कथाकार एवं आलोचक राकेश बिहारी के अतिथि संपादकत्व में निकट का एक ऐसा अंक छपकर आया है जो अपनी सामग्री और अपने तेवर में बिल्कुल अलहदा और संग्रहणीय है। इसमें 25 कथाकारों की पहली कहानियों के साथ उनकी पहली कहानी के लेखन से जुड़े उनके आत्मकथ्य (अनुभव) को शामिल किया गया है जो वाकई बहुत दिलचस्प है। राकेश बिहारी ने इस अंक के संपादन में बहुत मिहनत की है और इसका परिणाम यह है कि अंक न केवल पठनीय है, वरन् संग्रहणीय भी। अंक देखकर मुझे लगता है कि इसे अगर किताब का रूप दिया जाय तो यह एक महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रन्थ बनेगा।
यह खुशी की बात है कि इसी क्रम में निकट का एक दूसरा अंक भी जल्दी ही आने वाला है जिसमें और 25 कथाकारों की पहली कहानियां शामिल करने की योजना है। जाहिर है कि पहले अंक की तरह राकेश जी के अतिथि संपादन में निकलने वाला यह दूसरा अंक भी उतना ही दमदार और काबिले गौर होगा।
यहां हम अंक के संपादकीय से आपको रूबरू कर करा रहे हैं। आपकी कीमती प्रतिक्रियाओं का इंतजार तो रहेगा ही।
अतिथि संपादकीय
नवान्न की खुश्बू और दूध के दांत के खिच्चे मिठास से भरपूर कथा-सफर
– राकेश बिहारी
पहली कहानी: पीढ़ियां साथ-साथ! कृष्ण बिहारीजी ने फेसबुक पर चैट के दौरान जब एकदिन यह जिम्मा मुझे सौंपा तब पता नहीं था कि किसी पत्रिका का संपादन क्या चीज़ होती है! किनारे पर खड़े होकर टीका-टिप्पणी करना जितना आसान है, मझधार में उतरकर लहरों से खेलना उतना ही मुश्किल और जोखिम भरा.
बहुत ही उत्साह और एक अदृश्य भरोसे के साथ मैंने एक वरिष्ठ लेखक और महत्वपूर्ण संपादक को फोन कर के इस योजना की संक्षिप्त जानकारी दी और पहली बार के संकोच वाले भाव के साथ ही उनसे उनकी कहानी शामिल करने की अनुमति भी मांगी- उत्साह कुछ नया करने का और भरोसा यह कि इन्हें तो मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूं, स्वीकृति जरूर मिल जायेगी. लेकिन जवाब मेरी आशा के प्रतिकूल- ‘मैं क्यों बताऊं कि मेरी पहली कहानी कौन थी… मैं क्यों दुनिया को दिखाऊं कि मैं बचपन में चड्ढी पहन के घूमता था… मैं क्यों किसी को बताऊं कि तब मेरी कहानियां कितनी कच्ची थीं… पहली तो क्या, आज मैं अपनी शुरुआती दस कहानियां भी किसी को न दिखाऊं…. उम्मीद और भरोसे के विपरीत अनायास ही ओले की तरह गिरते इन वाक्यों ने जैसे मेरे उत्साह पर पानी फेर-सा दिया. लगभग सिटपिटाये और मिमियाते-से स्वर में तब मैंने उन्हें क्या कहा आज मुझे खुद ही ठीक-ठीक याद नहीं. लेकिन उनके बाद जिस किसी से निवेदन किया सबने न सिर्फ अपनी स्वीकृति दी बल्कि खुद दो कदम आगे बढ़कर मेरा ऐसा सहयोग किया कि न सिर्फ महज 15 दिनों में लेखकीय वक्तव्य सहित ये २५ कहानियां मुझ तक पहुंच गई बल्कि अपने अग्रज कथाकरों के प्रति सहयोग और तकनीक को लेकर मेरे मन में पल रहे कई पूर्वाग्रह भी चरमरा कर टूट गये. किसी ने अपनी कहानी स्कैन करा के भेजी तो किसी ने खुद से टाइप करके मेल किया. किसी ने स्पीड पोस्ट से अपना वक्तव्य भेजा तो किसी ने अपने अस्वस्थ्य और व्यस्त होने के बावज़ूद अथाह धीरज के साथ एक-एक शब्द फोन पर बोलकर अपना वक्तव्य मुझे टाइप करवा दिया. जिस भाषा में मुझ जैसे नौसिखुये को भी इस तरह से सहयोग देनेवाले वरिष्ठ और साथी रचानकार मौजूद हों उस भाषा में साहित्यिक पत्रकारिता और उसके भविष्य को लेकर हमारे मन में कोई चिंता नहीं होनी चहिये. मेरा मन इन सबके प्रति अपार सम्मान और कृतज्ञता के भाव से भरा है.
पहली कहानी! कितना सम्मोहक है यह पद! नवान्न की खुश्बू और दूध के दांत के खिच्चे मिठास से भरपूर! किसी के लिये पहले प्यार-सा अविस्मरणीय तो किसी के लिये गैर जरूरी भावुकता से भरा पहला लेखकीय कदम! किसी के लिये आदर्श और यूटोपिया के उद्भासित लोक की दहलीज, तो किसी के लिये खुद के वजूद की सार्वजनिक स्वीकृति! किसी के लिये ‘आगे रच भी पायेंगे या नहीं’ के अनाम भय से भरा पहला डग तो किसे के लिये मृत्य के जबड़े से बाहर निकल आने के लिये आत्मविश्वास से भरा एक मजबूत कदम! किसी के लिये खुद को खोलकर रख देन का साहसी उपक्रम तो किसी के लिये ‘कहीं पहचान न लिया जाऊं’ के भाव से भरा एक आशंका-लोक! किसी की आंखिन देखी तो किसी की आंखिन रची! यानी किसी का यथार्थ तो किसी का स्वप्न! पहली कहानी सुनते ही न जाने ऐसे और इससे इतर कितने-कितने रंग और भाव वाली छवियां-आकृतियां हमारे भीतर बनने बिगड़ने लगती हैं.
शायद ही कोई ऐसा लेखक हो जिसके मन में अपनी पहली कहानी को लेकर दुविधा या संकोच का भाव न रहा हो. लेकिन पहली कहानी की स्वीकृति, उसके प्रकाशन और उस पर मिली पाठकों की प्रतिक्रियायें हर समय और पीढ़ी के लेखकों के भीतर उत्साह और खुद के प्रति विश्वास का संचार करती रही हैं. इसके विपरीत अस्वीकृति और उपेक्षा का दंश या अवसर का न मिल पाना कितने ही चेखवों और प्रेमचंदों की गर्भ में ही हत्या कर देता है. इस लिहाज से स्थापित लेखकों की पहली कहानियों से गुजरने का दुहरा महत्व है. ये कहानियां जहां खुद उन लेखकों में अपने पहले कदम के उछाह और उत्साह को एक बार फिर से जीने का उमंग भरती हैं तो वहीं नये लेखकों को अपने भीतर पल रहे संकोच और आशंकाओं से उबरकर अपना पहला कदम बढ़ाने को उत्साहित भी करती हैं. किसी लेखक की पहली कहानी की ऐतिहासिकता इस में नहीं कि वह कहानी कितनी बड़ी और महान थी, बल्कि उसकी ऐतिहासिकता इस बात में निहित है कि वो कौन-सा भावावेग था जिसने उसके जीवन में एक सर्वथा नया रंग भर दिया, वह कौन सा अविस्मरणीय अनुभव या सपना था जिसकी दस्तक ने उसके लिये रचनात्मकता के दरवाजे खोल दिये. भोगे हुये यथार्थ का आग्रही एक महान लेखक अपने पहले कथानक में कितना कृत्रिम और बनावटी था या कि संवेदना की सूक्ष्तम अनुभूतियो को दार्शनिकता की अतल गहराईयों तक थाहने वाला लेखक अपनी पहली कहानी को लिखते हुये कैसे कोरी भावुकता और अतिरिक्त रूमानियत से भरा हुआ था, या फिर शोध और संवेदना के मिले जुले रसायन से यथार्थ की अद्भुत पुनर्रचना करने वाला एक लेखक देखे-सुने को जस का तस कहानी में रख देने के कारण कैसे किसी मुसीबत का शिकार हो गया… ये कुछ ऐसी दिलचस्प स्थितियां हैं जिससे रूबरू होना किसी भी नये लेखक के लिये कई-कई कार्यशालाओं मे प्राप्त होनेवाले सीखों से ज्यादा मज़ेदार और ‘लर्निंग’ अनुभव है. इतना ही नहीं, इन कहानियों से गुजरते हुये हम उन कई बने-बनाये मुहावरों का टूटना-बिखरना भी देख सकते हैं जिसकी आभा और आतंक हमारे आरंभिक कदमों की स्वाभाविक हरकतों पर एक अदृश्य नियंत्रण बनाने लगते हैं. ‘पूत के पांव पालने में नज़र आते हैं’ और ‘लेखक बनते नहीं पैदा होते हैं’ कुछ ऐसे ही मुहावरे हैं. दरअसल ये कहानियां इस बात को भी रेखांकित करती हैं कि अच्छी कहानी लिखने या लेखकीय विकास का कोई बना बनाया फार्मूला नहीं होता. इस बात की जितनी संभावना है कि आप अपनी पहली कहानी से आगे बढ़ते हुये उत्तरोत्तर विकसित होते जायेंगे उतनी ही इस बात की भी कि कहीं आपकी पहली कहानी की ऊचाई ही आपके सम्पूर्ण लेखकीय जीवन के लिये चुनौती न बन जाये. हिन्दी कहानी के इतिहास में दोनों तरह के उदाहरण देखे जा सकते हैं. चाहे परिस्थितियां जो भी हो, लेखन में निरंतरता पाठकों की स्मृति में बने रहने केलिये लगातार जरूरी होता जा रहा है, खासकर के आज जब चप्पे-चप्पे पर सूचनाओं और विज्ञापन का कब्जा लगातार बढ़ता जा रहा है.
कहानियां यथार्थ की सीधी-सीधी छायानुकृति नहीं होतीं, बल्कि उसकी एक कलात्मक पुनर्रचना होती है. लेकिन यह भी सच है कि एक कलात्मक कल्पनाशीलता के बिना यथार्थ की यह पुनर्रचना संभव नहीं. यथार्थ और कल्पना का यह संयुक्त बीज कहीं न कहीं हमारे जीवन में ही छुपा होता है. तभी तो इस संचयन में शामिल लगभाग सभी लेखकीय वक्तव्य कहीं न कहीं इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि ये कहानियां कपोल कल्पना न होकर उनके निजी या परिवेशजन्य अनुभवों से उत्पन्न और अनुप्राणित हैं. यहां तक कि लगभग काल्पनिक कही गई कहानियों को रचते हुये भी लेखकों ने अपने जीवन के कुछ अंतरंग हिस्सों और अनुभवों में ही अपनी कल्पनाओं को विस्तारित किया है. इन कहानियों से गुजरते हुये यह भी सहज ही अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि कैसे हमारा लेखकीय संस्कार हमारे पाठकीय संस्कारों से प्रभावित होता है. यह भी संभव है कि एक ही विषय को लेकर कई बार दो समय और स्थान के अलग-अलग लेखक एक जैसी सोच या अवधारणाओं से गुजर रहे हों. यह एक रचनात्मक इत्तेफाक है. वैसे भी हमारी कहानियों को सिर्फ विषय या फिर भाषा, दृश्य और शिल्प के विधान ही अलग नहीं बनाते, बल्कि कहानी को अलग और विशिष्ट बनाने में विषयगत यथार्थों को आत्मसात कर उन्हें पुनर्सृजित करनेवाली लेखकीय अंतर्दृष्टि की बड़ी भूमिका होती है.
पीढियां साथ-साथ! इस अंक में शामिल कथाकारों की संभावित सूची इंटरनेट पर देखकर कुछ साथिओं ने मुझसे इस आशय की शिकायत की कि इस संचयन के पीछे कोई दृष्टि नहीं है… इसमें शामिल लेखकों में वे भी शामिल हैं जिनके कई-कई संग्रह प्रकशित हो चुके हैं तो वे भी जिनका अभी-अभी पहला संग्रह ही आया है..आदि-आदि. दर असल पीढ़ी, समय, लिंग, क्षेत्र आदि के वर्गीकृत ढांचों से इतर यथासंभव सभी पीढ़ियों के कुछ जीवित प्रतिनिधि रचनाकारों की पहली कहानियों को एक साथ रखकर ‘पहले-पहल’ के अहसास से गुजरते हुये लेखकों के रचनागत और भावनात्मक साम्य तथा कालांतर में आये हिंदी कहानी के बदलावों को महसूसना ही इस अवधारण के मूल में है. मतलब यह कि पहली कहानी मतलब, पहली कहानी! हां इस क्रम में इस बात का जरूर ध्यान रखा गया है कि हम उन लेखकों की ही कहानियां चुने जिन्होंने अपने लेखन की निरंतरता से अपनी एक मुकम्मल पहचान अर्जित की है.
इतने बड़े आयोजन को सिर्फ 25 कहानियों में सीमित नहीं किया जा सकता. अत: इसका दूसरा खंड भी प्रस्तावित है, जो शीघ्र ही आपके हाथों में होगा. यहां यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि अलग-अलग खंडों में लेखकों का समायोजन किसी विशेष अनुक्रम या प्राथमिकता की तार्किकता का नतीजा न होकर लेखकों से सम्पर्क कर पाने की सहूलियत और रचनाओं की उपलब्धता के कारण है. हां, हमने यह कोशिश जरूर की है कि अगले खंड में भी पीढ़ियों का यही समन्वय बना रहे ताकि इस आयोजन की मूल अवधारणा विखंडित नहीं हो.
पहली कहानियों के इस संचयन के बहाने की गई मेरी इस टिप्पणी में इन कहानियों का मूल्यांकन खोजनेवाले पाठकों को निराशा हाथ लगेगी. कारण कि मेरी दृष्टि में यह संचयन इन कहानियों के मूल्यांकन का उपक्रम न होकर इन लेखकों और इनकी संततियों के जीवन में इनके महत्व, उछाह और ऐतिहासिकता को रेखांकित और दस्तावेजीकृत करने का एक विनम्र प्रयास है. हां इतना अवश्य कहूंगा कि हिन्दी कहानी में रूप, भाषा, विन्यास और कथ्य के लगातार विकसित होने के संकेत भी यहां जरूर देखे जा सकते हैं. लगातार परिपक्व और विकसित होती कहानी विधा की जो अनुगूंजें मुझे इन पहली कहानियों के चैतन्य अनुक्रम में सुनाई पड़ रही हैं यदि उनमें से कुछ थोड़ी सी ध्वनियां भी आपके कानों तक पहुंच पाईं तो मैं अपने श्रम को सार्थक समझूंगा.
मुझमें भरोसा जताने के लिये कृष्ण बिहारीजी का आभार! धन्यवाद नवनीत डाइजेस्ट के संपादक विश्वनाथ सचदेवजी का भी जिन्होंने अपने रिकॉर्ड से कुछ कहानियां बड़ी उदारता के साथ सहज ही उपलब्ध कराई.
अब अंक जैसा भी बन पड़ा है, आपके हाथों में है. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा. हां, प्रतिक्रिया मेरे लिये प्रशंसा का पर्यायवाची नहीं है.
***
संपर्क: एन एच 3 / सी 76 एन टी पी सी, विन्ध्यनगर, जिला – सिंगरौली 486885 (म.प्र.)
फोन – 09425823033
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
कथाकार एवं आलोचक राकेश बिहारी के अतिथि संपादकत्व में निकट का एक ऐसा अंक छपकर आया है जो अपनी सामग्री और अपने तेवर में बिल्कुल अलहदा और संग्रहणीय है। इसमें 25 कथाकारों की पहली कहानियों के साथ उनकी पहली कहानी के लेखन से जुड़े उनके आत्मकथ्य (अनुभव) को शामिल किया गया है जो वाकई बहुत दिलचस्प है। राकेश बिहारी ने इस अंक के संपादन में बहुत मिहनत की है और इसका परिणाम यह है कि अंक न केवल पठनीय है, वरन् संग्रहणीय भी। अंक देखकर मुझे लगता है कि इसे अगर किताब का रूप दिया जाय तो यह एक महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रन्थ बनेगा।
यह खुशी की बात है कि इसी क्रम में निकट का एक दूसरा अंक भी जल्दी ही आने वाला है जिसमें और 25 कथाकारों की पहली कहानियां शामिल करने की योजना है। जाहिर है कि पहले अंक की तरह राकेश जी के अतिथि संपादन में निकलने वाला यह दूसरा अंक भी उतना ही दमदार और काबिले गौर होगा।
यहां हम अंक के संपादकीय से आपको रूबरू कर करा रहे हैं। आपकी कीमती प्रतिक्रियाओं का इंतजार तो रहेगा ही।
अतिथि संपादकीय
नवान्न की खुश्बू और दूध के दांत के खिच्चे मिठास से भरपूर कथा-सफर
– राकेश बिहारी
पहली कहानी: पीढ़ियां साथ-साथ! कृष्ण बिहारीजी ने फेसबुक पर चैट के दौरान जब एकदिन यह जिम्मा मुझे सौंपा तब पता नहीं था कि किसी पत्रिका का संपादन क्या चीज़ होती है! किनारे पर खड़े होकर टीका-टिप्पणी करना जितना आसान है, मझधार में उतरकर लहरों से खेलना उतना ही मुश्किल और जोखिम भरा.
बहुत ही उत्साह और एक अदृश्य भरोसे के साथ मैंने एक वरिष्ठ लेखक और महत्वपूर्ण संपादक को फोन कर के इस योजना की संक्षिप्त जानकारी दी और पहली बार के संकोच वाले भाव के साथ ही उनसे उनकी कहानी शामिल करने की अनुमति भी मांगी- उत्साह कुछ नया करने का और भरोसा यह कि इन्हें तो मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूं, स्वीकृति जरूर मिल जायेगी. लेकिन जवाब मेरी आशा के प्रतिकूल- ‘मैं क्यों बताऊं कि मेरी पहली कहानी कौन थी… मैं क्यों दुनिया को दिखाऊं कि मैं बचपन में चड्ढी पहन के घूमता था… मैं क्यों किसी को बताऊं कि तब मेरी कहानियां कितनी कच्ची थीं… पहली तो क्या, आज मैं अपनी शुरुआती दस कहानियां भी किसी को न दिखाऊं…. उम्मीद और भरोसे के विपरीत अनायास ही ओले की तरह गिरते इन वाक्यों ने जैसे मेरे उत्साह पर पानी फेर-सा दिया. लगभग सिटपिटाये और मिमियाते-से स्वर में तब मैंने उन्हें क्या कहा आज मुझे खुद ही ठीक-ठीक याद नहीं. लेकिन उनके बाद जिस किसी से निवेदन किया सबने न सिर्फ अपनी स्वीकृति दी बल्कि खुद दो कदम आगे बढ़कर मेरा ऐसा सहयोग किया कि न सिर्फ महज 15 दिनों में लेखकीय वक्तव्य सहित ये २५ कहानियां मुझ तक पहुंच गई बल्कि अपने अग्रज कथाकरों के प्रति सहयोग और तकनीक को लेकर मेरे मन में पल रहे कई पूर्वाग्रह भी चरमरा कर टूट गये. किसी ने अपनी कहानी स्कैन करा के भेजी तो किसी ने खुद से टाइप करके मेल किया. किसी ने स्पीड पोस्ट से अपना वक्तव्य भेजा तो किसी ने अपने अस्वस्थ्य और व्यस्त होने के बावज़ूद अथाह धीरज के साथ एक-एक शब्द फोन पर बोलकर अपना वक्तव्य मुझे टाइप करवा दिया. जिस भाषा में मुझ जैसे नौसिखुये को भी इस तरह से सहयोग देनेवाले वरिष्ठ और साथी रचानकार मौजूद हों उस भाषा में साहित्यिक पत्रकारिता और उसके भविष्य को लेकर हमारे मन में कोई चिंता नहीं होनी चहिये. मेरा मन इन सबके प्रति अपार सम्मान और कृतज्ञता के भाव से भरा है.
पहली कहानी! कितना सम्मोहक है यह पद! नवान्न की खुश्बू और दूध के दांत के खिच्चे मिठास से भरपूर! किसी के लिये पहले प्यार-सा अविस्मरणीय तो किसी के लिये गैर जरूरी भावुकता से भरा पहला लेखकीय कदम! किसी के लिये आदर्श और यूटोपिया के उद्भासित लोक की दहलीज, तो किसी के लिये खुद के वजूद की सार्वजनिक स्वीकृति! किसी के लिये ‘आगे रच भी पायेंगे या नहीं’ के अनाम भय से भरा पहला डग तो किसे के लिये मृत्य के जबड़े से बाहर निकल आने के लिये आत्मविश्वास से भरा एक मजबूत कदम! किसी के लिये खुद को खोलकर रख देन का साहसी उपक्रम तो किसी के लिये ‘कहीं पहचान न लिया जाऊं’ के भाव से भरा एक आशंका-लोक! किसी की आंखिन देखी तो किसी की आंखिन रची! यानी किसी का यथार्थ तो किसी का स्वप्न! पहली कहानी सुनते ही न जाने ऐसे और इससे इतर कितने-कितने रंग और भाव वाली छवियां-आकृतियां हमारे भीतर बनने बिगड़ने लगती हैं.
शायद ही कोई ऐसा लेखक हो जिसके मन में अपनी पहली कहानी को लेकर दुविधा या संकोच का भाव न रहा हो. लेकिन पहली कहानी की स्वीकृति, उसके प्रकाशन और उस पर मिली पाठकों की प्रतिक्रियायें हर समय और पीढ़ी के लेखकों के भीतर उत्साह और खुद के प्रति विश्वास का संचार करती रही हैं. इसके विपरीत अस्वीकृति और उपेक्षा का दंश या अवसर का न मिल पाना कितने ही चेखवों और प्रेमचंदों की गर्भ में ही हत्या कर देता है. इस लिहाज से स्थापित लेखकों की पहली कहानियों से गुजरने का दुहरा महत्व है. ये कहानियां जहां खुद उन लेखकों में अपने पहले कदम के उछाह और उत्साह को एक बार फिर से जीने का उमंग भरती हैं तो वहीं नये लेखकों को अपने भीतर पल रहे संकोच और आशंकाओं से उबरकर अपना पहला कदम बढ़ाने को उत्साहित भी करती हैं. किसी लेखक की पहली कहानी की ऐतिहासिकता इस में नहीं कि वह कहानी कितनी बड़ी और महान थी, बल्कि उसकी ऐतिहासिकता इस बात में निहित है कि वो कौन-सा भावावेग था जिसने उसके जीवन में एक सर्वथा नया रंग भर दिया, वह कौन सा अविस्मरणीय अनुभव या सपना था जिसकी दस्तक ने उसके लिये रचनात्मकता के दरवाजे खोल दिये. भोगे हुये यथार्थ का आग्रही एक महान लेखक अपने पहले कथानक में कितना कृत्रिम और बनावटी था या कि संवेदना की सूक्ष्तम अनुभूतियो को दार्शनिकता की अतल गहराईयों तक थाहने वाला लेखक अपनी पहली कहानी को लिखते हुये कैसे कोरी भावुकता और अतिरिक्त रूमानियत से भरा हुआ था, या फिर शोध और संवेदना के मिले जुले रसायन से यथार्थ की अद्भुत पुनर्रचना करने वाला एक लेखक देखे-सुने को जस का तस कहानी में रख देने के कारण कैसे किसी मुसीबत का शिकार हो गया… ये कुछ ऐसी दिलचस्प स्थितियां हैं जिससे रूबरू होना किसी भी नये लेखक के लिये कई-कई कार्यशालाओं मे प्राप्त होनेवाले सीखों से ज्यादा मज़ेदार और ‘लर्निंग’ अनुभव है. इतना ही नहीं, इन कहानियों से गुजरते हुये हम उन कई बने-बनाये मुहावरों का टूटना-बिखरना भी देख सकते हैं जिसकी आभा और आतंक हमारे आरंभिक कदमों की स्वाभाविक हरकतों पर एक अदृश्य नियंत्रण बनाने लगते हैं. ‘पूत के पांव पालने में नज़र आते हैं’ और ‘लेखक बनते नहीं पैदा होते हैं’ कुछ ऐसे ही मुहावरे हैं. दरअसल ये कहानियां इस बात को भी रेखांकित करती हैं कि अच्छी कहानी लिखने या लेखकीय विकास का कोई बना बनाया फार्मूला नहीं होता. इस बात की जितनी संभावना है कि आप अपनी पहली कहानी से आगे बढ़ते हुये उत्तरोत्तर विकसित होते जायेंगे उतनी ही इस बात की भी कि कहीं आपकी पहली कहानी की ऊचाई ही आपके सम्पूर्ण लेखकीय जीवन के लिये चुनौती न बन जाये. हिन्दी कहानी के इतिहास में दोनों तरह के उदाहरण देखे जा सकते हैं. चाहे परिस्थितियां जो भी हो, लेखन में निरंतरता पाठकों की स्मृति में बने रहने केलिये लगातार जरूरी होता जा रहा है, खासकर के आज जब चप्पे-चप्पे पर सूचनाओं और विज्ञापन का कब्जा लगातार बढ़ता जा रहा है.
कहानियां यथार्थ की सीधी-सीधी छायानुकृति नहीं होतीं, बल्कि उसकी एक कलात्मक पुनर्रचना होती है. लेकिन यह भी सच है कि एक कलात्मक कल्पनाशीलता के बिना यथार्थ की यह पुनर्रचना संभव नहीं. यथार्थ और कल्पना का यह संयुक्त बीज कहीं न कहीं हमारे जीवन में ही छुपा होता है. तभी तो इस संचयन में शामिल लगभाग सभी लेखकीय वक्तव्य कहीं न कहीं इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि ये कहानियां कपोल कल्पना न होकर उनके निजी या परिवेशजन्य अनुभवों से उत्पन्न और अनुप्राणित हैं. यहां तक कि लगभग काल्पनिक कही गई कहानियों को रचते हुये भी लेखकों ने अपने जीवन के कुछ अंतरंग हिस्सों और अनुभवों में ही अपनी कल्पनाओं को विस्तारित किया है. इन कहानियों से गुजरते हुये यह भी सहज ही अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि कैसे हमारा लेखकीय संस्कार हमारे पाठकीय संस्कारों से प्रभावित होता है. यह भी संभव है कि एक ही विषय को लेकर कई बार दो समय और स्थान के अलग-अलग लेखक एक जैसी सोच या अवधारणाओं से गुजर रहे हों. यह एक रचनात्मक इत्तेफाक है. वैसे भी हमारी कहानियों को सिर्फ विषय या फिर भाषा, दृश्य और शिल्प के विधान ही अलग नहीं बनाते, बल्कि कहानी को अलग और विशिष्ट बनाने में विषयगत यथार्थों को आत्मसात कर उन्हें पुनर्सृजित करनेवाली लेखकीय अंतर्दृष्टि की बड़ी भूमिका होती है.
पीढियां साथ-साथ! इस अंक में शामिल कथाकारों की संभावित सूची इंटरनेट पर देखकर कुछ साथिओं ने मुझसे इस आशय की शिकायत की कि इस संचयन के पीछे कोई दृष्टि नहीं है… इसमें शामिल लेखकों में वे भी शामिल हैं जिनके कई-कई संग्रह प्रकशित हो चुके हैं तो वे भी जिनका अभी-अभी पहला संग्रह ही आया है..आदि-आदि. दर असल पीढ़ी, समय, लिंग, क्षेत्र आदि के वर्गीकृत ढांचों से इतर यथासंभव सभी पीढ़ियों के कुछ जीवित प्रतिनिधि रचनाकारों की पहली कहानियों को एक साथ रखकर ‘पहले-पहल’ के अहसास से गुजरते हुये लेखकों के रचनागत और भावनात्मक साम्य तथा कालांतर में आये हिंदी कहानी के बदलावों को महसूसना ही इस अवधारण के मूल में है. मतलब यह कि पहली कहानी मतलब, पहली कहानी! हां इस क्रम में इस बात का जरूर ध्यान रखा गया है कि हम उन लेखकों की ही कहानियां चुने जिन्होंने अपने लेखन की निरंतरता से अपनी एक मुकम्मल पहचान अर्जित की है.
इतने बड़े आयोजन को सिर्फ 25 कहानियों में सीमित नहीं किया जा सकता. अत: इसका दूसरा खंड भी प्रस्तावित है, जो शीघ्र ही आपके हाथों में होगा. यहां यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि अलग-अलग खंडों में लेखकों का समायोजन किसी विशेष अनुक्रम या प्राथमिकता की तार्किकता का नतीजा न होकर लेखकों से सम्पर्क कर पाने की सहूलियत और रचनाओं की उपलब्धता के कारण है. हां, हमने यह कोशिश जरूर की है कि अगले खंड में भी पीढ़ियों का यही समन्वय बना रहे ताकि इस आयोजन की मूल अवधारणा विखंडित नहीं हो.
पहली कहानियों के इस संचयन के बहाने की गई मेरी इस टिप्पणी में इन कहानियों का मूल्यांकन खोजनेवाले पाठकों को निराशा हाथ लगेगी. कारण कि मेरी दृष्टि में यह संचयन इन कहानियों के मूल्यांकन का उपक्रम न होकर इन लेखकों और इनकी संततियों के जीवन में इनके महत्व, उछाह और ऐतिहासिकता को रेखांकित और दस्तावेजीकृत करने का एक विनम्र प्रयास है. हां इतना अवश्य कहूंगा कि हिन्दी कहानी में रूप, भाषा, विन्यास और कथ्य के लगातार विकसित होने के संकेत भी यहां जरूर देखे जा सकते हैं. लगातार परिपक्व और विकसित होती कहानी विधा की जो अनुगूंजें मुझे इन पहली कहानियों के चैतन्य अनुक्रम में सुनाई पड़ रही हैं यदि उनमें से कुछ थोड़ी सी ध्वनियां भी आपके कानों तक पहुंच पाईं तो मैं अपने श्रम को सार्थक समझूंगा.
मुझमें भरोसा जताने के लिये कृष्ण बिहारीजी का आभार! धन्यवाद नवनीत डाइजेस्ट के संपादक विश्वनाथ सचदेवजी का भी जिन्होंने अपने रिकॉर्ड से कुछ कहानियां बड़ी उदारता के साथ सहज ही उपलब्ध कराई.
अब अंक जैसा भी बन पड़ा है, आपके हाथों में है. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा. हां, प्रतिक्रिया मेरे लिये प्रशंसा का पर्यायवाची नहीं है.
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हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
maine aapka ank to nahi padha par asha karta hu ki wo sundar hi hoga.. best of luck..
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