जेएनयू को बचाने की ज़रूरत है
डॉ. ऋषि भूषण चौबे
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डॉ. ऋषि भूषण चौबे
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पिछले साल देश के नामी विश्वविद्यालयों में शुमार जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली (जेएनयू ) में कुछ लोगों ने तथाकथित तौर पर देश विरोधी नारे लगाये थे । इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना पर वहाँ के तत्कालीन छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने अपना पक्ष साफ़ साफ़ रखने में थोड़ी देरी कर दी। इस जाने- अनजाने में की गई देरी का व्यावसायिक लाभ ,देश के दो तीन चर्चित हिन्दी समाचार चैनलों ने उठा लिया। नतीजतन उनकी टीआरपी काफी बढ़ गई। इस सनसनीखेज़ समाचार और बहस की वजह से कुछ न्यूज़ एंकर हिन्दी मीडिया जगत के नये हीरो भी बन गये। उनकी यह हीरोपंति अभी तक चल रही है। अब देश भक्ति और देश द्रोह जैसे मुद्दे इनके चैनल के स्थाई विषय बन चुके हैं। खैर, यह मसला जेएनयू और मीडिया तक ही सीमित नहीं रहा। केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी और प्रमुख गैर बीजेपी पार्टियाँ एक के बाद एक इसमें कूद पड़ीं। बीजेपी के लिए यह देश की एकता , अखण्डता और संप्रभुता पर हमले के समान था । अतः देशद्रोह का मामला था । अरविंद केजरीवाल, राहुल गाँधी और सीता राम येचुरी आदि बड़े राजनेताओं ने इसे खतरे में पड़ चुके लोकतंत्र , अभिव्यक्ति की आज़ादी और सहिष्णुता को बचाने का बड़ा अवसर माना। वे जेएनयू और कन्हैया कुमार के साथ खड़े हो गये। कुलमिलाकर ,राजनीति शुरू हो गई । देश के गृहमंत्री और दिल्ली पुलिस के प्रमुख भी इस राजनीति से ख़ुद को बचा नहीं सके । इस तरह मामला बातों बातों में कोर्ट, जेल और दुनिया भर के अकादमिक संस्थानों तक पहुँच गया । हम तो डूबेंगे सनम, साथ में तुम्हें भी ले डूबेंगे वाली कहावत चरितार्थ हुई। जेएनयू और सरकार दोनों की किरकिरी हुई।
तथाकथित नारे लगाने वाले कश्मीरी लड़के , जो की कश्मीर में आये दिन लगाते रहते हैं , इसी आपाधापी में, जो एक बार गुम हुए , वो आज तक दिल्ली पुलिस की पकड़ में नहीं आ सके। इस मामले में , जब लोगों को कुछ समझ में नहीं आया तो सारी कहानी वहीं के एक छात्र यूनियन से ही जुड़े उमर खालिद नाम के छात्र के सिर पर मढ़ दिया गया। उस छात्र ने भी समय रहते ढंग से कोई सफ़ाई नहीं दी। घटना के तीन दिन बाद तक वह ‘आइडियोलाजी – आइडियोलाजी ‘ समझाता रहा। वह यह समझने में चूक गया कि मीडिया, सरकार और उसकी महान ‘आजादी – आजादी‘ वाली आइडियोलोजी के चक्कर में जेएनयू की छवि देश की आम जनता की नजरों में धूमिल होती जा रही है या कहें की जा रही है । देखते देखते सत्तारुढ़ दल ( बीजेपी) के कुछ अनपढ़ राजनेताओं और कुछ कुपढ़ टीवी पत्रकारों ने जेएनयू को अपनी अपनी कुंठाओं का आखेट स्थल बना दिया।उनके अपने खबरों और बयानों में , ये तक बताया जाने लगा कि वहाँ के छात्रावासों से रोज भारी मात्रा में शराब की बोतलें और अन्य आपत्तिजनक चीजें बाहर निकलती हैं । वहाँ फ्री में पढ़ाई होती है। देश के जवानों के शहीद होने पर वहाँ खुशी मनाई जाती है। वहाँ नक्सलवाद की शिक्षा दी जाती है। वहाँ के विद्यार्थी और शिक्षक कश्मीर पर भारत के अधिकार को उचित नहीं मानते। वहाँ हर समय देश के टुकड़े करने का साजिश रचा जाता है। इसी तरह वहाँ पढ़नेवाली देश की होनहार लड़कियों के बारे में घोर निंदनीय बातें कहीं गईं। इतना ही नहीं अनगिनत कपोल कथाएँ गढ़ी और फैलाई गईं, जो आज तक जारी है । नेता बेलगाम बोल रहे थे , मीडिया अपनी टीआरपी बढ़ा रही थी और प्रशासन चुपचाप देशद्रोह बनाम देश भक्ति रुपी इस महायज्ञ में चुपचाप अपना हाँथ सेंकता रहा!
सवाल है , देश में मोदी सरकार के आने के बाद ऐसा क्या हो गया कि हर जगह जेएनयू, जेएनयू होने लगा? देखिए जनाब, हमारे प्रधानमंत्री जी ‘ कांग्रेस मुक्त भारत‘ चाहते हैं। इसे वो कहते रहे हैं। यह कोई छिपी बात नहीं। पर उन्हें वामपंथ मुक्त भारत भी चाहिए जो वो नहीं कहते या कहना जरुरी नहीं समझते क्योंकि उन्हें लगता है कि जो है ही नहीं उस पर नारा गढ़ने भर का भी वक्त क्यों लगाना! लेकिन वो जानते हैं कि वामपंथ शासन से दूर हो गया पर एक विचार के रुप वह है और वह रहेगा । इस विचारधारा में साधारण आदमी / औरत की गरिमा , रोटी और मजदूरी की बात की गई है और इस देश को अभी इन तीनों बातों की जरुरत है। इन तीनों का सम्बन्ध आदमी के वजूद से है और जाहिर है तब वोट से भी है ही! और यह विचार जेएनयू में पलता- बढ़ता है। इसलिए जेएनयू की राजनीति बीजेपी की राजनीति से मेल नहीं खाती। उनके अनुसार वहाँ के लाल ईटों की दीवारों पर राष्ट्रवाद का गेरुआ रंग चढ़ाना जरुरी है।
आजाद भारत की जमीनी सच्चाइयों और चुनौतियों को,अगर अपने देश के किसी एक अकादमिक संस्थान ने मुकम्मल तौर पर समझा है, तो वह है – जेएनयू । पिछले 50 वर्षों से यह संस्थान देश की वास्तविक चुनौतियों को समझते हुए, इसे एक सही दिशा और स्वरूप दे रहा है। यहाँ से निकले विद्यार्थियों ने अपनी मेहनत, निष्ठा और प्रतिभा के बल पर देश और दुनिया में एक मिशाल पेश की है । इसे सभी मानते हैं कि देश के शैक्षिक और प्रशासनिक जगत में जेएनयू ने अतुलनीय योगदान दिया है । साथ ही यह संस्थान लगातार उच्चतम शैक्षिक मानकों पर अधिकत्तम अंक लाकर हर कसौटी पर खरा उतरता आया है। इसकी गिनती दुनिया के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में की जाती है। देशी शिक्षण संस्थानों के लिए इसे एक आदर्श की तरह देखा जाता है। इतना ही नहीं , इसकी श्रेष्ठता और बेहतर कार्यशैली की मिसालें देश के सर्वोच्च न्यायालय के जजों से लेकर राष्ट्रपति महोदय तक अलग अलग संदर्भों में देते रहे हैं। संक्षेप में, शैक्षिक , प्रशासनिक, वैज्ञानिक , कम्प्यूटर विज्ञान , सामाजिक, रजनैतिक,ऐतिहासिक, न्यायिक, भाषा वैज्ञानिक, साहित्यिक, कलागत , सांस्कृतिक आदि सभी क्षेत्रों में यहाँ के विद्यार्थियों ने बेजोड़ प्रदर्शन किया है।
यहाँ की दाखिला और मूल्यांकन नीति दुनिया के लिए एक मिसाल है। देश का गरीब से गरीब विद्यार्थी, यहाँ बिना किसी जातीय, लैंगिक,भाषाई और क्षेत्रीय भेदभाव के अपनी पढ़ाई पूरी करता है। गौरतलब है कि देश के गरीब और वंचित तबकों के विद्यार्थियों की संख्या, यहाँ शुरु से ही अधिक रही है। यहाँ के अध्यापकों ने अपनी वैश्विक सूझबूझ और अपने अथक प्रयासों से एक ऐसे अकादमिक परिवेश का निर्माण किया है जहाँ हर एक विद्यार्थी अपने को अपने सजग व जग्रत विवेक के अनुसार गढ़ सके, अंतहीन सवाल कर सके,जो कुछ भी अतार्किक और अप्रासंगिक लगे, उसे मानने से इन्कार कर सके। इस तरह मानवीय सभ्यता और संस्कृति ( केवल भारतीय नहीं ) को निरन्तर नवीन और परिष्कृत करने में अपनी भूमिका निभा सके – बिना किसी भय और दबाव के।
जेएनयू वास्तविक अर्थ में एक लघु भारत का नमूना है। देश के हर एक कोने से विद्यार्थी यहाँ पढ़ने आते हैं। इसे सम्भव करने के लिए देश के सभी राज्यों के प्रमुख 37 शहरों में यहाँ दाखिले के लिए परीक्षा आयोजित की जाती है। देश के दूर दराज के अविकसित इलाकों के विद्यार्थियों को अतिरिक्त बोनस अंक दिया जाता है। इसी तरह कम वार्षिक आय वाले घरों के विद्यार्थियों और लड़कियों को विशेष महत्व देते हुए अतिरिक्त अंक दिया जाता है। गौरतलब है कि ये सभी अतिरिक्त अंक आरक्षण नीति के अलावे दिये जाते हैं। इन कदमों का यही उद्देश्य है कि सामाजिक न्याय , गरीब-अमीर की खाई में कमी और स्त्री – पुरुष समानता के संवैधानिक लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके। कुलमिलाकर, गरीबी, जाति , धर्म, लिंग , भौगोलिक चुनौतियाँ और भाषा आदि अन्य कोई भी कारक किसी भी छात्र- छात्रा के व्यक्तिव के विकास में बाधा न बने और हर एक प्रतिभा के विकास के लिए मज़बूत जमीन और खुला आकाश मिल सके – यही जेएनयू की बुनियादी पहचान रही है।
एक उदाहरण कन्हैया कुमार का ही लीजिए। कन्हैया की बातें पूरे देश ने सुनी है। उसने अपने किसी संवाद में कभी शालीनता और वैचारिक तर्किकता नहीं खोई। तथ्य, तर्क और साफगोई के साथ हर समय अपना पक्ष रखा। कन्हैया कुमार के घर की मासिक आय तीन हजार रुपये महीना बताई गई है। यहाँ यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि वह या कोई भी जेएनयू में फ्री में नहीं पढ़ता। हाँ, वहाँ के विद्यार्थी अलग अलग किस्म की छात्रवृतियां पाते हैं जिससे वे आत्मनिर्भरता के साथ अपनी पढ़ाई पूरी कर पाते हैं।
जेएनयू की अध्यापन और मूल्यांकन नीति की भी खासतौर पर चर्चा होती है। यह एक पूर्णतः आवासीय विश्वविद्यालय है। यहाँ विद्यार्थी और अध्यापक के बीच एक सहज मेलजोल का रिश्ता है । विद्यार्थी और शिक्षक के लिए कोई क्लास रजिस्टर नहीं है। यहाँ स्व-अनुशासन की परंपरा है । बुनियादी रुप से यहाँ के पाठ्यक्रम अन्तरविषयक हैं। यानी ज्ञान को कटघरों बाँटकर देखने की दृष्टि नहीं है। कोई किसी भी विषय की कक्षा में बैठकर ज्ञान ले सकता। यहाँ होनेवाले सभा संगोष्ठियों में इस ज्ञानपरक विविधता को आसानी से देखा जा सकता है। यहाँ के अध्यापकों को पाठ्यक्रम निर्धारण , अध्यापन और मूल्यांकन सम्बन्धी अपेक्षित स्वायत्तता मिली हुई है । कक्षाएँ अध्यापक और विद्यार्थी की आपसी सहमति के आधार पर होती हैं। इस संदर्भ में प्रशासनिक दखलन्दाजी नहीं होती। यहाँ शिक्षक – छात्र का आदर्श अनुपात १:१० का है ।
जेएनयू में वैचारिक बहस की शानदार परम्परा है। यहाँ होनेवाले विमर्शों के दायरे में पूरा विश्व समाया रहता है। देश और दुनिया की हर छोटी -बड़ी घटनाओं पर यहाँ चर्चा- परिचर्चा होती है। सामान्यतः ये चर्चाएँ दोपहर और रात के भोजन के दौरान और उसके बाद होती हैं। अलग अलग विचारधाराओं पर आधारित पर्चे लिखे और पोस्टर छापे जाते हैं। देश और दुनिया की बड़ी से बड़ी हस्तियां यहाँ के छात्रावासों के डिनर कक्ष के बेंचों पर बैठकर अपनी बात रखने में गौरव महसूस करती रही हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न सेमिनार कक्षों में वैश्विक स्तरीय व्याख्यानों और सवाल – जबाव का दौर चलता ही रहता है।
हालांकि यहाँ की मुखर विचारधारा वामपंथ रहा है लेकिन दक्षिणपंथ भी कभी बहुत कमजोर नहीं रहा। छात्र संगठन के चुनाव के दौरान यहाँ होने वाले बहसों की चर्चा बेमिसाल है। तर्क और पूरी वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ हर एक प्रत्याशी अपनी बात रखता है। बहस में गर्मा गर्मी बनी रहती है पर वह हिंसा का रुप कभी नहीं लेती। एक लक्ष्मण रेखा सबके सामने खींची होती है। पुलिस की गाड़ी जेएनयू की संस्कृति में सबसे कम स्थान घेरती है। यह वहाँ के मजबूत संस्कारों को दर्शाता है। यहाँ के छात्र संघ चुनाव पद्धति को सुप्रीम कोर्ट ने आदर्श मानते हुए देश के शैक्षिक संस्थानों को इसे अपनाने की सलाह दी है। यहाँ की चुनाव प्रक्रिया में जेएनयू प्रशासन की कोई भूमिका नहीं होती। सबकुछ विद्यार्थियों द्वारा संचालित किया जाता है।
जेएनयू में होनेवाले इन चर्चाओं में ब्राह्मणवाद, सामंतवाद, स्त्रीवाद, सामाजिक न्याय, साम्प्रदायिकता, आतंकवाद, धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्रवाद, भूमंडलीकरण, पूंजीवाद और अमेरिकी वर्चस्व आदि विषयों पर अधिक बातचीत होती है। इनके अलावा कश्मीर, तिब्बत समेत देश और दुनिया के तमाम विवादित मुद्दों पर आये दिन बहसों का दौर चलता रहता है। यहाँ सबको सबकुछ बोलने और सुनने की आजादी है। हिंसा रहित लोकतंत्र, जिसमें परस्पर विरोधी विचारों के प्रति सहनशीलता को प्रमुख स्थान है, यहाँ कि आबोहवा में शामिल है। यहाँ कई तरह के छात्र संगठन हैं। कुछ संगठनों की सदस्य संख्या पाँच से भी कम है। इन्हीं में से एक संगठन ने अफजल गुरु के फांसी की सज़ा को गलत मानते हुए एक ‘स्मृति‘-सह -विरोध मार्च ‘का आयोजन किया था। उसमें उसने कश्मीर के कुछ छात्रों को भी शामिल किया था। इन्हीं कश्मीरी छात्रों ने तथाकथित तौर पर कश्मीर की आज़ादी और ‘भारत विरोधी‘ नारे लगाये थे। और यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना, जिसे थोड़ी सूझबूझ के साथ सम्भाला जा सकता था , पूरे देश में एक महान शैक्षिक संस्थान की छवि को मटियामेट करने का कारण बन गई।
ग़ौरतलब है कि जेएनयू से हर सत्ता दल घबराता रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी, जिन्होंने इस विश्वविद्यालय की स्थापना की है , के आपातकाल की घोषणा का पूरजोर विरोध इस कैम्पस से शुरु हुआ और एक देशव्यापी आन्दोलन बना। नतीजा, उनकी सत्ता चली गई। देश को कांग्रेस का विकल्प मिल गया। यह सही है कि यह कैम्पस विरोध और आन्दोलन के लिए अधिक जाना जाता है। पर ये विरोध प्रदर्शन और आन्दोलन जनहित और देश हित में होते रहे हैं न कि किसी के व्यक्तिगत व राजनीतिक स्वार्थ की सिद्धि के लिए!
जेएनयू कैम्पस के बारे में यह भी कहा जाता है कि यहाँ के महौल में वामपंथी रुझान कुछ अधिक है। यहाँ की विरोध संस्कृति एकतरफा है। गैर वामपंथी विचारकों एवं विचारधाराओं के प्रति एक कमतरी का भाव दिखाई देता है।यहाँ के वामपंथी संगठन अपने विरोधियों द्वारा बुलाये गये वक्ताओं को कैम्पस में घुसने या बोलने नहीं देते हैं। साल 2007 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह को भी बोलने नहीं दिया गया। उन्हें अमेरिकी व्यापारिक नीतियों का पोषक बताकर उनके खिलाफ नारेबाजी हुई और उन्हें अपनी बात बीच में रोककर जाना पड़ा। इस तरह के विरोध और रोका- रोकी बीजेपी से जुड़े राजनेताओं के साथ तो अक्सर होता रहा है। निसंदेह इन बातों में, दुर्भाग्यवश कुछ हदतक सच्चाई रही है । वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में, कैम्पस में जो वैचारिक तनाव है उसकी एक वजह , एक पक्ष विशेष के द्वारा पुराना हिसाब – किताब ‘ बराबर‘ कर लेने की चाहत भी जान पड़ती है !
अंत में, पिछले कुछ दिनों से जैसी खबरें आ रही हैं वह जेएनयू जैसी उत्कृष्ट संस्थान के भविष्य पर ग्रहण लगने जैसा है। वर्तमान राजनीतिक सत्ता जेएनयू के खिलाफ दिखाई दे रही है। इसकी स्वायत्तता और ख़ासियत को एकरुपता के नाम पर खत्म किया जा रहा है। यह गहरे चिन्ता की बात है। इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के खिलाफ जेएनयू से जुड़े दुनिया भर के बुद्धिजीवी और प्रशासनिक जगत के दिग्गज अपनी चिंताओं से देश की जनता और सरकार को अवगत करा रहे हैं। सबकी यही मंशा है कि जेएनयू बचना चाहिए और देश के किसी भी शिक्षण संस्थान के साथ राजनीतिक खिलवाड़ नहीं किया जाना चाहिए।
नोटः पिछले दिनों सलाम दुनिया में प्रकाशित।
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डॉ. ऋषि भूषण चौबे
सहायक प्रोफेसर
प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय
मोबाइल –8334956052
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
सत्य को उजागर करती हुई बेहद अच्छा आलेख…..।
लेख की लंबाई बहुत ज्यादा है।
बहुत आभार जिनने अपनी राय दी और जिनलोगों ने यह पृष्ठ देख-पढ़ा।
भाई ऋषि चौबे जी प्रेसीडेंसी को भी तो बचाने की जरूरत है ! फोर्वोर्ड प्रेस की रिपोर्टिंग तो यही कहती है ! आपने पढ़ा नहीं क्या कि हिन्दी विभाग में किस तरह लोगों को हटाया गया !