यात्रा और यात्री का आख्यानः अन्तिम अरण्य
डॉ0 शिवानी गुप्ता
भाषायी सादगी और रोमानियत के बारीक बिन्दुओं को आत्मसात करता निर्मल वर्मा का लेखन हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधियों में से है। अपने रचनाकर्म के माध्यम से निर्मल ने मनुष्य के मन की भीतरी परतों के साथ गहन हस्तक्षेप और वैचारिक बहसों का जो सिलसिला शुरु किया था वह आज भी निर्मल वर्मा को पढें जाने की मांग करता है, इसलिए नही कि निर्मल के रचना संसार को समझना जरूरी है बल्कि इसलिए की व्यक्ति को या खुद को पूरी गहनता से समझना जरुरी है और निर्मल का रचना कर्म इसमें सक्षम हैं
साठ के दशक का कथा लेखन जिन महत्पपूर्ण चिन्तन धाराओं को लेकर चल रहा था उसके केन्द्र में व्यक्तिमन की प्रधानता रही थी, उसमें भी व्यक्तिमन के अन्र्तरगुम्फनों को मनों वैज्ञानिक नजरिये से देखने परखने की । ‘अज्ञेय’ और ‘निर्मल’ जैसे कथाकार बखूबी अपनी भूमिका का निवर्हन कर रहे थे लेकिन इन सबके साथ साहित्य जगत के भीतर एक ऐसे विषय पर गहन दृष्टिपात का सिलसिला शुरु हो रहा था जिसे जीवन का अनिवार्य हिस्सा मानते हुए भी उपेक्षित रखा गया था और वह है ‘मृत्यु’। हाँलाकि साहित्य में इसके समावेश के पीछे बहुत सारे सामाजिक, राजनैतिक कारण रहे जिनमें विश्व युद्ध की महत्वपूर्ण भूमिका रही फिर भी ऐसा नहीं था कि ‘मृत्यु हमारे लिए कोई अनजाना विषय थी। लेकिन जीवन के साथ उसके गहनतम बारीक जुड़ावों को देखने समझने का इतना सफल प्रयास शायद ही कभी किया गया था। निर्मल वर्मा का ‘अन्तिम अरण्य’ उपन्यास इन्ही सफलतम प्रयासों में से है।
‘’अन्तिम अरण्य’ जीवन यात्रा का एक ऐसा आख्यान है जिसमें यात्रा करना यात्री की मजबूरी बेबसी से ज्यादा अपने रिसते हुए दुःखों के बह जाने का इन्तजार करना है और फिर भी किसी निष्कर्ष पर पहुँचाना शेष ।
परिवार का सुख, दुनियाँ में रहने का सुख………आदमी क्या सारी मारकाट इन सुखों के लिए नहीं करता ?’’ 1
‘अन्तिम अरण्य’ की इन पंक्तियों के साथ निर्मल मनुष्य के भीतर की एक यात्रा पर निकलते हैं, सुख…..सुख जिसकी तलाश करता हुआ व्यक्ति अपने जीवन को ना जाने कितने पुलों , नदियों, घाटियों और जंगलों की यातना भरी यात्राओं से गुुुजरता है और अन्ततः भी सुख की ही तलाश शेष रह जाती है क्योंकि
‘‘वह अपने चिमटे से सुख नही उसकी राख उठाने आता है…’2
यात्रा के अन्तिम पड़ाव पर पहँुचते पहुँते सुख का राख में तब्दील हो जाना क्या जिन्दगी के प्रति सौन्दर्यबोध का चुक जाना नहीं? महेरा साहब, दीवा, तिया, निरंजनबाबू, अन्ना जी और मैं (दिल्ली वाले बाबू) उपन्यास के भीतर इसी राख को अपने-अपने तरीके से समेटते चलते है।
स्मृतियों के लोक में चलता सम्पूर्ण उपन्यास व्यक्ति सम्बन्धों के भीतर एक गहन तनाव और संवेदना की कई परतों को खोलता है-
‘‘जिसे हम अपनी जिन्दगी, अपना विगत और अपना अतीत कहते है, वह चाहें कितना यातनापूर्ण क्यों न रहा हो, उससे हमें शान्ति मिलती है।………….जीवन के तमाम अनुभव एक महीन धागे में बिधे जाने पड़ते है। यह धागा न हो, तो कही कोई सिलसिला नही दिखाई देता, सारी जमा पूँजी इसी धागे की गाँठ से बँधी होती है, जिसके टूटने पर सबकुछ धूल में मिल जाता है।’’ 3
लेकिन व्यक्ति जीवन की त्रासदी यह है कि सम्बन्धों का धागा टूट कर भी स्मृतियों के जरिये हमसे जुड़ा रहता है-व्यक्ति दूर जाकर भी आपसे कभी दूर नहीं जा पाता।
निर्मल वर्मा ने उपन्यास में जीवन और मृत्यु के बीच घटित हो रहे समय को अपने बेमिसाल कथाशिल्प के जरिये तीन भागों में बाँटते हुए समय में घटित हो रहे द्वन्द्व और उलझाव को, उतार और चढ़ाव को जिस तरह व्याख्यायित किया है वह पाठक को भ्रमित नहीं करता बल्कि वास्तविक मन की स्थितियों के और करीब पहुँचाता है। स्मृतियाँ कभी स्थाई नही होती और न क्रमबद्ध होती हैं इसलिये उनके साथ उलझाव का होना स्वभाविक है साथ ही साथ इस शिल्प की खासियत यह है कि रचना कभी भी किसी काल विशेष से जुड़कर नही चलती। प्रत्येक काल और समय का पाठक उसे अपने से जोड़ सकता है।
मृत्यु जीवन में आने वाली कोई घटना नहीं जिसे अपने ऊपर से गुजर जाने दिया जाये, बल्कि वो तो जिन्दगी के भीतर ही रिसता एक अकेलापन है जो चरम अवस्था में पहुँच कर खुद को शरीर से भी अकेला कर लेना चाहता है।
‘इससे ज्यादा भयानक बात क्या हो सकती है कि कोई आदमी अकेलेपन के अनजाने प्रदेश की और घिसटता जा रहा हो और उसके साथ कोई न हो। कोई आखिर तक साथ नही जाता, लेकिन कुछ दूर तक तो साथ जा सकता है।’’ 4
और निर्मल इस अकेलेपन का बहुत कुछ कारण जिन्दगी में गलत चयनों को मानते है जिसे हम जीना चाहते है वो जीते नही और जो हमारा अपना था उसे अपने तक पहुँचने नहीं देते-
‘‘जानते हो, इस दुनियाँ में कितनी दुनियाऐं खाली पड़ी रहती हैं, जबकि लोग गलत जगह पर रहकर सारी जिन्दगी गवाँ देते है… 5
लेकिन पुनःएक सवाल और खड़ा करते है कि सही जगह का चयन क्या वाजिब है ? क्या एक समय बाद सारे चयन गलत नही लगते ,
‘‘कभी तो समझ मे नही आता ……..कौन सी जिन्दगी असली है, यह या वह …..या दोनों में से कोई नही’’ 6
‘‘क्या एक उम्र के बाद आदमी जीता एक तरफ है और जागता दूसरी तरफ ? जब सचमुच जागता है, ैतब पता चलता है, जीने का अर्थ पता नहीं कहाँ रास्ते में छूट गया’’ …7
ऐसे तमाम सवालों से जूझता निर्मल का यह उपन्यास रिश्तों की बारीक टूटन की ओर हमारा ध्यान खिचता है। तिया अपने पिता मेहरा साहब से प्यार करते हुए भी भागती रहती है उसका मानना है-
‘‘ रिश्ते होते नही बनते हैं… जब तक टीस नही उठती पता नही चलता वे कितने पक गए है…… 8
तिया और मेहरा साहब के बीच
‘‘रिश्ते की आद्रता नहीं, एक क्लीनिकल किस्म का सूखापन है… 9
यह सूखापन’’ इसलिए नही कि दीवा मेहरा साहब की दूसरी पत्नी के रुप में उपस्थित है बल्कि अपनी मां का अभाव उसे दीवा और मेहरा साहब के करीब कभी आने नही देता । भारतीय सन्दर्भ में परिवारिक रिश्तों की जो महीन बुनावट है उसमें सम्बन्धों के लिए किसी प्रकार के स्पेस की गुंजाइश नहीं दिखती और नतीजतन एक अजीब तरह की जबरदस्ती में जिते हुए रिश्तों की उम्र तो गुजर जाती है लेकिन जिन्दगी नहीं। निर्मल के पात्र एक विशेष किस्म के बौद्धिक और सामाजिक वर्ग से आते है जो भावात्मक द्वन्द्व के उलझाव में खुद का आकलन करते रहते हैं भीतर का द्वन्द्व जहाँ एक ओर उन्हे जिन्दगी की ओर खिचता है वही दुगने वेग से अतीत के अकेलेपन में जाता है।
‘‘हमारा अतीत कोई एक जगह ठहरा हुआ स्टेशन नहीं है, जो एक बार गुजरने के बाद गायब हो जाता है, वह यात्रा के दौरान हमेशा अपने को अलग-अलग झरोखों से दिखाता रहता हैं… 10
अकेलेपन की पीड़ा बदलते आधुनिक समय में रिश्तों के छीज जाने की ओर ही संकेत है और बहुत कुछ यह भी आग्रह करती है कि क्या रिश्तों सम्बन्धों के दायरे में सिमट कर ही जिन्दगी जीने की विवशता रहने दी जाये ? या जिन्दगी को जिन्दगी की तरह मुक्त भाव से जीने की कला का विकास किया जाये, जहाँ व्यक्ति को अपना स्वतन्त्र आकाश अपनी स्वतन्त्र धरती और अपनी साँसो में खुली और ताजी हवा का संचार महसूस हो ? उपन्यास में निरजन बाबू और मैं का अकेलापन कुछ इसी तरफ संकेत करता दिखाई देता है-
‘‘ इससे बड़ा कोई धोखा नहीं…….कोई भी सिरा पकड़ो वह आगे किसी और सिरे से बंधा होता है और तो और जब आदमी पैदा होता है तो भी वह कोई शुरुआत नहीं है। पता नहीं अपने साथ कितने सारे पुराने किए गुजरे की पोटली साथ ले आता है‘‘…. 11
रिश्तों और सम्बन्धों से परे अकेलेपन का एक रुप निराशा का भी है और यह निराशा है जिन्दगी के महत्वहीन हो जाने की । द्वितीय विश्वयुद्ध से उपजी त्रासदी का व्यक्ति जीवन मूल्यों पर बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ा था, उपन्यास में ‘अन्ना’ नामक पात्र इसी प्रकार के प्रभाव से गुजरती दिखाई देती है। शान्ति और सुख की तलाश से परे अपने होने को समझने के भटकाव को लेकर ‘अन्ना’’ जी का भारत के इस पहाड़ी क्षेत्र में ठहराव इसी ओर संकेत है।
‘‘जब हम अपने को ही बाहर से देखने लगते है…. हम जैसे खुद अपने ही दर्शक बन जाते है….अपनी देह के……………मेरे और मेरे बीच कोई तीसरा भी हो सकता है, मैं इसकी कल्पना भी नही कर सकती थी।‘‘ 12
अपने लोग अपनी जमीन से परे अनाजने देश के एकान्त में जिन्दगी के बीत जाने का इन्तजार, जिसकी पहुँच मृत्यु के सफर तक जाती है।
निर्मल वर्मा पर अक्सर ये आरोप लगाये गये कि उनका लेखन भरतीय परिवेश और उसकी जमीनी हकीकत से परे एक अभिजात्य किस्म का लेखन है, लेकिन क्या अभिजात्य किस्म का लेखन कह कर निर्मल के लेखन को खारिज किया जा सकता है ? शायद नहीं। अपने पूर्ववर्ती उपन्यासों की अपेक्षा अन्तिम अरण्य’ में निर्मल बहुत हद तक अपने ऊपर लगे आरोपों को खारिज करते दिखते है लेकिन निर्मल का लेखन एक विशेष प्रकार की वैचारिक समझ की मांग करता है, सतही तरीके से उनके लिखे को व्याख्यायित करना उनका उचित मूल्यांकन नही ।
भारतीय परिवेश में ‘मृत्यु’ भी एक संस्कार के रुप में समाहित है, निर्मल बड़े ही बोल्ड तरीके से मृत्यु बोध के साथ भारतीय जीवन दर्शन को जोड़कर आशावादिता का संकेत तो करते हैं लेकिन व्यक्ति के आस्तित्व को भी खारिज नहीं करते । ये बहुत हद तक निर्मल वर्मा का जीवन को उसके व्यापक फलक में देखने की सोच है। उपन्यास के अन्त में निर्मल ‘मृत्यु’ को एक घटना के रुप में ही देखने का संकेत करते है जो घटित किसी अपने पर होती है किन्तु
’’पीड़ा बाद में आती है, काल की तपन में बूँद-बूँद पिघलाती हुई’’ 13
और यही पीड़ा जीवन के प्रति गहरी उदासी का सबब बनती हैं लेकिन अन्ततः लौटना जिन्दगी की तरफ ही होता है।
कुल मिलाकर निर्मल वर्मा का उपन्यास ’अन्तिम अरण्य’ एक यात्रा से गुजरते यात्री के भीतरी गुम्फनों की पड़ताल है जिसमें वह कई बार उलझता, गिरता है और पुनः उठकर अपने पैर पर चलने की कोशिश करता है, ताकि मंजिल तक पहुँचना आसान हो, अगर वो मंजिल मृत्यु ही है तो भी पूरी तरह से मुक्त ‘‘ यह दुनियाँ किसी हवेली की सिर्फ एक मंजिल है, बाकी सारे कमरे किसी ऊपरी मंजिल पर है, जो तभी दिखाई देते है, जब हम अपनी मंजिल से बाहर निकलते है… 14
सन्दर्भ ग्रन्थ:-
1. (अन्तिम अरण्य, निर्मल वर्मा पृ0 62)
2. (अन्तिम अरण्य, निर्मल वर्मा पृ0 62)
3. (अन्तिम अरण्य, निर्मल वर्मा पृ0 10)
4. (अन्तिम अरण्य, निर्मल वर्मा पृ0 136)
5. (अन्तिम अरण्य, निर्मल वर्मा पृ0 138)
6. (अन्तिम अरण्य, निर्मल वर्मा पृ0 61)
7. (अन्तिम अरण्य निर्मल वर्मा पृ0 133)
8. (अन्तिम अरण्य निर्मल वर्मा पृ0 93)
9. (अन्तिम अरण्य, पृ0 100)
10. (अन्तिम अरण्य, निर्मल वर्मा पृ0 179)
11. (अन्तिम अरण्य, निर्मल वर्मा पृ0133)
12. (अन्तिम अरण्य, निर्मल वर्मा पृ0202)
13. (अन्तिम अरण्य, निर्मल वर्मा पृ0202)
14. (अन्तिम अरण्य, निर्मल वर्मा पृ0181)
डॉ0शिवानी गुप्ता
वाराणसी।
संपर्क – 9198241570, 8932882061
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
Nice and explanatory…
I’m amazed by your skill to make even the most ordinary topics engaging. Well done to you!
thanks.