कविता का जनपद
डॉ.ऋषिकेश राय
1. संग्रह की कविताएं विषयों के अनुसार उपशीर्षकों में विभाजित हैं। आत्माभिव्यक्ति की कविताएं ‘इस तरह मैं’, स्त्री जीवन की कविताएं ‘बिना नाम की नदियां’ शीर्षक के तहत संकलित हैं। समकालीन कविता दो पाटों के बीच बहने वाली कविता है। एक निजता और उत्सवधर्मिता तथा दूसरी संघर्ष और प्रतिवाद की कविता। यह आश्वस्तिजनक है कि विमलेश का कवि इन दोनों छोरों का स्पर्श नैसर्गिक संवेदनात्मकता के साथ करता है।
2. आज के इस आक्रांत और संकुल समय में शब्द की ताकत पर भी पहरा बिठा दिया गया है। अभिव्यक्ति का खतरा मुक्तिबोध के समय से भी अधिक भयावह हुआ है। इस पर भी विमलेश बोलने, बतियाने और संवाद की ताकत पर भरोसा रखते हैं, भले ही उसके लिए सदियों की यात्रा ही क्यों न करनी पड़े। शब्दों में अटूट आस्था विमलेश की काव्यचिंता के मूल में है। वे केदार जी के शब्दों में कहें तो शब्दों से मनुष्य की टकराहट के धमाके को सुनने वाले कवि हैं। वे अपनी प्रतिबद्धता की घोषणा खुले तौर पर करते हैं। नगरीय जीवन में रचने-बसने वाले इस कवि के अंदर हांफता हुआ गांव है, जिसमें हंकासल-पियासल लोग हैं, कुंआ पाठशाला और पेड़ हैं, जिनपर उजड़ने और बिला जाने का खतरा है। कवि अपने गांव की स्मृतियों को सपने में सहेज रहा है। वह इन्हें विस्थापित नहीं होने देना चाहता। उसे विश्वास है कि दुनिया के रहने लायक न होने पर भी वह हरी और डापुट दूब की शक्ल में नया रूपाकार ग्रहण करेगा। विनाश और विलोप के बीच उसकी उत्तरजीविता सृजन और निर्माण की संभावनाओं के द्वार पर दस्तक देती है। कवि की संवेदना की असली जमीन गांव की देशज जमीन है, जो मूर्ख कहलाकर भी कलाओं का संरक्षण करती है। आधुनिकता प्रेरित नागर बोध ने हमें बेईमान और निर्लज्ज बना दिया है। कवि खीझकर और सायास बुद्धि के इस तमगे को अस्वीकृत कर देता है –
इसलिए हे भंते मैं पूरे होशो-हवास में
और खुशी-खुशी
मूर्खता का वरण कर रहा हूं।
यह मूर्खता ऐसी शक्ति है जो कवि से कहलवाती है –
बहुत हो गया
यह रही कलम और ये छंद
मैं जा रहा हूं
सदियों से राह तकते
पथरायी आंखों वाले
उस आदमी के पास ।
बौद्धिकता और उसके नाम पर तमाम प्रवंचनाओं में डूबे आत्मकेन्द्रित वर्ग के छद्म के तिलस्म को तोड़ती ये पंक्तियां समकालीन कविता के सरोकार का पता देती हैं। आज सच को भी झूठ की तरह लिया जाने लगा है, बावजूद इसके कवि सच कहने और सहने की शक्ति की आकांक्षा करता है। इस आशा में कि एक दिन उसे सच समझा जाएगा। सच के प्रति इस अदम्य आकर्षण से भरकर कवि धरती को बचाने के लिए एक राग रचना चाहता है। यह राग, जीवन राग है, जिससे भरकर विमलेश का कवि दूब के साथ उगना और मछलियों के साथ अतल गहराइयों में तैरना चाहता है।
संग्रह में संकलित स्त्री जीवन की कविताओं में ‘बहनें’ एक मार्मिक कविता है जो अत्यन्त सहानुभूति से मानवीय संबंधों की उष्मा को मध्यवर्गीय परिवेश में उकेरती है। स्त्री जीवन की निस्संगता की ओर भी कवि का ध्यान बखूबी गया है।
इस तरह किसी दूसरे से नहीं जुड़ा था उनका भाग्य
सबका होकर भी रहना था पूरी उम्र अकेले ही
उन्हे अपने हिस्से के भाग्य के साथ।
आधुनिक जीवन के दबावों ने संबंधों को भी प्रभावित किया है। संबंधों में उपभोक्तावाद इसका सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण है। अकारण नहीं कि विमलेश इन संबंधों में बची उष्णता को सहेज लेना चाहते हैं। ‘मां के लिए’ और ‘आजी की खोई हुई तस्वीर मिलने पर’ ऐसी ही कविताएं हैं। परंतु ये कविताएं समकालीन कविता में लिखी जाने वाली रोमानी कविताओं से अलग हैं, जहां संबंधों को एक बंधी और घिरी हुई दृष्टि से देखने की प्रवृति है।
संग्रह में ‘एक पागल आदमी की चिट्ठी’ और ‘आम आदमी की कविता’ जैसी लंबी कविताएं भी शामिल हैं, जो विमलेश की काव्य-यात्रा की भावी दिशा की ओर संकेत करती हैं। लंबी कविताओं में प्रायः तनाव को बरकरार रख पाना कठिन होता है। विमलेश ने इस कार्य को बखूबी किया है।
प्रस्तुत संग्रह में स्मृतियों का दबाव साफ झलकता है। कहीं-कहीं कवि की काव्यात्मकता समकालीन आलोचना के जार्गन्स के अनुसार ढलती चली जाती है। जमपदीय चेतना से प्रभावित कवि की भाषा में नोहपालिश, सरेह, सोझबक जैसे भोजपूरी शब्द उसकी जातीय पृष्ठभूमि की ओर संकेत करते हैं। मिछिल जैसे बांग्ला शब्दों का प्रयोग भी यथास्थान किया गया है।
विमलेश की कविता में बिम्बात्मकता है और लोकजीवन से जुड़े कुछ टटके बिम्ब भी हैं। पर कहीं-कहीं अतिरिक्त बिम्बात्मकता के आग्रह के कारण इसका स्वाभाविक प्रवाह और संप्रेषणीयता बाधित भी हुई है। ऐसी समस्या उन सभी कवियों के साथ कमोबेश है जिनका काव्य संस्कार नब्बे के दशक में आशोक वाजपेयी, विनोद कुमार शुक्ल और केदारनाथ सिंह की कविताओं को पढ़कर परवान चढ़ा है। अमूर्तन और अबूझ बिम्बों ने कविता के समक्ष पठनीयता का संकट उत्पन्न किया है। अभिधात्मक काव्य का भी एक सौन्दर्य होता है, जो जनसंघर्षों और सरोकारों से धार पाता है। प्रस्तुत संग्रह में इसके कई नमूने मौजूद हैं। कुल मिलाकार “हम बचे रहेंगे” में विमलेश ने जिस बीज को रोपा था उसे हम पनपते और जड़ पकड़ते देख रहे हैं।
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एक देश और मरे हुए लोग, /कविता संग्रह/विमलेश त्रिपाठी/प्रथम संस्करण सितंबर 2013/पेपरबैक, /पृष्ठ 144/मूल्य : 99.00 रुपये मात्र, / आवरण चित्र : कुंअर रवीन्द्र/बोधि प्रकाशन, जयपुर, /, संपर्क : 077928 47473
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डॉ. ऋषिकेश राय |
डॉ.ऋषिकेश राय
उप निदेशक ( रा.भा.)
डी बोर्ड, इंडिया, 14, बी.टी.एम., सरणी
( ब्रेबोर्न रोड), कोलकाता – 700001
मो. – 09903700542
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
Bahut sunder aalochna – vivechna hai sir, pad kar mann mugdh ho gaya hai . Vimlesh Bhaiya maine bhi aapki puri sangrah pad li hai, aur apni pratikriya bhi likkhna chahta tha…….par itana achha to mai likh hi nahi sakta..ha itana kahna hai ki aapki kavitaen pad kar ek nai dunia me gum ho gaya hu..shubhkamna!
अच्छी समीक्षा।