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Home कला

आजादी के बाद हिन्दी को लेकर हुए मजाक पर बनी उम्दा फिल्म – ‘हिन्दी मिडियम’ – शिवानी गुप्ता

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in कला, सिनेमा
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शिवानी गुप्ता

शिवानी गुप्ता युवा प्राध्यापक और आलोचक हैं, समकालीन महिला उपन्यासकारों पर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से शोध किया है और समकालीन मुद्दों के साथ अन्य विषयों पर लागातार लिखती रही हैं। इसके पहले निर्मल वर्मा के उपन्यास अंतिम अरण्य पर उनका शानदार लेख हम अनहदपर पहले पढ़ चुके हैं। इस बार शिवानी ने एक मुद्दा आधारित फिल्म  ‘हिन्दी मिडियम’ के बहाने भारतीय शिक्षा पद्धति के फाँकों की सूक्ष्म पड़ताल की है।

आजादी के बाद हिन्दी को लेकर हुए मजाक पर बनी उम्दा फिल्म – ‘हिन्दी मिडियम’

शिवानी गुप्ता
‘हिन्दी मीडियम‘ इरफान खान और शबा कमर (पाकिस्तानी अदाकारा) की अदायगी के साथ बड़े हल्के फुल्के अंदाज में लेकिन एक संवेदनशील विषय पर बात करती फिल्म है। भारतीय शिक्षा पद्धति में प्राइवेट स्कूलों के पीछे छिपे बाजारवाद को बड़े कमर्शियल अंदाज में पेश करते हुए निर्देशक साकेत चौधरी ने भारतीय मानसिकता और भाषायी दोहरेपन को बखूबी उभारा है।
स्वतंत्रता के बाद शिक्षा और शिक्षा के माध्यम ‘भाषा‘ का सवाल लगातार भारतीय संविधान का कमजोर और नकारात्मक पक्ष रहा है, उसपर आधुनिकता के भीतर घुसे ‘ बाजारवाद‘ ने इस भाषायी समस्या को और भी अधिक चिन्तनीय विषय बना दिया है। हिन्दी और हिन्दी मीडियम के भीतर जिस कमजोर भारत की छवि उभरती है वह कितनी आयातित, शर्म,उपेक्षा और आत्महीनता की शिकार है इसे समझने के लिए भारत के उन हिन्दी भाषी क्षेत्रों को देखना समझना होगा जहाँ हिन्दी ‘भाषा‘ का मुद्दा न होकर रोजी-रोटी का मुद्दा है। स्वतंत्र भारत में भाषायी परतंत्रता का जितना बोलबाला हुआ शायद ही कभी  भारतीय भाषाओं के साथ ऐसा सुलूक हुआ हो। हमारे जेहन की भाषा में जिस ‘स्लो प्वाइजन’ की तरह अंग्रेजी रमती चली गयी उसमें हिन्दी का हश्र ऐसा ही होना था।
भारतीय शहरी मध्यवर्ग के भीतर सबसे बड़ा सवाल आमदनी का है जिसमें रोजगार की भारी जरुरत नौकरियों के इर्द–गिर्द जमा रहती है और नौकरी बिना अंग्रेजी के मुश्किलें पैदा करती है।एक ठीक-ठाक आमदनी के लिए किसी ऑफिस में अच्छा पद मतलब अंग्रेजी बोलने लिखने की अच्छी समझ और इसी की जरुरत पूरी करने के लिए शहरों, नगरों में (अब तो ग्रामीण इलाकों में भी) हर चौराहों पर आपको अंग्रेजी बोलनासीखाने के आसान तरीके के साथ 15 और  30 दिन में अंग्रेजी बोलने के दावे के पोस्टर टंगे मिलेंगे। इंजीनियरिंग, मेडिकल ,मैनेजमेन्ट आदि की उच्च शिक्षा अंग्रेजी के बिना सम्भव ही नहीं।  अब भारत का वह तबका जिसके लिए अच्छी शिक्षा दुर्लभ है वह अंग्रेजी मीडियम की ऊँची उड़ानों में कहाँ और कैसे फिट हो सकेगा ?सरकारी स्कूलों की ध्वस्त हो गयी व्यवस्थायें लगातार भारतीय शिक्षा के लिए प्रश्नचिन्ह के रुप में खड़ी हैं लेकिन ऐसी क्या मजबूरी है कि प्राइवेट स्कूलों की तरफ लगातार 10या 15 हजार मासिक कमाने वाला परिवार भी रुख कर रहा है?आधे पेट खाना लेकिन 24/ 25 हजार ‘extra- curricular activities’ के नाम पर इन प्राइवेट स्कूलों को देने के लिए तैयार हो जाना? ये लगातार उस मानसिकता को पुष्ट करने का ही पहलू है जिसमें एक अच्छे और सुखी जीवन के लिए एक अच्छी नौकरी का होना जरुरी है ‘गरीबी या खानदानी गरीबी‘ को दूर करने का एकमात्र इलाज फर्राटेदार अंग्रेजी में बात करता कर्मचारी बनना जिसे ‘बाजार‘लगातार अपने प्रचार माध्यमों के जरिये जनता की मानसिकता पर हावी करता रहा है।
पूँजीवाद का एक भाषायी रुप भी है जिसमें करोड़ो, अरबों की सम्पत्ति के मालिकों के लिए भी अंग्रेजी भाषा बहुत आदरणीय है। दर असल वह उनके ‘स्टेटस सिंबल’ को पुष्ट करने का सबसे वजनदार माध्यम है। ये ऐसे पूँजीपतियों की जमात है जिनके या तो खानदानी कारोबार हैं या ये अभी- अभी नये अमीरी के आलम में प्रवेश किए हुए हैं और जिनके बोलचाल में लोकल (क्षेत्रीय) बोलियों के साथ हिन्दी का बहनापा रहा है। क्रीच पड़ी पैंटों, कड़कदार कॉलरों और टाई में सूटेट-बूटेट ब्राँडेड अंग्रेजी दाँ रईसों के साथ कदमताल करने में ऐसे लोकल रईसों के पसीने तो छूटने ही हैं, ऐसे में इन रईसों की एकमात्र उम्मीदें अपनी संतानों से बँधती हैं ताकि इनके लोकल रईस होने की खानापूर्ति उनकी संताने मँहगें अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढकर और अंग्रेजी तौर तरीके अपनाकर पूरी कर सकें और लोकल रईस का ठप्पा इनके वजूद से मिट सके।

‘हिन्दी मिडियम’फिल्म इन्हीं मुद्दो के इर्द गिर्द चलती है।  हमेशा की तरह इरफान अपनी संजीदा अदायगी में कहानी के साथ न्याय करते हैं और अपनी भूमिका का अन्त ‘अच्छे पति, अच्छे पिता होने से पहले अच्छे इंसान बनने  का मैसेज देकर करते हैं। शबा कमर की ब्यूटी और अदाकारी पर कोई सवाल नहीं लेकिन इरफान के साथ शबा एक बराबरी का तालमेल करने की लगातार कोशिश करती दिखती हैं। गरीबी में भी अपने बच्चे की अच्छी शिक्षा के लिए परेशान अभिभावक के रुप में दीपक दोक्यार की भूमिका शानदार रही।  ‘राइट टू एजुकेशन’ की चक्की में पिसता यह गरीब परिवार असल मायने में एजूकेटेड है क्योंकि वो ‘दूसरों का हक मारना‘नहीं जानता और सबसे बड़ी बात जिस अंग्रेजी मीडियम के लिए ये हिन्दी मीडियम वाले सारी जद्दोज़हद करते हैं वह भी हलक तक बाजारु सिस्टम का हिस्सा  है जिसमें दिल्ली के पाँच टॉप स्कूलों में कुछ तो फाइव स्टार एसी सुविधा से लैस एजूकेशनल सेन्टर हैं तो कुछ फॉरेन कन्ट्री की नकल का हिस्सा । कभी शाहरुख खान के बच्चों की पढाई इन्ही एसी स्कूलों में होने की खबर से मैं चौंकी थी और आये दिन ऐसे स्कूलों में नर्सरी ऐडमिशन के लिए प्रेग्नेंसी के दौरान ही लाइन लग जाने की बातों पर हँसी आती थी लेकिन तब शायद यह समझना मुश्किल था कि बाजार और पूँजी के गठजोड़ में हमारी भारतीय शिक्षा पद्धति कितने बड़े खतरे में पड़ती जा रही है और किस तरह शिक्षा का मूल अधिकार उसी असमानता का भयंकर शिकार हो रहा है जिस असमानता से हमारा भारतीय समाज धर्म, जाति, वर्ग, अर्थ के साथ लम्बे समय से जूझ रहा है। 

कुल मिलाकर फिल्म देखी जानी चाहिए और साकेत चौधरी को भारतीय शिक्षा के एक और रूप कोचिंग सेन्टरों पर भी इसी तरह की उम्दा फिल्म का निर्माण करना चाहिए।
             ****
शिवानी गुप्ता फिलहाल वाराणसी में रहती हैं। 
उनसे यहाँ संपर्क किया जा सकता है – 08932882061

 

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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अनहद कोलकाता में प्रकाशित रचनाओं में प्रस्तुत विचारों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है. किसी लेख या तस्वीर से आपत्ति हो तो कृपया सूचित करें। प्रूफ़ आदि में त्रुटियाँ संभव हैं। अगर आप मेल से सूचित करते हैं तो हम आपके आभारी रहेंगे।

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Comments 1

  1. Manjusha negi says:
    6 years ago

    हम स्वतंत्र तो बहुत पहले हो गए हैं अंग्रेजों की गुलामी से..मगर मानसिक रूप से आज भी गुलाम हैं अंग्रेजी के ..ये एक डर के जैसा है जब शर्म महसूस करते हैं और हम अपनी भाषा हिंदी को सर्वोच्च का दर्जा नहीं दे पाते

    Reply

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

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