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Home आलोचना

देशप्रेम किसे कहते हैंः शंभुनाथ

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in आलोचना, साहित्य
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देशप्रेम किसे कहते हैं
शंभुनाथ
शंभुनाथ
अतीत से आलोचनात्मक संबंध तोड़ना और उससे संकीर्ण राजनैतिक संबंध स्थापित करना अंध-राष्ट्रवाद का लक्ष्य होता है। संस्कृति के सुवासित धार्मिक वस्त्रों के भीतर बर्बरता छिपी होती है। दरअसल, बहिष्कारपरक देशप्रेम ही अंध-राष्ट्रवाद है, जो अहंकार और संकीर्णता से पैदा होता है। समावेशी देशप्रेम ‘दूसरों‘ के प्रति उदार रुख, मानवता के मूल्यों में विश्वास और विवेक-आधारित वैश्विक खुलेपन को लेकर चलता है।
देशप्रेम और राष्ट्रवाद एक हैं या ये दो राजनैतिक घपले के कारण कई बार स्पष्ट नहीं होता। आमतौर पर धर्मनिरपेक्ष सोच के बुद्धिजीवियों ने देशप्रेम को राष्ट्रवाद के खाते में डाल दिया। नतीजा यह हुआ कि धर्म के आधार पर समाज को विभाजित करने वाले हिंदुत्ववादी बड़े कौशल से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर सामने आए विद्रोही कथनों, जेएनयू आंदोलन, गोमांस भक्षण आदि को बड़े मजे से देशद्रोह की श्रेणी में डालते गए। आम लोगों में धारणा बनी कि देशप्रेमी सिर्फ वे हैं, जो राष्ट्रवादी हैं।
राष्ट्रवाद एक संकीर्ण अर्थ रखता है, देशप्रेम अच्छा होता है। अठारहवीं सदी में यूरोप में देशप्रेम चर्च के प्रति वफादारी की जगह अपने राज्य के प्रति वफादारी की शक्ल में पैदा हुआ था। इस तरह एक अवधारणा के रूप में देशप्रेम पश्चिम की देन है। पश्चिम में जो देशप्रेम धार्मिक कट्टरता से विद्रोह के रूप में जन्मा और भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासन की आलोचना के रूप में विकसित हुआ, वह इक्कीसवीं सदी के भारत में धार्मिक कट्टरता का पर्याय बनता गया। यह मामूली विडंबना नहीं है कि धर्मनिरपेक्षता के सेनापतियों ने भी देशप्रेम को हिंदुत्ववादियों के चश्मे से देखा, जबकि स्वाधीनता संग्राम के दौर में धर्मनिरपेक्षता और देशप्रेम सहोदर थे। पहले जो देशप्रेमी होता था, वह धर्मनिरपेक्ष भी होता था। थोड़े समय देशप्रेम और औपनिवेशिक आधुनिकता के बीच सामंजस्य था, लेकिन अंग्रेजी राज की प्रशंसा करते हुए भी उस जमाने के दादाभाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले, भारतेंदु हरिश्चंद्र जैसे शिक्षित लोगों में धर्मनिरपेक्ष देशप्रेम की कमी नहीं थी। उनका देशप्रेम सांप्रदायिकता का ग्रास नहीं बना था। उसमें औपनिवेशिक आधुनिकता को हटा कर राष्ट्रीय और मानवतावादी भावनाएँ उत्तरोत्तर मजबूत हो रही थीं।
भारत जैसे बहुधार्मिक-बहुजातीय देश में देशप्रेम के बिना राष्ट्र या रिपब्लिक बनना मुश्किल था। इस रास्ते में धर्म, जाति, जातीयता और भाषायी आधार पर अंध-राष्ट्रवाद एक रोड़ा था। यही वजह है कि राष्ट्रवाद बनाम देशप्रेम का मुद्दा उठा। राष्ट्रवाद एक बिंदु के बाद हिंसक हो जाता है, पर देशप्रेम कभी देश के भीतर प्रकृति-प्रेम होता है (रामचंद्र शुक्ल) तो कभी किसी बिंदु पर संपूर्ण मानवजाति से एकात्मता में विकसित हो जाता है। बीसवीं सदी के तीसरे दशक में देशप्रेम का अर्थ क्या था, यह रामनरेश त्रिपाठी की इस कविता से समझा जा सकता है, ‘देशप्रेम वह पुण्य-क्षेत्र है अमल असीम त्याग से विलसित/ आत्मा के विकास से जिसमें मनुष्यता होती है विकसित।‘ (स्वप्न, 1929)। देशप्रेम का उस जमाने में अर्थ था, ‘दूसरे‘ के दुखों का अनुभव करो, दुनिया की जातियों के बीच अपनी भारतीय महाजातीयता की स्वतंत्र सत्ता को पहचानो और समावेशी-सहिष्णु बनो। देशप्रेम का अर्थ बीते गौरव की डींगें हाँकना न था और सांप्रदायिक विद्वेष फैलाना बिल्कुल नहीं था। यह अपनी स्थानीय जातीय पहचान, मानवीय गरिमा और अभिव्यक्ति की स्वाधीनता की बलि चढ़ाना भी न था। उस समय भारतीय राष्ट्र को उसका लंबा विविधतापूर्ण इतिहास और लोगों का साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष एक सही आकार दे रहा था।
गांधी कहते थे, ‘मेरे देशप्रेम में कोई वर्जनशील वस्तु नहीं है। वह सर्वग्रहणशील है।‘ वे देशभक्ति और मानवता को दो चीजें नहीं मानते थे। इसलिए उन्होंने कहा, ‘जिस राष्ट्रभक्त में मानवतावाद के प्रति उत्साह जितना कम है, वह उतना ही कम राष्ट्रभक्त माना जाएगा। राष्ट्रीयता बुरी चीज नहीं है। बुरी होती है संकुचित वृत्ति, स्वार्थपरता और एकांतिकता जो आधुनिक राष्ट्रों के विनाश के लिए उत्तरदायी है।‘ देशप्रेम धर्म के रंग में डूब कर और राष्ट्रवाद में सीमित होकर राक्षस हो जाता है। एक समय पश्चिम में देशप्रेम का स्वरूप इतना विकृत हो गया कि इसे बदमाशों का आखिरी शरणस्थल कहा जाने लगा।
देश ऊपर है या लोकतंत्र? देश को छोड़ कर लोकतंत्र का भविष्य नहीं हो सकता। लोकतंत्र को छोड़कर देश का अस्तित्व नहीं होगा। लोकतांत्रिक होना देशभक्त होने से कम महत्वपूर्ण नहीं है। देशप्रेमी होना सेक्युलर होने से कम महत्वपूर्ण नहीं है। इससे भिन्न मार्क्सीय धारणा रही है, ‘श्रमजीवी का कोई अपना देश नहीं होता।‘ इस विचारधारा में एक समय देशप्रेम और राष्ट्रीय भावना के समानांतर सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयतावाद इस तरह आया कि उसमें देशप्रेम के लिए कोई जगह नहीं थी। कवि नागार्जुन को किसी ने नहीं सुना और राष्ट्रीय भावना से वैर का फल भारत में पूरे कम्युनिस्ट आंदोलन को भोगना पड़ा।

मार्क्सवाद, गांधीवाद और अमेरिकी स्वातंत्र्यवाद की अंतत: जो दशा हुई, देशप्रेम या राष्ट्रभक्ति की भी हुई। भारत में हिंदुत्ववादियों द्वारा देशप्रेम का एक छद्म और संकीर्ण रूप विकसित किया जाने लगा। उनका राष्ट्रवाद देशप्रेम से एक भिन्न चीज है। राष्ट्रीय भावना जब अपने से बाहर किसी सच्चाई को नहीं मानती, विविधता को स्वीकार न करके सांस्कृतिक एकरूपता स्थापित करने लगती है और अहसमति का दमन करती है, तब वह राष्ट्रवाद में बदल जाती है। 1980 के आसपास अवसरों और सुविधाओं की मध्यवर्गीय आकांक्षाओं के विस्फोट के ही नतीजे हैं जातिवाद, प्रांतीयता और संकीर्ण राष्ट्रवाद। इन रास्तों के अलावा सत्ता तक पहुँचना लगातार असंभव होता गया। उदारवाद और बुद्धिवाद सिकुड़ता गया, हिंसात्मक संकीर्णतावाद बढ़ता गया। बड़ी संकीर्णता छोटी संकीर्णता को निगल जाती है। हिंदुत्ववादी राष्ट्रभक्ति जातिवाद और वंशवाद दोनों को निगल गई। राष्ट्रवाद जीत गया,देशप्रेम हार गया।
भारत में अंध-राष्ट्रवाद को सफलता केवल तब मिली, जब धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करने वाले बहुत अधिक एलीट, अंतरराष्ट्रीयतावादी और कई जगहों पर भ्रष्ट हो चुके थे। धर्मनिरपेक्षता में छिपे चेहरों और हिंदुत्ववाद के नंगे चेहरों में बुनियादी फर्क नहीं रह गया था। कोई पूछ ही सकता है, एक फटी ढोल से इतना शोर कैसे पैदा हुआ?
देश से सच्चा प्रेम तब पनपेगा, जब देश एक सुंदर जगह बनेगा और विचारों की स्वतंत्रता होगी। इसकी जगह भारत वंशवाद, हाशिये के लोगों के उत्पीड़न और भ्रष्टाचार के लिए अभयारण्य बनता गया। विपर्यय की स्थिति में राष्ट्रभक्ति का अर्थ क्रिकेट राष्ट्रवाद, त्रिशूल राष्ट्रवाद, ‘भारतमाता की जय‘ बोलने, राष्ट्रगान के समय सावधान मुद्रा में खड़े होने और सोशल साइट पर कृत्रिम संदेशों द्वारा हिंदुत्ववादी समतलीकरण में सीमित होता गया। धार्मिक तामझाम और तीर्थों में जगमगाहट लाने को देशप्रेम समझा जाने लगा। हिंदू धर्म और राजनीतिक हिंदुत्व का फर्क धूमिल कर दिया गया। विद्वेष का प्रचार ही धार्मिक पुनरुत्थान लगने लगा। तिल को ताड़ और ताड़ को तिल बनाया जाने लगा। पीतल सोना बनाया जाने लगा, सोना पीतल। इस तरह अतीत के प्रेतों का धार्मिक श्रृंगार हुआ।
वैचारिक दिवालियेपन के जमाने में देशप्रेम गोमांस भक्षण रोकने का पर्याय बन गया। मांस की दुकानें बंद कराई जाने लगीं, आदमी के खून की प्यास बढ़ती गई। आम लोगों को निर्माण उद्योगों में विनिवेश वृद्धि के घट जाने और रोजगार वृद्धि दर 0.5% (अप्रैल-अक्टूबर2016) रह जाने से चिंता नहीं होती। काफी हिंदुओं को लगा कि गोमांस पर प्रतिबंध से जैसे सैकड़ों साल का उनका स्वप्न पूरा हो गया। आदमी का स्वप्न इतना संकुचित सिर्फ तब होता है जब समाज महज धार्मिक झुंडों में रूपांतरित कर दिया जाता है और सत्ता की राजनीति हाथ धोकर इतिहास की हर श्रेष्ठता के पीछे पड़ जाती है।
देशप्रेम का आर्थिक रूप नोटबंदी में नजर आया। यह जन-धन खाते, स्वच्छता अभियान और रसोई गैस की व्यापक पहुँच में नजर आया। ये अच्छी चीजें हैं, पर देशप्रेम का इतना संकुचित अर्थ किसी जमाने में नहीं था। हालाँकि यह वैश्वीकरण द्वारा उत्पन्न संकट से चुनावी त्राण देने वाला था। यह भी वास्तविकता है कि हिंदुत्ववादियों द्वारा विचार की हत्या से पहले गांधीवादी, समाजवादी और वामपंथी उसे दफना चुके थे और हर विचार अब प्रतीक प्रदर्शन भर रह गया था।
देशप्रेम और देशप्रेम का नशा दो भिन्न चीजें हैं, जिस तरह राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रवाद दो अलग चीजें हैं। गजानन माधव मुक्तिबोध ने लिखा है, ‘देशप्रेम के नशे में हम अपनी कमजोरियाँ बहुत जल्दी भूल जाया करते हैं। भारत से प्रेम करने का मतलब उसके गुण गाना नहीं है। भारतीय संस्कृति के उपासक उसके दोष देखना भूल जाया करते हैं।‘ सच्चे देशप्रेमी वे हैं, जो देश की महान विरासत से शक्ति अर्जित करते हुए अपने देश की कुचालों, पाखंडों और दोषों की खुल कर आलोचना करते हैं। देशप्रेम सतत राष्ट्रीय आत्मपरीक्षण के बिना अधूरा है। जिस देशप्रेम का अर्थ दूसरों से घृणा करना और इतिहास के एक बड़े हिस्से को काले से सफेद करना हो जाता है, उसे गुब्बारे की तरह फूटने में ज्यादा वक्त नहीं लगता।
अतीत से आलोचनात्मक संबंध तोड़ना और उससे संकीर्ण राजनैतिक संबंध स्थापित करना अंध-राष्ट्रवाद का लक्ष्य होता है। संस्कृति के सुवासित धार्मिक वस्त्रों के भीतर बर्बरता छिपी होती है। दरअसल, बहिष्कारपरक देशप्रेम ही अंध-राष्ट्रवाद है, जो अहंकार और संकीर्णता से पैदा होता है। समावेशी देशप्रेम ‘दूसरों‘ के प्रति उदार रुख, मानवता के मूल्यों में विश्वास और विवेक-आधारित वैश्विक खुलेपन को लेकर चलता है। हिंदू भारत की धारणा का पोषण देशद्रोह है।
दुनिया के देशों में वैश्वीकरण के बावजूद राष्ट्रीयता का आकर्षण अभी भी बचा हुआ है। अमेरिका, ब्रिटेन जैसे पश्चिमी देशों में उसे बुरा आकार मिल रहा है, जैसे इन देशों में अपने ही इतिहास से युद्ध छिड़ा हुआ हो। यह चिंताजनक है कि भारत उनकी कड़ी बन रहा है। संकीर्ण राष्ट्रवाद नए सिरे से उभर रहा है। फलस्वरूप आधुनिकता के इकहरे वैश्विक मॉडल की तरह अतीत का इकहरा राष्ट्रीय मॉडल प्रचारित किया जा रहा है, जिसमें मीडिया की एक बड़ी भूमिका है।
वैश्वीकरण का अंत न हुआ हो, पर इधर दुनिया के हर देश में राष्ट्रीयता पुनर्परिभाषित की जा रही है। इन स्थितियों में द्विधा में रहना-ग्लोबल बहिर्मुखता और लोकल अंतर्मुखता में द्विविभाजन – इस देश की आत्मा को बीमार बना सकता है। अत: सवाल खड़ा हुआ है कि जब अंध-राष्ट्रवादी लोग ऊपर से राष्ट्रीयता को संकीर्ण आकार दे रहे हैं, क्या जमीन से जुड़े हाशिये के लोग अपना बिखराव दूर कर नीचे से उसे एक भिन्न आकार देने के लिए संकल्पबद्ध होंगे?
भारतीय संविधान का निर्माण भारतीय गणराज्य की एक ऐसी संकल्पना को लेकर हुआ है, जो न सिर्फ राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के व्यापक अनुभवों पर आधारित है, बल्कि उसमें वैयक्तिकता, राष्ट्रीयता, मानवता और विश्वबोध के बीच एक बुद्धिपरक सामंजस्य है। फिलहाल हिंदुत्ववादियों के सामने सबसे बड़ी मुश्किल यह संविधान ही है। वे इस संविधान की शपथ लिए बिना सरकार में जा नहीं सकते, भले इससे खिन्न होते हों। उनका लक्ष्य है, वे हिंदू भारत का संविधान निर्माता बनें, किंतु वे जानते हैं कि वे सत्ता सुख पा लेंगे और देश को थोड़ा और तबाह कर लेंगे, पर भारतीय गणराज्य की मजबूत नींवों को हिला नहीं सकते। उन्हें अंतत: न धार्मिक होना है और न लोकतांत्रिक – न घर का होना है और न घाट का!
भारत में फिलहाल ‘अपनी डफली-अपना राग‘ ज्यादा है। धर्म ही राष्ट्र है, जाति-बिरादरी ही राष्ट्र है, नस्ल ही राष्ट्र है, प्रांतीयता ही राष्ट्र है, पुराजातीयता ही राष्ट्र है, मेरी पार्टी ही राष्ट्र है, ये धारणाएँ बढ़ी हैं। नतीजतन हर तरफ संदेह, घृणा और आतंक का कटु माहौल है। दूसरी तरफ, मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था ने अपनी तरफ से ‘संप्रभुतासंपन्न, लोकतांत्रिक, समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष गणराज्य‘ का अहसास मिटाने के लिए कुछ भी बाकी नहीं छोड़ा है। संविधान की उपर्युक्त मूल प्रस्तावना अब महज शब्दोच्चारण है। हालाँकि इसी संविधान में जनता की असीम ताकत छिपी है, जिसकी रक्षा के लिए अब लोगों को जागना होगा। राजनीति और संविधान में कौन ऊपर है?
भारत कन्याकुमारी से हिमालय तक अतीत की विभिन्न राज्य व्यवस्थाओं, आपस के शत्रुतापूर्ण संघर्षों और हार्दिक अंतर्मिश्रणों के बीच एक उदात्त सांस्कृतिक आत्मबोध से गुजरते हुए, बहुत कुछ खोते हुए और बहुत कुछ पाते हुए पिछली दो सदियों में राष्ट्र के अपने आधुनिक राजनैतिक अहसास तक पहुँचा है। यह देश भारत के लोगों को उधार में नहीं मिला है और न मार-काट से। यह एक अर्जित अहसास है। भारत बीहड़ों से निकल कर आया है। उसकी यात्रा उलझी हुई है। फिर भी वह इतनी अस्पष्ट नहीं है कि यह देश एक उदात्त सांस्कृतिक आकांक्षा से एक यथार्थ में कभी रूपांतरित नहीं हो सकता। निश्चय ही उसके राजनैतिक गंतव्य की खोज अभी शेष है, खासकर जब वह बाजार अर्थव्यवस्था और कट्टरतावाद दोनों के बीच एक नए माहौल से गुजर रहा है।
रवींद्रनाथ ने अपनी एक कविता में बताया है, ‘जहाँ हृदय भयशून्य हो, जहाँ सिर ऊँचा उठा रहता है, जहाँ ज्ञान सदा मुक्त है, जहाँ पृथ्वी के छोटे-छोटे टुकड़े नहीं किए जाते, जहाँ बातें हृदय से निकलती हैं, जहाँ विचारों की जलधाराओं को कोई मरुस्थल सोख नहीं पाता, हे ईश्वर! तुम अपने निर्मम आघात से भारत के इसी स्वर्ग को जगाओ।‘ (गीतांजलि)। विस्मयजनक नहीं है कि हिंदुत्ववादी कभी भी रवींद्रनाथ, गांधी, प्रेमचंद, प्रसाद, निराला या भगत सिंह के विचारों को उद्धृत नहीं करते।
भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, जिसमें स्वतंत्रता और समानता के अलावा तीसरा मुख्य तत्व राष्ट्रीय बंधुत्व है, जो इस विविधतापूर्ण गणराज्य की एक बड़ी उपलब्धि है। उपर्युक्त तीनों के बिना देशप्रेम या राष्ट्रीयता की कल्पना नहीं की जा सकती। उपर्युक्त तीनों के बिना न्याय की भी आशा नहीं की जा सकती। अब कम स्पष्ट नहीं है कि न्याय के बिना आर्थिक विकास का कोई मतलब नहीं है, चाहे लाखों करोड़ डालर का विदेशी पूँजी निवेश हो और ‘सबके साथ-सबका विकास‘ को भीतरी खोखलेपन का एक सुनहरा दरवाजा बना कर रख दिया गया हो। इधर अस्पताल, शिक्षण संस्थान, सड़कों, तीर्थस्थलों के नए बने दरवाजे बड़े सुंदर और वेशकीमती हैं, भीतर भले पोच हों!
***
रविवार डाइजेस्ट से साभार

                                                                     डॉ. शंभुनाथ वरिष्ठ आलोचक, संपादक और 
                                     भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता के निदेशक हैं।
संपर्कः 09007757887

हस्ताक्षर: Vimlesh/Anhad

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Comments 4

  1. Pooja Singh says:
    6 years ago

    निसंदेह एक तटस्थ और धर्म निरपेक्ष भारत की परिकल्पना को पुनः स्मृति मे लाने वाला लेख है जिसे सब लोगो को पढ़ने की जरूरत है… राह भटके लोग लक्ष्य से भी भटक गए है…. I

    Reply
  2. urmila says:
    6 years ago

    अच्छा आलेख

    Reply
  3. गीता दूबे, कोलकाता says:
    6 years ago

    महत्वपूर्ण आलेख..

    Reply
  4. गीता दूबे, कोलकाता says:
    6 years ago

    महत्वपूर्ण आलेख..

    Reply

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

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