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Home कविता

राकेश रोहित की पाँच प्रेम कविताएँ

by Anhadkolkata
June 20, 2022
in कविता, साहित्य
A A
15
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राकेश रोहित
राकेश रोहित युवा कविता के क्षेत्र में एक जाना-पहचाना नाम है। अपनी कविताओं से लागातार हस्तक्षेप कर रहे इस कवि में एक नई ऊर्जा है। राकेश के यहाँ एक सधी हुई भाषा के साथ गहन संवेदना है। भाषा और संवेदना का यह जुड़ाव उन्हें महत्वपूर्ण कवि बनाता है। इधर राकेश ने बहुत अच्छी प्रेम कविताएँ लिखी हैं और उनको पाठकों ने पसंद भी किया है। यहाँ प्रस्तुत है उनकी पाँच प्रेम कविताएँ।

प्रेम के बारे में नितांत व्यक्तिगत इच्छाओं की एक कविता

                                      
मैं नहीं करूंगा प्रेम वैसे
जैसे कोई बच्चा जाता है स्कूल पहली बार
किताब और पाटी लेकर
और इंतजार करता है
कि उसका नाम पुकारा जायेगा
और नया सबक सीखने को उत्सुक
वह दुहरायेगा पुरानी बारहखड़ियां!
मैं
जैसे गर्भ से बाहर आते ही हवा की तलाश में
रोता है बच्चा और चलने लगती हैं सांसें
वैसे ही सूखती हुई अपने अंतर की नदी को
भरने तुम्हारी आँखों में अटके जल से
तुम्हारे नेत्रों के विस्तार में
खड़ा रहूंगा एक अनिवार्य दृश्य की तरह
सुनने तुम्हारी इच्छा का वह अस्फुट स्वर
और ठिठकी हुई धरती के गालों को चुंबनों से भर दूँगा
तुम्हारी हाँ पर!
मैं पूछने नहीं जाऊंगा
प्रेम का रहस्य उनसे
जिन्होंने सुनते हैं
जान लिया है प्रेम को
अपनी तलहथी की तरह
पर अनिद्रा में करते हैं विलाप
कि कठिन है इस जीवन में प्रेम
और जिनके सपनों में रोज आती हैं
संशय में भटकती मछलियां
और नदी में छीजता हुआ जल!
अध्याय ऐसे लिखा जाएगा हमारे प्रेम का
जैसे सद्यस्नात तुम्हारी देह
दमकती है ऊषा सी लाल
और इस सृष्टि में पहली बार
देखता हूँ हरी चूनर पर चमकते सोने को
जैसे सूरज की ऊष्मा से भरी इस धरती को
किसी नवोढ़ा की तरह
पहली बार देखता हूँ
गाते हुए कोई मंगल-गीत!
जब सहेज रहे होंगे हम प्रेम में
सांस- सांस जीवन को
हमारे पास बचाने को नहीं होगा
कोई पत्र या अपने अनुभव की कोई गाथा
बस एक दिन हम
नई दुनिया के स्वप्न देखती आँखों में
थोड़ा सा प्रेम रख जायेंगे
उन नींद- निमग्न आँखों को
हौले से थपकी देकर
उस हाथ से
जिसमें तुम्हारे चुंबन का स्पर्श अब भी ताजा है।
एक दिन तुमको मिलूं मैं जैसे मुझको मिली तुम
मैं तुमको प्यार कहना चाहता था
पर मैंने कहा फूलों को खिलते देखो
वह प्यार ही होता है न
जब रंगों में भर जाती है हँसी
और झलकता है तुम्हारे चेहरे पर रंग लाल!
मैं तुमसे प्यार करना चाहता था
पर मैंने छू दिया बादलों को
वे बेचारे अकचका के बरस गए
और भीगती रही तुम
जैसे प्यार में भीगता है कोई!
मैं तुम्हारे प्यार में होना चाहता था
जैसे नदी में होती है स्मृति
और आकाश में होता है उजास
मैंने रोशनी के एक कतरे को छुआ
और मैंने धरती पर खिलता उजाला देखा।
हजार जतन करता हूँ
बस कह नहीं पाता हूँ तुमको
कि तुम्हें छुपा कर अपने अंदर
इस तरह भटकता हूँ सहरा में
कि एक दिन तुमको मिलूं मैं
जैसे मुझको मिली तुम!
ऐसे ही एक दिन
हवा बस एक बार छूती है नदी को
और थिरकने लगती है नदी
सीटियां बजाती हुई हवा
गुजरती है बेखबर
कभी हथेली पर कान लगाकर सुनना
हवा पुकारती है नदी का नाम
और अल्हड़ ऐसे बहती है जैसे
कंधे पर उठाये हो नदी,
जैसे नदी चल रही हो
हवा के पैरों पर!
एक बार फूलों को छुआ तितली ने
और खिल गया तितली के मन का बसंत
कि रंगों को हँसना आ गया
मधुमक्खियों के फूटने लगे बोल
और शर्म से दोहरी हो गयीं
फूलों भरी डालियां
देखा इसे पेड़ पर बैठी चिड़िया ने
और शरारत से कहा
कल मिलती हूँ तुमसे
जब फलों से भरे होंगे यह पेड़
और बच्चे खेल रहे होंगे इस छांव तले!
ऐसे ही एक दिन
जब बहुत उदास होगी धरती
और कम होंगे दुनिया में गीत
बस एक शब्द तुम्हारे नाम का
टिका कर अपने कलम की नोक पर
देखूंगा एक नजर तुमको
और लिखता रहूंगा हजार जन्म
मुहब्बतों की कहानियां!
एक फेसबुक प्रेम कविता (फेप्रेक)
अर्थात फेसबुक समय में प्रेम
फेसबुक पर अचानक एक तस्वीर देखकर
मैंने सोचा यह शायद तुम ही हो!
नाम तो तब भी नहीं जानता था
जब तुम्हें हँसते देख मैंने सोचा था
कि इस चेहरे को कभी उदास नहीं होना चाहिए।
फिर कई दिन खुद से ही शर्माता रहा
खुद के इस ख्याल पर!
फिर एक दिन तुम उदास नजर आयी
नम थी तुम्हारी आँखें
मैंने सोचा तुमसे पूछ ही लूं तुम्हारा नाम
पर मैंने पूछा जो मेरा दिल जानना चाहता था,
इतनी उदास क्यों हो तुम?
वह एक आवाज
जो जंगल से बाहर चल कर आती है
जैसे रास्ता भूल गयी हो
मुझ तक तुम पहुंचा रही थी-
नहीं सब ठीक है!
यह आखिरी वाक्य था
जो तुमने पहली बार कहा
और तुम्हारी अनुपस्थिति में
मैंने हजार बार सुना।
तुम्हारा नाम क्या है, नहीं जानता
पर तस्वीर देखकर लगता रहा
शायद इन्हीं आँखों में तुमने कहीं छुपा रखा हो दुख!
मैं देखता रहा हर दिन तुम्हारा नया स्टेटस
हँसता रहा तुम्हारे खिलंदड़ेपन पर
तलाशता रहा पुरानी स्मृतियों के चिन्ह
याद करता हुआ कि कैसे कभी
पूछ नहीं पाया तुम्हारा नाम!
और एक दिन तुम मुझे अनफ्रेंड कर देती हो मुझे
अचानक बिलावजह
शायद तुम मुझे नहीं जानती
शायद मैं तुम्हें नहीं जानता
नहीं दिखती कोई पोस्ट तुम्हारी
कोई नहीं कहता- नहीं सब ठीक है।
सोचता हूँ
शायद फिर किसी नई आई डी से तलाशना होगा तुम्हें!
खुद से ही जानना होगा
कि क्या मैं तुमको जानता हूँ?
एक कविता जिंदगी के लिए
वह चाह किसमें थी
कि तुम्हें प्यार करता
तो हहरा के बहती नदी
और आ के चूम लेती
बंजर घाटियों के पांव!
किलकता रहा भर कर बाहों में तुमको
और पिघलता रहा सोना
हमारी पसलियों में
हमने प्यार से छुआ
अपने अंदर बसे नश्वर को
और अमर कर दिया।
हँसता रहा एक विस्मय
तुम्हारे होठों में छुपा
हमने नमक को स्पर्श से जाना
हजार समंदरों के विस्तार पर
एक मीठी बारिश हुई
तो साफ नजर आई
खोई हुई दिशाएं
और लौटने लगे मुसाफिर
जिधर जिंदगी बुलाती थी।
ऐसे चाहा मैंने तुम्हें जिंदगी
कि एक दिन पाकर लगा तुमको
कि पा लिया हो जिंदगी को
वरना वह चाह किसमें थी
कि तुमको प्यार करता
ऐसे कि जैसे
तुम्हारी ही खातिर जन्म लिया था मैंने!
ooo
राकेश रोहित
जन्म : 19 जून 1971 (जमालपुर).
संपूर्ण शिक्षा कटिहार (बिहार) में. शिक्षा : स्नातकोत्तर (भौतिकी).
कहानी, कविता एवं आलोचना में रूचि.
पहली कहानी “शहर में कैबरे” ‘हंस‘ पत्रिका में प्रकाशित.
“हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं” आलोचनात्मक लेख शिनाख्त पुस्तिका एक के रूप में प्रकाशित और चर्चित. राष्ट्रीय स्तर की महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉग में विभिन्न रचनाओं का प्रकाशन.
सक्रियता : हंस, कथादेश, समावर्तन, समकालीन भारतीय साहित्य, आजकल, नवनीत, गूँज, जतन, समकालीन परिभाषा, दिनमान टाइम्स, संडे आब्जर्वर, सारिका, संदर्श, संवदिया, मुहिम, कला, सेतु आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, लघुकथा, आलोचनात्मक आलेख, पुस्तक समीक्षा, साहित्यिक/सांस्कृतिक रपट आदि का प्रकाशन. अनुनाद, समालोचन, पहली बार,  असुविधा, स्पर्श, कविता – समय, उदाहरण आदि ब्लॉग पर कविताएँ प्रकाशित.
संप्रति :         सरकारी सेवा.
ईमेल –          rkshrohit@gmail.com

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Comments 15

  1. अनुपमा पाठक says:
    6 years ago

    "मैंने रोशनी के एक कतरे को छुआ
    और मैंने धरती पर खिलता उजाला देखा।"

    सुन्दर सृजन!
    प्रस्तुति के लिए आभार!

    Reply
  2. sanjivmehta says:
    6 years ago

    जब जब प्रेम में दुनिया होगी राकेश रोहित जी की कविता दुनिया को रौशनी देगी । जिस यथार्थ के साथ कवि प्रेम की कल्पना करता है कि प्रेम भौतिक से पारलौकिक बन जाता है। और तब भी एक महीन सा संघर्ष नजर आ ही जाता है कि प्रेम में होना भी उतना आसान नहीं जितना प्रेम का हो जाना।
    अद्भुत कविता ।

    Reply
  3. राकेश रोहित says:
    6 years ago

    बहुत शुक्रिया आपका संजीव जी! हार्दिक धन्यवाद

    Reply
  4. राकेश रोहित says:
    6 years ago

    This comment has been removed by the author.

    Reply
  5. राकेश रोहित says:
    6 years ago

    बहुत शुक्रिया आपका! हार्दिक धन्यवाद!

    Reply
  6. अरुण अवध says:
    6 years ago

    भौतिकता का अतिक्रमण करती पराभौतिक में अपनी जड़ें खोजतीं सुंदर प्रेम कविताएँ। रोहितजी को बधाई।

    Reply
  7. Manjusha negi says:
    6 years ago

    अच्छी कवितायेँ

    Reply
  8. राकेश रोहित says:
    6 years ago

    बहुत शुक्रिया आपका! हार्दिक आभार!

    Reply
  9. राकेश रोहित says:
    6 years ago

    बहुत शुक्रिया आपका! हार्दिक धन्यवाद!

    Reply
  10. bodhi says:
    6 years ago

    प्रेम को संशय से मुक्‍त करने की चाह में नए मुहावरे तलाशती कविताएं। शुभकामनाएं

    Reply
  11. asmurari says:
    6 years ago

    कविता के परिचय में जो भाषा और संवेदना से जुड़ाव की बात की गयी है, वह बिलकुल सही है। राकेश जी की कविताओं में इसकी सघनता मिलती है। राकेश जी को पहले भी पढ़ता रहा हूँ और इससे बेहतर पढ़ चुका हूँ । कभी-कभी तो लगता है, जैसे उन्होंने अपनी एक भाषा बना ली है, जो आकर्षक है, लेकिन अंततः एक सीमा बनती जा रही है। उसे तोड़ने की भी आवश्यकता है। जिसने एकबारगी राकेश जी को यहाँ पढ़ा वे बहुत प्रभावित होंगे, लेकिन जो पहले से पढ़ते रहे हैं, उनकी तुलना उन से ही करने लगेंगे।

    Reply
  12. राकेश रोहित says:
    5 years ago

    जी बहुत शुक्रिया आपका! आभारी हूँ।

    Reply
  13. राकेश रोहित says:
    5 years ago

    आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। आपकी कही बातों पर निरंतर विचार कर रहा हूँ। निश्चय ही मेरी कोशिश रहेगी कि एक नया शिल्प रच सकूँ। आपकी टिप्पणी इसमें हमेशा मदद करती है। हार्दिक धन्यवाद!

    Reply
  14. राकेश रोहित says:
    5 years ago

    This comment has been removed by the author.

    Reply
  15. राकेश रोहित says:
    5 years ago

    आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। आपकी कही बातों पर निरंतर विचार कर रहा हूँ। निश्चय ही मेरी कोशिश रहेगी कि एक नया शिल्प रच सकूँ। आपकी टिप्पणी इसमें हमेशा मदद करती है। हार्दिक धन्यवाद!

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

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