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Home कविता

प्रदीप सैनी की प्रेम कविताएं

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in कविता, साहित्य
A A
15
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प्रदीप सैनी

हाल के वर्षों में अपनी अच्छी कविताओं से सक्रिय और मजबूत उपस्थिति दर्ज कराने वाले कवियों में प्रदीप सैनी का नाम प्रमुखता से लिया जाना चाहिए। प्रदीप सैनी की कविताओं को उनकी अलग भाषा की मार्फत आसानी से पहचाना जा सकता है। प्रदीप पहाड़ की गंभीरता को अपनी कविताओं में साधते दिखाई पड़ते हैं। उनकी कविताओं में एक सहज निश्चलता है जो पाठकों को अपनी ओर खींचती है। यहां प्रस्तुत उनकी प्रेम कविताएं खालिश प्रेम की कविताएं न होकर जीवन की कविताएं लगती हैं। प्रेम की बात करते हुए वे नदी, घर पहाड़ और रोजमर्रा की चीजों को नहीं भूलते। यही वह विशेषता है इस कवि की जो उसके जमीन से जुड़े होने का सबूत देती है। प्रेम में भींजते हुए उन्हें बछड़ा याद आता है। वे प्रेम करते हुए भी दुनियादारी को नहीं भूलते।
अनहद पर हम प्रदीप सैनी की कविताएं पहली बार पढ़ रहे हैं। आपकी बेबाक प्रतिक्रियाओं का इंतजार तो रहेगा ही…।

नजाने क्या था
रंग लालच का तेज़ धूप वाले दिन हरा था
उस तरफ मैं अनजान तुम्हारे मौसमों से
खींचा चला आया हुआ अचानक
बारिश में घिर गया था
कोई था नहीं जो आगाह करता 
वैसे छाता भी मेरा पिछली  किसी बरसात  में बह  गया था
हरे मैदान में भिन्जते
तर–बतर हुए बछडे की तरह मैं
मासूम लग रहा था
जो घास खाना और घर लौट जाना
दोनों भूल गया था
धुल गए रंग जिसमे सभी धीरे धीरे
ऐसी बारिश का रंग न जाने क्या था |
वाद्ययंत्र
आप में बजता है कभी
आनंद के चरम का संगीत
कभी गहरी उदासियों की धुन
कभी किसी पंछी के पंख
फड़फड़ाते हैं आपके भीतर
कभी गहरे पानी में डूबते हुए
किसी पत्थर की ख़ामोशी गूंजने लगती है
आप जब नींद में होते हैं
तब भी ख़ामोश नहीं होता संगीत
कोई आदिम धुन
आपके सपनों में रास्ता तलाशती है
प्रेम
आपको एक वाद्ययंत्र में तबदील कर देता है।
शब्दों का गाढ़ापन
नपा–तुला ही
स्वाद पैदा नहीं करता
कुछ होता है
जिसका किसी रैसिपि–बुक में जिक्र नहीं
इस रुखे और बेस्वाद वक्त में
मुझे तलाश है उसकी
हाँ मैं याद कर रहा हूँ
खोई हुई प्रेम कविता के शब्दों का गाढ़ापन ।
नदी के लिए
किसी बीते युग में गायब हुई
नदी के निशान हैं रेत पर
जो सरक रहें हैं मेरे भीतर
मैं लगातार सुन रहा हूँ
किसी देह में दूर नदी का बहाव
क्या नदी भी सुन रही है
रेत का सरकना |
मुरम्मत
आप होते हैं हैरान ऐसी दीवार पर
जो लेटी रहती है दिन भर
सूरज की तरफ पीठ किये 
समझ नहीं पाते हैं क्यूँ
रहती है सीलन उसमे
किसी गुम चोट के अंदेशे पर बुला लेते हैं मिस्त्री
जो मुआयने के बाद
औज़ार समेट कर लौट जाता है चुपचाप
जैसे जान गया हो घर का
कौन सा दुःख रिसता है यहाँ
जिसे रोक पाना उसके बस की बात नहीं
नया रंग–रोगन दीवार पर
एक बची हुई उम्मीद की तरह पुतता है
जिसे पुख्ता करती बाज़ार में एक ऐसी पुट्टी उपलब्ध है
जो सभी दाग़ और नमी सोख लेने का वायदा करती है
तमाम तरकीबों के बाद भी लेकिन
जाती नहीं सीलन
वहीँ कोने में डेरा जमाये
लौट आते हैं उसके धब्बे
किसी किसी दीवार में यूँ
हक़ और ज़िद से रहती है सीलन
जैसे बचा रहता है मेरे भीतर
इस कठिन समय में प्रेम
उसे मिटा देने की हर कोशिश के खिलाफ़
करते हुए ख़ुद की मुरम्मत |
जो देह नहीं है
जाओ
अनेक शब्दों में से एक है
मैनें उनमें से कोई भी कहा होता 
वह यूं ही उठकर गई होती
यह देह का जाना है
क्या है भाषा तुम्हारे पास
कोई इतना खौफनाक शब्द
जिससे डर कर गायब हो जाए वह सब
जो देह नहीं है
और मुझे घेरे हुए है ।
[ केदारनाथ सिंह जी की कविता ” जाना ” को याद करते हुए ]
इस तरह
दुनियादारी से ताल मिलाते ही
प्रेम की लय से भटक जाता हूँ मैं
ऐसा ही कोई लम्हा होता है जब
गिरते हुए सुर को पकड़ने के लिए
ज़िन्दगी से बाहर छलांग लगा सकता है कोई सच्चा साधक
लौट आता हूँ लेकिन मैं
मुहाने तक जा कर हर बार
प्रेम को करता हूँ थोड़ा और बेसुरा
और जीवित बचा रहता हूँ
ठीक कहती हो तुम कि दुनियादार हूँ मैं |

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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Comments 15

  1. सुशीला पुरी says:
    13 years ago

    आप जब नींद में होते हैं
    तब भी ख़ामोश नहीं होता संगीत
    कोई आदिम धुन
    आपके सपनों में रास्ता तलाशती है

    प्रेम
    आपको एक वाद्ययंत्र में तबदील कर देता है।
    ……!!! सच !

    Reply
  2. Ashok Kumar pandey says:
    13 years ago

    पहली कविता में कुछ 'था' अतिरिक्त लगे.

    प्रदीप की काव्यभाषा के अलग से पहचाने जाने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है उसका अर्थवान होना, अपने कथ्य के साथ कुछ इस तरह सहजता से सामने आना कि कविता भीतर उतरे और देर तक गूंजती रहे. 'दुनियादारी से ताल मिलाते ही प्रेम की ताल के भटक जाने के खतरे से सावधान इस कवि को बहुत लंबा सफ़र करता देखना चाहूंगा.

    कविता पढवाने के लिए विमलेश का आभार तो बनता ही है.

    Reply
  3. Unknown says:
    13 years ago

    जो देह नहीं है और मुझे घेरे हुए है…आदमी की असल शिनाख्त खोजते इस कवि को शुभकामनाएं और छापक को धन्यवाद।

    Reply
  4. Unknown says:
    13 years ago

    भाई बहुत अच्‍छी प्रेम-पगी कविताएं हैं। बधाई।

    Reply
  5. Nityanand Gayen says:
    13 years ago

    बहुत सुंदर एवं सशक्त कवितायेँ , आभार

    Reply
  6. Mahesh Chandra Punetha says:
    13 years ago

    kavita main pradeep bhayi ki dastak kuchh apane tarah ki hai….unake yahan shorgul nahin hai par kavita ke bhetar shant jheel ki tarah ek halchal hai jo seedhe dil par asar karati hai. pradeep prem ki gahari anubhooti ke kavi hain. …..mujhe bahut pyare hain.

    Reply
  7. आनंद says:
    13 years ago

    किसी गुम चोट के अंदेशे पर बुला लेते हैं मिस्त्री
    जो मुआयने के बाद
    औज़ार समेट कर लौट जाता है चुपचाप
    जैसे जान गया हो घर का
    कौन सा दुःख रिसता है यहाँ
    जिसे रोक पाना उसके बस की बात नहीं…..
    ….
    सभी कवितायें सुंदर हैं , प्रदीप जी को बधाई !

    Reply
  8. हेमा दीक्षित says:
    13 years ago

    प्रदीप सैनी जी की कविताओं से गुजरना जैसे एक जीवन में उतरे हुए कवि के अंतस में उपस्थित जीवनबोध को उसके अद्भुत समूचेपन में साकार कर शब्दों में उकेर देता है उनका ठहराव दुनियावी गणित की तेज गति के मध्य बेहद सुकून देते हुए कह उठता है देखो … दिखी मेरी झलक … मै जीवन का अनंत स्वर हूँ …

    Reply
  9. अजेय says:
    13 years ago

    प्रदीप वह लिखता है जो उसे लिखना होता है . यह साहस बहुत ही कम लोगों मे होता है. लिखते रहो भाई .

    Reply
  10. kulin kumar joshi says:
    13 years ago

    प्रदीप तो अच्छा लिखते ही हैं,उन्हें बधाई ! मैं स्वयं भी बहुत अच्छा लिखता हूँ…..ऐसा लोग कहते हैं……मेरी कवितायें आप लोगों तक और बहुसंख्यक अवाम तक कैसे पहुँच सकती हैं……यदि संभव हो तो मार्गदर्शन कीजियेगा |

    Reply
  11. विमलेश त्रिपाठी says:
    13 years ago

    भाई कुलीन जी अगर आप वाकई अच्छा लिखते हैं तो आपकी कविताएं हम आवाम तक पहुंचाएंगे। आप अपनी कुछ अच्छी कविताएं मुझे bimlesh.tripathi@saha.ac.in पर भेज दिजिए। कविताएं पसंद आने पर हम अपने ब्लॉग पर छापेंगे। आपका आभार….
    सभी मित्रों का बहुत-बहुत अभार…

    Reply
  12. pradeep saini says:
    13 years ago

    आप सभी का शुक्रिया जिन्होंने कवितायों को अपना समय दिया ……..आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर लिखने की ऊर्जा मिली और ये भरोसा भी कि जो थोडा बहुत अभी तक लिख पाया हूँ …..वो प्रयास व्यर्थ नहीं गया……….विमलेश भाई …..आभार |

    Reply
  13. pradeep saini says:
    13 years ago

    कुलीन जी ………. विमलेश भाई ने आपको रास्ता बता दिया है ……. अपनी कवितायेँ उन्हें जरूर भेजें |

    Reply
  14. Unknown says:
    13 years ago

    दुनियादारी से ताल मिलाते ही
    प्रेम की लय से भटक जाता हूँ मैं
    ऐसा ही कोई लम्हा होता है जब
    गिरते हुए सुर को पकड़ने के लिए
    ज़िन्दगी से बाहर छलांग लगा सकता है कोई सच्चा साधक
    ,..बहुत अच्छी लगी आपकी सारी कविताये ,..अच्छा लगा पढकर शुक्रिया आपको ।

    Reply
  15. Tamasha-E-Zindagi says:
    12 years ago

    आपकी यह पोस्ट आज के (१३ अगस्त, २०१३) ब्लॉग बुलेटिन – प्रियेसी पर प्रस्तुत की जा रही है | बधाई

    Reply

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