खिलने को तैयार नहीं थी, तुलसी भी जिनके आँगन में
मैंने भर-भर दिए सितारे, उनके मटमैले दामन में
पीड़ा के संग रास रचाया, आँख भरी तो झूम के गाया
जैसे मैं जी लिया किसी से, क्या इस तरह जिया जाएगा।
कवि नीरज के गीतों से, शब्दों से वाकई मन गीला है। यह कवित्व का निकष ही है कि वह भावों को वहन करने का सामर्थ्य और टूटने का सलीका दोनों ही सहेज पाए। हर जीवन के रोजनामचे से कितना कुछ सहेज लिया जाएगा, कितना कुछ छूट जाएगा यह तो वह जीवन ही देख सकता है। पर कोई असाध्यवीणा की कलम ही सफहों पर सफीना सा लिखा छोड़ जाती है। वस्तुतः कोई विशाल दरख्त सा कवि ही वह सब लिख सकता है, जो आम और खास के मन में उसी तरह धड़के जैसा उसने लिखा है। जीवन के सुरूर से कविता का शऊर सीखने वाले लोग विरले होते हैं, शायद इसीलिए कोई भी कवि अपना सा जान पड़ता है और काव्य -जगत् में प्रसिद्धि भी जल्द ही पा जाता है। कविता ही वह विधा है जो थोड़े से समय में कही जाती है पर उसका प्रभाव चिरस्थायी होता है। किसी कवि को अपनी कविता पर और भावों पर इतना गरूर हो कि वह निःसृत हुए तो मेरे और पढ़ लिए गए तो दूसरे के तभी वह लोक में पाँव रख सकता है। लेखक को लिखने के लिए बार-बार टूटना होता है। किसी दरकती पंक्ति को लिखने का अर्थ उस कवि से पूछिए जिसने उसे लिखा है। लेखन जब इस प्रकार जीवन से जुड़ता है तभी समाज उसे हृदयाकाश या सर्वोच्च स्तर तक पहुँचाता है। ऐसे ही एक कवि , शाइर और गीतकार नीरज के गीतों की शोखियों का ही कमाल है कि आज भी उनके बजते ही घरों में मानों शहनाई की धुन बजने लग जाती है।
कवि नीरज के जीवन को देखें तो वहाँ वेदना के अनेक गह्वर दिखाई देते हैं। गोपालदास सक्सेना ही साहित्य-जगत् में ‘नीरज’ बन गया। इनका जन्म 4 जनवरी 1925 को पूर्व आगरा व अवध, जिसे अब उत्तर प्रदेश के नाम से जाता है के इटावा जिले में हुआ। नीरज को बाल्यकाल में ही पिता का बिछोह झेलना पड़ा था। जीवन के झंझावतों से गुजरते हुए उन्होंने लोक-शिक्षा प्राप्त की। जीविकोर्पाजन के लिए उन्होंने टाइपिस्ट व क्लर्क की नौकरी की। कुछ समय के लिए उन्होंने मेरठ कॉलेज में भी अध्यापन कार्य करवाया। तदनन्तर उन्हें अलीगढ़ धर्म समाज में प्राध्यापक नियुक्त किया गया ।
उनके प्रमुख काव्य संकलनों में संघर्ष (1944), अंतर्ध्वनि (1946), प्राणगीत(1951), बादर बरस गयो(1957), मुक्तकी (1958), नीरज की पाती, गीत भी अगीत, कारवाँ गुजर गया आदि प्रमुख हैं। अनेक लोकप्रिय गीतों के जनक नीरज के लिख-लिख भेजत पाती (पत्र-संकलन) और काव्य और दर्शन (आलोचना) को भी जनमानस का प्रेम प्राप्त है।
शायद शृंगार को आलोचक वर्ग रसराज होने पर भी हलके में लेता है , इस क्षेत्र की कविता को उतना सम्मान नहीं मिलता इसीलिए उन्हें भी शायद शृंगार का कवि कहलाना पसंद नहीं था। यह ठीक है कि वे भी रीतिकालीन स्वच्छंद काव्यधारा की ही तरह प्रेम की पीर के कवि रहे परन्तु प्रेम के साथ-साथ अध्यात्म ने भी उन्हें गहरे तक प्रभावित किया । बीते दिन जो वीडियो तैरते मिले उनमें वे एक काव्य पाठ में कह रहे हैं, “अध्यात्म का मुझ पर बड़ा असर रहा. लेकिन लोगों ने मुझे शृंगार का कवि घोषित कर दिया।” वे यहीं पर आगे कह रहे हैं कि- ( बकौल नीरज)
“आज जी-भर के देख लो चाँद को
क्या पता कल रात आए न आए।”
“तो यहाँ चाँद का मतलब चाँद और रात का मतलब रात थोड़े ही है। यह फिलॉसफी है जीवन की, शृंगार नहीं है।” जीवन और मृत्यु पर लिखना मनुष्य जीवन के सबसे बड़े दर्शन की ही देन है। जब कोई कवि इस पर लिखता है तो यह ठीक है कि दर्द की कारा में उसने बहुत देर निवास किया है, सतत निवास किया है। दुख ही जीवन की कथा रही, यह जीवन को साक्षात् भोगकर ही लिखा जा सकता है, जो कभी छायावाद का भी प्राण-तत्त्व था।
“न जन्म कुछ न मृत्यु कुछ महज इतनी बात है
किसी की आँख खुल गई किसी को नींद आ गई।”
निजी जीवन का एकाकी राग ही रहा होगा जो उन्हें सुरा और कविताई की राह पर ले गया। वे सतत लिखते थे और शायरी में लोकप्रयिता के चरम पर थे। इसी लोकप्रियता के कारण मुम्बई के सिनेमा-जगत् ने उन्हें सहर्ष स्वीकार करते हुए गीतकार के रूप में , ‘नई उमर की नई फसल’ में गीत लिखने का निमन्त्रण दिया। गीत लिखने का यह सिलसिला अनेक वर्षों तक जारी रहा और उन्होंने सिनेमाई जगत् को कई लोकप्रिय, गहन भाव बोध और अन्तश्चेतना से युक्त गीत दिए। यह सच है कि प्रसिद्धि जितनी जल्द आकर्षित करती है उतनी ही जल्द उससे विराग भी जन्म लेता है। व्यामोह या मोहभंग किसी भी राग की नियती है। कवि नीरज के साथ भी यही हुआ । कवि , शाईर व गीतकार गोपालदास नीरज , पहले शख्स रहे जिनको शिक्षा व साहित्यिक रचना-कर्म के लिए दो बार 1991 में पद्म श्री और 2007 में पद्म-भूषण पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। उन्हे यशभारती पुरस्कार और विश्व उर्दू पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है।
मुशायरों से आम जन का जुड़ाव होता है, वहाँ दर्द और शृंगार ही लोकप्रिय हो सकता है। नीरज के काव्य में यह स्वस्फूर्त था। उनकी कविताओं का जीवन की आलोचकीय दृष्टि से मूल्यांकन करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि कविता सिर्फ भावों की वाहिका है। हर कवि का हृदय जीवनानुभव और जीवन दृष्टि उस कविता का एक खाका तैयार करता है , उसके शब्द भावों से निःसृत होते हैं और आम मन की जनीन पर साधारणीकृत हो अंकुरित होते हैं।
कवि नीरज को अजमेर साहित्य उत्सव में दूर से देखने का मौका मिला। तबीयत नासाज होने के कारण उनका सत्र तब संभव नहीं हो पाया था। काँपते हाथों से उन्होंने दीप-प्रज्ज्वलित किया पर उसकी लौ का उजास देखते ही बनता था। शाइर तब भी गम से मुक्त होने के लिए चुने हुए अपने शागिर्द के साथ थे, पर एक स्मित उनके मुख-मण्डल पर तब भी कायम थी। उस वक्त भी जेहन में ये पंक्तियाँ ही थीं-
मेरा मकसद है के महफिल रहे रोशन यूँही,
खून चाहे मेरा, दीपों में जलाया जाए।
नीरज होना आसान तो नहीं है,हाँ नीरज पर बात करना आसान ज़रूर है। कवि, कविताई को चुनने का अधिकार पाठक को है, कोई भी आलोचना किसी भी कवित्व के प्रति पूर्ण और सार्वभौमिक राय नहीं रख सकती। फिर कवि नीरज को उनके रचना कर्म से उनके गीतों से ही हम जी पाएँ तो बेहतर होगा-
इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में, लगेंगी आपको सदियाँ हमें भुलाने में।
न पीने का सलीका न पिलाने का शऊर, ऐसे भी लोग चले आये हैं मयखाने में॥ (नीरज)
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad