• मुखपृष्ठ
  • अनहद के बारे में
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक नियम
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
अनहद
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • समीक्षा
    • संस्मरण
    • विविध
  • कला
    • सिनेमा
    • पेंटिंग
    • नाटक
    • नृत्य और संगीत
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विविध
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • समीक्षा
    • संस्मरण
    • विविध
  • कला
    • सिनेमा
    • पेंटिंग
    • नाटक
    • नृत्य और संगीत
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विविध
No Result
View All Result
अनहद
No Result
View All Result
Home कला

‘लिपस्टिक अंडर माय बुरका’ की एक जरूरी समीक्षा शिवानी गुप्ता द्वारा

by Anhadkolkata
June 20, 2022
in कला, सिनेमा
A A
0
Share on FacebookShare on TwitterShare on Telegram

लिपस्टिक अंडर माय बुरका  
भारतीय सिनेमा और समाज के लिए 
                    बेहद जरूरी फिल्म                                  
– शिवानी गुप्ता

लिपस्टिक अंडर माय बुरकाभोपाल की चार स्त्रियों को केन्द्र में रख कर चलती फिल्म है जिसमें चार भिन्न पृष्ठभूमि की स्त्रियाँ ब्यूटीशियन, कॉलेज गर्ल, हाउसवाईफ और 55 साल की ‘ओल्ड विडो वुमन’ की ‘फ्रिडम’ के कई पहलुओं पर निर्देशिका अलंकृता स्वास्तिक खुली बात रखती हैं। अलंकृता खुद इस फिल्म की स्टोरी राइटर हैं और यह इनकी पहली फिल्म है। लाजवाब ये कि इस कहानी का माध्यम पर्दा आपका ध्यान कुछ हद तक कलात्मक फिल्मों की तरफ ले जाता है। कलाकारों में कोकंणा सेन, रत्ना पाटकर, अहाना कुमारा, पल्मपिता ठाकुर ने जिस तरह से अभिनय को ऊँचाई दी है वह काबिल-ए-तारीफ है ,लेकिन रत्ना पाटकर की बुआ जी की भूमिका अपने खास फैलाव में स्त्री को खोलती है जिसे नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। फिल्म में स्त्री की सेक्सुएलटी एक पीड़ा के रुप में उभरती है। अलंकृता शायद स्री के इसी खास पक्ष पर बात करना चाहती थी। भारतीय समाज जिस तरह से स्त्री के सेक्सुअल पक्ष को ढांक तोप के चार तहों में रखता है ,बात करना तो दूर सामान्य-सी नैतिक जानकारियों का जहाँ घोर आकाल है – वहाँ Lipstick under My burkha जैसी फिल्में बननी ही चाहिए  थी।
स्त्री देह का खुलापन जिस तरह से पुरुष मानसिकता में कुंठा की हद तक दर्ज है वहाँ स्त्री के देह का रिसता हुआ दर्द भला किस खाने में रखा जा सकता है? सेन्सर की लडाई लड़कर एक साल विलम्ब से आयी यह फिल्म बड़ी बारीक लेकिन आम जिन्दगी में औरत के सवाल को जोड़ती है, साथ ही यह बताना चाहती है कि स्त्री देह सिर्फ वह नहीं जिसे देखने समझने के आप आदी हैं, स्त्री की देह एक बहुत ही नाजुक और प्राकृतिक मसला है जिसे बेहद अप्राकृतिक माहौल में सड़न  की हद तक पहुँचने पर विवश कर दिया  गया है। हाउस वाइफ की भूमिका में कोकंणा सेन बिस्तर पर रोज-रोज सेक्स के जरिये कुंठा निकालते पति की खामियाँ छुपाती जब यह कहती है कि वो “ज़ज्बात मे  बह जाते हैं”इसलिए वह बार-बार गर्भवती होती है, इनफैक्शन की शिकार होती है और तीन-तीन बच्चे गिराती है।  यह भारतीय समाज की उन तमाम मध्यवर्गीय स्त्रियों का चित्र है जिनके लिए सेक्स एक ऐसी पीड़ा है जिसमें रोज अपमानजनक स्थितियों से गुजरता स्त्री का ‘शरीर’ देह की पुलकन और प्यार नहीं महसूसता बल्कि यंत्रवत संचालित होता रहता है।
एक चरित्र ब्यूटीशियन की भूमिका में अहाना कुमारा का है जिनके बोल्ड सीन चर्चा का विषय हैं लेकिन मुद्दे की बात है कि फाइन आर्ट में न्यूड पेंटिग की मॉडल के रुप में काम करती माँ का बरसों से उसी नग्न मुद्रा में पीरियड के दौरान भी बैठे रहना, खुद ब्यूटीशियन की सेक्सुएलटी की फ्रिडम प्लस प्रेम की छटपटाहट  ऐसे प्रश्न दागती है जहाँ जवाब की गुंजाईश भी नहीं निकलती । 55 साल की उम्र में एक सेक्स किताब चोरी चुपके पढ़ती बुआ जी रोजी की कहानी में खुद की देह के खालीपन को जीती एक जवान स्वीमिंग ट्रेनर के प्रेम डूबती अपमानित होती स्त्री की दबी सेक्स पीड़ा का लाजवाब फिल्मांकन है। घर की दुकान पर बुरका सीती और कॉलेज में जीन्स पहनने की आजादी की लड़ाई लड़ती पल्मपिता का करेक्टर मध्यवर्गीय टीन एज लड़कियों के भीतर के गुस्से, घुटन और विरोध का प्रतिबिम्ब है। फिल्म में ये चारों करेक्टर एक खास बेचैनी में भागते दौड़ते एक दूसरे से टकराते हैं जैसे  रुक -रुक कर एकदूसरे का दर्द समझ लेते हों और अपनी जानीब एक दूसरे की मदद कर देते हों।
फिल्म का अंत भी बड़ा मारक है । अपनी -अपनी आजादी और भावात्मक सहारे को खोजती ये चारों पात्र जब बाहर की दुनिया में जाती हैं – वहाँ जबरदस्त हँसी और ठगी की शिकार होती हैं – उन्हीं से जिनके सहारे वे इस नये खुले आसमान की तलाश करने निकली हैं। समाज मे रिश्ते किस तरह स्त्रियों की कब्रगाह बन चुकें हैं और इस कब्रगाह से खुद को मुक्त करने की छटपटाहट में भागती औरतें अंत में इस नतीजे पर पहुँचती है कि तलाश अपने भीतर करनी हैं “हम औरतें सपने ज्यादा देखती है” इसलिए अपनी इस हालत की जिम्मेदार भी हम ही हैं। दर्द की सीमा के पार जाती चारों जब सिगरेट के धुएँ में अपनी नाकामी को उड़ाती हँसती हैं तो दुनिया की सबसे मुक्त औरतें नजर आती हैं। फेमिनिज्म की सूक्ष्म पकड़ की यह सबसे अहम कड़ी है जिसके बगैर स्त्री के किसी भी सवाल का जवाब सम्भव नहीं।
फिल्म में सुशांत सिंह और विक्रम मैसी की अदाकारी को भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। किसी भी ड्रामें(फिल्म) का सबसे नाजुक और कमजोर पक्ष सेक्स सीन होते हैं ,जरा सी भी चूक पटकथा की संवेदना को मटियामेट करने में कसर नहीं रखती और अभिनेता की मानसिक तैयारी की यहाँ जबरदस्त जरुरत होती है – सुशांत सिंह और रत्नापाटकर इसमें सफल दिखते हैं।
कहानी के अनुसार लोकेशन का चयन उम्दा है। नगरों,महानगरों के मध्यवर्गीय कमरे, पुरानी हवेलीनुमा जर्जर इमारत, भीड़ में सोते -जागते परिवार, लाइटिंग में अंधेरे का खास प्रयोग पटकथा के विषय के लिए जरुरी काम करता है।
कुल मिलाकर यह फिल्म भारतीय सिनेमा के नये दौर में अपनी जगह बनाती दिखती है। फिर भी यहाँ एक बात कहना जरूरी है कि इस फिल्म को देखने के लिए एक परिपक्व समझ की जरुरत है जिसका अभाव सिनेमा हॉल में उठते-गिरते माहौल कौ देखकर आसानी से लग रहा था और सबसे ज्यादा पुरुषों की कुंठाग्रस्त मानसिकता सिनेमाहॉल के पर्दे पर चलती फिल्म के साथ सिनेमा हॉल को एक कर दे रही थी।  प्रकाश झा प्रोड्यूशर के रुप में एकबार फिर प्रशंसा के पात्र हैं।  मुझे लगता है ऐसी और भी बहुत सी फिल्मों की भारतीय सिनेमा को जरुरत है ।
                                                               ****
                

शिवानी गुप्ता युवा समीक्षक और प्राध्यापक हैं। फिलहाल वाराणसी में रहनवारी है।

Related articles

विभावरी का चित्र-कविता कोलाज़

कला दीर्घा – ख्यात भारतीय चित्रकार रामकुमार पर पंकज तिवारी का आलेख

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

ShareTweetShare
Anhadkolkata

Anhadkolkata

अनहद कोलकाता में प्रकाशित रचनाओं में प्रस्तुत विचारों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है. किसी लेख या तस्वीर से आपत्ति हो तो कृपया सूचित करें। प्रूफ़ आदि में त्रुटियाँ संभव हैं। अगर आप मेल से सूचित करते हैं तो हम आपके आभारी रहेंगे।

Related Posts

विभावरी का चित्र-कविता कोलाज़

विभावरी का चित्र-कविता कोलाज़

by Anhadkolkata
August 20, 2022
0

  विभावरी विभावरी की समझ और  संवेदनशीलता से बहुत पुराना परिचय रहा है उन्होंने समय-समय पर अपने लेखन से हिन्दी की दुनिया को सार्थक-समृद्ध किया है।...

कला दीर्घा – ख्यात भारतीय चित्रकार रामकुमार पर पंकज तिवारी का आलेख

by Anhadkolkata
June 25, 2022
12

Normal 0 false false false EN-US X-NONE HI भारतीय अमूर्तता के अग्रज चितेरे : रामकुमारपंकज तिवारीभारतीय चित्रकला यहाँ की मिट्टी और जनजीवन की उपज है। इसमें...

क्यों देखनी चाहिए पंचलैट – स्मिता गोयल एवं यतीश कुमार

by Anhadkolkata
June 20, 2022
2

पंचलैट -  साहित्य को सिनेमा को करीब लाने का एक साहसिक प्रयासस्मिता गोयलयतीश कुमारआंचलिक भाषा और हिंदी साहित्य के अमर कथा शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी...

आजादी के बाद हिन्दी को लेकर हुए मजाक पर बनी उम्दा फिल्म – ‘हिन्दी मिडियम’ – शिवानी गुप्ता

by Anhadkolkata
June 25, 2022
2

Normal 0 false false false EN-US X-NONE HI MicrosoftInternetExplorer4 शिवानी गुप्ताशिवानी गुप्ता युवा प्राध्यापक और आलोचक हैं, समकालीन महिला उपन्यासकारों पर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से शोध...

Next Post

रश्मि भारद्वाज की कविताएँ

संदीप प्रसाद की कुछ नई कविताएँ

हरिशंकर परसाई की दो कविताएँ

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2009-2022 अनहद कोलकाता by मेराज.

No Result
View All Result
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • समीक्षा
    • संस्मरण
    • विविध
  • कला
    • सिनेमा
    • पेंटिंग
    • नाटक
    • नृत्य और संगीत
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विविध

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2009-2022 अनहद कोलकाता by मेराज.