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कैथरीन मैन्सफ़ील्ड (1889-1923) |
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
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कैथरीन मैन्सफ़ील्ड (1889-1923) |
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
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आधा डूबा आधा उठा हुआ विश्वविद्यालय भरत प्रसाद ‘चुनाव’ शब्द तानाशाही और अन्याय की दुर्गंध देता है। जबकि मजा यह कि इंसानों...
सत्ता के बहुभुज का आख्यान ( उदय प्रकाश की कथा सृष्टि से गुजरते हुए ) विनय कुमार मिश्र उदय प्रकाश ‘जिनके मुख देखत दुख उपजत’...
सुबोध सरकार सुबोध सरकार बांग्ला भाषा के विख्यात साहित्यकार हैं। इनके द्वारा रचित कविता-संग्रह द्वैपायन ह्रदेर धारे के लिये उन्हें सन् 2013 में साहित्य अकादमी पुरस्कार...
अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।
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अब यह अकेलापन है जो नींद की बजाए
आता है रात को , मेरे बिस्तरे के बगल में बैठने के लिए…
वाह, कैथरीन मैन्सफील्ड की कवितायेँ पढवाने के लिए महेश जी और आपका आभार विमलेश भाई.
हुत अच्छी प्रस्तुति विमलेश भाई .कैथरीन की कविताओं का अनुवाद कर पढ़ाने के लिए महेश भाई को धन्यवाद.आगे भी उम्मीद रहेगी.
कैथरीन की कविताओं का अनुवाद कर पढ़ाने के लिए महेशजी का आभार्।
महेश जी, बेहद सुंदर अनुवाद. देर तक सन्न बैठी रही..चुप्पी की एक खाई हमें अलग करती है एक दूसरे से..। कविता है या विस्फोट हमारे मन का.
कवितायों में बुने अहसास मौसम उसके बदलते रंग की तरह मन को छू जाते हैं सहज सरल सुंदर कविताओं में अनुवाद अनुवाद सा नहीं लगता …विमलेश्जी और महेशजी दोनों का आभार …
अनुवाद बोधगम्य और सहज है.
''यह तय था कि एक सुनहरी सुबह
संसार की सबसे धीमी हँसी हँसती हुई,
तितली को उड़ जाना था हमारी तश्तरियों से,
और बैठ जाना था दादीमाँ की गोद में.''
सुंदर..! विमलेश जी कोलकता से लौटने के बाद यह…! मेरे हमवतन महेश वर्मा जी को बधाई..!
बहुत बढ़िया कवितायें…अच्छा अनुवाद…
विमलेशजी और महेशजीको बधाई…
………………अध्भुत…काव्य….अध्भुत…अनुवाद………प्रस्तुति पर धन्यवाद स्वीकार करें….विशेषतः….
अक्सर पुकारती हूँ तुमको बचपन के नाम से
और भुलावा देती हूँ खुद को कि मेरे रुदन की प्रतिध्वनि ही है तुम्हारी आवाज़.
कैसे हम पार कर सकते हैं यह खाई? शब्दों और स्पर्शों से तो कभी नहीं.
एक बार मैने सोचा था हम इसे लबालब भर दें आँसुओं से.
अब चाहती हूँ इसे चूर-चूर करना हमारी साझी हँसी से.
वाह महेश भाई, हिंदी में भी ऐसी भावाभिव्यक्ति होनी चाहिए…जाने क्यों हम अचानक अपने भाव को राजनीतिक रंग देने में जुट जाते हैं और अच्छी खासी कविता की ऐसी-तैसी हो जाती है…क्या हम आलोचकों को निगाह में रखकर लिखते हैं? मेरे ख्याल से दुनिया की सबसे कोमल चीज़ है कविता…न की औरत….
कैथरीन की कविताओं के लिए बधाई
इतनी अच्छी कविताएं एक साथ.
पहली पाश्चात्य मनस की पहचानी जा सकने वाली है.
दूसरी बहुत नाजुक आत्मीयता भरी.
तीसरी, संबंध कभी विन्ध्याचल तो कभी खाई, लेकिन इसे लांघने की सोच से ही नप जाती है दूरियां.
चौथी, मां की ममता के साथ तो सब कुछ वाजिब हो ही जाता है.
पांचवीं, मैं और मेरी तनहाई की सार्थक प्रगाढ़ता.
आप सबका बहुत-बहुत आभार….
अच्छी कविताएं ।इन कविताओं में भी एक रूढि विरोध है ।
Maza aa ggaya! Kuchh yon jaise lambe antral k baad koie bhupratikshit tripti kanth par aa baithi aur turant antratma pahunch gayee ho! Uttam Upalabdh krane k lie Aabhar! Khojane aur bantane ka yah kram chalata rahe…
मेन्स्फ़िएल्द की कविताएं जैसे हम खुद बेफिक्री के
साथ उसमे विचरण कर कर रहे हो. सहज और सुन्दर
अनुवाद उपलब्ध करने के लिए शुक्रिया विमलेश जी.
bahut achchhi kavitayen………
कैथरीन को उनकी मनोवैज्ञानिक कहानियों की वजह से ज्यादा जानता हूँ , आज कवितायें पढ़ कर अच्छा लगा |
मैंने इनकी मूल (अँग्रेजी) नहीं पढ़ी पर धाराप्रवाह शैली और सूक्ष्म अभिव्यक्ति में अनुवाद की गंध भी नहीं| हार्दिक बधाई ! एक अनुरोध भी है कि मूल (अँग्रेजी) भी अनूदितपाठ के साथ में दी जाए|