• मुखपृष्ठ
  • अनहद के बारे में
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक नियम
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
अनहद
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • समीक्षा
    • संस्मरण
    • विविध
  • कला
    • सिनेमा
    • पेंटिंग
    • नाटक
    • नृत्य और संगीत
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विविध
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • समीक्षा
    • संस्मरण
    • विविध
  • कला
    • सिनेमा
    • पेंटिंग
    • नाटक
    • नृत्य और संगीत
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विविध
No Result
View All Result
अनहद
No Result
View All Result
Home आलोचना

एक बड़े कवि की बड़ी कविताः नीम के फूल

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in आलोचना, साहित्य
A A
2
Share on FacebookShare on TwitterShare on Telegram

Related articles

रूपम मिश्र की कविताओं पर मृत्युंजय पाण्डेय का आलेख

अर्चना लार्क की सात कविताएँ


एक बड़े कवि की बड़ी कविताः नीम के फूल
विमलेश त्रिपाठी
­­­­­­­­­­­­­
एक कवि के बड़े होने की कसौटी क्या हो सकती है यह सवाल कविता पर कुछ भी लिखने–कहने से पहले मेरे जेहन में बारहा उभरता है।
साथ ही यह सवाल भी कि एक बड़ी कविता की पहचान क्या है? यही कि वह कितने गझिन विचारों से लबरेज है कि वह पाठक को अपने कहन और शैली से अपने आगोश में ले लेती है कि वह हमें एक क्षण के लिए निःशब्द और मौन कर देती है कि उसमें आई भाषा और शब्द जादू की तरह लगते और असर करते हैं याकि वह हमारे अंदर छुपी-दबी  सदियों पुरानी कविता की एक देह में संजीवनी की तरह प्रवेश कर उसे जिंदा कर देती है?
क्या इनमें से एक भी लक्षण होने पर कोई कविता बड़ी हो सकती है, याकि इनमें से कई-कई लक्षण एक साथ होने पर!!

एक आलोचक की आंख जाहिर है कि उपरोक्त बातों से होते हुए कई अन्य छोरों की भी तलाश कर सकती है – लेकिन मेरे जैसे नए कवि की आँख कहां ठहरेंगी ?
मेरे लिए बड़ा कवि वह है जो हवा में कविता नहीं लिखता। मतलब उसकी एक ठोस जमीन होनी चाहिए। वह जमीन चाहे गांव में हो, शहर में हो, या कहीं और लेकिन उसकी संपूर्ण कविता कर्म की जड़ वहीं कही छुपी हो – या कम-अज-कम होने की अपेक्षा मुझे है। वह जमीन – चाहे वह जहां हो – वही कवि का लोक है – वह लोक जिसकी परिधि में बैठकर वह रचना-कर्म करता है। इस कसौटी पर जब हम कुँवर नारायण की कविताओं को परखते हैं तो वे एक बड़े कवि साबित होते हैं और उनकी कविता सच्चे अर्थों में कालजयी। यहां उनकी कई एक कविताओं पर दृष्टि रखने का समय भी नहीं है और अवकाश नहीं अतएव उनकी एक कविता की मार्फत उनकी कविता कर्म और साथ ही उसके मर्म को समझने प्रयास हम करना चाहते हैं।
कुँवर नारायण की एक कविता है- नीम के फूल। यह कविता राजकमल से प्रकाशित उनकी प्रतिनिधि कविताओं में संकलित है। जाहिर है कि उनकी बहुत सारी अच्छी कविताओं की भीड़ में इस कविता पर बहुत लोगों का ध्यान नहीं जाता – यह कोई अनहोनी या गुनाह नहीं है लेकिन पता नहीं क्यों जब भी यह पुस्तक मेरे सामने आती है मेरी आँख बार-बार उसी एक कविता पर ठहर जाती है। मेरे सामने शीर्षक की मार्फत एक बिंब उभरता है जो मेरे बचपन का है – नीम के फूल पेड़ पर लगे हुए, जमीन पर झरे हुए- हमारे खेल में चुपचाप शामिल। इतने चुप कि हमारे कुछ भी करने में किसी तरह का अवरोध या खलल न डालते हुए।

बार-बार यह प्रश्न भी कौंधता है कि कवि की आँख नीम के फूल पर क्यों गई – फल पर क्यों गई? जाहिर है कि नीम के फल ज्यादा उपयोगी हैं – उनकी निबौरियां कई औषधिय गुणों से भरपूर है – कवि की आंख नीम के पेड़ पर भी जाती है, पत्ते पर, फल पर – लेकिन वह ठहरती है उसके फूल पर। नीम के फूल के बारे में बहुत कम लोग ही सोचते होंगे या बहुत कम लोगों का ही ध्यान जाता होगा। लेकिन कवि की आंख सबसे ज्यादा उसके फूल पर ही है।  नीम के फूल पर कवि की दृष्टि का यह टिकना महत्वपूर्ण है – यह कवि के अलीक पर चलने की ओर सिर्फ इशारा ही नहीं – एक संजीदा कवि और संजीदा कविता का दृष्टांत भी है।

यह कविता न केवल कवि की अपनी जमीन की ओर इशारा करती है, वरन् उन स्मृतियों की ओर भी संकेत करती है जो कवि के कविता कर्म का मूल है। साथ ही यह कविता कवि के समुदायबोध की ओर भी एक गहन संकेत करती है। नीम का पेड़ एक गांव के एक आंगन में है। वह गांव कवि का ही गांव नहीं है सिरफ।  वह एक ऐसा गांव है जिसके आंगनों में नीम के पेड़ होते हैं, जिनमें नीम के फूल लगते हैं और पूरा घर (गांव भी) औषधीय गंध से भर उठता है। कवि का यहां घर के संदर्भ  में ‘कड़वी’ और ‘मीठी’ शब्द का एक ही साथ प्रयोग बहुत कुछ कह देता है।

एक बड़ी कविता या बड़े कवि की यह विशेषता होती है कि वह साधारण शब्दों की मार्फत असाधारण बात कहता है – सीधे और सरल शब्दों में विशाल अर्थ-छवियां भरता है। घर के साथ कड़वी और मीठी शब्द का प्रयोग उन अर्थछवियों की ओर संकेत है जो कविता में बहुत बाद में खुलते हैं जब पिता का पार्थिव शरीर उस नीम के पेड़ के नीचे रखा जाता है और मां के बालों में फंसे नीम के फूल सांत्वना की तरह उस मृत देह पर झरते हैं। यह वही घर है जिसमें मां जब तुलसी पर जल चढ़ाकार लौटती थीं तो साबुन के बुलबुले की तरह हवा में उड़ते छोटे-छोटे फूल उनके बालों में फंसे रह जाते थे। लेकिन वही फूल अंत में मां के बालों से पिता के पार्थिव शरीर पर सांत्वना की तरह झर रहे हैं।



जाहिर है कि जिस घर में नीम का पेड़ है कि कविता में जिसका जिक्र है उस घर में हंसी और दुख, अभाव और संपन्नता दोनों ही साथ-साथ हैं। नीम के फूल के साथ कड़वी और मीठी गंध है और वह सिरफ गंध नहीं है। जब कविता में इसका प्रयोग कुंवर नारायण करते हैं तो वह एक घर के इतिहास की पूरी छवि प्रस्तुत करने में सक्षम दिखने लगती है। यह कविता का वह कैनवास है जो जमीन पर रहकर भी आसमान को संबोधित करता है। अगर पेड़ कवि की अपनी जमीन है तो उसके फूल आसमान हैं जो कुंवर की पूरी कविता में झीम-झीम जलते हुए महसूस किए जा सरकते हैं। और इस जमीन और आसमान के बीच एक पूरी भारतीय परंपरा है जो इस कविता को एक दीर्घ विस्तार देती है। नीम कविता में नीम होते हुए भी नीम नहीं है और न नीम के फूल कविता में महज नीम के फूल हैं। कविता में मां है और वह तुलसी के पौधे पर जल चढ़ाकर आंगन से लौटती हैं। कविता में मां का तुलसी के पौधे को जल चढ़ाकर आंगन से लौटना परंपरा से कवि के गहरे सरोकार के साथ उसकी लोक संपृक्ति को भी साफ-साफ उजागर करता है।

कुंवर नारायण के ही शब्दों में – “रचना जीवन मूल्यों से जुड़कर अभिव्यक्ति पाती है। लेखक का हदय बड़ा होना चाहिए, अन्यथा आपका लेखन बनावटी-सा लगता है। जिस दौर में मैंने पढऩा-लिखना शुरू किया, हमारे बीच ऐसे कई लेखक थे, जिनकी रचनाओं में और उनके व्यक्तित्व में सामाजिक सरोकार और जीवन-दृष्टि स्पष्ट रूप से दिखाई देती थी। उस समय भी और आज भी जब-जब मैं लिखने बैठता हूं तो मुझे उन लेखकों की याद आती है।“  उनके इस कथन से दो बातें स्पष्ट होती हैं – पहली यह कि रचना के लिए जीवन मूल्य का होना बेहद जरूरी है और दूसरे रचना और व्यक्तित्व में सामाजिक सरोकर संश्लिष्ट होने चाहिए। कुंवर भले कवियों के बीच छोटे-बड़े का भेद न मानते हों, लेकिन उनका स्पष्ट मत है कि आपका लेखन बनावटी न लगे इसके लिए जरूरी है कि आपका हृदय विशाल हो। जाहिर है अपने संपूर्ण लेखन में यह कवि उपरोक्त बातों का अक्षरसः पालन करता हुआ दिखायी पड़ता है। रचनाकर्म उसके लिए एक साधना की तरह है इसलिए वह रोटी के लिए एक अलग व्यवसाय इख्तियार करता है ताकि रचना सिर्फ और सिर्फ रचना रह सके।

कवि नीम के फूल को देखकर अतीत-वर्तमान और भविष्य के कई छोरों को स्पर्श करता दिखता है – उसकी यह कविता इस बात का दृष्टांत है कि वह किस तरह एक मामूली लगने वाली चीज का सिरा पकड़कर कितनी आकाश गंगाओं की शैर कर सकता है – शब्दों की मार्फत इतिहास और भविष्य के बीच वह एक लंबा वितान रच सकता है।

कवि उस फूल को हमेशा बहुवचन में ही देखता है – एक कवि कभी भी किसी चीज को एक वचन में नहीं देखता या उसे नहीं देखना चाहिए। इसलिए उपर कहा गया है कि इस कविता में कवि का समुदायबोध भी अभिव्यक्त हुआ है। यह बहुवचन कभी कुम्हलाया नहीं, हां यह जरूर है कि उसमें वह चमक नहीं आ सकी जिसकी अपेक्षा और वादा आजादी के पहले थी। लेकिन कवि को बहुवचन में फूलों का झरना उनके खिलने से भी अधिक शालीन और गरिमामय लगता है। उनके झरने में निबौरियों के जन्म की कथा छुपी हुई है- उनके झरने में असंख्य चिडियां की चहचहाहट शामिल है और है उसके झरने के बीच धीरे-धीरे उम्र का झरना जो शाश्वत है जिसके उपर किसी का वश नहीं है।

कवि ने इस छोटी सी कविता में स्मृति को दर्शन में तब्दील किया है। स्मृति अनुभव में और आगे चलकर दर्शन में तब बदलती हुई दिखायी पड़ती है जब उसे नीम का विशाल और दिर्घायु वृक्ष याद आता है। यहां सिर्फ उपनिषद की ही स्मृति नहीं आती उसके साथ वह सुदीर्घ भारतीय परंपरा भी याद आती है जहां एक ‘स्वच्छ सरल जीवन-शैली है। भारतीय परंपरा का एक दुर्लभ गुण उदारता की भी याद आती है। यहां नीम का पेड़ भारतीय परंपरा का वाहक होने के साथ ही एक अनुभवी अभिभावक के रूप में भी सामने आता है जो हमारे कठिन समय में एक शीतल छाया की तरह उपस्थित रहता है जैसे कि नीम के पेड़ की उदार गुणवत्ता – गर्मी में शीतलता देती और जाड़े में गर्माहट। जाहिरा तौर पर यहां कवि को एक तीखी पर मित्र-सी सोंधी खुशबू याद आती है। मित्र की यह दुर्लभ परिभाषा है जिसे कुंवर नारायण इस कविता में प्रस्तुत करते हैं। एक और बात उनके बाबा का स्वभाव भी मित्रों जैसा ही रहा है। कवि के लिए उनके बाबा हमेशा मित्र ही रहे- कविता इस बात का संकेत करती है।

एक बड़ी कविता के लिए यह जरूरी होता है कि उसके सरोकार का रेंज कितना बड़ा है – अपने कहन की ताकत और शब्दों की उड़ान से वह कहां पहुंचती या अपने पाठक को भी पहुंचाती है। बाबा के स्वभाव के ठीक बाद कुंवर जी को नीम के पेड़ के नीचे सबके लिए पड़े रहने वाले बाध के दो चार खाट याद आते हैं। ये खाट किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं, एक परिवार के लिए भी नहीं वरन् सबके लिए बिछे हुए हैं जिसके साथ ही निबोलियों से खेलता एक बचपन है। यह कवि की स्मृति है जिनमें यह सबकुछ संभव था। यह स्मृति इस बात की ओर संकेत भी करती है कि आज हम कितने अकेले होते जा रहे हैं। अधुनिकीकरण और शहरीकरण ने भले ही हमें बहुत सारी सुविधाएं मुहैया करवाई हैं लेकिन सबके लिए बिछा रहने वाले बाध के खाट कहीं गुम गए हैं – उसके पास निबौरियों से खेलते बचपन के हाथ में बंदूक, पिस्तौल और विडियो गेम आ गए हैं।

हर बड़ी कविता की तरह इस कविता में भी कवि का मौन बोलता है। पंक्तियों के बीच की खाली जगह भी मुखर है और कवि जहां बोलता नहीं वहां सबसे अधिक मुखर है यह कविता। कविता में परंपरा और आधुनिकता का एक द्वन्द्व भी है और वह द्वन्द्व अनभिव्यक्त होकर भी कहीं अधिक मुखर है।

कविता में अंतिम स्मृति पिता के पार्थिव शरीर की है जिसे नीम के पेड़ के नीचे रखा गया है। बचपन की स्मृति के बाद पिता के पार्थिव शरीर की स्मृति का आना उन करोणों बच्चों की पीड़ा का प्रतीक बन जाता है जो असमय ही अपने पिता को खो देते हैं। इन पंक्तियों को एक अलग कोंण से भी देखा जा सकता है – कवि की स्मृति में पिता का पार्थिव शरीर उसी आंगन में उसी पेड़ के नीचे रखा हुआ कौंधता है जहां उसका अपना बचपन बीता है। लेकिन यह गहन दुख का क्षण भी मोहक लगने लगता है जब नीम के फूल उनके पार्थिव शरीर पर वितराग-से झरते हैं – और उनका झरना ऐसा है कि वे मां के बालों से झर रहे हों। और वे नन्हें फूल आंसू की तरह नहीं सांत्वना की तरह झरते हुए दिखते हैं।

इस कविता में शुरू से लेकर अंत तक एक कथा-सूत्र की भी तलाश की जा सकती है। इस कविता में बहुत धीमी और शांत एक कथा चलती रहती है। कथा की शुरूआत नीम के झरने और मां से होती है और अंत पिता के पार्थिव शरीर पर मां के बालों से झरते हुए नीम के फूल से होती है। एक बड़ी कविता अपने अंदर इतिहास, परंपरा, वर्तमान के प्रश्न के साथ एक तरह का अद्भुद कवित्व और रोचक कथा सूत्र को भी साथ लिए चलती है। कुंवर नारायण की यह कविता इसका उदाहरण है।     
*****

 

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

ShareTweetShare
Anhadkolkata

Anhadkolkata

अनहद कोलकाता में प्रकाशित रचनाओं में प्रस्तुत विचारों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है. किसी लेख या तस्वीर से आपत्ति हो तो कृपया सूचित करें। प्रूफ़ आदि में त्रुटियाँ संभव हैं। अगर आप मेल से सूचित करते हैं तो हम आपके आभारी रहेंगे।

Related Posts

रूपम मिश्र की कविताओं पर मृत्युंजय पाण्डेय का आलेख

रूपम मिश्र की कविताओं पर मृत्युंजय पाण्डेय का आलेख

by Anhadkolkata
January 27, 2023
0

युवा कवि रूपम मिश्र को 7 जनवरी 2023 को  द्वितीय मनीषा त्रिपाठी स्मृति अनहद कोलकाता सम्मान प्रदान किया गया है। कवि को बहुत बधाई। ध्यातव्य कि...

अर्चना लार्क की सात कविताएँ

अर्चना लार्क की सात कविताएँ

by Anhadkolkata
June 24, 2022
4

अर्चना लार्क की कविताएँ यत्र-तत्र देखता आया हूँ और उनके अंदर कवित्व की संभावनाओं को भी महसूस किया है लेकिन इधर की उनकी कुछ कविताओं को पढ़कर लगा...

नेहा नरूका की पाँच कविताएँ

नेहा नरूका की पाँच कविताएँ

by Anhadkolkata
June 24, 2022
4

नेहा नरूका समकालीन हिन्दी कविता को लेकर मेरे मन में कभी निराशा का भाव नहीं आय़ा। यह इसलिए है कि तमाम जुमलेबाज और पहेलीबाज कविताओं के...

चर्चित कवि, आलोचक और कथाकार भरत प्रसाद का एक रोचक और महत्त संस्मरण

चर्चित कवि, आलोचक और कथाकार भरत प्रसाद का एक रोचक और महत्त संस्मरण

by Anhadkolkata
July 9, 2022
32

                           आधा डूबा आधा उठा हुआ विश्वविद्यालय भरत प्रसाद ‘चुनाव’ शब्द तानाशाही और अन्याय की दुर्गंध देता है। जबकि मजा यह कि इंसानों...

उदय प्रकाश की कथा सृष्टि  पर विनय कुमार मिश्र का आलेख

उदय प्रकाश की कथा सृष्टि पर विनय कुमार मिश्र का आलेख

by Anhadkolkata
June 25, 2022
0

सत्ता के बहुभुज का आख्यान ( उदय प्रकाश की कथा सृष्टि से गुजरते हुए ) विनय कुमार मिश्र   उदय प्रकाश ‘जिनके मुख देखत दुख उपजत’...

Next Post

केदारनाथ सिंह के काव्य में लोक संस्कृति और लोकतंत्र

लेखक संगठनों की भूमिका और हिन्दीः नील कमल

Comments 2

  1. vandan gupta says:
    10 years ago

    वाह आपकी समीक्षा ने तो ये पुस्तक और ये कविता पढने के लिये प्रेरित कर दिया।

    Reply
  2. प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' says:
    10 years ago

    लाजवाब प्रस्तुति…बहुत बहुत बधाई…

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2009-2022 अनहद कोलकाता by मेराज.

No Result
View All Result
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • समीक्षा
    • संस्मरण
    • विविध
  • कला
    • सिनेमा
    • पेंटिंग
    • नाटक
    • नृत्य और संगीत
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विविध

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2009-2022 अनहद कोलकाता by मेराज.