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तुषार धवल की प्रेम कविता

by Anhadkolkata
June 20, 2022
in कविता, साहित्य
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तुषार धवल
तुषार धवल की ये कविताएँ बहुत प्यार और गंभीरता के साथ पढ़ने की माँग करती हैं –  ‘पहर यह बेपहर का’ का कवि इन कविताओं के मार्फत हमें एक नए संसार में लेकर जाता है जहाँ विछोह का दर्द तो है लेकिन कहीं न कहीं दूर लालटेन की कोई मद्धिम रोशनी है। संसार में न जाने कितने प्रेम अधूरे हैं, कितने प्रेम-पत्र जलाए गए हैं, कितनी पवित्र भावनाओं को जिबह किया गया है – इतना कि इतिहास में जगह नहीं – वह मौन है अपनी कुछ कथाओं के साथ। लेकिन एक और जगह है जहाँ यह उजड़ा हुआ संसार लहलहा रहा है – इतनी वनस्पतियाँ ऊग आई हैं यहाँ कि सबकुछ हरा-हरा दिखता है लेकिन ध्यान से सुनो उस लहलहाती जमीन के नीचे कितनी सिसकियाँ जज्ब हैं – यह कविता का संसार है जिसे तुषार धवल जैसे कवि अपनी आत्मा की सबसे गोपन जगह पर धारण किए हुए हैं – सबकुछ कहाँ अभिव्यक्त हो पाता है लेकिन अनभिव्यक्त की महिमा यहाँ और बड़ी हो जाती है। यही कारण है कि तुषार बड़े कवि हैं – प्रिय तो हैं ही।
पाठकों से गुजारिश है कि इन सभी कविताओं को एक कविता मानकर ही पढ़ें तभी इसके मर्म का उद्घाटन हो पाए । हम आपकी प्रतिक्रियाओं का बेसब्री से इंतजार करेंगे।
24 जून : दो कविता 
इतिहास अखंडित वर्तमान है हर पल 
जिसकी खुरों पर हमारी ऊँगलियों के पिछले निशान तुम छू सकते हो
उसकी गंध की हरी अंधेरी आँखों में  
उस सपनीली टिमटिमाहट को तुम अब भी वैसी ही देख सकते हो
जैसी कि हम उसे छोड़ आये थे  
समय बीतता कहाँ है ? अनिला ! 
(1) 
आज वही तारीख है
वर्तमान ने इस कदर घेर रखा होगा उसे कि इतिहास खोई हुई दुम सा
एक तमगा बन चुका होगा.
उसी इतिहास के उजाड़ टापुओं पर आज कोई लहर
बोतल में बंद एक चिट्ठी एक पुकार एक नाम त्याग गई है 
जो किसी ने दीवानगी में भर कर
अपनी यात्राओं में उसे याद करके कभी फेंका था समंदर में.
जीवन के उद्गार समय में घटित नहीं होते.
वह कौन था जिसने उसे पुकारा था खुले समुद्र की अथाह छाती पर पैर धर कर
वह कौन है जिसका नाम पिये यह बोतल मारी मारी फिर रही है
इतिहास का वह उजाड़ टापू यहाँ तैर आया है और   
समय अपने छिलके गिरा कर अखण्डित वर्तमान हो गया है —-
वर्तमान जो अखंडित अनंतकाल है 
फैला हुआ कलेजे पर  
क्षणांश के महागर्भ में काल का अद्वैत  
आज वही तारीख है 
और पिछली सदी की वही प्रेक्षाएँ भूत बन गये बच्चों की तरह मेरे गोल गोल खेल रही हैं
आज एक पूरा संसार भुजाओं पर उठाए चल रहा हूँ
उसी में सिर घुसेड़े कलेजा डाले चला जा रहा हूँ और
भूत बने ये बच्चे मुझे गोल गोल घेरे खेलते कूदते मेरे साथ चले जा रहे हैं
गहरी भीड़ में गहरे धँसा हुआ हूँ
पर साक्षी कहता है
तुम अकेले ही हो हमेशा अकेले
कामनायें कल्पनायें कोमलतायें    
गहरे आकाश में चुपचाप चले जा रहे अकेले विमान की तरह
धुएँ की लकीर छोड़ती
चल रही हैं मेरे साथ
काल में 
नाचती उन्हीं भुतहे बच्चों के साथ
जैसे मैं नाचता हूँ 
निस्संग !
आज वही तारीख है
और तुम्हारे वर्तमान के इतिहास से उगे मेरे वर्तमान में
एकाकी एक खेल ऐसा ही चल रहा है
तुमसे दूर बहुत दूर . 
(2)
दूध नहाई एक शाम वहाँ हो रही होगी
तारे सितारे पंखुड़ियाँ
दूध नहाई एक शाम वहाँ हो रही होगी
फ्रेंड्स कलीग्स रेलेटिव्स
मार्गेरीटा, सुवानिन ब्लाँ, डिंडोरी,टॅलिस्कर
स्विस चॉकलेट केक्स कैन्डल्स
मोगरा चम्पा जुही
तोहफे चुम्बन गर्मजोशियाँ
अपनी कोमल गुलाबी ज़मीन से उगी चाँदनी का वर्क ओढ़ी दंत पंक्तियाँ   
झलक उठी होंगी गुलाबी रुई के पनियाये होठों के खुलते कपाटों से 
जैसे जिद करके झलक उठती है रोशनी अंधेरे कमरे में अध–खुले कपाटों से   
एक लट बिखर आई होगी तुम्हारे गालों पर जिसे तुमने अपनी बाँईं कलाई से ठेला होगा कहीं पीछे
आँख मूँदे झील में कंकड़ फेंक रहा हूँ
उसी कथा पात्र की तरह मैं भी
नहीं जानता वे कंकड़ ही थे या हीरे
बोध दुश्चिन्ताओं का भी जनक होता है 
आँख मूँदे देखता हूँ
मोमबत्तियाँ फूँक कर बुझा दी गई हैं
तुम्हारे बाँयें हाथ में छुरी है
उसी बाँये हाथ में जिससे तुमने कभी
चित्र बनाये थे मेरा नाम लिखा था नोट्स लिखे थे
तुम केक काट रही हो
गुलाबी रुई के पनियाये कपाट फिर से कुछ खुल गए हैं
और वही रोशनी जिद कर के झलक उठी है
एक और मुस्कान उसी रोशनी से नहा उठी है
यहाँ मेरे इस अंतरिक्ष में
कंकड़ हीरे सब फेंक रहा हूँ और सुध नहीं है
आँख मूँदे देख रहा हूँ
एक सामूहिक क्लैपिंग के साथ सब गा रहे हैं
और यहीं से शामिल तुममें
मैं भी गाता हूँ
‘हॅप्पी बर्थ डे टू यू…’
दूर गहरे आकाश की गहराती वीथिका में
एक अकेला तारा झिलमिला उठता है
यादों की गुनगुनी रजाई के कोमल फाहों को छूता उसी में
लिपटा इस सर्द यात्रा में गुनगुनी आँच से भर जाता हूँ
तुम्हारे वर्तमान के इतिहास से उगे मेरे वर्तमान में
जीवन की गति ऐसी भी होती रहती है
कि जब कुछ नहीं कह पाता तुमसे
अंतरिक्ष में उछाल देता हूँ
तुम्हारे लिये अशेष शुभकामना ! 
आज वही तारीख है.
अधूरे में
एक दिन हम लौट गये थे
अपनी अपनी दिशाओं में
अपनी अपनी भीड़ों में डूब जाने को
तुम्हारी भीड़ तुम्हें अपने भीतर भर कर  
मुझसे दूर घसीटती जा रही थी
जिसके
ठेलते पैरों के बीच से
मेरी तरफ तड़प कर लपकी हुई  
हवा में खिंची रह गई तुम्हारी वह बाँईं हथेली और उसका वह ज़र्द रंग
मैं साथ लिये चलता हूँ
चूमता हूँ हर माथे को अपने अधूरेपन में
बटन टाँकता हूँ हर दरवाज़े पर जैसे वह कोई खुली रह गई कमीज़ है
जिसे चौखट ने अधूरा ही पहन लिया हो
जैसे अधूरा अधूरेपन से साँस मिलाता है
अधूरापन त्रासदी का पूर्ण कथन है
और अधूरी त्रासदियाँ कभी पूरी नहीं होतीं
वे लौटती हैं बार बार
हर बार खुरच कर भी मन नहीं भरता
इधर जी नहीं भरता अधूरेपन से जिसे साथ लिये चलता हूँ
हवा में खिंची रह गई तुम्हारी बाँईं हथेली संग
उसी से छूता हूँ इस धरती को 
उसके गर्भ को उसी से सहलाता हूँ
अपने अधूरे होठों से अधूरी हवा में चूमता हूँ तुम्हारे अधूरे चेहरे को अधूरे आकाश तले
और गजब लगता है
तुम्हारा प्रेम पी कर
इस अ-बीते समय में
हर कुछ से
प्रेम हो जाता है
मन मलंग हो जाता है. 
प्यार कहाँ बीतता है ,अनिला ?
जुबली हॉल हॉस्टल का कमरा नम्बर 31
उसके दरवाज़ों पर अब भी तुम्हारी खटखटाती अँगुलियों के निशान हैं अब भी जिन्हें सिर्फ मैं ही छू सकता हूँ
उन निशानों में दर्ज़ तुम्हारी अपेक्षा भरी सपनायी आँखों की मंद मुस्कान
मेरे जिस्म पर तुम्हारे चुम्बनों की तरह बिछी हुई है
पिघलते कोलतार की काली खिंची सूनी जीभ पर चंद बदहवास पहियों की दौड़ और उनके पीछे एक लम्बा सूना इंतज़ार अब भी वहीं टँगा हुआ है जैसा कि मैं छोड़ आया था तुम्हें पुकारता हुआ
थक कर
तुम पुकार की दूरियों से दूर जा चुकी हो
और मुरझाई सीपियों सी दो आँखें वहीं पड़ी रह गई हैं उसी बस स्टॉप पर
एक परिकथा थी जो अब स्मृतियों के जीवाष्म में बदलती जा रही है
एक जुरासिक युग था हमारे सपनों का जो किसी अनंत हिमयुग में दफन होता जा रहा है
पता है अनिला ?
इस बीच कितना कुछ हो चुका है हमारे उस साझे अवकाश का !
तुम्हारे उन पेड़ों पर की तुम्हारी वे सभी गिलहरियाँ बाज बिल्लियों और मशीनों के पंजों से धज्जियाँ बन गईं
शिरीष के वे सारे पेड़ तुम्हारे
सड़क की भेंट चढ़ गये
विकास की कोख में पतन के जो संकेत तुमने देखा था अब वे बिलबिला कर हवा में बिखर गये हैं और बेताल की तरह यहाँ वहाँ नाच रहे हैं
रक्तपायी कपालिनी चण्डिका का रणोन्मत्त अट्टहास गूँजता है
और वे अनाथ हुए सपने हमारे यहाँ वहाँ किसी खोह में छुपने की जगह खोजते हैं
उन्हें इस हिमयुग के बीत जाने का इंतज़ार है  
पता नहीं तब तक वे बचेंगे भी या नहीं
कहाँ हो तुम ?
कैसी हो ?
क्या कर रही हो ?
मैं याद आता हूँ तुम्हें ?
एक चीख निकलती है और सन्नाटे के खुले मुँह में खो जाती है
बीते रास्तों पर सूखे पत्ते उड़ते रहते हैं
एक पदचाप झिंगुरों के गीत में मिल जाती है
कोई पतंग कटती है और दूर आसमान में कहीं गुम हो जाती है
एक प्रत्याशा हिलते हुए सूने झूले के पास सिर झुकाये खड़ी रह जाती है
इन्हीं में कहीं होता हूँ मैं आज कल.
मेरे उस सूने मैं को तुम्हीं भरने आती हो शून्य की तरह
एक शून्य जो तुम्हारा निराकार संग है मेरी साँसों की लय पर उठता गिरता
मेरी धड़कनों में संगीत सा बजता एक शून्य जो एक कैनवास है मेरी कूची के समक्ष और उसमें कई चेहरों की भीड़ में एक चेहरा तलाशता हूँ तुम्हारा जो अब मेरे मन में हिमखण्ड की तरह जम चुका है और जो रिसता नहीं है कोई नदी उससे नहीं निकलती कोई जीवन वहाँ नहीं पनपता है
बस एक ठण्ढा उजाड़ एंटार्कटिक है मीलों फैला हुआ
एक शून्य जो हर आबादी को भरता है
एक शून्य जो हज़ार सम्भावनाओं का गर्भ अब भी है जब सब कुछ लुट चुका है कारवाँ कब का जा चुका है उड़ी हुई धूल निथर चुकी है और एक वस्तुनिष्ठ इतिहास अपने पुरातत्त्व और शिला लेखों को लिये मेरे सामने खड़ा है
कि देखो कवि ! क्या वस्तुनिष्ठता भी भावनिष्ठ नहीं होती ? सत्य के दावे तुम्हारे कितने भ्रामक हैं जीव जगत में क्या कुछ भी वस्तुनिष्ठ हो सकता है ?
क्या हम वस्तुनिष्ठ हो सकेंगे अनिला, एक दूसरे के प्रति ? कुछ है जो रंग भरता है हर कुछ में
सब कुछ बीत भले ही गया हो पर उस बीते के वर्तमान को अब भी कुछ है जो रंगता रहता है अनन्य रंगों से जो धरती के नहीं हैं
धरती के वे रंग सारे हमने उसी के बीज में छुपा दिया था जब आखिरी बार विदा के पहले हम फूट फूट कर रोये थे
कि रोने की उस वहशत को दुबारा नहीं जी पायेंगे
याद है ?
उस कमरे में मेज़ पर रखी कुछ चिट्ठियाँ कुछ तस्वीरें कुछ स्केच चंद कवितायें बेतरतीब सी यहाँ वहाँ उड़ रही थीं
सब कुछ बेतरतीब हो चुका था उस क्षण
विश्व ब्रम्हाण्ड खगोलीय घटना चक्र— सब अस्त व्यस्त हो चुका था नाते रिश्ते घर परिवार समाज जीवन भविष्य सब… कहीं कोई लय नहीं थी जो तुम्हारी घुटी सिसकियों से मेल खा सके सब शर्मिंदा थे मुँह चुराते हुए
तुम्हारे आँसुओं से गालों पर चिपके हुए केश तुम्हारे मेरी हथेलियों में तुम्हारा तड़पता चेहरा कभी ना मिलने का वादा और जीवन भर के लिये शुभकामनाओं के साथ विदा होते हुए कोलतार की लम्बी खिंची हुई जीभ पर
चंद बदहवास पहियों की दौड़ और पीछे छूटा एक सूना इंतज़ार जो अब भी मेरे जिस्म पर तुम्हारे चुम्बनों की तरह बिछा हुआ है
अनिला,बहुत याद आती हो तुम और बहुत याद आती है वह दुनियाँ जो हो सकती थी पर हुई नहीं
सम्भावनाओं असम्भावनाओं के कई खुलते बंद होते रास्तों में एक मैंने चुना था और तुम मज़बूर उसे स्वीकार गईं
अब यह गली खुद अपने ही ऊपर बंद हुई जाती है
रास्ते यहाँ से आगे भी हैं
पर सब निर्जन है बियाबान है अब कोई बस्ती नज़र नहीं आती मेरे हमशक्लों की
मैं तो परग्रही सा कब का इस ग्रह पर आ चुका था तुम्हीं ने रोक कर मुझे घर बताया था मेरा मेरी दुनियाँ गढ़ने लगी थीं तुम्हारी कोमल अँगुलियाँ और मोह से भर उठा था मैं
जीवन और आसक्ति से
बलिदान के रास्तों पर जिनकी जगह नहीं होती सुंदर सुंदर बच्चों के वही किलकते कूदते झुण्ड मुझे घेरने लगे थे
एक ज़बरदस्त खिंचाव था मेरी भुजाओं पर मेरी जंघाओं पर
मुक्ति और बेड़ी का आत्मघाती संघर्ष प्रेम पी कर बौरा रहा था
मेरी गागर में तुम भर भर कर बह रही थी दुनियाँ के हर अणु की तरफ कि जैसे तुम्हारे रंग में अब यह ब्रम्हाण्ड रंग उठेगा डोल उठेगा इंद्र ठिठक जायेंगी मेनकाएँ रम्भाएँ और उर्वशियाँ दरक उठेगा शोषण के धर्म पर टिकेसमाज का ढाँचा मुक्त हो मचल उठेंगी जातियाँ जूठन पर उगी बस्तियों में
पर यह हो ना सका
षड्यंत्र कुचक्र यथावदिता का
आंदोलनों के प्रतिपक्ष में ही होता है  
परिपाटी परम्परा और एक ना जाने कौन सा गौरवशाली इतिहास
दोहन के औजार होते हैं
और ये औज़ार हममें भरे जाने लगते हैं जन्म से ही
फिर इन्हीं को हमारी देह पर घिसा जाता है हमारी ही देह इन्हें धार देती है खुद अपने खिलाफ
शोषण का लोकतंत्र यूँ ही चला करता है चुनाओं की ओट में हमसे ही कहवाकर कि यह समय हमने ही चुना है !
आडम्बरों और ढकोसलों की ग्रंथों से कई पन्ने दिन भर हवा में यहाँ वहाँ उड़ते रहते हैं
रात में वे हमारी नींदों में गोते लगाते हैं
उस ग्रंथ के पन्ने कभी कम नहीं होते
कभी कम नहीं होती हैं स्मृतियाँ जिनमें हम अपना वजूद रखते हैं
कभी कम नहीं होती हैं इन्टरनेट सी तुम्हारी अपेक्षा भरी आँखों की मुस्कान सब कुछ बताती हुई
कभी कम नहीं होता पंछियों का देस बदलना
रात के इस तीसरे पहर भी
जब वे झुण्ड में उड़े जा रहे हैं हज़ार फीट की ऊँचाई पर करीब चालीस मील प्रति घण्टे की रफ्तार से अपने फॉर्मेशन में इस तपते मौसम में प्रेम के उस देस की तरफ यहाँ से पश्चिम जहाँ शायद तुम होगी
और तुम्हारे ही पते पर ये पताहीन चिट्ठियाँ जा रही हैं चीटियों की यह अंतहीन व्यस्त कतार और इस वक़्त भी मुम्बई की सड़कों पर दौड़ता ट्रैफिक
सभी तुम्हारी ही तरफ जा रहे हैं
चरस के नशे में धुत्त वे दिशाहीन कदम भी वहीं जा रहे हैं
जहाँ दिशाएँ होना छोड़ देती हैं
सारे पते जहाँ अपनी शिनाख्त भूल जाते हैं
वहीं रहती होगी तुम अभी
और वहीं तक जाती हैं क्षितिज पार तक बिछी ये रेल की पटरियाँ
उन्हीं रेल की पटरियों से हम तुम
अपने अपने देश काल में
समानान्तर चलते हुए किसी अदृश्य बिंदु पर एक हो जाते हैं 
मिल जाते हैं
अनिला !
तुषार धवल महत्वपूर्ण युवा कवि एवं चित्रकार हैं। संप्रति कोलकाता में आयकर आयुक्त के रूप में कार्यरत हैं।
संपर्कः tushardhawalsingh@gmail.com

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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