किस्सा-ए-मिड डे मील बजरिए ‘अजबलाल एम. डी. एम.’
मृत्युंजय पाण्डेय
हम प्रयोगकाल के दौर से गुजर रहे हैं । वर्तमान समय में सरकारें नित नए प्रयोग कर रही हैं । कभी आदिवासियों को लेकर प्रयोग हो रहे हैं, तो कभी, किसानों को लेकर, तो कभी बच्चों को लेकर । ‘मिड डे मील’यानी मध्यान्ह भोजन इसी प्रयोग का एक हिस्सा है । भारत सरकार की ओर से मध्यान्ह भोजन 15 अगस्त, 1995 को प्रारम्भ की गई थी । इस योजना के अंतर्गत प्राथमिक विद्यालयों के विद्यार्थियों को प्रतिदिन 100 ग्राम भोजन दिया जाता है । सरकार का उद्देश्य बच्चों के स्वास्थ में सुधार लाना है और साथ ही उन्हें स्कूल की तरफ आकर्षित करना भी है । पंकज मित्र की ‘अजबलाल एम. डी. एम.’ कहानी इसी विषय को केंद्र में रखकर लिखी गई है । यह कहानी मिड डे मील की सच्चाई से पर्दा उठाती है । इस कहानी का शीर्षक थोड़ा अजब है । वैसे पंकज मित्र की लगभग हर कहानी और हर पात्र का नाम थोड़ा अजब ही रहता है । अजबलाल के साथ ‘एम. डी. एम.’जुड़ा है । पहली नजर में कहानी पढ़ने से पूर्व यह लगता है कि यह कोई बड़ा पोस्ट वगैरह है । पर कहानी पढ़ने के बाद पता चलता है कि ‘एम. डी. एम.’ का फूल फार्म ‘मिड डे मील’ और ‘महा धूर्त मास्टर’ है । कस्बे का हर कोई अपने-अपने अनुसार इसका अर्थ लगाता है । आप भी कुछ अन्य अर्थ लगा सकते हैं ।
‘अजबलाल एम. डी. एम.’ एक बैठक में लिखी गई कहानी लगती है । दस पृष्ठों की कहानी में कहीं भी पैराग्राफ नहीं बदला गया है । एक ही बैठक में लिखी गई यह कहानी एक ही साँस में पढ़ने की माँग करती है । टुकड़ों में इसे नहीं पढ़ा जा सकता । सच्चाई तो यही है कि पंकज मित्र की कोई भी कहानी टुकड़ों में नहीं पढ़ी जा सकती । टुकड़ों में पढ़ने से स्वाद में बाधा उपस्थित होती है । रसास्वादन में खलन पड़ता है ।
|
पंकज मित्र |
इस कहानी का हीरो अजबलाल स्कूल के दिनों से ही जिद्दी और धुन का पक्का है । एक बार वह जिस काम को करने की ठान लेता है तो फिर उसे करके ही छोड़ता है । धुन का पक्का अजबलाल ईमानदार भी है और हर ईमानदार आदमी की तरह उसे भी अपनी ईमानदारी की कीमत चुकानी पड़ती है । अजबलाल अजब-गज़ब कारनामें और शरारते करते हुए एक दिन कस्बे के स्कूल से इंटर पास कर लेता है । उसके इंटर पास करते ही,हर मध्यवर्गीय पिता की तरह, उसके पिता के मन की सोई हुई इच्छाएं जाग जाती हैं । वह उसे इंजीनियर बनते हुए देखना चाहते हैं । अजबलाल की इच्छा नहीं जानी गई, जैसा की हर मध्यवर्गीय परिवारों में होता है और उसके पिता शोभनलाल अपने घर को बैंक में गिरवी रखकर अजबलाल का एडमिशन सुदूर दक्षिण के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में दक्षिणा ले-देकर करवा देते हैं । उसके बाद जैसा की गांवों में होता है, वही सब हुआ । अजबलाल की गज़ब-गज़ब कहानियाँ तैयार होने लगी । हर पिता की तरह शोभनलाल भी बड़े-बड़े सपने सँजोने लगे । शोभनलाल के घर में ताश की चौकड़ी जमने लगी । जहाँ ताश खेलने के साथ-साथ चाय पी जाती और अजबलाल की संभावित नौकरी और शादी की बात की जाती । यह सब स्वाभाविक ही था । एक मध्यवर्गीय या निम्न-मध्यवर्गीय परिवारों में ऐसा होता है । कथाकार अमकांत की ‘डिप्टी कलक्टरी’ को थोड़ा यहाँ याद कीजिए । यदि सपने देखना इस वर्ग का हक है तो सपने टूटना भी इस वर्ग का यथार्थ है । अमरकान्त की ‘डिप्टी कलक्टरी’ में भी शकलदीप बाबू का सपना टूटता है और इस कहानी के शोभनलाल का भी सपना टूटता है । अजबलाल इंजीनियर नहीं बनता । डेढ़ साल के अंदर ही अजबलाल ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ दी । बाप के सपनों को छोड़ वह अपने सपनों के पीछे भागने लगा । उसने दिल्ली में एक बिल्डर के यहाँ काम करते हुए, दूरस्थ शिक्षा का लाभ उठाते हुए बी. एड. की पढ़ाई पूरी की । अजबलाल स्कूल मास्टर होना चाहता था । पर उसके पिता उसे इंजीनियर के रूप में देखना चाहते थे । अजबलाल के पिता शोभनलाल अपनी मित्र मंडली को अपने पुत्र की झूठी कहानियाँ सुनाया करते थे । शोभनलाल मित्र मंडली में धाक जमाने के लिए घर से पैसा भेजा करते थे और वही पैसा अजबलाल उन्हें भेजता था । ऐसा होता है । गाँवों में बच्चों की शादी-ब्याह के लिए लोग ऐसा भी करते हैं और अजबलाल के पिता भी वही कर रहे थे । पर यह झूठ बहुत दिनों तक नहीं चला । कुछ ही दिनों बाद बैंक वाले घर पर कुर्की जब्ती का नोटिस लेकर आ गए । शोभनलाल इस सदमे को सह न सके और चल बसे ।
शोभनलाल की मौत के बाद कुछ लोग अजबलाल को यह सलाह देते हैं कि शोभनलाल की मौत को किसान आत्महत्या साबित कर दिया जाए । इससे कुछ मुआवजा भी मिल जाएगा और बैंक का कर्जा भी कुछ चूक जाएगा । पर, अजबलाल इस प्रस्ताव को नहीं मानता । अपने बाप के कर्ज को चुकाना वह अपना फर्ज मानता है । वह छोटे-मोटे काम करके कर्ज चुकाने में लग भी जाता है और ‘जिद्दी की तरह मास्टरी प्राप्त करने में लगा रहा’ और एक दिन वह ‘निहायत प्रयोगवादी विभाग’में यानी प्राथमिक विद्यालय में लग जाता है ।
सरकार की इस प्रयोगवादी योजना ने (‘मिड दे मील’) भारत की प्राचीन परम्परा यानी गुरु-शिष्य की महान परम्परा को नष्ट कर दिया है । गुरु-शिष्य,गुरु-शिष्य न रहकर ‘खिचड़ी प्रदाता और उपभोक्ता’की श्रेणी में आ गए हैं । अब एक से लेकट आठवीं क्लास तक पढ़ाई को छोड़ सब कुछ होता है । शिक्षक का काम अब पढ़ाना-लिखाना नहीं,बल्कि खिचड़ी बनवाना और बच्चों को खिलाना हो गया है । अब “पढ़ाई से ज्यादा कड़ाही का महत्त्व बढ़ गया है और सबसे सफल शिक्षक वही था (है) जो खिचड़ी बनवाकर बिना छिपकली, तिलचट्टा आदि गिरवाए बच्चों” को खिचड़ी खिलवा दे । बात यहाँ तक भी रहती तो ठीक थी । लेकिन बात यही तक खत्म नहीं होती । यह खिचड़ी और भी बहुत सारी खिचड़ी खिला रही है । या यह भी कह लीजिए कि इस खिचड़ी की आड़ में और भी अन्य प्रकार की खिचड़ियाँ पक रही हैं । भरष्टाचारी यहाँ भी अपनी जगह ढूँढ लिए हैं ।
अजबलाल एक ईमानदार शिक्षक बनना चाहता था, पर यह व्यवस्था उसे ईमानदार बनने नहीं दे रही थी । उसकी सबसे बसी समस्या यह थी कि बाप का कर्ज चुकाना है,इसलिए वह कुछ खुलकर बोल भी नहीं पाता था । पर,वह भीतर-ही-भीतर अपना काम कर रहा था । उसे अपने बड़े अधिकारी यानी शिक्षा विभाग पदाधिकारी (डी. ई. ओ.) साहब के घर रोज दो किलो शुद्ध दूध भिजवाना पड़ता था । ‘एम. डी. एम.’ नाम से एक डेयरी फार्म भी खुला था । यानी, जो फार्म गरीब बच्चों के लिए खुला था, उन्हें कुपोषण के शिकार से बचाने के लिए,उसका भोग साहब लोग लगा रहे थे । शुद्ध दूध की पूर्ति के लिए साहब लोग अतिरिक्त चावल-दाल देते थे । और जो शिक्षक शिक्षा विभाग के पदाधिकारी के घर पैकेट का दूध भिजवाता था उसकी पोस्टिंग लावालाँग प्रखण्ड में कर दी जाती थी ।
एक दिन अजबलाल को भी लावालाँग प्रखण्ड जाना पड़ा । बैंक का कर्ज चुकता होते ही अजबलाल साहब के घर दूध पहुंचाना बंद कर दिया । उसने सिर्फ बंद ही नहीं किया बल्कि यह हिदायत भी दे आया कि ‘प्रेसवालों के सामने एम. डी. एम. की पूरी पोल खोल देगा । यानी “सरकार की प्रिय योजना, जिस पर नाज था जिले को, राज्य को और देश को भी” उसकी पोल खोल देगा । यह सिर्फ योजना की नहीं बल्कि सरकार की पोल खोलनी हुई और कोई भी सरकार यह नहीं चाहेगी कि उसकी कोई भी योजना असफल हो या उस पर कोई सवाल खड़ा करे । आखिर इस योजना से बहुतों को लाभ जो होता था । लावालाँग जाने के बाद भी वह अपने जिद से बाज नहीं आया । वह प्रेसवालों को रजिस्टरों की फोटोकॉपी उपलब्ध करता रहा और प्रेसवाले साहब को दुहते रहे । वर्तमान समय में प्रेसवाले भी इस भष्टाचार के दलदल में फँसते जा रहे हैं ।
अजबलाल को फँसाने के लिए उस पर कई आरोप लगाते हैं । जैसे – “अपने स्थान पर एक लड़के को पढ़ाने के लिए रखना जिसका संबंध जंगल के खतरनाक तत्त्वों से साबित किया जाने लगा और उसके जरिए उनको धन मुहैया कराना वगैरह-वगैरह ।” अंत में अजबलाल को नौकरी से निकाल दिया जाता है । इस व्यवस्था में एक ईमानदारी आदमी की परिणति यही है ।
जिस प्रकार मशीन की जान पुर्जे होते हैं । उसी प्रकार किसी योजना की जान उसमें काम करने वाले लोग ही होते हैं । जिस प्रकार पुर्जे का विद्रोह मशीन को खराब कर सकता है उसी प्रकार इनका विद्रोह भी सारे प्रयास पर पानी फेर सकता है । कहानी खत्म होने तक पदाधिकारी यह साबित करने की कोशिश में लगे हुए हैं कि जंगल के खतरनाक तत्त्वों के साथ अजबलाल के संबंध हैं । यकीन मनीय, एक दिन अजबलाल का संबंध जंगल के खतरनाक तत्वों से जोड़ कर उसे गोली मार दी जाएगी ।
____________
मृत्युंजय पाण्डेय, असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, सुरेन्द्रनाथ कॉलेज, (कलकत्ता विश्वविद्यालय)
संपर्क : 25/1/1, फकीर बगान लेन, पिलखाना, हावड़ा – 711101
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad