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Home कला

क्यों देखनी चाहिए पंचलैट – स्मिता गोयल एवं यतीश कुमार

by Anhadkolkata
June 20, 2022
in कला, सिनेमा
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पंचलैट –  साहित्य को सिनेमा को करीब
लाने का एक साहसिक प्रयास
स्मिता गोयल
यतीश कुमार
आंचलिक भाषा और हिंदी साहित्य के अमर कथा शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी पंचलाइट पर बनी फिल्म ‘पंचलैट‘ १७ नवम्बर २०१७ को भारतीय सिनमा के पटल पर अपनी एक नई छाप छोड़ने आ गयी। पंचलैट शब्द अपभ्रंश है पंचलाइट का, जिसे पेट्रोमेक्स कहते हैं।
निर्देशक प्रेम प्रकाश मोदी  ने एक असाधारण प्रयास किया है साहित्य और सिनेमा जगत को जोड़ने का। इस फिल्म में संगीत-कल्याण सेन का है। इसके गीत मधुर और कर्णप्रिय हैं जो पुराने दिनों के गानों की झलक देते हैं। रंगमंच के दिग्गज कलाकारों ने मिलकर इस फ़िल्म में चार चाँद लगा दिया हैं। अमितोष नागपाल व अनुराधा मुखर्जी मुख्य भूमिका में हैं। इनके अलावा यशपाल शर्मा, राजेश शर्मा, रवि झंकाल, ब्रिजेन्द्र काला, कल्पना झा, वीरेन्द्र सक्सेना, प्रणय नारायण, इकबाल सुलतान, सुब्रत दत्त, ललित परीमू,  अरूप जागीरदार, मालिनी सेनगुप्ता, पुण्यदर्शन गुप्ता,अरुणिमा घोष की भी अहम भूमिकाएं हैं और हर एक ने अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है। किरदार भी ऐसे जो आपको परदे पर यथार्थ का दर्शन करा रहे हों। नायक राजकपूर की आवारा फ़िल्म से बहुत प्रभावित है और राजकपूर की नक़ल की कोशिश करता है। अमितोष ने बहुत ही सहज रखा है इस नक़ल को भी ,कहीं भी सीमा नहीं लांघी है और एक नयापन दिया है राजकपूर की झलक को जो देखने में सहज लगती  है । फिल्म देखकर समझा जा सकता है कि इस कलाकार ने कितनी तपस्या की होगी इसे साधने में। हम व्यक्तिगत तौर पर उनके क़ायल हो गये। नायिका के रूप में अनुराधा मुखर्जी ने भी पूरा साथ दिया है प्रेम की सरलता और विरलता को दर्शाने में।
संवाद जितने सधे और  सटीक लगते हैं उतनी ही अच्छी टाइमिंग है सभी कलाकारों की। टीम एफ़र्ट साफ़ झलकता है सधी हुई अदायगी में । रास लीला के दृश्य हों या महतो मित्रों की असाधारण जुगलबंदी – सारे के सारे दृश्य प्रशंसनीय हैं।
नायक का सब्जी पकाना और दोस्त के लिए चार आलू बचा के रखना हमें सरलता और मित्रता की पुरानी गली में ले जाता है। पुराने गाने जैसे-” दम भर तो उधर मुँह फेरे ओ चंदा ” हो या ” हम तुमसे मोहब्बत कर के सनम “, इनका बख़ूबी उपयोग मनोरंजन और दृश्य की सार्थकता के लिए  नपे- तुले अन्दाज़ में किया गया है। 1954-60 के बीच के समयकाल को बहुत ही सूझ बूझ के साथ वास्तविकता की परत लगाए आपके सामने प्रस्तुत किया गया है। इस फ़िल्म पर लिखते समय हमारे मन में कुछ सवालों ने दस्तक दी कि पंचलेट फिल्म दर्शक आख़िर क्यों देखे?
तो जनाब जवाब जो हमने पाया – वह प्रस्तुत है:-

●अगर आप शुद्ध मनोरंजन चाहते हैं।
●अगर आप अपने गांव को फिर से जीना चाहते हैं।
●अगर आप एक सहज और परिपक्व अदाकारी देखना चाहते हैं।
●अगर आप टीम की  ताकत और समर्पण देख गदगद होना चाहते हैं।
●अगर आप सच और प्यार की जीत देखना चाहते हैं।
●अगर आपको साहित्य कला कहानियों से थोड़ा-सा भी लगाव रहा है।
●अगर आप कभी जातिवाद से जूझे हों थोड़ा भी।
●अगर आप में गाँव की मिट्टी की खुशबू पाने की ललक अब भी बाकी हो ।
●अगर आप एक निर्देशक को जिसने अपने 9 साल इस फ़िल्म पर लगा दिए और उसके संघर्ष को  समझने का हौसला रखते हैं।
●अगर आप समझना  चाहते हैं कि निर्माता ने इस टीम और कहानी पर पैसा क्यों लगाया?
●अगर आप मन में प्रसन्नता, शांति और चित्त में मनोरंजन की तृप्ति चाहते हैं।
तो आप जरूर देखेंगे एक संपूर्ण मनोरंजक और ज़मीन से जुड़ी फिल्म पंचलैट।
अच्छी फिल्म कितनी बार भी देखिये आपका मन नहीं भरता। हमने ये फ़िल्म दो बार देखी। सच जानिये पहली बार जितनी अच्छी लगी दोबारा और ज्यादा अच्छी लगी। कहानी, अभिनय,संगीत ,निर्देशन ,सिनेमाटोग्राफी,संवाद हर किसी ने अपना काम और ज़िम्मेदारी बख़ूबी निभाया है ।
प्रेम मोदी मुबारकबाद के हक़दार हैं इतनी बेहतरीन फिल्म हमारे बीच लाने का साहसिक कार्य करने के लिए। कहते हैं न कि जो चीज आपको बहुत ज़्यादा पसंद हो उसे पाने और देखने की लालसा और बढ़ जाती है। यही हाल हमारे जैसे उन सभी दर्शकों का है जिन्होंने ‘पंचलैट‘कहानी को पहले पढ़ा है। मैथिल भाषा और कोसी परिवेश की आंचलिकता को पृष्ठभूमि में रखकर इस फ़िल्म में कहानी को सजीव करने का सफल प्रयास किया गया है।
यह फिल्म गांव की परिस्थिति व तात्कालीन सामाजिक वर्जनाओं तथा मुनरी और गोधन की प्रेमकथा पर आधारित है। यह एक ऐसी फ़िल्म है जो उस ज़मीनी हक़ीकत को दिखाती है जो आज भी बिलकुल नहीं बदली है, वही जात -पात , टोला में बंटा हुआ वही समाज का छोटा स्वरूप और देहात में रहने वालों के तौर तरीक़े जिसे बड़े सहज भाव व शालीनता से दर्शाती है पंचलैट। दशकों बाद भी कुछ नहीं बदला है,सब वहीं का वहीं है। रेणु की कहानियों में गाँव की परिकल्पना कोरी कल्पना नहीं है। आज भी पंचलैट की तरह सुदूर उत्तर या दक्षिण बिहार के गाँवों में सलीमा के गाने को कोई गोधन किसी मुनरी को देखकर गाने की मजाल नहीं कर सकता और मजाल कर ले तो वही हश्र होगा जो इस सिनमा में दिखाया गया है। जिसमें वही कौतुहल आज भी है। और सच बताएँ तो यह फ़िल्म आपको आपके बचपन जवानी की एक रोचक सैर कराते हुए यथार्थ तक लाती है।
ज़रूरत है आज इस फ़िल्म को सभी छोटे-बड़े शहरों के सिनेमाघरों और सभी मल्टीप्लेक्स में देखे और दिखाए जाने की ।

काश! यह फ़िल्म जल्द ही वैसे सभी दर्शकों तक पहुँचे जो कड़वे यथार्थ को नहीं पचा पाते हैं। भारत जैसे देश में बात भले ही बुलेट ट्रेन की हो रही है पर शहरों में भागती दौड़ती ज़िन्दगी ने संवादहीनता की जो रेस लगा रखी है  उसका समाधान कुछ हद तक ‘पंचलैट’ भी है।

सिलेमा के गाने गाता हुआ गोधन और मुनरी के पवित्र प्रेम को उस सदी में मान्यता देती यह कहानी और फ़िल्म आज के युग में अपने दावे के पुरज़ोर समर्थन की माँग निश्चित ही आपसे करेगी।
निराशा को आशा में बदलती है यह फ़िल्म जहाँ एक सुखान्त के साथ आज की दिखावटी दुनिया को आइना दिखाती है वहीं बहुत सारे सवाल भी छोड़ जाती है हम सब के लिए कि इतने विकास के बावजूद हम १९५४ -५५ में ही क्यों खड़े हैं । देश के कई हिस्सों में कुछ क्यों नहीं बदला है। साथ ही और भी बहुत से जहनी सवाल।
आज के हालात देख लग रहा है जैसे यथार्थपूर्ण कहानी को भी  किसी भव्यता का मोहताज़ होना पड़ रहा हो। आधुनिक युग में कला को पीछे धकेल वित्त विभूतियों की दख़ल और रंगभूमि पे अपनी प्रभुता काबिज होने की मुहिम ज़्यादा प्रतीत हो रही है। एक षड्यंत्र लग रहा है मौलिक व कलात्मक कार्य के विरुद्ध। रेणु जी का साहित्य जिस तरह की आंचलिकता के सौंदर्य से ओतप्रोत दिखता है, इस फिल्म में भी उसे वैसा ही बनाए रखने का प्रयास किया गया है, जो दर्शकों के लिए एक अलग अनुभव होगा।
फिल्म से जुड़ी कलाकार कल्पना झा का कहना है कि कई सालों से थिएटर से जुड़ी हूं पर फिल्म का यह पहला अनुभव है। फिल्म से जुड़ना और वह भी साहित्यिक फिल्म में काम करने का अलग ही आनंद है। बचपन से रेणु जी की कहानियों से प्रभावित रही हूं ऐसे में उनकी कहानी पर बनी फिल्म में अभिनय करना सचमुच कल्पना से परे है।
अच्छी कहानियों को जीवंत करने के लिए उनका गंभीर फिल्मांकन बेहद जरूरी है। गौरतलब है कि रेणु  की कहानी ‘मारे गये गुलफाम’ पर बॉलीवुड के गीतकार शैलेंद्र ने ‘तीसरी कसम’ फिल्म 1966 में बनायी थी।  तीसरी क़सम के बाद आज ‘पंचलैट’ को एक सार्थक प्रयास माना जा सकता है जिसने कम से कम एक शुरुआत तो ज़रूर की है साहित्य और सिनेमा की कड़ी को जोड़ने की। यह फ़िल्म प्रेरित करेगी हर उस कथाकार को, जिसके अंदर का साहित्यकार और कलाप्रेम दोनो ज़िंदा है,कुछ नया करने के लिए।
विश्वास है कि पंचलैट अपनी पूरी चमक–दमक के साथ जलती रहेगी और अपनी अमिट छाप छोड़ने में कामयाब रहेगी।
समीक्षकद्वय-
स्मिता गोयल

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Comments 2

  1. Asha pandey says:
    7 years ago

    गाँव से वापस मुलाकत करवाती फ़िल्म और बेहतरीन समीक्षा….��

    Reply
  2. Roli Abhilasha says:
    7 years ago

    Behtreen samiksha aur umdaa blog.

    Reply

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