कैथरीन मैन्सफ़ील्ड (1889-1923) का जन्म न्युजीलैण्ड में हुआ था। इस बार अनहद पर उनकी कुछ कविताएं प्रस्तुत की जा रही हैं। अंग्रेजी से उनकी कविताओं का अनुवाद युवा कवि महेश वर्मा ने किया है। बहुत कम समय में महेश भाई ने ये कविताएं उपलब्ध कराई हैं, हम उनके बहुत आभारी हैं।
|
कैथरीन मैन्सफ़ील्ड (1889-1923) |
लाल आकाश को चीरते हुए
लाल आकाश को चीरते हुए उड़ रहें हैं दो पखेरू,
उड़ रहे हैं शिथिल पंखों से.
शांत और एकान्तिक है उनकी यह शुभ उड़ान.
दिनभर अपनी पीली ध्वजाओं को विजय गर्व से फहराता
पृथ्वी को बारम्बार चुनौती देता सूर्य ,ठीक उसी समय छुरा भोंकता है
उसके सीने में , जब वह उपजा रही होती है अन्न,
और जमा कर लेता है उसका रक्त अपने प्याले में,
और बिखेर देता है इसे शाम के आकाश पर.
जब अंधेरे के पंखों से आच्छादित पखेरू उड़ते जाते हैं, उड़ते ही जाते हैं ,
शांत लेटी रहती है पृथ्वी अपनी शोकाकुल छायाओं में लिपटी,
उसकी दृष्टिहीन आँखें मुड़ती हैं लाल आकाश की ओर
और बेचैनी से ढूँढती हैं पखेरुओ को.
तितली की हँसी
हमारी दलिया खाने की तश्तरियों के बीचोबीच
चित्रित थी एक नीली तितली
और हर सुबह नाश्ते के समय स्पर्धा सी होती हमारे बीच
कि पहले कौन पहुँचता है तितली के नज़दीक.
और तभी कहा करती दादीमाँ : “बेचारी तितली को
मत खा जाना तुमलोग.”
इसपर हमलोग हँसने लगते.
वह हमेशा यह कहती और हमेशा हम हँसना शुरू कर देते.
यह एक प्यारा सा नन्हा मज़ाक था रोज़ का.
यह तय था कि एक सुनहरी सुबह
संसार की सबसे धीमी हँसी हँसती हुई,
तितली को उड़ जाना था हमारी तश्तरियों से,
और बैठ जाना था दादीमाँ की गोद में.
खाई
चुप्पी की एक खाई हमें अलग करती है एक दूसरे से.
खाई के एक किनारे पर खड़ी होती हूँ मैं , तुम दूसरे किनारे पर.
सुन नहीं सकती तुम्हारी आवाज़ ना देख सकती हूँ तुमको,
फिर भी जानती हूँ तुम्हारा वहाँ होना.
अक्सर पुकारती हूँ तुमको बचपन के नाम से
और भुलावा देती हूँ खुद को कि मेरे रुदन की प्रतिध्वनि ही है तुम्हारी आवाज़.
कैसे हम पार कर सकते हैं यह खाई? शब्दों और स्पर्शों से तो कभी नहीं.
एक बार मैने सोचा था हम इसे लबालब भर दें आँसुओं से.
अब चाहती हूँ इसे चूर–चूर करना हमारी साझी हँसी से.
शुरुआत के लिए कुछ नियम
बच्चों को कोयला नहीं खाना चाहिए
उन्हें मुँह नहीं बिचकाना चाहिए,
ना ही दावत के कपड़े पहनकर गुलाटी लगानी चाहिए
और ना कभी चेहरे पर काला रंग पोतना चाहिए.
उन्हें सीखना चाहिए कि किसी की ओर उंगली दिखाना असभ्यता है,
उन्हें स्थिर और चुपचाप बैठना चाहिए टेबल पर,
उन्हें हमेशा परोसा गया खाना खाना चाहिए
—अगर वे खा सकें.
अगर वे गिर पड़ें, उन्हें रोना नहीं चाहिए,
यद्यपि सर्वविदित है इससे होने वाली पीड़ा ;
फिर भी हमेशा माँ होती है उनके नज़दीक
ऐसे समय अपने चुंबनों से उन्हें दुलारने के लिए.
अकेलापन
अब यह अकेलापन है जो नींद की बजाए
आता है रात को , मेरे बिस्तरे के बगल में बैठने के लिए.
एक थके हुए बच्चे की तरह लेटी हुई, मैं प्रतीक्षा करती हूँ उसके पदचाप की,
मैं देखती हूँ उसको बाहर , कोमलता से बहते हुए प्रकाश में.
अचल बैठा हुआ, ना बाएँ ना दाहिने घूमे,
और थका हुआ, थक कर शिथिलता से सर झुकाए.
बूढ़ा है वह भी, उसने भी लड़ी हैं लड़ाइयाँ.
इसीलिए उसे पहनाई गयी है जयपत्रों की माला.
उदास अंधेरे में धीरे से शांत होती हुई लहरें
बिखर जाती हैं बांझ किनारों पर , असंतुष्ट.
एक अजीब सी हवा बहती है…फिर सबकुछ शांत.
मैं तैयार हूँ अकेलेपन की ओर मुड़ने के लिए, थामने के लिए उसका हाथ,
उससे चिपकी हुई , प्रतीक्षारत, जब तक बन्ध्या धरती
भर ना जाए वर्षा की भयानक एकस्वर आवाज़ से.
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
कैथरीन मैन्सफ़ील्ड (1889-1923) का जन्म न्युजीलैण्ड में हुआ था। इस बार अनहद पर उनकी कुछ कविताएं प्रस्तुत की जा रही हैं। अंग्रेजी से उनकी कविताओं का अनुवाद युवा कवि महेश वर्मा ने किया है। बहुत कम समय में महेश भाई ने ये कविताएं उपलब्ध कराई हैं, हम उनके बहुत आभारी हैं।
|
कैथरीन मैन्सफ़ील्ड (1889-1923) |
लाल आकाश को चीरते हुए
लाल आकाश को चीरते हुए उड़ रहें हैं दो पखेरू,
उड़ रहे हैं शिथिल पंखों से.
शांत और एकान्तिक है उनकी यह शुभ उड़ान.
दिनभर अपनी पीली ध्वजाओं को विजय गर्व से फहराता
पृथ्वी को बारम्बार चुनौती देता सूर्य ,ठीक उसी समय छुरा भोंकता है
उसके सीने में , जब वह उपजा रही होती है अन्न,
और जमा कर लेता है उसका रक्त अपने प्याले में,
और बिखेर देता है इसे शाम के आकाश पर.
जब अंधेरे के पंखों से आच्छादित पखेरू उड़ते जाते हैं, उड़ते ही जाते हैं ,
शांत लेटी रहती है पृथ्वी अपनी शोकाकुल छायाओं में लिपटी,
उसकी दृष्टिहीन आँखें मुड़ती हैं लाल आकाश की ओर
और बेचैनी से ढूँढती हैं पखेरुओ को.
तितली की हँसी
हमारी दलिया खाने की तश्तरियों के बीचोबीच
चित्रित थी एक नीली तितली
और हर सुबह नाश्ते के समय स्पर्धा सी होती हमारे बीच
कि पहले कौन पहुँचता है तितली के नज़दीक.
और तभी कहा करती दादीमाँ : “बेचारी तितली को
मत खा जाना तुमलोग.”
इसपर हमलोग हँसने लगते.
वह हमेशा यह कहती और हमेशा हम हँसना शुरू कर देते.
यह एक प्यारा सा नन्हा मज़ाक था रोज़ का.
यह तय था कि एक सुनहरी सुबह
संसार की सबसे धीमी हँसी हँसती हुई,
तितली को उड़ जाना था हमारी तश्तरियों से,
और बैठ जाना था दादीमाँ की गोद में.
खाई
चुप्पी की एक खाई हमें अलग करती है एक दूसरे से.
खाई के एक किनारे पर खड़ी होती हूँ मैं , तुम दूसरे किनारे पर.
सुन नहीं सकती तुम्हारी आवाज़ ना देख सकती हूँ तुमको,
फिर भी जानती हूँ तुम्हारा वहाँ होना.
अक्सर पुकारती हूँ तुमको बचपन के नाम से
और भुलावा देती हूँ खुद को कि मेरे रुदन की प्रतिध्वनि ही है तुम्हारी आवाज़.
कैसे हम पार कर सकते हैं यह खाई? शब्दों और स्पर्शों से तो कभी नहीं.
एक बार मैने सोचा था हम इसे लबालब भर दें आँसुओं से.
अब चाहती हूँ इसे चूर–चूर करना हमारी साझी हँसी से.
शुरुआत के लिए कुछ नियम
बच्चों को कोयला नहीं खाना चाहिए
उन्हें मुँह नहीं बिचकाना चाहिए,
ना ही दावत के कपड़े पहनकर गुलाटी लगानी चाहिए
और ना कभी चेहरे पर काला रंग पोतना चाहिए.
उन्हें सीखना चाहिए कि किसी की ओर उंगली दिखाना असभ्यता है,
उन्हें स्थिर और चुपचाप बैठना चाहिए टेबल पर,
उन्हें हमेशा परोसा गया खाना खाना चाहिए
—अगर वे खा सकें.
अगर वे गिर पड़ें, उन्हें रोना नहीं चाहिए,
यद्यपि सर्वविदित है इससे होने वाली पीड़ा ;
फिर भी हमेशा माँ होती है उनके नज़दीक
ऐसे समय अपने चुंबनों से उन्हें दुलारने के लिए.
अकेलापन
अब यह अकेलापन है जो नींद की बजाए
आता है रात को , मेरे बिस्तरे के बगल में बैठने के लिए.
एक थके हुए बच्चे की तरह लेटी हुई, मैं प्रतीक्षा करती हूँ उसके पदचाप की,
मैं देखती हूँ उसको बाहर , कोमलता से बहते हुए प्रकाश में.
अचल बैठा हुआ, ना बाएँ ना दाहिने घूमे,
और थका हुआ, थक कर शिथिलता से सर झुकाए.
बूढ़ा है वह भी, उसने भी लड़ी हैं लड़ाइयाँ.
इसीलिए उसे पहनाई गयी है जयपत्रों की माला.
उदास अंधेरे में धीरे से शांत होती हुई लहरें
बिखर जाती हैं बांझ किनारों पर , असंतुष्ट.
एक अजीब सी हवा बहती है…फिर सबकुछ शांत.
मैं तैयार हूँ अकेलेपन की ओर मुड़ने के लिए, थामने के लिए उसका हाथ,
उससे चिपकी हुई , प्रतीक्षारत, जब तक बन्ध्या धरती
भर ना जाए वर्षा की भयानक एकस्वर आवाज़ से.
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
अब यह अकेलापन है जो नींद की बजाए
आता है रात को , मेरे बिस्तरे के बगल में बैठने के लिए…
वाह, कैथरीन मैन्सफील्ड की कवितायेँ पढवाने के लिए महेश जी और आपका आभार विमलेश भाई.
हुत अच्छी प्रस्तुति विमलेश भाई .कैथरीन की कविताओं का अनुवाद कर पढ़ाने के लिए महेश भाई को धन्यवाद.आगे भी उम्मीद रहेगी.
कैथरीन की कविताओं का अनुवाद कर पढ़ाने के लिए महेशजी का आभार्।
महेश जी, बेहद सुंदर अनुवाद. देर तक सन्न बैठी रही..चुप्पी की एक खाई हमें अलग करती है एक दूसरे से..। कविता है या विस्फोट हमारे मन का.
कवितायों में बुने अहसास मौसम उसके बदलते रंग की तरह मन को छू जाते हैं सहज सरल सुंदर कविताओं में अनुवाद अनुवाद सा नहीं लगता …विमलेश्जी और महेशजी दोनों का आभार …
अनुवाद बोधगम्य और सहज है.
''यह तय था कि एक सुनहरी सुबह
संसार की सबसे धीमी हँसी हँसती हुई,
तितली को उड़ जाना था हमारी तश्तरियों से,
और बैठ जाना था दादीमाँ की गोद में.''
सुंदर..! विमलेश जी कोलकता से लौटने के बाद यह…! मेरे हमवतन महेश वर्मा जी को बधाई..!
बहुत बढ़िया कवितायें…अच्छा अनुवाद…
विमलेशजी और महेशजीको बधाई…
………………अध्भुत…काव्य….अध्भुत…अनुवाद………प्रस्तुति पर धन्यवाद स्वीकार करें….विशेषतः….
अक्सर पुकारती हूँ तुमको बचपन के नाम से
और भुलावा देती हूँ खुद को कि मेरे रुदन की प्रतिध्वनि ही है तुम्हारी आवाज़.
कैसे हम पार कर सकते हैं यह खाई? शब्दों और स्पर्शों से तो कभी नहीं.
एक बार मैने सोचा था हम इसे लबालब भर दें आँसुओं से.
अब चाहती हूँ इसे चूर-चूर करना हमारी साझी हँसी से.
वाह महेश भाई, हिंदी में भी ऐसी भावाभिव्यक्ति होनी चाहिए…जाने क्यों हम अचानक अपने भाव को राजनीतिक रंग देने में जुट जाते हैं और अच्छी खासी कविता की ऐसी-तैसी हो जाती है…क्या हम आलोचकों को निगाह में रखकर लिखते हैं? मेरे ख्याल से दुनिया की सबसे कोमल चीज़ है कविता…न की औरत….
कैथरीन की कविताओं के लिए बधाई
इतनी अच्छी कविताएं एक साथ.
पहली पाश्चात्य मनस की पहचानी जा सकने वाली है.
दूसरी बहुत नाजुक आत्मीयता भरी.
तीसरी, संबंध कभी विन्ध्याचल तो कभी खाई, लेकिन इसे लांघने की सोच से ही नप जाती है दूरियां.
चौथी, मां की ममता के साथ तो सब कुछ वाजिब हो ही जाता है.
पांचवीं, मैं और मेरी तनहाई की सार्थक प्रगाढ़ता.
आप सबका बहुत-बहुत आभार….
अच्छी कविताएं ।इन कविताओं में भी एक रूढि विरोध है ।
Maza aa ggaya! Kuchh yon jaise lambe antral k baad koie bhupratikshit tripti kanth par aa baithi aur turant antratma pahunch gayee ho! Uttam Upalabdh krane k lie Aabhar! Khojane aur bantane ka yah kram chalata rahe…
मेन्स्फ़िएल्द की कविताएं जैसे हम खुद बेफिक्री के
साथ उसमे विचरण कर कर रहे हो. सहज और सुन्दर
अनुवाद उपलब्ध करने के लिए शुक्रिया विमलेश जी.
bahut achchhi kavitayen………
कैथरीन को उनकी मनोवैज्ञानिक कहानियों की वजह से ज्यादा जानता हूँ , आज कवितायें पढ़ कर अच्छा लगा |
मैंने इनकी मूल (अँग्रेजी) नहीं पढ़ी पर धाराप्रवाह शैली और सूक्ष्म अभिव्यक्ति में अनुवाद की गंध भी नहीं| हार्दिक बधाई ! एक अनुरोध भी है कि मूल (अँग्रेजी) भी अनूदितपाठ के साथ में दी जाए|