हरिजन गाथा – एक मानवीय पाठ
विमलेश त्रिपाठी
नागार्जुन राजनैतिक चेतना संपन्न कवि होने के साथ मानवीय सरोकारों के गहरे चितेरे और मानव मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध कवि हैं। कहना जरूरी नहीं है कि ‘मैं प्रतिबद्ध हूं’ कविता में जनमानस के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की वे घोषणा ही नहीं करते, वरन् ताउम्र अपनी रचना और अपने जीवन में उसका निर्वाह भी करते हैं। यह एक ऐसी विशेषता है जो उन्हे अपने समकालीन कवियों में सबसे अलग और एक विश्वसनीय रचनाकार के रूप में खड़ा करती है। बहरहाल, आज के दलितवाद और दलित विमर्श से उनका संबंध उसी तरह नहीं है जिस तरह कि प्रेमचंद का नहीं है – लेकिन दलित भी आखिर मनुष्य हैं और यदि उनका शोषण होता है या उनपर कोई आफत आती है तो जैसे प्रेमचंद अपनी तरह से उससे लड़ने के लिए उद्दत रहते थे, उसी तरह नागार्जुन भी उस अत्याचार या जूल्म के खिलाफ अपनी कविता में आवाज उठाते हैं।
इसलिए कहना चाहिए कि हरिजन गाथा दलित विमर्श से अधिक नागार्जुन की मानवीय मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाने वाला एक आख्यानक काव्य है। यही कारण है कि इस कविता के शुरू में हरिजनों को वे हरिजन न कहकर ‘मनुपुत्र’ कहते हैं। अगर इस कविता का कोई दलित पाठ तैयार करे तो कविता यह अवकाश देती है, लेकिन यह एक बहुत बड़ी सच्चाई है कि नागार्जुन की यह कविता गहरी मानवीय संवेदना और मानवीय क्रूरता के विरूद्ध एक कवि के भीषण आक्रोश की कविता है। एक ऐसा आक्रोश जो मनुष्य द्वारा मनुष्य पर हुए नृशंस अत्याचार के खिलाफ कविता में अभिव्यक्त हुआ है- जिसमें कवि हथियारबंद क्रांति का समर्थन करता हुआ भी दिखता है। मनुपुत्रों के द्वारा ही मनुपुत्रों का संहार, यह कवि को सह्य नहीं। कविता बार-बार यह संकेत देती है कि ‘ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ था।’ और कविता के दूसरे भाग में यह संकेत भी उभर कर आता है कि इस या इस तरह के अत्याचार से लड़ने के लिए एक भविष्य शिशु जव्म ले चुका है और सारे उपक्रम उस भविष्य शिशु को बचाने के लिए है जो इन सौभाग्यहीन मनुपुत्रों को सौभाग्यशाली मनुपुत्रों के बराबर खड़ा करेगा।
कविता की शुरूआत ही एक नाटकीय आक्रोश से होती है। कवि बेहद नाटकीय और संजीदे ढंग से औरतों के गर्भ में पल रहे भ्रूणों को बेचैन और आकुल अवस्था में देखता है। ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि गर्भ के शिशु भी अपूर्व आकुल दिखें, अंदर कहीं टीसें उठने लगें बार-बार और भ्रूण तक दौड़ लगाने लगें। आखिर ऐसा क्या घट गया है – पाठक कविता पढ़ते समय स्वयं से यह प्रश्न पूछने के लिए बाध्य हो जाता है – गर्भस्थ शिशु में यह अपूर्व आकुलता, बेचैनी और यह दौड़ इससे पहले किसी कविता में तो घटित नहीं हुई थी। पाठक के इस प्रश्न का जवाब कविता के आगे की पंक्तियां देती हैं –
ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि
हरिजन माताएं अपने भ्रूणों के जनकों को
खो चुकी हों एक पैशाचिक दुष्कांड में
ऐसा तो कभी नहीं हुआ था।
पैशाचिक दुष्कांड? इन पंक्तियों में यह पदबंध अचानक ‘हौंट’ करता है और आगे की पंक्तियों में यह स्पष्ट हो जाता है कि तेरह अंकिचन मनुपुत्र साधन संपन्न ऊंची जातियों के लोगों द्वारा अग्नि के प्रचंड और विकराल लपटों में झोंक दिए गए हैं। यह घटना एक पैशाचिक दुष्कांड है।
यहां यह बात स्पष्ट कर देना जरूरी है कि नागार्जुन बार-बार हरिजन और सवर्ण दोनों ही जातियों को मनुपुत्र कहकर पुकारते हैं। यह कहने के पीछे कवि का उद्देश्य स्पष्टः ही पहचाना जा सकता है। तात्पर्य कि नागार्जुन यह मानते हैं कि दोनों ही जातियां आदि मनु की ही संताने हैं। तब यह कैसे हो गया कि एक भाई दूसरे भाई को इस तरह योजनाबद्ध तरीके से आग में झोंकने पर उतारू हो गया? इसके कारण की पड़ताल में कविता नहीं जाती है लेकिन कोई चाहे तो कविता की पंक्तियों में अंतर्निहित सामाजिक-ऐतिहासिक कारणों की ध्वनि स्पष्टतः सुन सकता है। वर्ण विभाजन का परिणाम सत्तर के दशक में इस रूप में सामने आएगा यह कवि के लिए अकल्पनीय है। ऐसा तो कभी नहीं हुआ था। इस भयंकर पैशाचिक दुष्कांड की चर्चा के साथ कविता का पहला खण्ड समाप्त हो जाता है।
कविता के दूसरे खण्ड की शुरूआत उस भविष्य शिशु के उल्लेख के साथ शुरू होती है जो हरिजनों की बिरादरी में दस दिन पहले ही पैदा हुआ है। कविता यह स्पष्ट कर देती है कि इस बालक का जन्म तेरह अभागे मनुपुत्रों को जिंदा आग में जला दिए जाने के बाद ही हुआ है। कविता का यह खण्ड इस भविष्य शिशु को ही समर्पित है। संपूर्ण खण्ड में यह शिशु किसी चमत्कारी और जादुई शिशु की तरह सामने आता है, जिसके कांधे पर आगे होने वाली क्रांतियों का भार है।
ऐसा नवजातक
न तो देखा था, न सुना ही था आज तक…
क्या करेगा आगे चलकर ?
देखो तो ससुरे के कान हैं कैसे लंबे
आँखें हैं छोटी पर कितनी तेज हैं।
गरीब दास जब उस बच्चे के हाथ की लकीरें देखते हैं तो कुछ आजीबो-गरीब भविष्यवाणियां करते हैं –
अरे भगाओ इस बालक को
होगा यह भारी उत्पाती
जुलुम मिटाएंगे धरती से
इसके साथी और संघाती।
गरीब दास उस भविष्य शिशु में समतावादी समाज निर्माण की क्षमता को भांप लेते हैं। कहना न होगा कि सत्तर के दशक तक ( जो कि इस कविता का रचना काल भी है) समतावादी समाज व्यवस्था का सपना मरा नहीं था और तमाम सुलझे हुए बुद्धिजीवियों को यह लगता था कि भारत में इस व्यवस्था की स्थापना संभव है। हलांकि कि मद्दिम ही सही लेकिन राजनैतिक स्तर पर इसके लिए प्रयास हो रहे थे और साहित्य के क्षेत्र में नागार्जुन जैसे रचनाकार अपनी तरह से इन प्रयासों को बल प्रदान कर रहे थे। यदि गरीब दास को बाबा नागार्जुन की प्रतिछवि मान लें तो गरीब दास की सारी घोषणाएं बाबा के समाजवादी समाज के सपने का अर्थ ध्वनित करती हैं। यहां बात सिर्फ दलितों की नहीं है – एक जाति की बात को ही स्वीकार करने से कविता का कैनवास बहुत छोटा हो जाता है – जो जाहिर है कि नागार्जुन जैसे कवि के लिए संभव नहीं है। यहां नागार्जुन शोषण और शोषकों के खिलाफ लड़ने वाले एक क्रांतिकारी भविष्य शिशु को कहीं छुपाकर पालने-पोसने का सपना देख रहे हैं। यह केवल दलितों का मामला नहीं है, संपूर्ण शोषित जनसमूह का मामला है जो नागार्जुन के काव्य व्यक्तित्व का हिस्सा है। अरूण कमल ने ‘कविता और समय’ में लिखा है – “सामाजिक-आर्थिक विषमता को जितने जबरदस्त और सीधे ढंग से नागार्जुन ने प्रस्तुत किया, उतने जबरदस्त और सीधे ढंग से और किसी ने नहीं। इसके लिए कौशल की इतनी जरूरत नहीं, जितनी गरीबों के साथ दिली मुहब्बत और उनके हर दुःख में तड़प-तड़प उठने की अपार क्षमता की जरूरत है। यही चीज नागार्जुन जैसे कवियों की हड्डियों की ताकत बनी हुई है।“ सही है कि उक्त सामाजिक-आर्थिक विषमता के खिलाफ एक कठिन संघर्ष की भूमिका गरीबदास और भविष्य शिशु के माध्यम से बाबा ने हरिजन गाथा में रची है। प्रमाण स्वरूप कविता की निम्न पंक्तियों को देखा जा सकता है –
सबके दुःख में दुःखी रहेगा
सबके सुख में सुख मानेगा
समझ-बूझकर ही समता का
असली मुद्दा पहचानेगा।
….
दिल ने कहा अरे इस शिशु को
दुनिया भर में कीर्ति मिलेगी
इस कलुए की तदबीरों से
शोषण की बुनियाद हिलेगी।
स्पष्टतः वह भविष्य शिशु बिना किसी ‘कन्फ्यूजन’ के समझ-बूझकर ही समता के असली मुद्दे को पहचानेगा। यहां बाबा यह संकेत भी दे जाते हैं कि हमसे समता के इस मुद्दे को पहचानने में चूक हुई है। यह समता सिर्फ हरिजन और सवर्णों के बीच की नहीं है – यह एक साम्यवादी शोषण मुक्त समाज की स्थापना का एक व्यापक मुद्दा है जिसके लिए बाबा और उनके जैसे अनेकों ने जीवन पर्यन्त संघर्ष किया। वह संघर्ष आज भी अपने बदले संदर्भों में जारी है। लेकिन अफसोस इस बात का है कि हम असली मुद्दे से ही भटकते नजर आ रहे हैं – शोषण विहीन समाज का मतलब एक शोषकवर्ग से सत्ता छिनकर दूसरे शोषक वर्ग के हाथों में सौंपना नहीं है। अब तो आलम यह है कि समतावादी समाज का वह सपना महज सपना ही रह जाने की स्थिति में पहुंचता जा रहा है कि पहुंच गया है।
नागार्जुन की हरिजन गाथा इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि वह युग की सीमा को भेदकर भविष्य को स्पष्ट देख रही थी – यही कारण है कि कवि भविष्य शिशु के बारे में कहता है कि वह “ समझ-बूझकर ही समता का असली मुद्दा पहचानेगा।“ समता का यह मुद्दा आज दलित राजनीति के चक्रव्यूह में फंसकर दम तोड़ रहा है – जो सपना नागार्जुन का था भविष्य शिशु को लेकर वह तो कहीं दिखता ही नहीं। दुर्भाग्य है कि हमने यहां भी नागार्जुन से नहीं सीखा। समझ-बूझ से काम नहीं लिया।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
बहुत बढ़िया और जरूरी आलेख .बधाई !
अच्छा आलेख,बधाई
amra konodeen e karor theke kichhu shikhbo na kovi, lekhak,mohapurush keu e amader sudhrate parbe na, somaj ke sudhranor jonne to baar baar bhogobaan ke o dhoraye ashte hochchhe kintu tini ki perechhen amader sudhrate,paren ni tai na?se nie bhebe r ki hobe!
प्रतिबद्धता पहली शर्त है…
बेहतर आलेख…
नागार्जुन का कोई सानी नहीं.
harijan gatha par ek tippni yahan bhi maujud hai, wakt lage tou dekhiyega: http://likhoyahanvahan.blogspot.com/2009/07/blog-post_04.html
Mhatwapurna aalekh.Dhanyawad.