि उनसे एक मुकम्मल (संवेदना से भरी) मानव तस्वीर की निर्मिति होती गई। उनकी कहानियों के भीतर एक ओर मनुष्य का सामाजिक पक्ष संवेदना के साथ उभरता है तो दूसरी ओर मनः पक्ष की संवेदनाओं का जाल बिछता चलता है। कथा आम-सी जिन्दगी में आम से आदमियों से शुरू होती हुई जिन्दगी के कुछ सूत्र तलाशती आगे बढ़ती है और थोड़ी रूकती हुई गहन भावबोधों के स्वरों को सुनने लगती है। यह मुक्तिबोध के लेखन की एक खास शैली है जिसमें कहानी के पात्रों से वे खास किस्म का जुड़ाव पाठक के भीतर पैदा करते चलते हैं। दरअसल मनुष्य जिस दुनिया में रहता है और सामाजिकता का निर्वाह करते हुए वह जिस दुनिया का निर्माण करता है उससे भिन्न उसके भीतर की भी एक दुनिया होती है जिसके साथ शायद ही रोशनी के कुछ कतरे बिछते हैं और इन अंधेरे कोने अंतरों में जिन्दगी की तस्वीर कुछ और ही होती है। मुक्तिबोध इन अंतरों में चहलकदमी करने के खासे आदी रहे हैं। ‘‘भीतर से कॉरिडोर में रोशनी का एक ख्याल फैला हुआ है। रोशनी नहीं, क्योंकि कमरे पर एक हरा परदा है। पहुँचने पर बाहर, धुँधले अंधेरे में एक आदमी बैठा हुआ दिखाई देता है। मैं उसकी परवाह नहीं करता। आगे बढ़ता हूँ और भीतर घुस पड़ता हूँ।‘‘
निम्नमध्यवर्गीय पात्रों की बौद्धिकता के साथ मुक्तिबोध बहुत कुछ ऐसा करते चलते हैं जिससे उनके पात्र अभावों के बावजूद एक खास तरह की ‘एलिटनेस‘ से दिप्तमान रहते हैं यह मुक्तिबोध की अपनी सोच की वैचारिकी और मनःपक्ष की सूक्ष्म पड़ताल का गहरा भाव बोध ही है कि ‘मैत्री की मांग‘ की गरीब अर्द्ध साक्षर सुशीला गरीब अर्द्ध साक्षर पति रामराव के इंटर पास होने के सपने संजोती है और एम0ए0, एल0ए0बी0माधवराव जैसे-बडे़ आदमी के लड़के से मैत्री की मांग करती है। सुखद आश्चर्य है कि प्रगतिशील लेखन के भारतीय पक्ष में शायद मुक्तिबोध ही ऐसे रचनाकार दिखते हैं जिन्होंने स्त्री मन के सबसे आदिम और आधुनिक रहस्य को खोला है वह है सह अस्तित्व की तलाश (मैत्री भाव के सम्बन्ध) ‘कादम्बरी‘ पढ़ती सुशीला का माधवराव से यह सवाल ‘‘अच्छी है, पर उस स्त्री के ‘इतने थे‘ पर मित्र तो एक भी नहीं था।‘‘ एक जोरदार पहल है स्त्री के उस पक्ष की जिसमें वह पुरूष स्त्री के मानसिक और भावात्मक भेद को मिटा समान जमीन पर खड़ी होने की तलाश करती है। बावजूद इसके सुशीला के भीतर एक द्वन्द्व भी दिखता है जो सामाजिक ज्यादा है जिसका निराकरण वह कुछ इस तरह करती है ‘‘सुशीला को जीवन भर आत्मविश्लेषण का मौका न आया था। वह न जान सकी थी कि व्यक्ति के प्रति उसका जो आकर्षण है वह रामराव के पतित्व और अपने पत्नीत्व के आधार को कहीं भी धक्का नहीं पहुँचाता। वह आकर्षण तो मात्र उस व्यक्ति की सज्जनता के चारों ओर, विद्या, सम्पन्नता और शिष्टता के तेजोवलय के प्रति था।‘‘
सामाजिक संदर्भो की पड़ताल में यदि हम मुक्तिबोध की दृष्टि का आकलन करते हैं तो लगातार देखते हैं कि सामाजिकता का मतलब व्यवस्थागत दोषों के भीतर शोषित जिन्दगियों की कथा है। हालांकि जिन शोषितों की कथा वे कह रहे होते हैं वह कथा अधूरी और अस्पष्ट-सी चलती है और कथाकार एक विशेष तरह के अपराधबोध, आत्मग्लानि आत्मसम्मान, असहाय अवस्था और अवसाद की स्थिति के ही मनोभावों की प्रबलता के साथ जूझता रहता है। इस सन्दर्भ में ‘हरिशंकर परसाई‘ जी की यह टिप्पणी गौरतलब है ‘‘जो मुक्तिबोध को निकट से देखते रहे हैं, जानते हैं कि दुनियावी अर्थो में उन्हें जीने का अन्दाज कभी नहीं आया। वरना यहाँ ऐसे उनके समकालीन खड़े हैं,जो प्रगतिवादी आन्दोलन के कन्धे पर चढ़कर ‘नया पथ‘ में फ्रण्ट पेजित भी होते थे, फिर पण्डित द्वारका प्रसाद मिश्र की कृष्णयान का धूप-दीप के साथ पाठ करके फूलने लगे और अब जनसंघ की राजमाता की जयबोलकर फल रहे हैं। इसे मानना चाहिए कि पुराने प्रगतिवादी आन्दोलन ने भी मुक्तिबोध का प्राप्य नहीं दिया। बहुतों को दिया। कारण, जैसी स्थूल रचना की अपेक्षा उस समय की जाती थी, वैसी मुक्तिबोध करते नहीं थे। न उनकी रचना में कहीं सुर्खें परचम था, न प्रेमिका को प्रेमी लाल रूमाल देता था, न वे उसे लाल चूनर पहनाते थे। वे गहरे अंतर्द्वद्व और तीव्र सामाजिक अनुभूति के कवि थे। मजे की बात है कि जो निराला की सूक्ष्मता को पकड़ लेते थे, वे भी मुक्तिबोध की सूक्ष्मता को नहीं पकड़ते थे।‘‘ कथाओं में बेचैनी की इतनी परतें सम्भवतः इसलिए भी है कि मुक्तिबोध की आत्मगत बेचैनी प्रबलता से वहाँ खड़ी रहती है जो उन्हें कथा के पात्र से विलग नहीं होने देती है।
बुज़दिली, पाप और कलंक के गहरे ‘अंधेरे में‘ डूबा युवक भूख को व्यक्ति के ‘चरित्र-विनाश का सबसे बड़ा सबूत‘ मानता हुआ विवके शून्यता का शिकार तो हो जाता है साथ ही इस अपराध बोध की सजा भी पाने की बेरहमी से गुजरना चाहता है। ‘‘उसका पाप यों ही अँधेरे में छिपा रह जाएगा। उसकी विवके भावना सिटपिटा कर रह गई।‘‘
मंजिल दर मंजिल चढ़ती आत्मज्ञान की कठिन सीढ़ियाँ भविष्य के जिस ‘ब्रह्मराक्षस‘ का निर्माण करती हैं वह लगातार इसी सवाल से टकराती दिखती है कि क्या आत्मज्ञान आत्मोत्सर्ग के कठिन रास्ते पर चलकर भी वह रहस्य खोल पाता है जिससे सामाजिकता की गति में कुछ बदलाव आ सके या यह एक के बाद एक आत्मोसर्ग की परम्परा का निर्वाह मात्र है?
व्यवस्था से उपजी इंस्टिक्ट (प्रवृत्ति) पर सवाल उठाते हुए वे लगातार बहस तलब हैं जिन्दगी के सर्कस में शेर, रीछ बनाये जाने के षडयंत्र को किस हद तक जाने देने की विवशता को हम बनाये रखेंगे? मुखौटों में जीने की आदत कौन सी क्रान्ति को जन्म देगी? ये समझौते आखिरकार किसके हित में निर्णायक हैं?
‘सजे हुए टेबल पर रखे किमती फाउण्डेशन पेन-जैसे नीरव शब्दांकनवादी की सुविधाभोगी प्रवृत्ति और ‘‘पैने तर्क की अपनी अन्तिम प्रभावोत्पादक परिणति का उल्लास‘ के द्वन्द्व में उलझा पक्षी और दीपक का नायक ‘जहाँ मेरा हृदय है, वहीं मेरा भाग्य है।’ कहकर व्यवस्थागत अन्याय के साँपों को मार आदर्शवाद की जंगली बेल का आश्रय तो ले लेता है जो ‘प्राणशक्ति शेष है, शेष!‘ की जिजीविषा सूचक है। लेकिन बिल्ली के घात से मृत पक्षी जिसका ‘खून टपक-टपककर जमीन पर बूदों की लकीर बना रहा था’ पर सोचने के लिए एक बार विचलित भी करता है।
‘मुख्तसर किस्सा यह है कि हिन्दुस्तान भी अमरीका ही है। और सचेत जागरूक संवेदनशील जन ‘क्लॉड ईथरली‘ हैं। समाज में व्याप्त अन्याय का विरोध न कर अपनी दायित्वहीनता से अपराधबोध, आत्मग्लानि में आये जन की मनःस्थिति को टटोलते मुक्तिबोध का मानना है –जैसे हर व्यवस्था के भीतर अन्याय का विरोध करने वाले के लिए एक पागलखाना है वैसे ही ‘‘हमारे अपने-अपने मन-हृदय-मस्तिक में ऐसा ही एक पागलखाना है जहाँ हम उन उच्च, पवित्र और व्रिदोही विचारों और भावों को फेक देते हैं, लेकिन ‘अवचेतन‘ के अंधेरे तहखाने में व्यक्तिगत पाप भावना रहती है। जो ‘आध्यात्मिक अशान्ति, आध्यात्मिक उद्विग्नता‘ पैदा करती है।
‘जलना‘ में सम्बन्धों की ऐसी दमघोंटू असहाय स्थिति का चित्रण है। जिसमें परस्पर घृणा के बीच भी संवेदना का सेतु निर्मित है। पति-पत्नी के बीच गृहस्थ जीवन की तल्खी जिन्दगी के अभाव और इन सब में स्व की तलाश। व्यवस्था की मार से चोटिल चुन्नीलाल बार-बार आत्मग्लानि में अपने परिवार की तरफ वापस आता है ‘यह उसका जगत है, उसे सबकी सेवा करनी है‘ लेकिन रसोई घर की खिड़की से बाहर का जगत जहाँ ‘शहर ही शहर और गांव ही गांव, सड़के ही सड़के गालियाँ ही गलियाँ……. जिनके भीतर से उठती हुई गूँज-पास आकर कहती-‘‘तुम मुझे छोड़कर मत जाया करो।‘ अपनी तरफ लौटाती है। कर्तव्यबोध का यह दो छोर उससे कहता है ‘वह अपने कामों से, दुनिया से रिश्ते जोड़े, न कि सिर्फ दिल के उड़ते हुए टुकड़ों से।‘
‘‘… दोनों स्त्री-पुरूष के जीवन पर विराम का पूर्ण चिह्न लग गया है, काठ हो गए हैं। बाढ़ आती है। किनारे पर पड़े हुए कानों को बहाकर ले जाती है। जल-विप्लव है। काठ कहते जाते हैं, फिर भी वे प्राणहीन काठ, आपस में गुँथे हुए बहे जा रहे है।‘‘ ये बहना (बेटी) सरोज के प्रति कर्तव्यबोध से भरा है। अभावग्रस्त जीवन का अवसाद एक दूसरे से कहने न कहने में उलझा है फिर भी न कहने से काम नहीं बनता-हर एक उत्तर हर एक ज्ञान है। फिर भी बहुत कुछ अज्ञात छूट जाता है। कर्त्तव्यबोध से उपजी जिजीविषा अन्यायपूर्ण व्यवस्था में भी रास्ता तलाश ही लेती है। इस लघु कहानी की कुछ ये तस्वीर बनती है।
‘पूँजीवाद के विरूद्ध, धन–सत्ता‘ के विरूद्ध निषेध की प्रतिक्रिया में रामनारायण, ‘चाहिए-चाहिए, चाहिए की विकृत सभ्यता के विरूद्ध कृष्णस्वरूप का आध्यात्मिक उच्चता भाव,– कन्हैया को यह दोनों व्यक्तित्व एक ही सिक्के के दो पहलू लगते हैं। ‘सतह से उठता आदमी‘ गाँधीवादी दर्शन के वैराग्य भाव में ‘आधा नंगापन और आधा भूखापन सह सकता है, लेकिन ‘मांसाशी दाँत और रक्तपायी जीभ‘ कैसे? दरअसल विरोध की दोनों प्रवृत्ति किसी निर्णायक स्थिति तक नहीं पहुँचती बावजूद इसके की दोनों का विरोध सकारात्मक है। संघर्ष करता कृष्ण स्वरूप अपनी फटेहाली को सम्मानजनक स्थिति में ले आता है और वहीं रामनारायण के भीतर एक कुंठित विरोध उसे ‘परवर्टेड जीनियस‘ में तब्दील कर देता है। कन्हैया को लगता है दोनों के अहम के बीच कुछ ऐसा जरूर गलत है जो घृणा पैदा करता है ‘गटर में थूकना‘ कहानी में इन उच्च किस्म के विरोध की चालाकियों पर थूकना है।
सिद्धान्तों और सूत्रवाक्यों के घटाटोप में घिरी विपात्र की कथा मूलतः निम्नवर्ग, मध्यवर्ग और उच्चवर्ग की टकराहट का खुलासा करती हुई अपने-अपने पक्ष-विपक्ष में गम्भीर और पैने प्रश्न रखती है और लगातार जिरह तलब है कि इन दरमियानी फासलों में कौन मुख्यतः कसूरवार है। वर्गीय तनावों और ताकतों की संरचना में सामाजिक सम्बन्ध के बारीक सूत्रों का कई बार हवाला देते हुए जगत, वाचक दोनों के संवाद सत्ता, प्रशासन कलाकार, बुद्धिजीवी, व्यापारी, विद्यार्थी, भद्र समाज सबकी कलई खोलते हैं और अन्ततः इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि ‘‘बाहर से जब तक जिन्दगी में जान नहीं आती-सम्पूर्णतः आत्म-निर्भर व्यक्ति सम्पूर्ण शून्य होता है। आध्यात्मिक साधना का ध्येय भले ही सम्पूर्ण शून्य की प्राप्ति हो, कला का ध्येय तो यह नहीं है न उसका यह स्वभाव ही। अन्तर और बाह्य की परस्पर क्रिया से जनित जो भी जीवन है, वह कला का इष्ट है। इसके बिना वह शून्य है। ‘‘और शून्य की साधना का कोई औचित्य नहीं। वैचारिक बहसों की इतनी लम्बी श्रृंखला में कथा का कार्य-व्यापार सीमित करने के पीछे मुक्तिबोध का मुख्य लक्ष्य व्यवस्था में हासिये पर रह गये लोगों पर केन्द्रित आलोचना करना था।
स्याह की इतनी धुँधली लकीरों से उपजी कहानियाँ वेदना का जो रूप निश्चित करती है उसमें पात्रों का सदन मौन है, सिलन भरा है और भावनाओं की उमस से घिरा है – आँखे अश्रुजल की वर्षा नहीं करती। अँधेरा स्थायी भाव की तरह वातावरण में पात्रों की मनःस्थितियों में समाया है यहाँ तक की पात्रों के नामकरण भी बहुतायत से स्याह रंग से जुड़ते हैं नायिकायें श्यामवर्णा हैं और मुक्तिबोध का सौन्दर्यबोध भी मटमैला, शुष्क, और भावों के पैबंद से सहेजा हुआ है। मानवीय विकृतियाँ संघर्षशील जीवन से उपजी, दिशाहीनता से टकराती है लेकिन-रास्ते भी बनाती है। स्याह इतना कुछ कहता है जिसे सुनने के लिए संवेदनशील कान, संवेदनशील हृदय और संवेदनशील मस्तिष्क की जरूरत है।
संदर्भ ग्रन्थ सूचीः-
1. प्रतिनिधि कहानियाँ, मुक्तिबोध
2. आलोचना त्रैमासिक, 2015
3. हिन्दुस्तान समाचार पत्र-20 नवम्बर, 2016 (एक सदी के मुक्तिबोध)
डॉ0 शिवानी
प्रवक्ता (हिन्दी विभाग)
पूर्णोदय महिला महाविद्यालय,
वाराणसी
9198241570
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad