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Home समीक्षा

समीक्षा-समीक्षा

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in समीक्षा, साहित्य
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4
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उम्मीद की कविता
  –आर.सी. पांडेय

हम बचे रहेंगे – विमलेश त्रिपाठी {कविता संग्रह}
‘नयी किताब‘,
एफ-3/78-79, सेक्टर-16, रोहिणी, दिल्ली – 110089.
दूरभाष ः 011-27891526
इ-मेल ः nayeekitab@gmail.com
ISBN 978-81-908197-5-6
‘हम बचे रहेंगे’ युवा कवि विमलेश त्रिपाठी का पहला काव्य संग्रह है। उनकी कविता उदासी को तोड़ती हुइ उम्मीद की कविता है। महानगरी चमक-दमक के बरक्स ठेठ स्थानीयता का रंग विमलेश की कविता की विशेषता है। विमलेश की गिनती उन कवियों में नहीं की जा सकती जिन्हें ग्रामीण जीवन में उत्सव-ही-उत्सव नजर आता है। उनकी कविता में ‘अहा ग्राम जीवन भी क्या है का विस्मृत सम्मोहन नहीं है बलिक ”कर्इ उदास दिनों के  फांके क्षणों के बाद  बासन की खड़खड़ाहट में ‘अन्न की सोंधी भाप मिलेंगी। उनके यहाँ ”एक किसान पिता की भूखी आँत है  बहन की सूनी मांग है  छोटे भार्इ की कम्पनी से छूट गर्इ नौकरी है  राख की ढेर से कुछ गरमी उधेड़ती माँ की सूजी हुई आँखें हैं। इतना ही नहीं कवि जहाँ बैठकर कविता लिख रहा है ‘वहां तक अन्न की सुरीधी गन्ध नहीं पहुँचती। ऐसे में आप किसी कवि से कैसे माँग कर सकते हैं कि कविता में उदासी की जगह हर्ष-उल्लास प्रकट होना चाहिए। इसके लिए चाहे उसे कलात्मक चमत्कार या जादुई यथार्थ को शिल्प में ढालना ही क्यों न पड़े। ऐसे लोगों से कवि कहता है
”क्या करूँ कि कविता से लम्बी है समय की उदासी 
और मैं हूँ समय का सबसे कम जादुई कवि 
क्या आप मुझे क्षमा कर सकेंगें?


‘हम बचे रहेंगे’ काव्य संग्रह की पहली कविता ‘वैसे ही आऊँगा’ को कवि का आत्मकथ्य माना जा सकता है। जिसमें कवि के नए भावबोध के प्रति सजगता और आत्मविश्वास ध्वनित होता है। कवि कहता है
”…पत्नी के झुराए होठों से छनकर 
हर सुबह  जीवन में जीवन आता है पुन: जैसे 
कई उदास दिनों के फाँके क्षणों के बाद 
बासन की खड़खड़ाहट के साथ 
जैसे अँतड़ी की घाटियों में 
अन्न की सोंधी भाप आती है।
कुछ ऐसे ही ताजगी एवं लहक के साथ विमलेश समकालीन कविता के परिदृश्य पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं।


भारत में अमीरी-गरीबी की खाई तो हमेशा से रही है लेकिन नई आर्थिक नीति लागू होने से यह खाई दिन दूनी रात-चौगुनी बढ़ी है। उदारीकरण के पैराकारों की यह दलीलें अब व्यर्थ हो चुकी हैं कि भारत विकास कर रहा है। जबकि भारत विकास नहीं, वृद्धि कर रहा है। विकास तो बराबर होता है और वृद्धि एकतरफा। भारत में विकास के नाम पर एक तबका विकास कर रहा है तो दूसरा विकास के इन्तजार में खड़ा है। कवि विमलेश इसे अच्छी तरह देख रहे हैं-
”कुछ अधेड़ औरतें इन्तजार करते-करते 
भूल चुकी थीं इन्तजार का अर्थ 
… कुछ अपेक्षाकृत जवान औरतें 
इन्तजार करने के बाद बौखला रही थीं।
इसलिए भारत की आर्थिक विकास दर की बात करना उन करोड़ों लोगों के साथ एक छल है जिनके जीवन का लक्ष्य दो जून की रोटी तक सिमट कर रह गया है। ऐसे में ‘यह समय की सबसे बड़ी उदासी नहीं तो और क्या है। लेकिन इस उदासी, नीरवता एवं निराशा के बीच भी कवि उम्मीद की तलाश करता है। यही एक कवि की सफलता और सार्थकता है। ‘बेरोजगार भाई के लिए कविता में कवि कहता है ”उदास मत हो मेरे भाई 
तुम्हारी उदासी मेरी कविता की पराजय है 
मेरे फटे झोले में बचे हैं
आज भी कुछ शब्द 
जो इस निर्मम समय में 
तुम्हारे हाथ थामने को तैयार है
 … बस मैं तुम्हें दे रहा हूँ एक शब्द 
एक आखिरी उम्मीद की तरह।
और यह उम्मीद कवि को जन-जीवन से गहरे जुड़ाव में मिलती है। विमलेश की कविता में ‘एक उठे हाथ का सपना  मरा नहीं है  जिन्दा है आदमी  अब भी थोड़ा सा चिडि़यों के मन में। इसलिए कवि को पुख्ता ‘यकीन है कि ”बस ये दो कारण  काफी हैं  परिवर्तन की कविता के लिए।


विमलेश त्रिपाठी की कविता में अक्सर खेतिहर किसान एवम मजदूर जीवन का बिम्ब देखने को मिल जाएगा। ‘सपना’ कविता में वे कहते हैं
”गाँव से चिटठी आयी है 
और सपने में गिरवी पड़े खेतों की 
फिरौती लौटा रहा हूँ 
पथराए कन्धे पर हल लादे पिता 
खेतों की तरफ जा रहे हैं 
और मेरे सपने में बैलों के गले की घंटियाँ 
घुंघरू की तान की तरह लयबद्ध बज रही हैं।


यह किसानी-जीवन की सबसे जीवंत दृश्य है और यह सपना उन लाखों-करोड़ों किसान-बेटों का सपना है जो अपने घर की माली हालत ठीक करने के लिए शहरों में कमाने आते हैं और रह-रहके घर-गाँव की तस्वीरें याद आती रहती हैं। बाजारवाद उपभोक्तावाद ने आज के समय और समाज को निहायत क्रूर, अमानवीय तथा असंवेदनशील बना दिया है। विमलेश इन आतताइ शक्तियों को चुनौती भी देते हैं
”कोई भी समय इतना गर्म नहीं होता  
कि करोड़ों मुट्ठियों को एक साथ पिघला सके 
न कोई अकेली भयावह आँधी,
जिसमें बह जाए सभी 
और न सही कोई 
एक मुटठी तो बची ही रहती है।


विमलेश की कविता में चुनौती के साथ-साथ विकल्प का भी सृजन करती है। ‘ऐसे भयावह समय में  जब उम्मीदें तक ‘बाजार के हाथ गिरवी पड़ी हो तो ‘पूरब से एक सूरज उगेगा और ‘दुधिया हँसी धरती के इस छोर से उस छोर तक फैलने की कामना भी करते हैं। एक मायने में यह प्राच्यवादी षडयंत्र का विरोध भी है।
            लोकतंत्र के चौथे खम्भे मीडिया द्वारा किसानों के दुख-दर्द और उनसे सम्बन्धित सूचनाओं के प्रति किस प्रकार बेखबर रहता है। इसे ‘खबर कविता में देखा जा सकता है। ‘राजघाट पर घूमते हुए गांधीवाद पर लिखी गई युवा कवि की महत्वपूर्ण राजनीतिक कविता है। किसानों के जीवन में बारिस का क्या महत्व होता है इसे थोड़ा-बहुत भी गाँवों से लगाव रखने वाले जानते होंगे। ‘बारिस कविता में जब आकाश में काली घटाओं के घिरने के बावजूद ‘सूखे खेतों में सिर्फ ‘धूल उड़ती रह जाती हो तो ”बाबा उस दिन एक रोटी कम खाते थे। विमलेश के यहां प्रेम परक कविताओं की भी प्रचुरता है जहाँ ‘प्रेम एक पूरा ब्रह्माण्ड है।


लाख नाउम्मीदों, उदासियों, निराशाओं तथा ”सब कुछ के रीत जाने के बाद भी  माँ की आंखों में इन्तजार का दर्शन  पिता के मन में एक घर बना लेने का विश्वास बना रहेगा और इतना ही नहीं कवि को विश्वास है कि ”….हम बचे रहेंगे एक दूसरे के आसमान में  आसमानी सतरंगों की तरह। यही विश्वास और भरोसा हमारे समय और समाज तथा एक कवि की भी ताकत है।


विमलेश त्रिपाठी अपने कवि-कर्म के प्रति सजग दिखाई दे रहे हैं। वे कविता में ठेठ देशी बिम्बों का प्रयोग बड़ी सघनता के साथ करते हैं जो उष्मा एवं ताजगी प्रदान करती है। जब समकालीन कविता के फलक से देशी बिम्ब और स्थानीय भाषा लगभग गायब होने के कगार पर हो ऐसे में विमलेश एक बड़े अभाव की पूर्ति करते हुए जान पड़ते हैं। उनकी कविता से गुजरते हुए लगेगा जैसे आप गांव के खेतों-खलिहानों, बगीचों, चारागाहों की यात्रा कर रहे हैं जहां आपको ‘दवनी करते बकुली बाबा मिलेंगे, ‘गेहूँ की लहलहाती बाली, ‘खलिहान में रबी की लाटें दिखलाई पड़ेगी, ‘घास चराती बकरियों से बतियाती बंगटी बुढि़या, ढील हेरती औरतें तथा ‘खईनी मलते चइता की तान में मगन दुलार चन काका मिलेंगे। विमलेश की अधिकतर कविताओं में ‘माँ, ‘पिता, पत्नी तथा भाई का बिम्ब किसी न किसी रूप में मौजूद है। वे इस विस्मृति के दौर में स्मृति तथा पारिवारिक जीवन के पक्षधर कवि हैं। जहां से उन्हें उर्जा मिलती है।


विमलेश जब ‘सोंधी, ‘पपड़ाया, ‘गन्ध, ‘पिपराया, किचड़ी आंखें तथा ‘उदासी जैसे शब्दों का एक से अधिक कविताओं में प्रयोग करते हैं तो वहां एकरसता पैदा होने का खतरा बढ़ जाता है। आशा है विमलेश इस प्रवृत्ति से बचेंगें और ‘इस निर्मम समय में अपने ‘हृदय के सच को बचाए रखते हुए अपनी चेतना को ‘खेतों की लम्बी पगडंडियों से जोड़े रखेंगे और कविता में यह उम्मीद भी ”…जिसकी बदौलत  पृथ्वी के साबुत बचे रहने की सम्भावना बनती है।      
                                                                     *********
                                                                                        
आर.सी.पाण्डेय
एम.ए., एम.फिल( दिल्ली विश्वविद्यालय)
युवा लेखक-समीक्षक
दिल्ली में रहनवारी

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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Comments 4

  1. sushmaa kumarri says:
    11 years ago

    बेहतरीन प्रस्तुती…..

    Reply
  2. vandan gupta says:
    11 years ago

    सटीक व सार्थक समीक्षा।

    Reply
  3. रामजी तिवारी says:
    11 years ago

    badhiya

    Reply
  4. गीता पंडित says:
    11 years ago

    अच्छी समीक्षा है…
    बधाई

    Reply

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