कहानी की बात पूछी जाय तो पहला परिचय प्रेमचंद की कहानियों से होता है, और भी कहानियां देखने में आती हैं, लेकिन जो दिल और दिमाग में सीधे-सीधे उतरता है, वह पेमचंद का ही लिखा हुआ होता है। मैं जिस माहौल में पला-बढ़ा वहां साहित्य के नामपर रामचरित मानस ही था। और भी याद करूं तो ओझा बाबा के द्वारा सुनाई गई लोक कथाएं थीं। पढ़ने की तमीज विकसित होने के साथ प्रेमचंद से ही वह परिचय हुआ जो देर तक रहने वाला था। नमक का दारोगा, परीक्षा, पंच परमेश्वर, बूढ़ी काकी, बड़े घर की बेटी आदि कहानियां बार-बार लगातार पढ़ी गईं। और अधिक कहानियां थी नहीं तो उन्हें ही बार-बार पढ़कर संतोष करना पड़ा।
अगर कहूं कि मेरे कथाकार बनने में दो लेखकों की जबरदस्त भूमिका रही, तो सही ही कहूंगा। पहले तो प्रेमचंद और दूसरे अज्ञेय। लेकिन मेरे लिए यह दुर्भाग्य ही रहा कि माध्यमिक तक पाठ्य पुस्तकों में शामिल कहानियों को छोड़कर और कोई कहानी मुझे पढ़ने को नहीं मिली। गांव में जहां मैं पढ़ता था, वहां पुस्तकालय की कल्पना तो दूर अखबार तक नहीं आते थे। अभी पिछले दिनों जब मैं गांव में था तो मुझे एक दिन अखबार पढ़ने की इच्छा हुई, तो पता चला कि यहां तक कोई अखबार नहीं आता। उसे पढ़ने के लिए 5 किलोमिटर दूर ब्रह्मपुर जाना होगा। तो ऐसे में मुझे प्रेमचंद की कहानियां कहां से मिलती। स्कूल में भी कोई पुस्तकालय नहीं था, पुस्तकालय तो अब भी नहीं है।
कोलकाता आने के बाद नवम दर्जे में पता चला कि प्रेमचंद ने कहानियां ही नहीं उपन्यास भी लिखे हैं। उस समय तक उपन्यास का मतलब मेरे लिए गुलशन नंदा, प्रेम वाजपेयी और वेदप्रकाश आदि के उपन्यास थे। मुझे याद है कि मेरे विद्यालय के हिन्दी अध्यापक ने बूढ़ी काकी पढ़ाते समय गोदान का जिक्र किया था। तभी से मेरे उपर गोदान पढ़ने का भूत सवार हो गया। लेकिन उपन्यास मिलेगा कहां, सबसे पहले मैंने पिता से पूछा। किताब की दुकान पर मिलना चाहिए- उन्होंने उतना ही कहकर पीछा छुडा लिया। मैंने स्कूल के बाहर एक दो जो किताबों की दुकाने थी वहां पूछा तो उनका कहना था – किस क्लास की किताब है पहले यह बताओ, तब देखेंगे।
इस तरह समय गुजरता रहा। एक दिन मैं अपने पिता के साथ चित्तपुर रोड से गुजर रहा था तो मैंने किताबों की एक दुकान देखी। मैं दुकान के समीप चला गया। वहां गोदान शीशे के अंदर सजी हुई थी। यह किताब मुझे चाहिए – मैंने पिता की ओर देखा।
कितने की है, पूछो – पिता के हाथ अपनी जेब की ओर थे।
साठ रूपए की – दुकानदार ने कहा।
आज तो पैसे नहीं हैं, तुम किसी दिन आकर खरीद लेना। – मैं मायुस लौट आया।
फिर मैंने अपनी जेब खर्च से चालीस रूपए जुगाड़ किए और 20 रूपए मां से लेकर गोदान खरीद लाया।
गोदान खरीदकर जितनी खुशी मुझे उस समय मिली थी, कहानी की किताब पर ज्ञानपीठ नवलेखन मिलने की घोषणा पर नहीं मिली। रात में जब सब लोग सो जाते थे तब मैं गोदान पढ़ता था और अपने गांव को याद करता था, उस गाय को याद करता था जिसे बाबा ने बेच दिया था। उन बैलों को याद करता था जो एक दिन हमारे अपने न रहे थे। तब गोदान पढ़कर घंटो मैं रोया था, और उस रोने में भी एक खास तरह का सुख था, जो बाद के दिनों में मुझे कभी नसीब नहीं हुआ। तब लगता था कि मैं कहां किस जंगल में लाकर छोड़ दिया गया हूं। गोदान में होरी का संघर्ष उन दिनों मुझे नई ऊर्जा देता रहा। तब सचमुच मैं सोचता था कि एक दिन मैं भी गोदान की तरह ही एक उपन्यास लिखूंगा। बाद में प्रेमचंद के कई उपन्यास पढ़े। लगभग सारी कहानियां पढ़ीं। लेकिन गोदान और उससे जुड़ी यादें मुझे आज भी रोमांचित कर जाती हैं। आज प्रेमचंद की जयंती है, इस अवसर पर, ये बातें जो पता नहीं कितनी महत्वपूर्ण हैं, आपसे कहने का मन किया। महान रचनाकार को मेरा नमन।।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
कहानी की बात पूछी जाय तो पहला परिचय प्रेमचंद की कहानियों से होता है, और भी कहानियां देखने में आती हैं, लेकिन जो दिल और दिमाग में सीधे-सीधे उतरता है, वह पेमचंद का ही लिखा हुआ होता है। मैं जिस माहौल में पला-बढ़ा वहां साहित्य के नामपर रामचरित मानस ही था। और भी याद करूं तो ओझा बाबा के द्वारा सुनाई गई लोक कथाएं थीं। पढ़ने की तमीज विकसित होने के साथ प्रेमचंद से ही वह परिचय हुआ जो देर तक रहने वाला था। नमक का दारोगा, परीक्षा, पंच परमेश्वर, बूढ़ी काकी, बड़े घर की बेटी आदि कहानियां बार-बार लगातार पढ़ी गईं। और अधिक कहानियां थी नहीं तो उन्हें ही बार-बार पढ़कर संतोष करना पड़ा।
अगर कहूं कि मेरे कथाकार बनने में दो लेखकों की जबरदस्त भूमिका रही, तो सही ही कहूंगा। पहले तो प्रेमचंद और दूसरे अज्ञेय। लेकिन मेरे लिए यह दुर्भाग्य ही रहा कि माध्यमिक तक पाठ्य पुस्तकों में शामिल कहानियों को छोड़कर और कोई कहानी मुझे पढ़ने को नहीं मिली। गांव में जहां मैं पढ़ता था, वहां पुस्तकालय की कल्पना तो दूर अखबार तक नहीं आते थे। अभी पिछले दिनों जब मैं गांव में था तो मुझे एक दिन अखबार पढ़ने की इच्छा हुई, तो पता चला कि यहां तक कोई अखबार नहीं आता। उसे पढ़ने के लिए 5 किलोमिटर दूर ब्रह्मपुर जाना होगा। तो ऐसे में मुझे प्रेमचंद की कहानियां कहां से मिलती। स्कूल में भी कोई पुस्तकालय नहीं था, पुस्तकालय तो अब भी नहीं है।
कोलकाता आने के बाद नवम दर्जे में पता चला कि प्रेमचंद ने कहानियां ही नहीं उपन्यास भी लिखे हैं। उस समय तक उपन्यास का मतलब मेरे लिए गुलशन नंदा, प्रेम वाजपेयी और वेदप्रकाश आदि के उपन्यास थे। मुझे याद है कि मेरे विद्यालय के हिन्दी अध्यापक ने बूढ़ी काकी पढ़ाते समय गोदान का जिक्र किया था। तभी से मेरे उपर गोदान पढ़ने का भूत सवार हो गया। लेकिन उपन्यास मिलेगा कहां, सबसे पहले मैंने पिता से पूछा। किताब की दुकान पर मिलना चाहिए- उन्होंने उतना ही कहकर पीछा छुडा लिया। मैंने स्कूल के बाहर एक दो जो किताबों की दुकाने थी वहां पूछा तो उनका कहना था – किस क्लास की किताब है पहले यह बताओ, तब देखेंगे।
इस तरह समय गुजरता रहा। एक दिन मैं अपने पिता के साथ चित्तपुर रोड से गुजर रहा था तो मैंने किताबों की एक दुकान देखी। मैं दुकान के समीप चला गया। वहां गोदान शीशे के अंदर सजी हुई थी। यह किताब मुझे चाहिए – मैंने पिता की ओर देखा।
कितने की है, पूछो – पिता के हाथ अपनी जेब की ओर थे।
साठ रूपए की – दुकानदार ने कहा।
आज तो पैसे नहीं हैं, तुम किसी दिन आकर खरीद लेना। – मैं मायुस लौट आया।
फिर मैंने अपनी जेब खर्च से चालीस रूपए जुगाड़ किए और 20 रूपए मां से लेकर गोदान खरीद लाया।
गोदान खरीदकर जितनी खुशी मुझे उस समय मिली थी, कहानी की किताब पर ज्ञानपीठ नवलेखन मिलने की घोषणा पर नहीं मिली। रात में जब सब लोग सो जाते थे तब मैं गोदान पढ़ता था और अपने गांव को याद करता था, उस गाय को याद करता था जिसे बाबा ने बेच दिया था। उन बैलों को याद करता था जो एक दिन हमारे अपने न रहे थे। तब गोदान पढ़कर घंटो मैं रोया था, और उस रोने में भी एक खास तरह का सुख था, जो बाद के दिनों में मुझे कभी नसीब नहीं हुआ। तब लगता था कि मैं कहां किस जंगल में लाकर छोड़ दिया गया हूं। गोदान में होरी का संघर्ष उन दिनों मुझे नई ऊर्जा देता रहा। तब सचमुच मैं सोचता था कि एक दिन मैं भी गोदान की तरह ही एक उपन्यास लिखूंगा। बाद में प्रेमचंद के कई उपन्यास पढ़े। लगभग सारी कहानियां पढ़ीं। लेकिन गोदान और उससे जुड़ी यादें मुझे आज भी रोमांचित कर जाती हैं। आज प्रेमचंद की जयंती है, इस अवसर पर, ये बातें जो पता नहीं कितनी महत्वपूर्ण हैं, आपसे कहने का मन किया। महान रचनाकार को मेरा नमन।।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
प्रेमचंद ने हमें कथारस लेना सिखाया. कहान… आपका संस्मरण प्रभावी है…
प्रभावपूर्ण पोस्ट …
प्रेमचन्द और उनकी कृतियाँ हमारे साहित्य की अनमोल धरोहर हैं|उनके बाद की अनेक पीढीयों ने उनसे लेखन की प्रेरणा ली है|आपने उनका जिक्र करते हुए एक अच्छे गद्य का स्वाद दिया| धन्यवाद !
बहुत सुंदर पोस्ट … !
गाय और गाँव वही हैं लोग उतने ही अकेले
"उस रोने में भी एक खास तरह का सुख था, जो बाद के दिनों में मुझे कभी नसीब नहीं हुआ। तब लगता था कि मैं कहां किस जंगल में लाकर छोड़ दिया गया हूं"
लिखना वाकई प्रेमचंद ने ही सिखाया—— बहुत सारे गाँवो में आज भी अखबार नही आते पर गुलशन नंदा, प्रेम वाजपेयी वगैरह मिल ही जाते हैं —– मनमोहक संस्मरण—- हमारी यादें भी ताज़ी हो गयी कि कैसे पापा द्वारा लाये वेदप्रकाश शर्मा के उपन्यास चोरी से पढा करते थे–
बहुत अच्छा लगा आपकी कथायात्रा के बारे में जानकर….बेहतरीन पोस्ट.