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Home कविता

विपिन चौधरी की तीन कविताएं

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in कविता, साहित्य
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17
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विपिन चौधरी लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। अब तक उनके दो काव्य संग्रह ‘अंधेरे के माध्यम से’ और ‘एक बार फिर’ प्रकाशित हो चुके हैं। अभी हाल ही में विपिन जी की एक कहानी भी परिकथा में आई है। विपिन अपनी कविताओं में एक अलग तरह के संसार को रचने की दिशा में लागातार अग्रसर हैं। इस बार प्रस्तुत है अनहद में उनकी कविताएं।
आपकी प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं।

महानगर
महानगरों में बने रहते हैं हम 
खुद को लगातार ढूँढते हुए
अभिमान से अभियान के लम्बे सफर में
बेतरतीब उलझते हुए 
महानगर की धमक  
हमें इतनी नज़दीक सुनाई देती है कि
हम इसके शोर में कहीं गुम हो जाते हैं
दूर तक बिखरी हुई उदासी से
खुशी के बारीक कणों को छानते हुऐ
महानगरों के सताये हुऐ हम, 
अपने गाँवों-कस्बों से बटोर कर 
लायी हुई खुशियों को बड़ी कँजूसी से
खर्च  करते हैं
महानगर के करीब आने पर हमें 
अपनें बरसों के गठरी किये हुऐ
सपनों को परे सरका कर उसकी कठोर ज़मीन पर
नंगे पाँवों चलने की आदत डालनी पड़ी है
तुम्हे लांघते हुए चलते चलना 
अपने आप को दिलासा देना है 
नगरों के नगर के ज़हरीलें मौसम में 
साफ खबरें भी दूषित हो जाती हैं
हमारे लिये पीड़ा का यही सबब  है
फ्लाईओवर के नीचे से गुज़रते हुऐ
एक रेडिमेड उदासी हमारे अगल-बगल में हो लेती है
लम्बी चौड़ी इमारतें और उसके  
ठीक बगल की टूटी  झोपडी हमारी दार्शनिकता को और अधिक पैना कर देती है
पर अब हम महानगर के शयनकक्ष में प्रविष्ट हो गए हैं 
यहीं से अपने आप को खोने का पूरा मुआवजा वसूल करेंगे 
तुम्हारी चाल बहुत तेज़ है महानगर 
शायद तुम खरगोश और कछुए की कहानी से वाबस्ता नहीं हो 
जिसमे एक समय के बाद खरगोश की चाल मंद पड़ जाती थी.
टीस 
मामला टीस का ना हो 
तो बेहतर
पर कम या ज्यादा  
मामला टीस का ही है
उखडती है टीस  
तो दर्द देती है
दबी रहती है 
तो कहीं ज्यादा दुख देती है
तमाम खुशगवारियाँ कहीं पीछे रह
जाती हैं
सदा से बियाबान धरती का क्या  क्हना  
तारों भरा आकाश  
भी इसके रहते सूना लगने लगता है
ना चाँद से काम निकलता है 
ना तारें  ही काम  आते हैं
कभी कम 
कभी ज्यादा 
टीस हाज़िर है भीतर हमेशा।
रंगों की तयशुदा परिभाषा के विरूद्ध
पीले रंग को खुशी की  प्रतिध्वनी के रूप में सुना था
पर कदम– कदम पर जीवन का  अवसाद
पीले रंग का सहारा लेकर ही आँखों में उतारा
किसी के बारहा याद के  पीलेपन ने आत्मा तक को
स्याह कर दिया
हर पुरानी चीज़ जो खुशी का वायस बन गयी थी
वह ही जब समय के साथ कदमताल करती हुई पीली पडने लगी तो
यह फलसफा भी हाथ से छूट गया
तब लगा की हर चीज़ को  एक टैग लगा कर कोने में रख दिया जाता है
जो बिना किसी विशेषण के अधूरी मान ली जाती है
अपनी ही कालिमा से लिप्त  अधूरा इंसान भी
बिना विशेषण के सामने की किसी अधूरी वस्तु के सामने आकर पलट आता है
नीले रंग की कहानी ने भी इसी तरह
मुझे देर तक  खूब छला
मुझे अपने साथ लेकर
यह एक बार
पानी की ओर मुड़ा
दूसरी बार आकाश की ओर
और तीसरी बार मुझे अपने भीतर समटने की तैयारी में साँस लेता हुआ
दिखाई दिया
यह लाल रंग अपनी पवित्रता को साथ लेकर 
इतिहास की लालिमा  की ओर लपका फिर वापिस  लौटा  
लहुलुहान हो कर
कुछ ही दूरी पर खड़ा केसरी रंग प्रत्यंचा पर चढ़ा
काँपा, कभी बेहिचक हो
माथे पर बिंदु- सा सिमट गया
यह ठीक है कि भूरे रंग से मुझे कभी शिकायत नहीं रही
यही मेरे सबसे नजदीक की
मिटटी में गुंधा हुआ है
अनुभव की रोशनाई में,
मैंने इसे धीमी आँच में  देर तक पकाया
यह भूरा रंग कुछ– कुछ मेरी भूख से वाबस्ता रखता है शायद
तभी जैसे ही मेरे भीतर की हाँठी रीतने लगती है उसी समय मैं
दुनियादारी से बंधन ढीले कर के इसे पकाने में जुट जाती हूँ।

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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आपकी प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं।

महानगर
महानगरों में बने रहते हैं हम 
खुद को लगातार ढूँढते हुए
अभिमान से अभियान के लम्बे सफर में
बेतरतीब उलझते हुए 
महानगर की धमक  
हमें इतनी नज़दीक सुनाई देती है कि
हम इसके शोर में कहीं गुम हो जाते हैं
दूर तक बिखरी हुई उदासी से
खुशी के बारीक कणों को छानते हुऐ
महानगरों के सताये हुऐ हम, 
अपने गाँवों-कस्बों से बटोर कर 
लायी हुई खुशियों को बड़ी कँजूसी से
खर्च  करते हैं
महानगर के करीब आने पर हमें 
अपनें बरसों के गठरी किये हुऐ
सपनों को परे सरका कर उसकी कठोर ज़मीन पर
नंगे पाँवों चलने की आदत डालनी पड़ी है
तुम्हे लांघते हुए चलते चलना 
अपने आप को दिलासा देना है 
नगरों के नगर के ज़हरीलें मौसम में 
साफ खबरें भी दूषित हो जाती हैं
हमारे लिये पीड़ा का यही सबब  है
फ्लाईओवर के नीचे से गुज़रते हुऐ
एक रेडिमेड उदासी हमारे अगल-बगल में हो लेती है
लम्बी चौड़ी इमारतें और उसके  
ठीक बगल की टूटी  झोपडी हमारी दार्शनिकता को और अधिक पैना कर देती है
पर अब हम महानगर के शयनकक्ष में प्रविष्ट हो गए हैं 
यहीं से अपने आप को खोने का पूरा मुआवजा वसूल करेंगे 
तुम्हारी चाल बहुत तेज़ है महानगर 
शायद तुम खरगोश और कछुए की कहानी से वाबस्ता नहीं हो 
जिसमे एक समय के बाद खरगोश की चाल मंद पड़ जाती थी.
टीस 
मामला टीस का ना हो 
तो बेहतर
पर कम या ज्यादा  
मामला टीस का ही है
उखडती है टीस  
तो दर्द देती है
दबी रहती है 
तो कहीं ज्यादा दुख देती है
तमाम खुशगवारियाँ कहीं पीछे रह
जाती हैं
सदा से बियाबान धरती का क्या  क्हना  
तारों भरा आकाश  
भी इसके रहते सूना लगने लगता है
ना चाँद से काम निकलता है 
ना तारें  ही काम  आते हैं
कभी कम 
कभी ज्यादा 
टीस हाज़िर है भीतर हमेशा।
रंगों की तयशुदा परिभाषा के विरूद्ध
पीले रंग को खुशी की  प्रतिध्वनी के रूप में सुना था
पर कदम– कदम पर जीवन का  अवसाद
पीले रंग का सहारा लेकर ही आँखों में उतारा
किसी के बारहा याद के  पीलेपन ने आत्मा तक को
स्याह कर दिया
हर पुरानी चीज़ जो खुशी का वायस बन गयी थी
वह ही जब समय के साथ कदमताल करती हुई पीली पडने लगी तो
यह फलसफा भी हाथ से छूट गया
तब लगा की हर चीज़ को  एक टैग लगा कर कोने में रख दिया जाता है
जो बिना किसी विशेषण के अधूरी मान ली जाती है
अपनी ही कालिमा से लिप्त  अधूरा इंसान भी
बिना विशेषण के सामने की किसी अधूरी वस्तु के सामने आकर पलट आता है
नीले रंग की कहानी ने भी इसी तरह
मुझे देर तक  खूब छला
मुझे अपने साथ लेकर
यह एक बार
पानी की ओर मुड़ा
दूसरी बार आकाश की ओर
और तीसरी बार मुझे अपने भीतर समटने की तैयारी में साँस लेता हुआ
दिखाई दिया
यह लाल रंग अपनी पवित्रता को साथ लेकर 
इतिहास की लालिमा  की ओर लपका फिर वापिस  लौटा  
लहुलुहान हो कर
कुछ ही दूरी पर खड़ा केसरी रंग प्रत्यंचा पर चढ़ा
काँपा, कभी बेहिचक हो
माथे पर बिंदु- सा सिमट गया
यह ठीक है कि भूरे रंग से मुझे कभी शिकायत नहीं रही
यही मेरे सबसे नजदीक की
मिटटी में गुंधा हुआ है
अनुभव की रोशनाई में,
मैंने इसे धीमी आँच में  देर तक पकाया
यह भूरा रंग कुछ– कुछ मेरी भूख से वाबस्ता रखता है शायद
तभी जैसे ही मेरे भीतर की हाँठी रीतने लगती है उसी समय मैं
दुनियादारी से बंधन ढीले कर के इसे पकाने में जुट जाती हूँ।

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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Comments 17

  1. अपर्णा says:
    14 years ago

    vipin ko badhai! achchhi hain kavitaen!

    Reply
  2. नंद भारद्वाज says:
    14 years ago

    "महानगरों के सताये हुऐ हम,
    अपने गाँवों-कस्बों से बटोर कर
    लायी हुई खुशियों को बड़ी कँजूसी से
    खर्च करते हैं"
    गहरी देशज संवेदना के साथ रची गई सहज कविताएं। जहां एक ओर ये महानगरों में जीवन की विडंबना और विषम हालात पर ध्‍यान आकर्षित करती हैं, तो दूसरी ओर रंगों की बदलती भूमिका पर भी सोचने का अवसर देती है। इन अच्‍छी कविताओं के लिए विपिन को बधाई।

    Reply
  3. sumita singh says:
    14 years ago

    vipin ji , aap ne aaj kee jeevan ki sacchaee ka bahut hee sunder varnan kiya hai!

    Reply
  4. manoj chhabra says:
    14 years ago

    Hisar ki Vipin mahanagar me bhi utna hi achchha likh rahi hai… yah sachmuch sukhad hai…

    Reply
  5. vandan gupta says:
    14 years ago

    ।बहुत सुन्दर रचनायें।

    Reply
  6. sudesh says:
    14 years ago

    hu / achchha h / dil ko chhu jati h aapki rachnayen / thhora bhitar se nikalne ki koshish bhi ho to thhik rahega /

    Reply
  7. विजय गौड़ says:
    14 years ago

    achchhi kavitain hai, kahaini bhi padhni padegi.
    shubhkamnain. vimlesh aabhar padhwane ke liye.

    Reply
  8. गौतम अरोड़ा says:
    14 years ago

    उखडती है टीस
    तो दर्द देती है
    दबी रहती है
    तो कहीं ज्यादा दुख देती है

    अच्छा है !!!! शब्दो मे ढालने का सुन्दर प्रयास !!!

    Reply
  9. वीना श्रीवास्तव says:
    14 years ago

    उखडती है टीस
    तो दर्द देती है
    दबी रहती है
    तो कहीं ज्यादा दुख देती है

    यह ठीक है कि भूरे रंग से मुझे कभी शिकायत नहीं रही
    यही मेरे सबसे नजदीक की
    मिटटी में गुंधा हुआ है
    अनुभव की रोशनाई में,
    मैंने इसे धीमी आँच में देर तक पकाया
    यह भूरा रंग कुछ- कुछ मेरी भूख से वाबस्ता रखता है शायद
    तभी जैसे ही मेरे भीतर की हाँठी रीतने लगती है उसी समय मैं
    दुनियादारी से बंधन ढीले कर के इसे पकाने में जुट जाती हूँ।

    बहुत सुंदर पंक्तियां…तीनो ही कविताओं में सुंदर अभिव्यक्ति,
    ऐसी रचना पढ़वाने के लिए आभार

    Reply
  10. सुशीला पुरी says:
    14 years ago

    'ना चाँद से काम निकलता है
    ना तारें ही काम आते हैं
    कभी कम
    कभी ज्यादा
    टीस हाज़िर है भीतर हमेशा'
    !!!!!!!!!!!!!!!
    बहुत खूब ….

    Reply
  11. Vibha Rani says:
    14 years ago

    अच्छी.

    Reply
  12. Anonymous says:
    14 years ago

    उखडती है टीस
    तो दर्द देती है
    दबी रहती है
    तो कहीं ज्यादा दुख देती है
    achchhi koshish hai.

    ranjana srivastava

    Reply
  13. रमेश शर्मा says:
    14 years ago

    vipin ji ki kahaani maine parikathaa me paddi hain.sanyog se isi ank me meri bhi ek kahaani MUKTI chhapi hai.
    VIPIN ji ki kavitaaye tthar kar sochne ko majbur karati hain.unhe meri badhai.

    RAMESH SHARMA
    (shaharnamaraigarh.blogspot.com)

    Reply
  14. IRFAN says:
    14 years ago

    wah!अपने गाँवों-कस्बों से बटोर कर
    लायी हुई खुशियों को बड़ी कँजूसी से
    खर्च करते हैं….

    Reply
  15. Dinesh pareek says:
    14 years ago

    आप की बहुत अच्छी प्रस्तुति. के लिए आपका बहुत बहुत आभार आपको ……… अनेकानेक शुभकामनायें.
    मेरे ब्लॉग पर आने एवं अपना बहुमूल्य कमेन्ट देने के लिए धन्यवाद , ऐसे ही आशीर्वाद देते रहें
    दिनेश पारीक
    http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/
    http://vangaydinesh.blogspot.com/2011/04/blog-post_26.html

    Reply
  16. Anonymous says:
    14 years ago

    Comment from premchand sahajwala तीनों कवितायेँ सशक्त हैं. मुझे व्यक्तिगत रूप में 'टीस' कविता सर्वाधिक हृदय के निकट लगी. आज की युवा पीढ़ी में जो अच्छी कविता लिख रहे हैं, उनमें से एक अचछा और संभावनाशील नाम विपिन जी का लगता है. वैसे कविता जितने नगण्य लोग पढ़ते हैं उतने ही असंख्य लोग उसे लिखते हैं. यह अपने आप में एक पहेली है. कविता के सैलाब में ऐसी अच्छी कविताएँ खोजना एक कठिन कार्य है. विपिन जी कविता के नए क्षितिजों तक पहुंचे, मेरी शुभकामना.

    Reply
  17. Anuvad says:
    13 years ago

    बहुत सुन्दर रचनायें।बहुत खूब

    Reply

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2009-2022 अनहद कोलकाता by मेराज.

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