अनुभूतियों के जनमूर्तिकार : भगवत रावत
भरत प्रसाद
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भगवत रावत |
कविवर ! जन समूह के साधुवाद से भ्रान्त न हो जाना
उनकी करतल ध्वनि की गूँजें शीघ्र विलीन हो जाएँगी
तब तुम बहुत से सिरफिरों की आलोचना सुनोगे
और जनता की चुभती मुस्कानें तुम्हारा रक्त जमा देंगी
अपनी उपलब्धियों की प्रशंसा के लिए किसी को मत पुकारो
प्रशंसा तो महसूस होती है स्वयं धमनियों में
स्वयं तुम ही निर्णायक हो
तुम्हारा अपना कठोर निर्णय ही सर्वोपरि होगा।
(पुश्किन: कवि के प्रति)
कविता का व्यक्तित्व और व्यक्तित्व की कविता:
ठीक भारतेन्दु बाबू की उम्र पाकर रूसी साहित्य की गहराई को अपने सृजन से भर देने वाले युवा महाकवि पुश्किन। वजह क्या रही होगी, यह कहने की- ‘अपनी उपलब्धियों की प्रशंसा के लिए……..।’ कितना खोजी मस्तिष्क का था ‘एमर्सन’ जिसने विकल्पहीन लकीर ही खींच दी – ‘केवल प्रतिभा ही लेखक नहीं बना सकती, कृति के पीछे एक व्यक्तित्व भी होना चाहिए।’
यह व्यक्तित्व सिर्फ किसी रचनाकार या कवि का ही नहीं, बल्कि कविता का भी होता है। यह अवश्य है कि कविता का व्यक्तित्व शत-प्रतिशत कवि के दृश्य-अदृश्य व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। किन्तु कवि का व्यक्तित्व सिर्फ कविता पर निर्भर नहीं रहता। कविता उसी कवि को मांजती, सुधारती, गढ़ती, संवारती और धारदार बनाती है, जो कविता को कला की जादूगरी और शब्दों का खेल मानकर नहीं चलते। कविता जिनकी शरीर में बहता हुआ दूसरा खून है, धड़कन के पीछे धड़कता हुआ एक और हृदय तथा आँखों को रोशनी देने वाली एक और आँख है। कविता जिसके लिए गाढ़ी कमाई है, जमीनी परिश्रम है, पसीना बहाऊ मजदूरी है, निश्चय ही ऐसे कवि के व्यक्तित्व का निर्माण करने में उसकी कविता की भूमिका केन्द्रीय होती है। अपने शब्द-दर-शब्द से नाभि-नाल बद्ध ऐसे कवि की पढ़ लीजिए कविताएँ, जान जाएंगे कविता में डूबी उसकी ऊँचाई को। कवि का असली पता, ठिकाना और पिन कोड उसकी श्रमिक त्वचा से फूटने, बहने, रिसने वाली कविताएँ ही होती हैं।
समकालीन हिन्दी कविता की वरिष्ठ पीढ़ी में कम से कम भगवत रावत एक ऐसे उदाहरण हैं, जिनके व्यक्तित्व का नवनिर्माण, पुनर्निर्माण उनकी कविता ने किया। उछलती, मचलती, मन्द्र रौ में बहती, कभी अतिशयता में एक ही जगह उमड़-घुमड़ कर बरस पड़ती उनकी प्रखर भावुकता कविताओं के व्यक्तित्व का रूपक रचती है। भगवत रावत मूलतः भाव के शिल्पी हैं, हृदय के संगीतकार हैं, अनुभूतियों के मूर्तिकार हैं । प्रगतिशील चेतना में रमा हुआ, जगा हुआ उनका स्वनिर्मित विवेक कविताओं में दृष्टि भरता है, विचार बुनता है, नया
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चिंतन रचता है और कविता को आँसू बहाने वाली कोरी भावुकता की विधा बनने से बचा लेता है, किन्तु कहना जरूरी है कि उनकी कविताओं में विचारमय अर्थ बाढ़ में डूबे पड़े वृक्ष की तरह हैं। टी. एस. इलियट ने कहा होगा तो कहा होगा कवि के लिए रचना से अनिवार्यतः दूरी बनाने को। भगवत रावत ठीक इसकी उलट के कवि बन गये। भगवत हिन्दी में ऐसे अकेले कवि नहीं हैं, जो अपनी कविता से बुने और बनाए गये हैं। घनानन्द जैसे विरह-पुजारी कवि लिखता है – ‘मोहि तो मेरे कविŸा बनावत।’ क्या कहेंगे ऐसे कवि के बारे में ? अपनी कविता से गढ़े, तराशे और शोधित किए गये कवि की सबसे दुर्लभ खासियत यह होती है कि वह दुहरे नहीं, एकहरे व्यक्तित्व का स्तम्भ होता है और कई बार ऐसा कवि अपने कविता से ज्यादा अपने सुदृढ़ व्यक्तित्व के कारण सृजन की ओर शेष समाज को आकर्षित करता है। भगवत रावत की श्रेष्ठ कवि के रूप में चतुर्दिक स्वीकार्यता बनी है, तो उसका एक जादुई रहस्य कविताओं के दमखम के साथ-साथ व्यक्तित्व का निखरा हुआ एकहरापन भी है। भगवत जिस जमीन से उठे, जिन धूप-छांही दिशाओं को निरख कर अपनी आँखें कृतार्थ की, जिस जनपदी आकाश की छाया तले अपने इंसान का मस्तक सीधा किया, उसके प्रति अथाह ऋण का कर्तव्य कभी नहीं भूले। गौर से देखें तो आपको क्या एक ही माँ नजर आएगी ? क्या इस प्रकृति में पिता के कद का और कोई नहीं मिलेगा ? नदियों, फसलों, छाया भरे जंगलों, दरख्तों और जीवन भर आशीर्वाद की तरह सिर पर झुके हुए क्षितिज से आपका कौन सा रिश्ता बनता है ? जाने-अनजाने, प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जो अथाह, अव्याख्येय, अपरिभाषेय रिश्ता इस ममतामयी जड़ प्रकृति से कायम होता है, वह मनुष्य की दुनिया से क्या कायम होगा। भगवत के व्यक्तित्व को संस्कार देने में सीधा-सरल व्यवहार रचने में और सबको अपनी नजदीकी से पानी के माफिक सुख देने में दूसरी बड़ी भूमिका इस रूप, रस, गंध, स्वाद और दर्शन से भरी प्रकृति की रही है। अपने समकालीन कवियों में भगवत रावत को लोकसत्ता का गायक कवि कहा गया। किन्तु वह लोकसत्ता क्या शहरों या महानगरों में बसती है ? यह लोक गाँवों की आत्मा है, बस्तियों-अंचलों की परिभाषा है, सीमांत पर बसे हुए पुरवा, टोला, पट्टी का धूसर-मटमैला किन्तु सच्चा यथार्थ है।
सर्जक के भीतर सृजन की प्रतिभा ही नैसर्गिक होती है, बाकी उसके विकास और विस्तार के सहयोगी तत्व शुद्ध रूप से बाहरी और परिस्थितिजन्य होते हैं। बचपन से लेकर चरम युवावस्था तक कवि जिस माहौल में पला-बढ़ा है, जिन संसकारों में रचा-बसा है, जिस हालात में दिन-प्रतिदिन साँस लिया है, अनिवार्यतः वही संस्कार और वही हालात उसकी सर्जक क्षमता के मौलिक रंग बनते हैं। क्षण-क्षण कवि या लेखक को अपने अदृश्य किन्तु लौह-साँचे में ढालते ये तत्व कवि को परिभाषित करने वाले मूल कारण बन जाते हैं। मुक्तिबोध, धूमिल, गोरखपाण्डे के विलक्षण सर्जक से साक्षात्कार करना हो, तो उनकी परिस्थितियों, आर्थिक-सामाजिक दशाओं और स्थानीय वातावरण का बारीकी से पता लगाइए। भगवत रावत की कविताओं में जीवन का साधारणपन, मनुष्य का बहुरंगी, बहुरूपिया चेहरा और गुमनाम चेहरों का पराजित संघर्ष बार-बार चमकता है। अपने साक्षात्कारों में भगवत रावत ने अनुराग से भरे कृतज्ञ हृदय के साथ बचपन के सामाजिक और पारिवारिक वातारण का अथाह ऋण स्वीकार किया है । लगभग उस भाव के साथ कि भगवत, भगवत हैं, क्योंकि आरंभिक
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जीवन के संस्कारों ने उन्हें इस स्तर तक उठने के लिए निर्मित किया।
यह दरसत्य है कि अपनी पीढ़ी में एक मात्र भगवत रावत ही हैं, जिन्हें समकालीन लोक का प्रतिनिधि कवि कहा जा सकता है। वजह सिर्फ यह नहीं कि उन्होंने लोक जीवन के विषम यथार्थ को अपनी कविताओं में व्यापक सम्मान दिया, बल्कि वजह यह है कि लोक जीवन का सत्य अपने वास्तविक स्वरूप में उद्भासित होता प्रतीत होता है। एक तो संकल्प और समर्पण के साथ उस लोक को आत्मसात करने की मानस-साधना और दूसरे जीवन के हर मोड़ पर लोक सत्ता की निकटतम मौजूदगी ने भगवत रावत के सर्जक व्यक्तित्व को अपने साँचे में ढाल डाला। अभिव्यक्ति के किसी विशेष साँचे में ढलना एक तरह से ‘कन्डीशनिंग’ है, जो युवावस्था से लेकर जीवन के सन्ध्याकाल तक कवि में लगातार सक्रिय रहती है। अभिव्यक्ति के इस विशेष साँचे में तब्दील हो उठना ही कवि के धारा-प्रवर्तक व्यक्तित्व का मूल कारण है। निराला, मुक्तिबोध और नागार्जुन का उदाहरण इस गूढ़ सत्य को समझने के लिए काफी है। भगवत रावत का कवि-मानस उस प्रगतिशील विचारधारा की भी निर्मिति है, जिसे उन्होंने जमीन प्रेमी हृदय के व्यापक अनुभवों से हासिल किया। भगवत रावत की प्रगतिशीलता माक्र्सवाद से कहीं ज्यादा फैले-बिखरे, मरते-हारते जीवन के हूबहू साक्षात्कार का परिणाम है। जिस सहज अभिव्यक्ति की शैली से कलावादी कवियों का छत्तीस का आंकड़ा रहा है, भगवत रावत ने उसे ही अपने सृजन की सबसे बड़ी ताकत बना लिया और उसी सहज अभिव्यक्ति के बूते समूची काव्य-यात्रा के दौरान एक ऐसा प्रति-संसार रच डाला, जो अपने समय के यथार्थ का प्रामाणिक चेहरा कहा जा सकता है।
भगवत कला की जमीन:
यह सहजता उतनी सहज नहीं है, जितना सामान्य तौर पर मान लिया जाता है। सहज तो कबीर और नागार्जुन भी हैं, मगर क्या इतने आसान नजर आते हैं ? सहजता वह प्रशस्त मार्ग है जो कविता को आमजन तक ले जाता है। ऐसी असाधारण कला जो अपनी साधारणता में अचूक होती है, जो पानी की तरह दिखती है सरल और तरल किन्तु जिसमें छिपी उर्जा का अंदाजा पीकर, प्यास बुझाकर ही लगाया जा सकता है। मार्मिक सहजता कठिन सिद्धि है, जो कवि के दुर्लभ सहज व्यक्तित्व से ही संभव होती है। नायाब सहजता में जीवन-दर्शन लहलहाता है, मौलिक सत्य आँखें खोलता है, नये विचारों का प्राण धड़कता है। यह सहजता अपने शिखरत्व पर कालजयी प्रकाश का रूपक रचती है। क्लासिक सहजता सधी हुई दृष्टि का प्राकृतिक मार्ग है। जिस कवि ने समर्पण भरे परिश्रम के साथ अपने समय को साधा है, अपनी अन्तश्चेतना को जमीन का स्वभाव दिया है, अपनी भावनाओं को पानी बनाया है और अपनी साँस-दर-साँस को आम जीवन के दुख-दर्द से एकाकार कर डाला है वही कवि वही लेखक सहज रचनात्मकता को प्रज्ज्वलित कर सकता है। सहज अभिव्यक्ति का मार्ग अपनाना सृजन में ‘रिस्क’ है। यह खतरा वही ले सकता है, जिसे अपनी दूरदर्शी अन्तर्दृष्टि पर अटूट भरोसा है, जिसे अपने शब्दों के अचूक असर पर अथाह आत्मविश्वास है, जो इसमें यकीन रखता है कि सीधा, प्रशस्त पथ ही आम जनता को सर्वाधिक हित पहुँचाने वाला मार्ग होता है। एक तो भगवत का मूल स्वभाव, दूसरे उनके व्यक्तित्व की जमीनी संरचना और तीसरे उनका
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खुद का निर्णय, ये तीनों कारण उन्हें सहज अभिव्यक्ति के संस्कार में ढाल देने वाले कारण सिद्ध हुए। फिर क्यों न घोषत कर दिया जाय- भगवत रावत को सीधी लकीर का साधक ? भगवत रावत अपने विषयों को दुलारते हैं, सहलाते हैं, मरहम-पट्टी करते हैं और व्यक्ति के गहरे जख्मों को दवा से नहीं, अपने आँसुओं से ठीक करते हैं। भेद, दूरी, फासला भगवत रावत पर रत्ती भर भी लागू नहीं होता। यहाँ तक कि अपने दुश्मनों, विरोधियों से भी सटकर, आँख से आँख मिलाकर संवाद करते हैं, बहस खड़ी करते हैं। इसकी तनिक परवाह किए बगैर कि इंच भर के फासले पर खड़ा विरोधी उनकी तरह सहृदय नहीं होता। कोई कलाकार अपने विषयों से अन्तरविहीन निकटता तभी बना सकता है, जब वह उसके मूल्य को रेशा-रेशा समझ जाय, जब उसने विषय की अर्थवत्ता का साक्षात्कार कर लिया हो, या फिर उसने विषय के भीतर छिपी हुई दार्शनिकता का अन्तज्र्ञान कर लिया हो। भगवत रावत अपने समय के उन विरत कवियों में हैं, जिन्होंने समय से सीखने के लिए नहीं, बल्कि समय को सिखाने के लिए सृजन का रास्ता चुना। वे समय के रंग और उसकी चाल-ढाल का ज्ञान नहीं देते, बल्कि उसके प्रति सचेत करते हैं, मोर्चाबद्ध करते हैं, खड़ा होने की शक्ति भरते हैं और दृष्टि सम्पन्न्ा बनाते हैं। महसूस कीजिए इन पंक्तियों में धड़कते हुए दर्द को –
अम्मा, वह था अपना दुख/कुँजड़े, दर्जी, नाई का दुख
धोबी का दुख/बेवा हस्सन की माँ का दुख
मिट्टी के बरतन वालों का/ खपरैलों की छत वालों का
गोबर लिए घरों का/ अपना दुख था
उस दुख की तस्वीर खींचने की/ हिम्मत किसमें थी ?
(हुआ कुछ इस तरह , पृ. सं. 46-47)
अलग-अलग साक्षात्कारों में भगवत रावत ने मुक्तिबोध को अपने काव्यगुरु का दर्जा दिया। किन्तु आश्चर्य यह कि उनकी कविताएँ मुक्तिबोधीय ढाँचे से शत-प्रतिशत मुक्त हैं, बल्कि अभिव्यक्ति की शैली में दोनों कवि नितान्त विपरीत रास्तों के फकीर नजर आते हैं। एक कवि आपस में गुत्थमगुत्था मानव चरित्र को फैंटेसी जैसे रहस्यमय शिल्प के बूते प्रकट करता है और दूसरा कवि मानव-चरित्र की रहस्यपूर्ण जटिलताओं को सरलतम जज्बात के अंदाज में। एक कवि की भाषा व्यवहार से परे बेलीक संस्कृतनिष्ठता की गूँज पैदा करती है और दूसरे कवि की भाषा जुबान के स्वाद से सराबोर अपनी जैसी बोली का सुकून देती हुई। एक कवि औघड़ साधक की तरह मनोजगत के जटिल अंधकार का पर्दाफाश करने पर जिदपूर्वक अड़ा हुआ, और दूसरा कवि कविता के चैराहे पर खड़ा चैकीदार की शैली में धोखेबाज और कातिल समय के प्रति सबको सावधान करता हुआ। एक कवि शिल्पकार है, तो दूसरा व्याख्याकार। एक कवि निर्माता है, तो दूसरा रखवाला। एक कवि युग का वैज्ञानिक है, तो दूसरा शोधकर्ता। मुक्तिबोध के कद के आगे नतमस्तक भगवत रावत की यह असाधारण सफलता कही जाएगी कि अपने समय के अग्रधावक के पीछे-पीछे दौड़ने के बजाय, अकेले धीरे-धीरे मंजिल तय करने का रास्ता चुना और मुक्तिबोध की तरह किसी सशक्त परम्परा का शिल्पी न होने के बावजूद अपनी सहजता की श्रेष्ठता को निर्विवाद रूप से स्थापित कर लिया।
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सिर्फ एक या दो नहीं, बल्कि दर्जनों लम्बी कविताएँ भगवत जी काव्य यात्रा में फैली-चमकती दिखती हैं। लम्बी कविता के मानक कवि के रूप में मुक्तिबोध से बड़ा भला कौन है ? मगर भगवत रावत भी लम्बी कविताओं के काबिल शिल्पकार के रूप में माने जा सकते हैं। लम्बी कविता को साधना एक मूल्यवान जोखिम है, उल्टा पड़ जाने वाला एक दाँव- अगर उसके तनाव को सह पाने का अकूत धैर्य कवि के भीतर नहीं है तो। लम्बी कविता अनिवार्यतः अथक कल्पनाप्रवणता की माँग करती है। उसके लिए चाहिए विषय के व्यक्तित्व का रेशा-रेशा उद्घाटित करने वाली उर्वर अन्तर्दृष्टि, मौलिक-दर-मौलिक अर्थों की आग पैदा करने वाली जज्बाती भावुकता। लम्बी कविता एक अभियान, यात्रा, युद्धाभ्यास, योग और साहसिक प्रयोग है, जिसका श्रेष्ठ निर्वाह वही कवि कर सकता है, जो विषयों के शेष-अशेष सत्य से बारीक शिल्पकार की तरह जूझना जानता हो। जो भाषा से बहुमूल्य खेल खेलने की कला में दक्ष हो और इससे भी जरूरी तथ्य यह कि वह कवि विषय से निकलकर बहती हुई अर्थों की धारा को पीने वाली प्रतिभा और आत्मविश्वास से लबरेज हो। चूँकि श्रेष्ठ लम्बी कविता के लिए शर्त की तरह अनिवार्य ये क्षमताएँ हर कवि में मोजूद नहीं होतीं, इसीलिए लम्बी कविताओं पर दाँव खेलने वाले अधिकांश कवि असफलता को गले लगा बैठते हैं। यह एक ऐसा लौह-धनुष है, जिसे उठाकर चढ़ा देना विरले लक्ष्य-साधकों के द्वारा ही सम्भव होता है। भगवत रावत के एक संग्रह का शीर्षक ही है- ‘अम्मा से बातें और अन्य लम्बी कविताएँ’ प्रकाशित हुआ – 2008 ई. में। अन्य लम्बी कविताओं में उल्लेखनीय हैं – ‘देश एक राग है’, ‘बम्बई नहीं मुम्बई-रेसकोर्स’, कहते हैं कि दिल्ली की है कुछ आबोहवा और, जे. अल्फ्रेड प्रूफ्राॅक से एक बातचीत, ‘सुनो हीरामन’, और ‘रूपकुमार कथा’। इनमें – ‘कहते हैं दिल्ली की है कुछ आबोहवा और’ कविता न सिर्फ भगवत रावत के सृजन में बल्कि समकालीन हिन्दी कविता की चन्द प्रतिनिधि कविताओं में ऊँचा स्थान पाने की हैसियत रखती है। गहरी नदी के मन्द्र आवेग की तरह बहती इस कविता की श्रेष्ठता का रहस्य क्या है ? चलिए देखते हंै। इस कविता के बहाने भगवत रावत दिल्ली के खुले और छिपे व्यक्तित्व में प्रखर खेाजकर्ता की भाँति धंसे हैं। दिल्ली के मौजूदा रूपाकार से सीधे-सीधे टकराए हैं भगवत रावत। यह कविता उस साधक मनोदशा का विस्फोट है, जब किसी परिपक्व दृष्टिसम्पन्न्ा कवि को अपने जटिल से जटिल विषय के एक एक सत्य के प्रति रŸाी भर भी संदेह नहीं रह जाता। और ऐसी आवेशित मनोदशा में कवि विषय के घातक-विषैले सत्य का उद्घाटन फक्कड़ाना आत्मविश्वास के साथ करता है। यह कविता दिल्ली की पारदर्शी आलोचना के साथ-साथ दिल्ली से सावधान रहने की भी कविता है। आज दिल्ली मात्र एक राजधानी नहीं, स्वार्थपरता, मौकापरस्ती, दंभ और आत्ममुग्धता की विकट संस्कृति है। एक ऐसा असहज चेहरा, जिसकी मुस्कान पर शत-प्रतिशत यकीन किया ही नहीं जा सकता। आत्मीयता का मायाजाल रचती है यह राजधानी। कविता पर्याप्त लम्बी है, किन्तु अर्थपूर्ण गद्य की लय कुछ इस कदर आकर्षक कि एक साँस में पढ़ लिए जाने की योग्यता हासिल करती हुई। ध्वनित मर्म, दूरगामी व्यंजना, बहुमुखी लक्ष्य और पैंतरा बदलते अर्थों की कसौटी पर यह कविता समकालीन कविता की उपलब्धि कही जा सकती है। खुद भगवत रावत की माने तो दिल्ली एक प्रकार की मानसिकता है। ‘जे. अल्फ्रेड प्रूफ्राक से एक बातचीत’ शीर्षक कविता का धुरी व्यक्तित्व प्रूफ्राक
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साम्राज्यवादी संस्कृति का समर्थक है । उसके रोम-रोम से तानाशाही आतंक की बू उड़ती है। जमीनी भारतीयता को हर कीमत पर बचाने की जिद इस कविता की मूल ताकत बनकर उभरी है। अपने ठेठ देसीपन से आत्मवत् अभिन्न्ा रहने का संकल्प इस कविता को असाधारण महत्व का सिद्ध करता है। इन दोनों लम्बी कविताओं के समानान्तर एक तीसरी प्रदीर्घ कविता है – ‘देश एक राग है।’ ‘देश’ बनाम ‘राष्ट्र’ की अनुभूतिपरक, मार्मिक व्याख्या करती यह कविता देश के प्रति आकंठ अनुराग का स्वर बुलंद करती है। ‘देश’ और ‘राष्ट्र’ दो मानसिकता के प्रतीक हैं। ‘देश’ स्वाभाविक शब्द है। नयानाभिराम आकाश, ताल-तलैया, पोखर, नदियाँ और धरती की दीवानगी में उछलते हुए समुद्र और इंच-दर-इंच दीवार बनकर खड़ा क्षितिज देश है। गेहूँ भी देश है, दूध भी देश है और माटी की ममता पाकर उगा हुआ एक-एक अन्न्ा भारत देश है। देश तो वह अथाह एहसास है कल्पना पर राज करने वाली वह असीम मनोभूिम है, जिसको वाणी से, शब्दों से व्यक्त नहीं किया जा सकता। सŸाा ने हमारे ऊपर ‘राष्ट्र’ शब्द थोप दिया है, वरना कौन पसन्द करता है देश की जगह ‘राष्ट्र’ कहना। देश कहते ही गहराईयों से भावनाओं की तरंगें बेलगाम उठने लगती हैं, जबकि ‘राष्ट्र’ अंग-अंग में सख्त चेतावनी भर देता है। भगवत रावत ने सच्चे देश अनुरागी की तरह दोनों शब्दों के गूढ़ भावों को परत-दर-परत खोलकर फैला दिया है। क्यों न कुछ पंक्तियाँ में डुबकी लगा दी जाय –
आज भी बड़े-बड़े शहरों से मेहनत-मजदूरी करके जब
अपने-अपने घर-गाँव लौटते हैं लोग तो एक दूसरे से
यही कहते हैं कि वे अपने देस जा रहे हैं
वे अपने पशुओं-पक्षियों, खेतों-खलिहानों
नदियों-तालाबों, कुओं-बावड़ियों, पहाड़ों-जंगलों
मैदानों-रेगिस्तानों,
बोली-बानियों, पहनावों-पोशाकों, खान-पान
रीति-रिवाज और नाच-गानों से इतना प्यार करते हैं।
(देश एक राग है ; पृ. सं. 11)
समकालीन कविता के भगवत रावत:
समकालीन हिन्दी कविता चालीस की उम्र पार कर चुकी है। आधुनिक हिन्दी कविता में सबसे लम्बी उम्र जीने वाली। सैकड़ों कवि उभरे हैं इस धारा में। धूमिल, कुमार विकल, विजेन्द्र, नरेश सक्सेना, विष्णु खरे, ऋतुराज, अरुण कमल, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, कात्यायनी, आलोकधन्वा, उदय प्रकाश, ज्ञानेन्द्रपति, अष्टभुजा शुक्ल जैसे अनेक स्वर, अनेक रंग, अनेक मोड़, अनेक क्षितिज, अनेक अध्याय चमकते दिखते हैं। भगवत रावत भी इन्हीं में से एक स्तम्भ, एक वृक्ष, एक राह, एक अध्याय। सवाल है कि इस भावमूर्ति को कहाँ प्रतिष्ठित किया जाय ? किसके साथ स्थापित कर दिया जाय ? चालीस पार की उम्र वाली इस धारा के यदि एक शिखर धूमिल हंै तो दूसरे शिखर भगवत रावत। धूमिल ने अपने अल्प जीवन काल में आगधर्मी कविताओं से माहौल में चेतना की चिंगारियाँ भर दीं। व्यक्ति से, चरित्र से, व्यवस्था से, सŸाा से बगावत और विद्रोह की भाषा में टकरा जाने वाली धूमिल की कविताएँ समकालीन कविता का साँचा गढ़ती हैं । भगवत रावत ने ऐसे किसी नये साँचे में समकालीन कविता को
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नहीं ढाला, मगर…………….., उन्होंने आज के और आने वाले कल के शिक्षित, प्रबुद्ध, प्रतिबद्ध और साहित्यप्रेमी पाठकों के लिए कविता का विस्तृत मैदान जरूर सौंपा। जहाँ आम पाठक दौड़ सकता है, घण्टों विचरण कर सकता है, अपने स्वास्थ्य के लिए मन लगाकर व्यायाम कर सकता है। भगवत की कविताएॅं फेफड़ों की साँसें हैं जो आती हैं तो पता नहीं चलता, किन्तु निकलती हैं तो तकलीफ होती है। लगभग पचास वर्षों की उनकी काव्य यात्रा समकालीन कविता की उम्र का रूपक रचती है। ‘समुद्र के बारे में’, ‘दी हुई दुनिया’, हुआ कुछ इस तरह, सुनो हिरामन, अथ रूपकुमार कथा, सच पूछो तो, ऐसी कैसी नींद, ‘देश एक राग है’ इनमें से कोई संग्रह उठा लीजिए, कोई कविता छू दीजिए। लगभग सबमें एक राग, एक मर्म, एक मौलिक तथ्य और अर्थ की ताजगी दिखेगी। और इन सबमें जो सबसे खास है वह उद्दाम भावुकता की अटूट अन्तर्धारा। भगवत रावत शब्द के नहीं, शिल्प के नहीं, कला के नहीं, चमत्कार के नहीं, बल्कि अर्थ के, दृष्टि के, भाव के, रस के, अनुभूति और चिŸा के कवि हैं। सहजता के दुर्लभ शिल्पकार हैं। हृदयस्पर्शी सहजता और अपना बना लेने वाली भावप्रवणता लबालब भरी हुई है भगवत रावत की कविताओं में। उनकी कविताएँ आलोचकों के लिए नहीं हैं, खेमेबाज कवियों के लिए नहीं हैं, न ही सिर्फ हिन्दी साहित्य के लिए हैं, बल्कि उनकी कविताओं का पहला और अन्तिम लक्ष्य पाठक है, जीता-जागता, रोता-हँसता, जी-जीकर मरता, लड़ता, हारता, संघर्ष करता हुआ पाठक। वह पाठक जो साहित्य के गौरव की रक्षा करता है, जो कविता को अपने संस्कार के विस्तार का मूलभूत तत्व मानता है। ऐसे देशज पाठकों के शिल्पी हैं भगवत रावत। युगान्तकारी मोड़ लाने की शर्त पर ही जिन्हें किसी कवि को श्रेष्ठ सिद्ध करने की आदत पड़ चुकी हो, उन्हें भगवत रावत निराश ही करेंगे। किन्तु जो भगवत रावत में, आलोचकों से चार कदम आगे आम पाठकों तक पहुँचने की कूबत का असाधारण मूल्य समझना चाहेगा, उसे निश्चय ही भगवत रावत समकालीन कविता के प्रतिमान नजर आएंगे। पुनः कहना जरूरी है कि आलोचकों के प्रतिमान कवि नहीं आम पाठकों के प्रतिमान कवि हैं भगवत रावत। सुनिए इन पंक्तियों की ध्वनियाँ और निकालिए निष्कर्ष भगवत रावत के बारे में –
मैं तो सारी की सारी माँओं का बेटा होना चाहता था
सारी की सारी बेटियों का पिता होना चाहता था
सारी की सारी भाषाओं में
बोलना-बतियाना चाहता था
ताल और लय के सारे के सारे वाद्यों की धुन पर
थिरकना-नाचना चाहता था।
(‘हलफनामा’: देश एक राग है)
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भरत प्रसाद युवा कवि, कथाकार और आलोचक हैं। |
भरत प्रसाद,
एसोसिएट प्रोफेसर
हिंदी विभाग , पूर्वोत्तर पर्वतीय वि.वि.
शिलांग-७९३०२२, मेघालय
मोब. ०९८६३०७६१३८
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad