सलीका चाहिए आवारगी में
(सन्दर्भ ‘आवारा मसीहा’)
वंदना
चौबे
“बहुत
मुश्किल है बंजारा मिज़ाजी
सलीका चाहिए आवारगी में”
—-निदा फ़ाज़ली
“यह धारणा सत्य है कि मनुष्य शरच्चंद्र की प्रकृति बहुत जटिल थी.साधारण बातचीत
में वे अपने मन के भावों को छिपाने का प्रयत्न करते थे और उनके लिए कपोलकल्पित
कथाएं गढ़ते थे.कितने अपवाद,कितने मिथ्याचार, कितने भ्रांत विश्वास से वे घिरे रहे!इसमें उनका अपना योग भी कुछ कम नहीं
था.वे परले दर्ज़े के अड्डेबाज़ थे.घंटों कहानियां सुनते रहते.जब कोई पूछता कि क्या
यह घटना स्वयं उनके जीवन में घटी है तो वे कहते-‘न-न!गल्प कहता हूँ,सब गल्प,सब मिथ्या,एकदम सत्य नहीं.”पृष्ठ-7
u
“शरत तुम अपनी आत्मकथा लिखो”-
साहित्य कई मायनों में टैगोर,बंकिम और शरतचंद्र से आगे नहीं निकल
पाया.उनके सम्मोहन में उन्हीं की तरह हो जाने में बंगला साहित्य का एक पूरा युग
बीता है या तो बांग्ला साहित्य के नवोन्मेष की पूरी ऊर्जा टैगोर,बंकिम और शरत के अतिक्रमण में भी निकली है.’आवारा
मसीहा’विष्णु प्रभाकर द्वारा रचित शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की जीवनी
है.हिंदी साहित्य में अपने ढंग की पहली प्रमाणिक और बेहतरीन जीवनी.साहित्यिक रचना
का सबसे व्यक्त कारण उसका रचयिता होता है.इस अर्थ में जीवनी विधा सामाजिक शोधों तक
के लिए उपयोगी तो है ही इक स्वस्थ समाज के भीतर बनते और विकसित होते कलाकार की
संवेदन-यात्रा से गुजरने वाला अभूतपूर्ण अनुभव भी होता है.हिंदी साहित्य में जीवनी
लिखना बैठे-ठाले के काम की तरह गिना जाता रहा है..जबकि इस विषय पर पाश्चत्य
साहित्य शास्त्र पहले से ही विचार करता आया है. वेदों-पुराणों ने वंश-बेलों के
चित्रण में जीवनी के कुछ अंश मिलते हैं लेकिन वे चरितनायक के आख्यान ज्यादा लगते
हैं. अब तक भारतीय साहित्य में सामंतों और धर्म-गुरुओं की जीवनियाँ भी आती रही हैं, उसे किसी सूरत में ‘बायोग्राफी’ तो नहीं कहा जा सकता. कहा जाता है 1926 की थॉमस मूर की जीवनी से जीवनी की
वस्तुनिष्ठ शुरुआत मानी जाती है. ’आवारा मसीहा’ से पहले भारतेंदु काल में कार्तिक प्रसाद खत्री, किशोरीलाल
गोस्वामी, प्रताप नारायण मिश्र तथा राधाकृष्ण दास भी जीवनीकार माने
गये हैं, विशेष रूप से रामशंकर व्यास और देवीप्रसाद मुंसिफ.कार्तिक
प्रसाद खत्री ने ‘मीराबाई का जीवनचरित’लिखा(1893). कुल मिलाकर तीस-पैंतीस जीवनियाँ हिंदी में लिखी गयीं
जिन पर आलोचकों ने कभी ध्यान नहीं दिया. यूँ भारत की पहली श्रेष्ठ जीवनी ‘यादगार-ए-ग़ालिब’ हाली द्वारा लिखी गयी. ग़ालिब के
प्रति उत्कट प्रेम और सम्मान से ही ऐसी जीवनी संभव हो सकी. कुछ साहित्यिक जीवनियों
के बाद हिंदी में लम्बे अरसे से कोई जीवनी नहीं लिखी गयी है. मानव-व्यक्तित्व को
समझने के क्रम में जीवनी कलात्मक सृजन को मनोविज्ञान से जोड़कर साहित्य-संरचना के
लिए उपयोगी विधा बन जाती है और तीसरे जीवनी एक स्तर के बाद अपने आप में इतनी
महत्वपूर्ण हो जाती है कि स्वतंत्र रचना हो जाती है. प्रसिद्ध अमेरिकी चिन्तक
रेनेवेलेक ने जीवनी पर लम्बे लेख लिखे हैं. वे कहते हैं-“जीवनी
लेखक की समस्याएं ठीक वे ही होंगी जो एक इतिहासकार की हुआ करती हैं.उसे दस्तावेज़ों,पत्रों,आँखों देखी घटनाओं, संस्मरणों और आत्मकथात्मक विवरणों का अर्थ निकालना होगा
कि प्रत्यक्ष द्रष्टाओं के कथन आदि में कितनी शुद्धता और विश्वसनीयता है.जीवनी
लिखते समय उसके सामने यह समस्या आएगी कि वह घटनाओं का कालक्रम क्या रखे,उनमे से किन्हें चुने. अपने विवेक का किस सीमा तक उपयोग करे और कहाँ तक साफ़गोई
का सहारा ले.जीवनी को एक विधा मानकर आज तक जितना सारा काम किया गया है उनमे इन्ही
बातों का ध्यान रखा गया है जो अपने आप में किसी तरह कि साहित्यिक विशिष्टता नहीं
रखतीं.” रेनेवेलेक और ऑस्टिन वॉरेन,”साहित्य-सिद्धांत” लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद,पृष्ठ-105
हिंदी साहित्य के ढांचा-बद्ध विधा के बीच जीवनी लिखना और उसे एक उत्कृष्ट
साहित्यिक कृति के स्तर पर स्थापित करना,वह भी उस रचनाकार की जीवनी जिसे
तमाम लोकप्रियता के बावजूद घोर समाज विरोधी लेखक और लापरवाह व्यक्ति के रूप में जाना जाता था..‘आवारा मसीहा’शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की जीवनी
है.बंगाल ही नहीं समूचे भारतीय साहित्य के लोकप्रिय और सर्वमान्य लेखक हैं.उनकी
कृतियों का अनेक भाषाओँ में जिस तरह से अनुवाद हुए,उन्हें
जितना पढ़ा गया,ऐसा कम लेखकों के साथ होता है. इससे भी सुखद विरोधाभास यह है
कि यह जीवनी विष्णु प्रभाकर द्वारा लिखी गयी है. खादी-खद्दर से ही नहीं, मन-प्राण से प्रतिबद्ध गांधीवादी, वैदिक साहित्य के अपने आधार पर
साहित्य और समाज में नैतिकता –अनैतिकता श्लीलता-अश्लीलता को
समझने वाले. सुखद इसलिए क्योंकि पिछले कई वर्षों में जिस तरह की असहिष्णुता न केवल राजनीति में बल्कि
साहित्यिक धडों में विचारधारा के नाम पर समूहों-संगठनों में विकसित हुई हैं, वहाँ एक विचारधारा दूसरी विचारधरा को
देखने-सुनने का बुनियादी लोकतंत्र भी खोती जा रही है, ऐसे में
यह ध्यान देना चाहिए कि एक वैदिक और गाँधीवादी लेखक क्यों अपना समूचा जीवन एक ऐसे
लेखक की जीवनी लिखने लगा देता है जिससे उसकी वैचारिकता का कोई तालमेल नहीं है.यहाँ
तक कि उस लेखक का जीवन एक बदनाम, गुमनाम और आवारा किस्म का जीवन रहा हो. ‘आवारा
मसीहा’ पर बात करते हुए हमें यह ध्यान देना चाहिए कि जिस दौर के
लेखक की जीवनी विष्णु जी लिख रहे हैं उस दौर में सजग रूप से कोई लेखक अपने बारे
में साक्ष्य नहीं रखता था. समय ने जिस रूप में हमारे सामने उसका जीवन रखा, हमने उसे विश्लेषित कर लिया. हालाँकि तत्कालीन समय में भी ऐसे रचनाकारों की कमी
नहीं थी जब आत्ममुग्धता अपने चरम पर थी. ऐसे समय में शरतचंद्र की इस जीवनी की एक
विशेष बात है कि शरत का जीवन अद्भुत और अतिरिक्त रूप से दबा-छुपा और विरोधभासों से
भरा हुआ था. इस स्थिति तक कि उनके अपने करीबियों तक के लिए उनका जीवन एक अभेद्य
पर्दा और रहस्य बन गया था. इस तरह गोपन और रहस्य के बने रहने में स्वयं शरत की भी
भूमिका होती थी. यह बहुत बड़ी बात है कि शरत स्वयं अपने कृतिकार को इतना तरजीह कभी
नहीं दे पाए कि वह उनकी रचनात्मकता पर हावी हो जाए..फिर भी आत्ममुग्ध लेखकों के
दौर में शरत का यह व्यक्तित्त्व एक बड़े रचनाकार के बहुआयामी व्यक्तित्व की तरफ़
संकेत करता है. जीवनी में अपने पहले दौर में वे इस हद तक अपने प्रति छिपाव का
बर्ताव करते हैं कि अपनी ही रचना किसी और के नाम प्रकाशित होने के लिए भेज देते
हैं और बाद में उसी रचना को सर्वश्रेष्ठ सम्मान मिलता है. विष्णु जी ने बहुत समय और
ऊर्जा लगायी बावजूद इसके शरत के जीवन के बारे में विशेष सामग्री एकत्र नहीं कर
सके.प्रारम्भिक खोज में तो शरत के निकट सम्बन्धियों से विष्णु प्रभाकर को यह भी
सुनना पड़ा है- “छोडिये महाराज!ऐसा भी क्या था उनके जीवन में, जिसे पाठकों को बताये बिना आपको चैन नहीं.नितान्त स्वछन्द व्यक्ति का जीवन भी
क्या किसी के लिए अनुकरणीय हो सकता है? उनके बारे में हम जो कुछ जानते हैं
वह हमारे बीच ही रहे तो अच्छा!लोग इसे जानकार क्या करेंगे.!किताबों से उनके मन में
बसी वह कल्पना ही भ्रष्ट होगी.
दो-चार गुंडों बदमाशों का जीवन देख लें करीब से. शरच्चन्द्र की जीवनी तैयार हो
जाएगी. ”विष्णु जी जैसे लेखक के लिए यह खोज-बीन किस तरह उनके कम में
बाधक और साधक दोनों तरह से काम करती होगी. यह कहने की आवश्यकता नहीं है.–अपने जीवन काल में स्वयं शरत भी इन दुष्प्रचारों को जानते थे. कहीं किसी जगह पर
भावावेश में आकर शरत ने कहा था.-“अपने विगत जीवन के बारे में मैं
अत्यंत उदासीन हूँ. जानता हूँ उसको लेकर नाना प्रकार कि जनश्रुतियाँ प्रचारित हो
रहीं हैं लेकिन मेरे निर्विकार आलस्य को वे बिंदु मात्र भी विचलित नहीं कर
सकतीं. शुभचिंतक बीच-बीच में उत्तेजित होकर कहते हैं कि इस झूठ का प्रतिकार क्यों
नहीं करते? मैं कहता हूँ झूठ यदि है तो उसका प्रचार मैंने तो नहीं किया
है..इसीलिए प्रतिकार करने का दायित्व भी उन्हीं का है. ”जैसे यह
पंक्तियाँ बहुत क्षुब्ध होकर किसी बेहद संकोची और सीमा कि हद तक अंतर्मुखी रचनाकार
ने अपने समय से यह बात कही हो. जैसे यह काम विष्णु प्रभाकर को करना ही हो. जैसे समाज
का कोई विशिष्ट दायित्वबोध रह गया हो शरत के प्रति और ‘आवारा
मसीहा’ का रचा जाना निश्चित सा हो या ना रचा जाना भारतीय साहित्य
के लानत की तरह हो जाये. शरत की प्रतिभा और लापरवाही को बंधने के चलते ही एक बार
गुरुवर ने भी यह प्रस्ताव किया था-“शरत तुम अपनी आत्मकथा लिखो”. और शरत का जवाब उतना ही स्पष्ट-“मैं आत्मकथ्य नहीं लिख सकता
क्योंकि न तो मैं इतना सत्यवादी हूँ और न इतना बहादुर ही जितना एक आत्मकथा लेखक को
होना चाहिए.”पृष्ठ-9
स्वयं शरत उस दुष्प्रचार के लिए आगे बढ़कर कुछ नहीं करते थे. यह शरत का बहुत बड़ा और
उदार मन था दूसरे अपने काम और लेखन की गहरी तल्लीनता और डूब कि समाज के धकियाये
हुए हिस्से के बारे में लिखने के लिए समाज में ही डूब और समाज से ही कटाव कितना
ज़रूरी है. शरत अनजाने ही बहुत सी चीजों से अनजाने बने रहे..जिससे उनका लेखन इस समाज
से बड़ा बन सका, दूरगामी बन सका. एक विरक्ति भरे कथन में वे कहते हैं कि- “लेखक का व्यक्तिगत जीवन और उसका लेखक-जीवन दोनों एक ही नहीं होते.किसी भी कारण
इन दोनों को मिला देना उचित नहीं है. यह जान लो कि मैं अपनी रचनाओं में जितना अपने
को व्यक्त कर सकता हूँ,उतना ही मैं हूँ. पाठकों के लिए
मेरा उतना परिचय ही काफ़ी है.एक दिन मैं नहीं रहूँगा,तुम भी
नहीं रहोगे. लोग मेरे व्यक्तिगत जीवन के बारे में जानने की इच्छा नहीं करेंगे. तब
यदि मेरी कोई लिखी हुई रचना बची रहेगी तो वे उसी को लेकर चर्चा करेंगे, मेरे चरित्र को लेकर नहीं.”-विष्णु प्रभाकर, ‘आवारा मसीहा’,राजपाल एंड संस,नई दिल्ली,पृष्ठ-8. –
“कलाकार पर कभी विश्वास मत करना.वृतांत पर विश्वास करो..”–डी.एच लॉरेंस.
इस प्रसंग से यह भी विचार उभरता है कि लेखक के जीवन से लेखक को कितना सम्बद्ध
करके देखा समझा जाये?शरत ने जैसे एक आधुनिक प्रश्न की
चर्चा छेड़ दी है. लेखन में उतरते ही पाठक लेखक से व्यक्तिगत भी जुड़ाव पा लेता है..न
चाहते हुए भी.रचनात्मक लेखन की यही शक्ति और सामर्थ्य लेखक को बहुत महान लेकिन
दूरगामी दायित्वबोध से बाँधता है.प्रश्न यह है कि लेखन और जीवन में तनिक भी
अन्तराल पड़ते ही पाठक अजनबियत अनुभूत करता है और लेखन कार्य को सामान्यतः किताबी
सिद्धांत की तरह लेने लगता है.लेखक और पाठक के बीच का यह पुल क्षतिग्रस्त है. पाठक
न तो लेखक को अन्य पेशेवरों की तरह ले पाता है न ही लेखन पर ठीक से भरोसा कर पाता
है. रचनात्मक लेखन की तमाम लोकप्रियता के बावजूद लेखक-पाठक की आतंरिक संवेदनशीलता
बनी रहती है. इस सम्बन्ध में जीवन-साक्ष्यों के आधार पर लेखकीय प्रतिबद्धता पर
विचार करते हुए रेनेवेलेक ने वही लिखा है जो शरत पहले ही कह चुके हैं- “ईमानदारी को प्रायः एक मानदंड के रूप में लिया जाता है, पर यदि इसका अर्थ यह लगाया जाये कि लेखक के जो अनुभव या अनुभूतियाँ बाहरी
साक्ष्यों से सिद्ध होती हैं, उनकी झलक उसकी रचनाओं में मिलनी
चाहिए, लेखक को अपने जीवन के प्रति सच्चा बना रहना चाहिए तो यह
मानदंड एकदम मिथ्या है” रेनेवेलेक और ऑस्टिन वॉरेन, ”साहित्य-सिद्धांत” लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद,पृष्ठ-105. डी.एच लॉरेंस भी यही कहते हैं –“कलाकार पर कभी विश्वास मत करना.वृतांत पर विश्वास करो. ”संरचनावादियों ने कृति के लिए संरचना को महत्व दिया तो विखंडनवादियों ने
विखंडन को. ’The Critical Essays’ में बार्थ ने एक तरह से साहित्यिक
जीवनियों की उपयोगिता को ख़ारिज कर दिय है. इसी तरह फ़ूको ने स्पष्ट ही कह दिया कि- “इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि किसने लिखा है!लेखक अपनी कृति में मृतप्राय है.” यह वकतव्य जितना तार्किक दीखता है अपनी पर्तों में उतना तार्किक नहीं है. अगर
इन विचारकों की मानें तो साहित्यिक जीवनियाँ ही बेकार की चीज़ हैं किन्तु इन्ही के
भषा सम्बन्धी सिद्धांतों में कई अन्तर्विरोध भी दिखाई देते हैं.
विचारों के आरंभिक दौर में विष्णु प्रभाकर मार्क्सवादी रहे हैं बाद में धुर
गांधीवादी. इस जीवनी को लिखते समय आश्चर्यजनक रूप से उन्होंने अपने धुर विचारों तथा
धुर विरोधों को एक तरफ़ रख दिया है. विचारों को ही नहीं 13-14 वर्षों
के इस समय में शरत को पाने के लिए उन्होंने अपना अहम् और रचनात्मक-विकास को भी
तिलांजलि दी है.विष्णु जी वह व्यक्ति हैं जिन्होंने राष्ट्रपति के दुर्व्यवहार के
चलते पद्मभूषण सम्मान लौटा दिया था. वे मूलतः रचनाकार रहे हैं. ऐसे समय में जब
जीवनियाँ लिखना नितांत गैर-रचनात्मक और अमौलिक काम माना जाता रहा, विष्णु जी ने जीवन का बड़ा हिस्सा शरत की जीवनी लिखने में खर्च कर
दिया. अध्यवसायी,मसिजीवी और साहित्य की रोटी खाने
वाले, उसी पर जीने वाले विष्णु जी के लिए आमदनी का कोई अन्य
विकल्प नहीं था बावजूद इसके वे डूबकर शरत पर काम करते हैं. उन दिनों जब हवाई-यात्रा
सामान्य यात्रा नहीं थी, विष्णु जी ने काम के झोंक में ‘आवारा मसीहा’ के लिए अपना सब कुछ दाव पर लगाया. ‘आवारा मसीहा’ के प्रति ईमानदारी,निष्ठा,जीवटता और प्रतिबद्धता के कारण वे हिंदी और हिंदीतर जगत के
बड़े लेखक के रूप में प्रतिष्ठित हुए. फरवरी 1974 में
प्रकाशित ‘आवारा मसीहा’ का बंगाल में अभूतपूर्व स्वागत हुआ
लेकिन संभवतः शरत की प्रवृत्तियों को लेकर हिंदी जगत ने बहुत सालों तक इस जीवनी को
तरजीह नहीं दी. इसमें विष्णु जी के प्रति इर्ष्या भवना और ‘आवारा
मसीहा’ की सफलता भी एक कारण रहा लेकिन विष्णु जी हमेशा इस जीवनी को
लेकर आलोचकों-समीक्षकों के प्रति निरपेक्ष होकर काम करते रहे. उनकी अन्य रचनाएँ
चर्चित होकर भी ‘आवारा मसीहा’के आगे चल नहीं सकीं. विष्णु जी पर संजय जोशी के निर्देशन में वृत्तचित्र ‘युग स्रष्टा विष्णु प्रभाकर’ का निर्माण हुआ जिसकी केन्द्रीय
भूमि ‘आवारा मसीहा’ के लिए बिहार से बर्मा तक के भटकाव
और रोमांचक रचना-प्रक्रिया रही. शरत की विवादस्पद पुस्तक ‘पाथेर
दाबी’ जो ज़ब्त किये जाने की कगार पर थी. उस पुस्तक को विष्णु जी ने
नए अर्थ के साथ खोला. लेखक और समाज के प्रति दायित्वबोध को समझने के लिए समकालीन
लेखको को विष्णु जी की यह साधना याद रखनी चाहिए. एक प्रतिबद्ध खद्दरधारी गाँधीवादी
लेखक किसी ऐसे लेखक के व्यक्तित्व और जीवन से लगातार जूझता है जो हिंदी भाषी तक
नहीं है, तमाम लोकप्रियता के बावजूद उसके अपने समाज ने उसे एक ख़ास
किस्म का बहिष्करण दे रखा है. विष्णु जी इसका जवाब दो तरीकों से देते हैं. पहला तर्क
विश्लेषकों के लिए कार्य-कारण सम्बन्ध की कोटि का हो सकता है लेकिन दूसरा तर्क
मनोविज्ञानिक विश्लेषकों के लिए हो सकता है जिसमे शरच्चन्द्र के साथ विष्णु
प्रभाकर के व्यक्तित्व का भी नुक्ता मिल जाता है. किसी साक्षात्कार में वे कहते हैं
कि हिंदी में जीवनियाँ अब तक तीन ही लिखी गयीं-अमृतराय कि ‘कलम का सिपाही’, अमृतलाल नागर का ‘मानस का हंस’ और एक अर्थ में रामविलास शर्मा
द्वारा रचित ‘निराला की साहित्य-साधना’. इस तरह
विष्णु जी जीवनी लिखने की तरफ़ प्रेरित हुए. उन्होंने शरच्चन्द्र को क्यों चुना. यह
भी विचारणीय है. वे लिखते हैं- “कई बार अपने स्वभाव से बिल्कुल
विपरीत चीजें भली लगती हैं, जैसे कोई जादू हो उनके होने में. वे
अपनी तरफ़ चुम्बकीय आकर्षण से खींचती हैं” यही मनोविज्ञान विष्णु जी को शरत
के पास खींच लाया. यह सचाई के साथ स्वीकार करना होगा कि स्वतंत्रता के सालों पहले
जबकि बांग्ला साहित्य व्यक्ति मन की जटिलताओं विशेष रूप से स्त्री-मनोजगत के
रहस्यों पर काम कर रहा था..हिंदी साहित्य में समाज सुधारक साहित्य लिखा जा रहा
था. जैनेन्द्र के उपन्यासों पर शरत का प्रभाव पड़ा. इस हद तक कि अपने अंतिम उपन्यास ‘दशार्क’ की नायिका अपने बसी-बसाई गृहस्थी, पति और
छः वर्ष के बेटे को छोड़कर अपनी इच्छा से वेश्यावृत्ति का चुनाव करती है. भव्य
वेश्यालय बनवाती है और समाज और पुरुषों के साथ प्रयोग करती है..किन्तु एक विशेष
उत्तर भारतीय नैतिक संस्कारों के कारण जैनेन्द्र की नायिकाएँ अस्तित्व की उस ऊंचाई
पर नहीं पहुँच पातीं. ये नायिकाएँ अधिकांशतः दो नायकों के बीच अपना अस्तित्व खो
बैठती हैं. अतिरक्त भावुकता के कारण कहीं तो वे आदर्श और त्याग की सीमा तक जाती
हैं..कहीं नायिकाओं में मुग्धावस्था की बचकानी प्रवृतियाँ भी जैनेन्द्र के यहाँ
दिखाई देती हैं. जबकि जैनेन्द्र के आरंभिक उपन्यासों के शीर्षक तक नायिकाओं के नाम
पर हैं.(सुनीता,कल्याणी,सुखदा
आदि). उनकी नायिकाओं को साज-संभाल करने वाला एक नायक ज़रूर मौजूद रहता
है. प्रेम-त्रिकोण की परतदार जटिलता, सामंती समाज के बीच अपने
व्यक्तित्व की तलाश में शरत की नायिकाएँ भी नायकों पर निर्भर लगतीं हैं लेकिन हर
बार कथा के अंत में वे अपनी विशिष्ट छाप से नायक से बहुत आगे निकल पड़ती हैं. इस
सन्दर्भ में ‘देवदास’ उपन्यास को याद किया जा सकता
है. नायक प्रधान उपन्यास जिसका शीर्षक तक नायक के नाम पर है, वहां भी नायक की किस तरह भरभराकर कर गिरा है! किस तरह पारो और चंद्रमुखी का
चरित्र धीरे-धीरे आपकी पकड़ से छूटता जाता है. हिन्दी में निश्चित रूप से बड़े लेखक
रहे लेकिन स्त्री-मन की गुत्थियों को स्त्री होकर उतर देने की ताब हिंदी के लेखकों
में नहीं थी. अज्ञेय में भी नहीं जिन्होंने हिन्दी पात्रों के मनोवैज्ञानिक पड़ताल
का प्रस्ताव किया.संभवतः यही कारण है कि विष्णु जी शरत के निकट हुए – “समाने समाने होए प्रणेयेर’ विनिमय के अनुसार शायद इसलिए हुआ
कि शरत के साहित्य में उस प्रेम और करुणा से मुझे उन परिस्थितियों से गुजरना पड़ा, जहाँ दोनों तत्वों का प्रायः आभाव रहा.उस आभाव की पूर्ति जिस साधन के द्वारा
हुई,उसके प्रति मन का रुझान सहज ही है, इसीलिए
शीघ्र ही शरच्चन्द्र मेरे प्रिय लेखक हो गये.” विष्णु
जी ‘प्रणेयेर’ के बल पर ही शरत के लिए नए सिरे से
बांग्ला सीखते हैं, शरत की गिरहें खोलते हैं.
‘कवि से विच्छेद मेरा शायद पूर्ण हो गया..’
शरत और विष्णु प्रभाकर के बीच के संवेदन-रसायन के सूत्र से शरत के जीवन का एक
बड़ा पक्ष उभरता है जो जीवनी में प्रारंभ से अंत तक तनाव की तरह बना रहता है. जिसने
शरत को लेखक बनाया और उन्हें भीतर से तोड़ भी दिया.यह मात्र बंगाल का प्रभाव और
संयोग नहीं है कि शरत पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर का अमिट प्रभाव पड़ा..बल्कि यह भी कम
दर्दनाक नहीं है कि कविवर के प्रेम और घोर उपेक्षा के कारण शरत अरविन्द घोष की तरफ़
झुक चले.ऐसा लगता है जैसे शरत जीवन भर लिखते रहे कि कविवर कभी तो मन-प्राण से
उन्हें स्वीकृति देंगे और रवीन्द्र ठाकुर लगातार शरत की रचनाओं से टकराते रहे कि
शरत को अस्वीकृत करने के महीन तंतु उनके भीतर बने रहें. दोनों की रचनाओं की
भाव-भूमि भिन्न होकर भी बराबर एक दूसरे को काटती और उलझती रहीं हैं. इसी उलझाव ने
उस दौर के बांग्ला साहित्य में नई साहित्यिक दृष्टि का सूत्रपात भी किया. चिर
आभिजात्य कवि रवीन्द्र ठाकुर और चिर आवरा, बेतरतीब
शरत एक दूसरे को पाना ही चाहते थे इसीलिए घोर अभ्यांत्रिक निकटता में घोर अलगाव की
रेखा खिंची रहती थी दोनों के बीच. एक अन्तरंग पत्र में गुरुदेव मानों अपने अंतिम
दौर में हार कर यह लिखते हैं-“कुछ मनुष्य ऐसे होते हैं जिनके
प्रत्यक्ष परिचय से परोक्ष परिचय अधिक सुगम होता है.शरत उस जाति के मनुष्य नहीं
हैं. उनके पास जाकर ही मानों उन्हें पाया जा सकता था. मेरी वह हानि हो गयी. फिर भी
उनसे मिलना-जुलना या बातचीत नहीं हुई, ऐसा नहीं है. केवल मात्र मिलना नहीं,यदि पहचान हो सकती तभी अच्छा होता. समकालीन होने का सुयोग सार्थक होता. हुआ
नहीं. मैंने उनकी रचना ‘बिन्दो का लल्ला’, विराज बहू’, राम की सुमति’, बड़ी दीदी’ पढ़ ली
है. सोचा है, मन का मनुष्य पा लिया है. मनुष्य को प्यार करने के लिए इतना
ही काफ़ी है” पृ आवारा मसीहा, पृष्ठ–293
लोक में एक मुहाविरा है कि बड़े पेड़ के साए में छोटा पेड़ कभी पनप नहीं
सकता. ऊपरी तौर पर रविन्द्र ठाकुर और शरत के लिए लोग इसी तरह के कयास और सरलीकरण
किया करते रहे लेकिन इसके पीछे कारण प्रारंभ से ही दूसरे रहे हैं. अपने वक्तव्य में
रविन्द्र बाबू का यह दुःख के साथ कहना कि ‘उनके
पास जाकर ही उन्हें पाया जा सकता था.’ अर्थवान है. गुरुवर शरत के पास कभी
उतर कर नहीं जा सके. जिन रवीन्द्रनाथ को विश्व मानवतावाद का उद्घोषक कहा जाता है वे
शरत के पास उतर न सके. शरत यह जानते हुए भी जीवन भर रविन्द्र बाबू की प्रतीक्षा
करते रहे. अनेक स्थानों पर दोनों लेखकों के संवादों और आवारा मसीहा के पृष्ठों में उभरे
संबंधों से ऐसा लगता है कि कहीं किसी कोने में रवीन्द्र बाबू ज़मीन और मिटटी के लिए
तरसते रहे जो शरत के पास था. वे अपनी कविता में यह कह तो गये- “देवता तो वहाँ गये हैं जहाँ माटी
गोड़कर खेतिहर खेती करते हैं,
पत्थर काटकर राह सब बना रहे
हैं, बारह महीने खट रहे हैं
उनके दोनों हाथों में धूल
लगी हुई है
अरे! तू भी उन्हीं के सामान
स्वच्छ कपड़े बदलकर धूल पर जा
मुक्ति?कहाँ जायेगा भला ? मुक्ति है कहाँ?”
ध्यातव्य है कि यही ‘धूल’ बंकिम
के यहाँ भारत माता के चरणों की धूल हो सकती है, रविन्द्रनाथ
ठाकुर के लिए पानी-माटी से जुड़े लोगो के साथ अपनी पक्षधरता होती है..किन्तु शरत के
यहाँ तो यह धूल है ही नहीं. वे धूल की बात लिखते हैं, धूल
लिखा नहीं जाता धीमे-धीमे आपके भीतर भरता जाता है. उनके यहाँ धूल का महिमामंडन संभव
ही नहीं है. बांग्ला साहित्य या कहें भारतीय साहित्य में भी तो मनोविज्ञान मानों
आभिजात्य वर्ग की भावना को उद्घाटित करने का साधन था. निम्न कहे जाने वाले तबके को
मनोविज्ञान की ज़रुरत ही क्या? आभिजत्यों के यहाँ मनोविज्ञान
आवश्यकता तो हाशिये के लोगों के लिए विलासिता का सिद्धांत की तरह मानी है. उसमे भी
यदि स्त्री हो…और वह भी वेश्या हो तो उसके लिए मनोवैज्ञानिक जटिलता के आधार पर
सोचने की आवश्यकता ही क्या? यही बात शरत को अपने सभी समकालीनों
से बिलकुल भिन्न खड़ा करती है. इन्ही कारणों से उन्हें हाशिये से जुड़े जन के लिए किसी ऊपरी संबोधन, रूपक और परतदार अर्थों का महिमामंडन नहीं करना पड़ा. इसके पीछे निश्चित ही शरत
का अद्भुत और असामान्य जीवनानुभव रहा है. एक रचनात्मक लेखक के लिए जीवन से जुडी
बहुत छोटी से छोटी अनुभूतियों को समझने, उसे जीने और उसे खोलने की कितनी
बड़ी ज़िम्मेदारी है यह शरत के जीवन और ‘आवारा मसीहा’ की शैली से समझा जा सकता है.
रवीन्द्र ठाकुर को अवचेतन में शरत की अभिजात्यता उन्हें कचोटती रही है. शरत की रचनाओं के विचलन को खोज निकाल वे
अपनी आभिजात्यता को आवृत करते थे यद्यपि वे ह्रदय की अटल गहराई से शरत को प्रेम
करते थे. उनके पत्रों में शरत के प्रति कठोरता सामान्य समकालीन लेखकीय समतुल्यता
अथवा ईर्ष्या भावना नहीं मिलती. मन की बुनावट को के तार-तार करने वाले ये दोनों
लेखक अपने जीवन काल में ही एक दूसरे के प्रति लगाव-विलगाव और अलगाव महसूसते
रहे. साहित्य में दो महान रचनाकारों के ऐसे सम्बन्ध कम ही दिखाई पड़ते हैं. शरत
रवीन्द्र ठाकुर की अवहेलना सहन नहीं कर सकते थे. अनेक स्थानों पर शरत ने स्पष्टतः
कविवर के प्रति अपनी एकान्तिक भावना व्यक्त की है. कवि के प्रति उनकी एकान्तिक
भावना ने ही कवि से उन्हें दूर कर दिया –वे एक भाषण में वक्तव्य देते हुए
बताते हैं कि बचपन की पहली लेखकीय अनुभूति किस तरह उन्हें कवि से प्राप्त हुई है.-’चोखेर-बाली’(आँख की किरकिरी) की भाषा और भाव
प्रकाशन की शैली के प्रति गहरी और सुतीक्ष्ण अनुभूति मैं कभी नहीं भूलूँगा. उन्ही के
बीच, जिन्होंने इतनी बड़ी संपत्ति उस दिन हम लोगों को दी उनके
प्रति कृतज्ञता जताने की भाषा भी हमें कहाँ मिलेगी?……..मेरा सम्बन्ध साहित्य से टूट गया. इस बीच कवि को केंद्र में रखकर किस तरह नवीन
बांग्ला साहित्य तेज़ी के साथ समृद्ध हुआ ..इसकी मुझे कोई खबर नहीं. कवि के साथ किसी
दिन भी मुझे घनिष्ठ होने का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ. उनके पास बैठकर साहित्य की
शिक्षा प्राप्त करने का सुयोग भी नहीं मिला. मैं एकदम बिछुड़ा रहा. यह है बाहर का सत्य, किन्तु भीतर की बात इससे बिलकुल उलटी है. उस विदेश में मेरे साथ कवि की कुछ
पुस्तकें थीं, काव्य और कथा साहित्य और मन के भीतर परम श्रद्धा और विश्वास” आवारा मसीहा-पृष्ठ-283.
यह है कवि और शरत का सम्बन्ध. ’हमसे आया न गया तुमसे बुलाया न गया’ शरत अपनी ही प्रकृति के रहे. गुरुदेव के पाँव अभिज्त्यता की कठोर जंज़ीर. अपने
समय के ये दो महान लेखक कभी एक दूसरे के साथ समय न बिता सके. एक दूसरे को चाहते हुए
भी. कवि के किसी मर्म का पता रहता था शरत को. ऐसा वह बार-बार कहते रहे. बंगाल के इस
महान वटवृक्ष लेखक के सामानांतर शरत ने अपनी जगह बनायीं. बिना किसी द्वेष के. कवि के
सुनहरे अक्षरों में अंकित नाम वाली चमड़े की एक सुन्दर जिल्द में कवि की सभी किताबें वे आदर के साथ संजोते रहे. उनकी मेज़ पर हमेशा कवि की कोई न कोई किताब मौजूद रहती. गोरा को उन्होंने चौंसठ बार पढ़ा था. पढ़ते रहे, अघाते
रहे लेकिन रवीन्द्र ठाकुर का अतिरिक्त
प्रभाव या सम्मोहन या नक़ल शरत की किसी रचना पर नहीं पड़ा. शरत की मौलिकता प्रच्छन्न
रूप से कवि पर जीवन भर चोट करती रही. इसलिए शरत की किसी पुस्तक पर उन्होंने नहीं
लिखा. शरत के एक छोटे से अनुरोध पर भी ‘षोडशी’ नाटक के
लिए गीत लिखने पर असहमत हो गये और शरत की नए लेखकों के प्रति प्रतिबद्धता से
रुष्ट होकर उनके एक प्रतिक्रियात्मक पत्र ने शरत को भीतर तक तोड़ दिया. शरत बाबू के
दुःख की कोई सीमा नहीं थी. कवि से उनका सम्बन्ध टूट गया. –“जो लिख
गया वह अब वापस नहीं लिया जा सकता. कवि से मेरा विच्छेद शायद पूर्ण हो गया…”आवारा मसीहा-पृष्ठ-291.
विष्णु जी ने दोनों रचनाकारों के इस सम्बन्ध को लेखकीय राजनीति से उतना नहीं
जोड़ा है जितना विपरीत ध्रुवों की मानसिकता के आकर्षण-विकर्षण से. यह विष्णु जी की
विशेषता है कि जिन दो बड़े रचनाकारों के सन्दर्भ में वे लिख रहे थे उनके मनोजगत को
उन्होंने सतही धरातल पर मूल्यांकित नहीं किया. इस विच्छेदन के गहरे कारणों में गये
और इसे एक रचनात्मक टूटन के तौर पर बांग्ला साहित्य के आंतरिक विकास के हिस्से कर
दिया. जीवनी लेखक को आभ्यन्तरिक कारणों पर ही विशेष काम करना होता है. तभी विशेष्य
लेखक की गिरहें भी खुलती हैं और उसके माध्यम से तत्कालीन समाज भी.
यह तो दो महान प्रतिभाओं की टकराहट का एक पक्ष था. एक बार जब इलाचंद जोशी ने
शरत से यह पूछा था कि उनके साहित्य में नायिका के रूप वेश्याएं ही केंद्र में
क्यों हैं?समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में शरत का जवाब कोई नया नहीं
था कि वेश्याएं समाज –बहिष्कृत हैं, लेकिन शरत के समय का बंगाल और समूचे देश का जो समाज था उसे देखते हुए
वेश्याओं को नायिका के रूप में प्रतिष्ठित करना और कुलीन पात्रों को उनके तार्किक
घेराव के साथ उन्हें अपदस्थ करना बेहद महत्वपूर्ण काम था. तत्कालीन समाज के लिए शरत
का यह क़दम गरिष्ठ था. स्वयं रवीन्द्रनाथ ठाकुर के लिए और बंकिम के लिए भी. बंकिम का
साहित्य विशष्ट किस्म का आदर्श लेकर चलता था, जहाँ
स्पष्ट तौर पर अच्छा और ख़राब की जीवनगत-जटिलता और असुविधा नहीं मिलती. बंकिम का
साहित्य विविध होकर भी विशेष जातीयबोध के आदर्श से बंधा-बंधा चलता था. उनका
स्याह-सफ़ेद स्पष्ट था. गुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर का लेखन ज़मीन को छूकर भी अपने अंत
में इस क़दर दिव्य और बड़ा बन जाता था कि पाठक विस्मय और सम्मोहन से छूट नहीं सकता
था. रवीन्द्र ठाकुर ने स्वयं ‘अभिसार’ और ‘पतिता’ नामक प्रसिद्ध कविता में नगरवधू और वेश्या जीवन की निर्मम
सचाई को झकझोरने वाली संवेदना के साथ रखा है लेकिन शरत की वेश्यायों के प्रति उनका
दृष्टिकोण क्या है- “कला विशुद्ध आनन्दमूलक सौन्दर्य से सम्बन्ध रखती है. इसका निवास चीतपुर
की गन्दी गलियों में नहीं है बल्कि वाणी के अकलुष मंदिर में है.” आवारा मसीहा-पृष्ठ-192.
स्पष्ट होता है कि रवीन्द्र ठाकुर की अभिसारिका ‘वेश्या’ नहीं आभिजात्य ‘नगरवधू’ है. स्त्री
नियति एक होकर भी दोनों की स्थितियाँ भिन्न हैं अन्यथा चीतपुर रवीन्द्र बाबू के
लिए गन्दी गली नहीं हो सकता था. विष्णु जी लिखते हैं- “रवीन्द्रनाथ
देवत्व को जगाने के लिए तपोवन का पवित्र वातावरण उपयुक्त समझते हैं, शरच्चन्द्र उसी देवत्व को चीतपुर की गन्दी गलियों में खोज लेते हैं. यह अंतर
आभिजात्य और ब्रात्य संस्कारों का है. शरच्चन्द्र इसी कारण हीन न होकर कुछ महान ही
प्रमाणित होते हैं.” आवारा मसीहा-पृष्ठ-193.
व्यक्तित्व की इन्ही फांकों ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन के प्रति दोनों लेखकों में
बड़ा मतभेद हो गया. शरत के जीवन का राजनैतिक भाग बहुत उतार-चढ़ाव वाला नहीं है लेकिन
दिलचस्प बहुत है. जिस तरह प्रारम्भ से ही उनके विलोम की चर्चा हम करते आयें हैं उसी
सन्दर्भ में उनका राजनैतिक दृष्टिकोण भी दिखाई पड़ता है. वे राजनीतिक दृष्टिकोण से
संपन्न होने के बावजूद अपनी रचनात्मक क्षमता पर ज्यादा टिके होते थे. वे कभी पार्टी
परस्त नहीं बन सके. कार्यकर्ता भी नहीं हो सके. जीवन के उस दौर में भी नहीं जब वे
राजनीति के कारण अपने लेखन तक से विमुख हो गये थे. उनकी पुस्तकों से अधिकांशतः यह
अनुमान लगाया गया कि वे निश्चित ही गाँधी विरोधी रहे होंगे. गाँधीवादी अक्सर वे ही
लोग थे जो बड़े दृढ, गंभीर, सहनशील
और चिंतन-मनन करने वाले लोग थे. शरत ने कहीं गाँधी का विरोध नहीं किया. उन्होंने
चरखे का विरोध किया जिसे गाँधी का विरोध माना गया. चरखे का विरोध शरत की यथार्थवादी
दृष्टि का परिचायक है. यह वह समय था जब गाँधी के स्वदेशी प्रभाव में आम जनमानस अपना
काम छोड़कर पूरे समय चरखा चलाने में व्यतीत कर देता था. शरत को यह नितांत
अव्यवहारिक लगता था. वे चरखा को प्रतीकात्मक तक ही देखना चाहते थे. इस तरह अनेक
मसलों में विष्णु जी ने शरत के उस विलोम को पकड़ने की कोशिश की है, जिसके कारण देखने और लिखने में सहज रचनाकार की जटिल प्रवृत्ति को को सामने
लाया जा सके.
किन्हीं विशिष्ट अर्थों में जीवनी आत्मकथा के रूप की तरह उभर उठती है. हिंदी ही
नहीं भारतीय भाषाओँ में भी आत्मकथाओं के प्रति गंभीरता, सचाई और
ईमानदारी और उनकी उपयोगिता को समझा नहीं गया. आत्मकथाएं तो लगातार आती रहीं लेकिन
जीवनियों के प्रति हमारा साहित्य गंभीर नहीं है. जीवनियाँ और आत्मकथाएं हम किसी
व्यक्ति विशेष के जीवन में ताक-झांक के दृष्टिकोण से जाते हैं, जहाँ व्यक्तिगत जीवन की दिलचस्प और विवादास्पद घटनाओं के प्रति एक सामान्य
सरलीकृत जिज्ञासा का प्रभाव अधिक हुआ करता है. जो सामाजिक गप्पबाज़ी का विषय बनता
है. विष्णु जी द्वारा रचित इस जीवनी ने इस विधा में ऐतिहासिक मोड़ निर्मित किया
है. हिंदी साहित्य को उसकी इतर विधाओं के साथ उसे विश्व स्तर पर खड़ा किया है. वे
अपने लेखक का पक्ष भी लेते हैं, उससे तटस्थ भी रहते हैं लेकिन
प्रत्येक सूरत में लेखक के रचनात्मक व्यक्तित्व की अतल गहराईयों में पाठक का प्रवेश कराते
हैं. मनुष्य-मन, तीव्र जीवनानुभव और
उसकी रचना प्रक्रिया के उन रूपों से परिचित कराते हैं जहाँ तक सुपठित आलोचक के लिए
जाना भी संभव न हो सकेगा. यह तभी संभव है जब आप अपने लेखक से भावना से जुड़ें. भावना
और तर्क का संतुलन पैदा करें. घटनाओं की पड़ताल, मनोविज्ञानिक
पहलुओं के साथ निर्मम आलोचना और उसके सामाजिक पक्षों को समझने और अध्ययन के योग्य
दस्तावेज़ तैयार करना. इसीलिए रेनेवेलेक ने जीवनी लेखन को इतिहास लेखन की श्रेणी में
रखा है. आज का लेखक इतना आत्मसजग है कि वह यह भी जान-सोचकर लिखता है कि आने वाली
पीढ़ियों की निगाह उस पर पड़ेगी. समकालीन लेखकों में कहीं दृश्य तो कहीं छद्म ढंग से
अपने को ज़ाहिर करने की प्रवृत्ति बढ़ी है. रेनेवेलेक ने कहा है कि मिल्टन, बायरन, गेटे, पोप और वर्ड्सवर्थ जैसे लेखकों ने
बड़ी संख्या में अपने जीवन के विषय में सामग्री छोड़ी जिससे आने वाली पीढ़ी का ध्यान
उन पर बराबर बना रहा. ऐसे लेखकों की जीवनी लिखना कहीं अधिक आसान हुआ. भारत में भी ऐसे
लेखकों की बड़ी संख्या है..जो आत्मसजग ही नहीं आत्ममुग्ध इतने हैं कि उनका लेखन
समाजगत होते हुए भी अपना व्यक्तित्व जोड़ता चलता है. किसी कृति में कलाकार के जीवन
से जुडी कितनी भी समानता क्यों न हो तब भी कला जीवन की विशुद्ध अनुकृति नहीं हो
सकती. जीवनियाँ लिखते समय भी यह बात उतनी ही सत्य साबित होती है. शरच्चन्द्र जैसे
लेखक की जीवनी के साथ तो वस्तुस्थिति और विचलन दोनों को तौल-तौल कर चलना पड़ता
है. सिर्फ़ भावात्मक चित्रण से जीवनी समाज और साहित्य के लिए मूल्यवान नहीं हो
सकती. स्पष्ट है कि विष्णु जी का इतना समय मात्र शरत से सम्बन्धित दस्तावेज़ जुटाने
में नहीं गया होगा बल्कि जीवनी का पैटर्न समझने और उसे उतारने में उन्हें बहुत
श्रम करना पड़ा होगा. 1987 में ‘मधुमती’ में प्रकाशित एक लेख में कमल किशोर गोयनका प्रेमचंद की जीवनी पर गंभीर सवाल
उठाते हैं और कहते हैं कि प्रेमचंद सरीखे लेखक के बारे में पुनः लिखे जाने की
ज़रुरत है. गोयनका जी ने भी जीवनी को इतिहास की
तरह समझा है- “जीवनी विधा वास्तव में उन लेखकों
के लिए है जो इतिहासकार के समान तथ्य को ही सबसे बड़ा सत्य मानते हों ”लेकिन तथ्य के माध्यम से ही जीवनी नहीं लिखी जा सकती. जीवनी में एक भावात्मक
जोड़ का होना बेहद ज़रूरी है. तथ्य तो लेखकों के कई लोगों के पास है, लेखन-शैली भी है, फिर भी जीवनियाँ नहीं लिखी जा
सकीं. हिंदी में तो कितनी कम जीवनियाँ आयीं. अमृतराय ने 1962 में ‘कलम का सिपाही’ लिखकर जीवनी विधा की शुरुआत की
है. उसके बाद ही ‘निराला की साहित्य-साधना’ और ‘आवारा मसीहा’ जैसी महान जीवनियों के लिए राह
बनी. ’कलम का सिपाही’ में अमृतराय लिखते हैं-“या तो हम जानते ही नहीं कि अच्छी जीवनी क्या होती है या कुछ इस तरह की गाँठ
हमारे लिखने वालों के मन में पड़ी हुई है कि जीवनी साहित्य की सृजनात्मक विधा नहीं
है……..अभी बेचारी जीवनी अछूत की तरह ड्योढ़ी के उस पार खड़ी है-अन्दर आने की
मनाही है.” यह बात अमृतराय तब लिख रहें हैं जब पश्चिम में जीवनी को उपन्यास
की तरह पढ़ा जाता था. इसी तर्ज़ पर वे ‘कलम का सिपाही’ को उपन्यास मानते हैं और प्रेमचंद को उसका नायक. यह सेन्स हिंदी पाठक में ठीक
तरह से ‘आवारा मसीहा’ की मार्फ़त आता है. इसका एक
महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि शरत अपने जनता में अपार लोकप्रिय होकर भी स्वीकृत
व्यक्तित्व नहीं थे. उन्हें उनकी सचाई के साथ देखने समझने का जो बीड़ा विष्णु जी ने
लिया उसे पढने के बाद शरत को वह स्थान मिला जिसने उन्हें लेखक के रूप में ही नहीं
महान रचनात्मक और अपने समय-समाज के प्रति ज़िम्मेदार और जवाबदेह लेखक की तरह
प्रस्तुत किया. जनता में इसकी अपार स्वीकृति के कारण ही ‘आवारा
मसीहा’ विश्वस्तरीय जीवनियों की तरह देखी जाती है. जीवनी लेखक की
सबसे बड़ी समस्या यह भी होती है कि वह लेखक को किस ‘एंगल’ से देखे. उसका कौन सा पक्ष ऐसा है जो एक बड़े समाज का खूबी-खामी के साथ, मानवीयता के साथ प्रतिनिधित्व कर सकता है. जैसे प्रेमचंद को अमृतराय ने
राष्ट्रीय और सामाजिक आंदोलनों के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया है. इस दृष्टि से
विष्णु जी ने एक मुकम्मल जीवनी लिखी है. इस जीवनी में सामान्यतया रचनाकार का कोई
ऐसा पक्ष नहीं जो छूट रहा हो सिवाय प्रेमचंद-शरतचंद्र विवाद के. इसके आंतरिक कारण क्या
रहे होंगे..यह कहना मुश्किल है लेकिन यह विचारणीय ज़रूर है कि 1922-23 में छपा ‘प्रेमाश्रम’ के समय प्रेमचंद-शरतचंद्र विवाद को
सिरे से गायब क्यों कर दिया है विष्णु प्रभाकर ने? अपने
लेखक के प्रति भावात्मक-एकांगी दृष्टिकोण ने? प्रेमचंद
की मुखर प्रगतिशील दृष्टिकोण, जो विष्णु जी के
साहित्यिक-संस्कारों के अनुसार सतही जान पड़ता है? या
प्रगतिशीलता पर कलावाद के आरोपण के लिए प्रेमचंद-शरत विवाद को उक्त जीवनी से दूरी
बनाना?
प्रेमचंद-शरतचंद्र विवाद—
“रवीन्द्रनाथ
की कहानी पढ़कर पाँच मिनट रोऊँगा, पंद्रह मिनट
सोचूँगा. शरतचंद्र की कहानी पढ़कर सत्रह मिनट रोऊँगा, तीन मिनट सोचूँगा और प्रेमचंद की कहानी पढ़कर दस मिनट रोऊँगा, दस मिनट सोचूँगा.”—हजारीप्रसाद द्विवेदी.
साहित्यिक अभिरुचि का आभास यहाँ होता है जब प्रेमचंद-शरतचंद्र विवाद ‘आवारा मसीहा’ में दर्ज़ नहीं किया जाता. 1922 में प्रकाशित प्रेमचंद के उपन्यास के साथ ही रवीन्द्र बाबू और प्रेमचंद की
साहित्यिक तुलना ने विवाद का रूप ले लिया था. यूँ इससे पहले प्रेमचंद की तुलना
गोर्की, तोल्स्तोय और बालज़ाक तक से हुई है लेकिन रवीन्द्र ठाकुर से
उनकी तुलना ने तूल पकड़ लिया. इस प्रकरण में शरतचंद्र केन्द्रीय भूमिका में
रहे. दरअसल यह तुलना स्वयं शरत ने ही की. शरत ने बहुत सामान्य ढंग से दो बड़े लेखकों
को आमने सामने रखकर एक बात रखी जिसे हेमचन्द्र जोशी ने ‘प्रभा’ पत्रिका के अंकों में तूल देकर छापा. उनके वक्तव्यों में कहीं तार्किक तुलना
नहीं बल्कि जातीय विद्वेष दिखाई पड़ता है. यह निश्चित है कि बंगाल में लेखक-पाठक का
जो रिश्ता था वह उत्तर भारत में अभी विकसित नहीं हो पाया था. बंग्ला साहित्य कई
मायनों में हिंदी से आगे का साहित्य था. नवजागरण के उस महत्वपूर्ण समय में बंगाल
हिंदी से बेहतर साहित्य रच रहा था..जबकि हिंदी क्षेत्र अपनी आंतरिक कर्मकांडों में
अधिक उलझा रहा. नवजागरण अपने भीतरी अंतर्विरोधों से टकराहट का ही नाम था. 19वीं सदी का बंगाल भयावह सामन्ती चंगुलों में फंसा हुआ बंगाल था, जहाँ सती-प्रथा का प्रचलन संस्कृति के नाम पर जारी था. धर्म के विकृत रूपों का
दारोमदार स्त्रियों के आदर्श चरित्र रचकर किये जाते थे और स्त्रियों में भी इस
आदर्श पर खरे उतरने की होड़ रहती थी. राष्ट्रवाद के पर्याय के रूप में हिंदुत्ववाद
के प्रसार का आरम्भ भी हो चुका था. ऐसे बंगाल में टैगोर ‘घरे
बाईरे’ लिखकर विवाहेतर प्रेम पर विद्रोह दर्ज़ करते हैं और ‘गोरा’ लिखकर हिंदुत्ववाद के आक्रामक चेहरे की पहचान करते हैं.’चरित्रहीन’ ‘गृहदाह’ जैसे उपन्यास और ‘पाथेर दाबी’ जैसी क्रांतिकारी किताब लिखने वाला
लेखक सुविधाजनक रूप से ‘प्रयोग’ में
नहीं आ सकता. अकारण नहीं कि प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ जितनी आसानी से विवेकानंद और
बंकिमचन्द्र पर कब्ज़ा जमाकर अपना हित साध सकती हैं उतनी आसानी से टैगोर और शरत पर
नहीं. बंकिम ने स्वयं अपना पहला उपन्यास ‘’Rajmohan’s Wife’ अंग्रेज़ी
में लिखकर बंगाल के स्त्री-जीवन की मार्मिक गाथा लिखी है बावजूद इसके उनका विशेष
किस्म का राष्ट्रवादी स्वर आसानी से ‘प्रयोग’ के
अनुरूप ढल जाता है. टैगोर और शरतचंद्र का साहित्य यह सुविधा नहीं देता. इसलिए भारत
को हिन्दू देश बनाने के मुहिम में टैगोर और शरत का भविष्य में कोई योगदान नहीं हो
सकता. हिंदी और बंगाली उपन्यासों के आरभिक
दौर और नवजागरण के प्रभाव पर नामवर सिंह लिखते हैं-“संयोग
से हिंदी उपन्यासों में नारी लगभग हाशिये पर कर दी गयी थी. उस हाशिये पर पड़ी हुई
नारी को, उसकी स्थिति पहचान कर इस धारा ने उपन्यास के केंद्र में
लाने का प्रयास किया. इस धारा का विकास आगे चलकर हुआ और उसके सर्वोत्तम और लोकप्रिय
कथाकार शरतचंद्र हैं. आगे चलकर जैनेन्द्र और अज्ञेय के माध्यम से हिंदी में इसका
विकास हुआ.”-’प्रेमचंद और भारतीय समाज’-संपा-आशीष
त्रिपाठी,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली,पृष्ठ-65.
रमाशंकर द्विवेदी के साथ पत्र-व्यवहार में विष्णु जी हिंदी के स्वनामधन्य (मार्क्सवादी) लेखकों
का शरत के प्रति तीव्र उपेक्षा को प्रभुदयाल अग्निहोत्री के पत्र के ज़रिये बड़ी पीड़ा से करते हैं. अग्निहोत्री जी ने विष्णु
जी को भावपूर्ण पत्र में हिंदी-लेखकों की मानसिकता दर्ज़ की है- “भावुक होने के कारण चढती उम्र से ही मैं शरत का भक्त रहा. कलकत्ता गया उनसे
मिलने, किंतुं भेंट न हो पायी. रास्ते में भगवतीचरण वर्मा मिले. मेरे
मित्र थे. मैंने बताया तो हाथ पकड़कर वापिस खींच विचार कार्यालय ले आये. यह कहते हुए
कि क्या करोगे इतनी दूर जाकर! परेशान होकर! वह विलासी मध्यवर्गीय समाज के
ग्रन्थि-ग्रस्त लेखक हैं. मिलना हो तो प्रेमचन्द से मिलो. ”पक्षधर(पत्रिका),संपा-विनोद तिवारी,अंक-13,जुलाई-2010,पृष्ठ-50.
बहुत बाद में अग्निहोत्री जी शरत की शव-यात्रा में रोते कंधा देने
पहुँचे. निश्चित ही विष्णु जी को हिंदी की इस प्रवृत्ति से पीड़ा पहुँचती थी. शरत की
जीवनी एक प्रतिक्रिया भी थी भिन्न विचारधारा के बावजूद लेखकीय प्रतिबद्धताओं और
आन्तरिक समझ की.
हिंदी में श्रेष्ठ साहित्य अधिक से अधिक राष्ट्रीय भावनाओं तक पहुँच रहा
था. मानव-मन और स्त्री जीवन की जटिलताओं पर हिंदी के लेखकों की पकड़ अब तक सामन्ती
थी. भारतेंदु युग से द्विवेदी युग तक स्त्री मनोविज्ञान हिन्दी लेखकों के ज़ेहन में
ही नहीं था. रवीन्द्र ठाकुर की ‘चारुलता’ विवाहेतर
सम्बन्ध में भी कितनी गरिमामयी और मानवीय स्त्री लगती है. शरत के ‘गृहदाह’ की अचला
अपने स्त्रीत्व, दैहिक कामना और प्रेम में उलझी
कितनी बड़ी और मानवीय दिखाई देती है, यह हिन्दी के लेखकों के यहाँ अबूझ
नायिकाएँ रही हैं. नवजागरण दौर में हिंदी का कोई ऐसा बड़ा लेखक नहीं मिलता जो
स्त्री-स्वातंत्र्य तो क्या स्त्री की वस्तुस्थिति ही लिख रहा हो. भारतेंदु
हरिश्चन्द्र, प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण
भट्ट, लाला श्रीनिवास दास, श्रद्धाराम
फिल्लौरी, महावीर प्रसाद द्विवेदी या श्रीधर पाठक. जिन लेखको ने
स्त्रियों को अपना विषय बनाया वे सुधारवादी ढंग से स्त्रियों के लिए आचार-संहिता
लिखने को ही क्रांतिकारी लेखन समझ रहे थे जबकि उन्ही के समकालीन बंगाल और
महाराष्ट्र में स्थिति ऐसी नहीं थी. प्रेमचन्द स्त्रियों को लेकर अपने अंतिम
उपन्यास ‘गोदान’ तक में वहां नहीं पहुँच सके हैं
जहाँ से परिवर्तन की निशानदेही की जा सके. इसके कारणों में नवजागरण की भिन्न-भिन्न
अवस्थितियाँ रहीं हैं. यह स्पष्ट हो चुका है कि हिंदी नवजागरण बंगाल और महाराष्ट्र
के पाँच-छः दशक पीछे-पीछे चला है. नामवर जी उत्तर-भारतीय लेखन के दो खेमों में
विभाजित होने से लेकर लेखन की प्रवृत्तियों पर बात करते हुए लिखते हैं- “बंगला को उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में ही ईश्वरचंद्र विद्यासागर मिल गये और
उत्तरार्ध में पहले बंकिम फिर रवीन्द्रनाथ. मराठी में तो मानक रूप स्थिर करने में
बम्बई सरकार की मुख्य भूमिका रही. मराठी-मराठी ‘पंडित-कोश’1829 में तथा मराठी-अंग्रेज़ी कोश 1931 में सरकारी सहायता से छप चुका
था. आगे चलकर मराठी को विष्णु शास्त्री चिपलूणकर, ज्योतिबा
फुले, अगरकर, रानाडे और लोकमान्य तिलक जैसे
प्रशस्त गद्यकार मिले.”-हिंदी का गद्य-पर्व’-संपा-आशीष त्रिपाठी,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली,पृष्ठ-89-90. नामवर जी बराबर यह कहते रहे हैं कि
हिन्दी नवजागरण बांग्ला और मराठी का पिछलग्गू ही रहा है. लेखक तो छोड़ दें यहाँ कोई
ठीक-ठाक समाज-सुधारक भी नहीं हुआ. दयानन्द सरस्वती जिस तरह की विचारधारा से पोषित थे, सामंती-पंक में डूबी हिंदी जनता को वे कहाँ तक ले जाते. अकारण नहीं कि जहाँ
कहीं कुछ ठीक करने की स्थिति आई हिंदी लेखक बांग्ला सुधारकों की तरफ़ ही जाते दिखाई
देते हैं. भारतेंदु तक केशवचंद्र सेन को दयानन्द सरस्वती से बेहतर समझते थे.
प्रेमचंद को बांग्ला साहित्य ‘जानाना’ लगता था
और वे हिंदी साहित्य को ‘mausculine’ देखना चाहते थे. जैनेन्द्र से एक
गंभीर वार्तालाप में उन्होंने स्वयं कहा है-‘बांग्ला
साहित्य में स्त्री-भावना अधिक है. वह जगह-जगह Reminiscent (स्मरणशील) हो जाता है. स्मृति में भावना की तरलता अधिक होती है, संकल्प में भावना का काठिन्य होता है…..रवीन्द्र और शरत दोनों ही महान हैं
पर हिंदी के लिए क्या वही रास्ता है? शायद नहीं. हिंदी राष्ट्रभाषा
है. मेरे लिए तो वह राह नहीं है.”-प्रेमचनद स्मृति-पृष्ठ-83-84.
स्पष्ट है कि हिंदी पट्टी में बाहरी चुनौतियां जैसे व्यवस्था विद्रोह और किसान
जीवन इत्यादि को ध्यान में रखते हुए स्त्री जैसे विषयों को जान-बूझकर अलगाया गया
था लेकिन क्या बंगाल के भावना-प्रधान लेखन में व्यवस्था विद्रोह नहीं हुआ? बल्कि अधिक स्थायी हुआ. प्रेमचंद की प्रतिबद्धता में कोई संदेह नहीं है लेकिन
जिस तरह आज भी उत्तर भारत के गाँवों-कस्बों में तथाकथित बड़े और महान क्रांतिकारी
कार्यों के निर्वहन के लिए स्त्रियाँ नकारात्मक दखलअंदाजी की तरह आँकी जाती
है कमोबेश आज भी हिंदी पट्टी के साहित्य
सरोकारों में वह स्थिति बनी हुई है. अधिक से अधिक स्त्री उस क्रांति में
सेवा-सुश्रुषा वाली सहयोगिनी के रूप में दिखाई देती है. यही कारण है कि आज भी हिंदी
पट्टी की जनता बंगाल की मानसिक रूप से स्वतंत्र स्त्रियों को खुलेआम ‘मर्दमार’ कहते संकोच नहीं करती. हिंदी पट्टी की स्त्री के लिए बंगाली
स्त्री ‘जादूगरनी’ जैसी हैं. अपने पुरुषों की बजाय ऐसी
स्त्रियों के चरित्र पर उत्तर भारत आमफ़हमी में
संदेह करता रहा है. यह अंतर साहित्यिक-सांस्कृतिक अभिरुचि और उससे विकसित
मानसिकता का अंतर है. स्त्री-जीवन की मार्मिक पहचान को लेकर वास्तव में हिन्दी और
बंगाली साहित्य में बहुत बड़ा अंतर है. बंगाल अपने रवीन्द्र ठाकुर पर गर्व करता
है. शरत द्वारा प्रेमचंद से रवीन्द्र बाबू की तुलना रवीन्द्र ठाकुर के प्रशंसक नहीं
सुन सके. हालाँकि शरत ने दोनों के भिन्न धरातल पर दोनों लेखकों को अपने समाज का बड़ा
लेखक कहा था, यह शरत की दूरदृष्टि ही थी. इस विवाद में भी शरत की मुख्य
भूमिका के बाद वह दृश्य से गायब हैं. उन्होंने इस पर बहुत कुछ नहीं कहा. दूसरे लोगो
ने शरत के नाम पर अलग-अलग वक्तव्य तक दिए उस पर भी शरत ने रूचि नहीं ली. इस विवाद
में हेमचन्द्र जोशी, फिराक गोरखपुरी, श्रीधर पाठक, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामदास गौड़ आदि अनेक लोगों का नाम जुड़ा. इस प्रसंग के बाद शांति निकेतन से
द्विवेदी जी के अनेक निमंत्रणों के बावजूद प्रेमचंद रवीन्द्र ठाकुर से मिलने कभी
नहीं गये.
कलावाद की ओर झुकते प्रगतिशील और स्त्रीवादी लेखकों ने भी प्रेमचंद के
लेखन-शैली पर प्रश्न-चिह्न लगाये हैं. प्रेमचन्द की सर्वाधिक मान्य कृति ‘गोदान’ तक के लिए जैनेन्द्र ने एक लेख ही लिख दिया है-“प्रेमचंद का गोदान-यदि मैं लिखता”. शरत ने दूसरे धरातल पर प्रेमचंद को
रवीन्द्र ठाकुर के स्तर का लेखक कहा लेकिन इस विवाद ने ज़ोर पकड़ लिया. हालाँकि वे
बंगाल की साहित्यिक विकासक्रम की तुलना में हिंदी लेखकों को पीछे मानते थे. इस
मामले में उन पर रवींद्र बाबू का विश्व मानवतावाद वाले रचनाकार रूप का दंभ भी
बोलता था. चरित्रहीन की भूमिका में उन्होंने लिखा है- “उक्त छः
सौ पेज का ग्रन्थ केवल एक लाइन कि घटना पर लिखा गया है. मेस में सतीश और सावित्री
की कामवासना तथा अंत में उसका विशद्ध प्रेम में परिणित हो जाना किन्तु
प्रेमचंद जी या हिंदी लेखक अभी उस ज़माने
में हैं जिसमे बंकिम बाबू या दामोदर बाबू घटनाओं के तांतों के आधार पर उपन्यास
लिखते थे” इस प्रकरण में प्रो.वीरभारत तलवार का आलेख “प्रेमचंद-शरतचंद्र विवाद’ एक महत्वपूर्ण लेख है जिसमें नवजागरण काल में विकसित हो रहे हिन्दी और बांग्ला साहित्य के अंतर्विरोध और
साहित्यिक राजनीति पर सवाल उठता है- “पं.हेमचन्द्र जोशी ने बांग्ला के
आगे प्रेमाश्रम को नीचा दिखाने की ज़रुरत इसलिए समझी कि साहित्यिक आलोचना में
मर्यादा और ऊँचे आदर्श बने रहें और साहित्यिक मानदंडों में अराजकता न आने
पावे. लेकिन हिंदी आलोचना में मर्यादा और ऊँचे आदर्शों की स्थापना कर साहित्यिक
मानदंडों का वैज्ञानिक और व्यवस्थित विकास पं हेमचन्द्र जोशी न कर सके. यह काम किया
आचार्य शुक्ल ने जो उस युग में बांग्ला
साहित्य और रवीन्द्रनाथ ठाकुर के समर्थकों में न थे. हिंदी आलोचना का विकास बांग्ला
के प्रभाव और उसके प्रति एक मुग्ध भाव रखते हुए नहीं हुआ बल्कि उस मुग्धकारी
प्रभाव का प्रतिरोध करते हुआ.” वीरभारत तलवार,’सामना’.वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली,पृष्ठ-240
इस विवाद में निश्चित रूप से शरत का संतुलित रूप सम्मिलित था किन्तु रवीन्द्र
बाबू के अंध समर्थकों ने शरत की छवि को यहाँ भी विवादित किया. तलवार जी आगे लिखते
हैं- “1922-23 का प्रेमचंद-शरतचंद्र विवाद हिन्दीभाषी जनता के
नवजागरण का अंग था. प्रेमाश्रम ने हिंदी उपन्यासों की दुनिया बदल डाली. हिन्दी कथा
साहित्य की जिस सामाजिक यथार्थवादी परम्परा को प्रेमचंद की कहानियों ने जन्म दिया
था प्रेमाश्रम ने उस परम्परा को हिंदी साहित्य में गहराई के साथ प्रतिष्ठित कर
दिया. हेमचन्द्र जोशी ने बांग्ला साहित्य के आगे हिंदी साहित्य को तुच्छ घोषित किया था उसी प्रेमाश्रम ने हिंदी पर छाये
बांग्ला के जादू को हमेशा के लिए तोड़ दिया. प्रेमाश्रम के प्रकाशन के बाद हिंदी
पाठकों के बीच बांग्ला उपन्यासों की धूम फिर कभी नहीं रही. प्रेमाश्रम को केन्द्र
बनाकर ‘प्रभा’ और ‘माधुरी’ में चला प्रेमचंद-शरतचंद्र विवाद हिंदी पर बांग्ला के रोब की आख़िरी कड़ी बनकर
खत्म हो गया.” सामना,वीरभारत तलवार,वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली,पृष्ठ236.
राजू चला गया..
शरत को शरत बनाने में उनकी यायावरी प्रवृत्ति का बड़ा हाथ रहा है. अब तक की
हिंदी आलोचना में और जीवनियों में लेखक के व्यक्तित्व को खोलने के लिए उसके बचपन
की घटनाएं सम्मिलित तो होतीं थीं किन्तु उसके पीछे के मनोविज्ञान पर बात नहीं होती
थी. ’आवारा मसीहा’ में विष्णु जी शरत के समूचे
व्यक्तित्व में ज़मीन, पानी-मिटटी, कंकड़-पत्थर और झाड़-झंखाड़ तक के रिश्ते तक का महीन मूल्यांकन करते हैं. मर्म की
हद तक पहुँचने वाले अध्यवसायी शरत आजीवन किताबों से जुड़े रहे. टैगोर अपनी आभिजत्यता
के बल पर पश्चिमी साहित्य से जुड़े रहे लेकिन शरत अपनी ग़रीबी और जहालत में अपने देश
की पानी-मिट्टी को धांगते टैगोर के माध्यम से पाश्चात्य लेखकों तक पहुँच
गये. विज्ञान,दर्शन और मनोविज्ञान तक की कोई पुस्तक उनसे छूटती न थी. शरत
का पूरा व्यक्तित्व उपेक्षित मनुष्यों से बना था. विष्णु प्रभाकर ने इस जीवनी में
राष्ट्रीय और राजनैतिक स्तर पर शरत को उतना नहीं उकेरा है जितना निचले तबके के
समाज की नज़रों में गये-बीते लोगो के साथ उनके रिश्ते को उकेरा है. इसी सूत्र से
उन्होंने साहित्यिक और राजनैतिक शरत को भी बहुत ठीक से सामने रखा है. निस्संदेह ‘आवारा मसीहा’ के इन महीन सूत्रों के माध्यम से
किसी रचनाकार को इस तरह नहीं समझा गया था. रचना और रचनाकारों के प्रति हिंदी आलोचना
को भी ‘आवारा मसीहा’ ने नया मोड़ दिया है.
राजू शरत के बचपन का मित्र था. कह सकते हैं कि राजू आजीवन शरत के अवचेतन में
बसा रहा. किशोरवय के संकोची शरत को जीवन-लय का प्रथम परिचय राजू के माध्यम से ही
होता है. भागलपुर में गुज़र किये जीवन में वही सब था जो उनके नायक देवदास में था. वही
दिशाहीन आवारगी, जीवन के प्रति अजीब जिज्ञासा और
भटकाव लेकिन राजू के साथ शरत को पहली बार जीवन का राग और छंद मिला. शरत को तमाम
भटकाव में भी एक धुरी मिली. विविधता के साथ एक ठोस केन्द्रीयता. ऐसा चरित्र उभरा जो
उनके नायक श्रीकांत का बनता है. राजू के साथ के खुरदरे और रूखे जीवन ने शरत को रवीन्द्रनाथ, बंकिम और माईकल मधसूदन दत्त बनने से रोका. तमाम प्रभावों के बीच शरत का अपना
खरा व्यक्तित्व जैसे उभर आया. भागलपुर की कालीदासी वेश्या जो शरत के आगे ही
सन्यासिनी बन गयी, आगे चलकर देवदास की चन्द्रमुखी
बनी. ग़रीब मोतीलाल और भुवनमोहिनी के पुत्र की आँखों में रचनात्मक वैभव का राग यहीं
पैदा हुआ. मनुष्य मन की खोज, अपराध के प्रति मनोविज्ञानिक कारण, देर तक श्मशानों में बैठकर जीवन की निवीड़ता को महसूसना, भयावह अकेलेपन में भय की पहचान, भागे हुए खूँखार अपराधियों को अपने
घर रखना, उनसे आत्मीयता ने शरत के लेखन की ज़मीन तैयार की. चरित्रहीन विधवाएँ, कुलटायें, जाति-बहिष्कृत जन, असुंदर, आवारा, चोर, भयानक
ग़रीब जन और जानवरों के बीच शरत ने जो पाया वह सभी समाज में न पा सके. जैसे-जैसे इस
समाज में शरत का प्रवेश होता गया, कुलीनों के यहाँ उनकी मर्यादा घटती
गयी और अकुलीनों के यहाँ उनके लिए दरवाज़े खुलते गए. इस आवारगी के भीतर एक
निपट-निचाट्पन राजू के सहचरी से गहराया. राजू के व्यक्तित्व के कारण शरत का वजूद
ख़ुद शरत के भीतर खुला यदि वह अपनी विस्फोटक प्रतिभा के कारण पागल हो गया. भाग
गया. जीवनी में यह बात नहीं आती लेकिन जोड़ दी जानी चाहिए कि जिस राजू के लिए आजीवन
शरत का मन टीसता रहा वह राजू यदि उनके साथ रह जाता तो शरत कभी उभर नहीं पाते. वह
शरत को अपना पिछलग्गू बना रखने कि विस्फोटक ताब रखता था. शरत के आगे का जीवन मानों
राजू का ही विस्तार था.-“शरत ठहरा दुस्साहसी.श्मशान भूमि से
उसे विशेष प्रेम था. निर्जनता सदा प्यारी लगी. ढेर के ढेर नरमुंड, झोलों की तरह समर की डाल में लटके चमगादड़
और उनके बीच में उस विराट मौन में आर्तकंठ से रोता हुआ उनका एक बच्चा-कुछ
भी उसके वैरागी मन को विचलित न कर सका.” आवारा मसीहा पृष्ठ-62
राग से भरपूर आत्माभिमान और दृढ-संकोच के कारण निरंतर आत्मग्रस्त होते
गये. इस हद तक कि अपने खिलाफ़ ही मानों संदेह रुपी एक मुहिम चला दी जिससे सांसारिक
किस्म का कोई व्यक्ति उनकी दुनिया में प्रवेश ना कर सके. अपनी भीतरी दुनिया में वे
मनुष्य-मन के खोहों और उतार में डूब गये. बेहद आत्मग्रस्त व्यक्ति ही बेहद
आत्माभिमानी भी होता है. वे अपनी रचनाएँ आजीवन तीन नामों से प्रकाशित कराते
रहे. समालोचना के लिए ‘अनिल देवी’, बड़ी
कहानियों के लिए अनुपमा देवी’ और छोटी कहानियों के लिए ‘शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय. वे ‘शेष-प्रश्न’ जैसी पुस्तक लिखकर कार्यकर्ताओं में विद्रोह पैदा कर देते हैं. पुस्तक को ज़ब्त
करने की स्थिति आ जाती है. ’पाथेर- दाबी’ उनकी अद्भुत और दुर्दमनीय किताब है. यद्यपि उस पुस्तक की गुणवता कला के लिहाज़
से कमतर आँकी गयी लेकिन इस पुस्तक ने नवजागरण कालीन समाज में भीतर से
उद्वेलन-आलोडन पैदा कर दिया. इस पुस्तक में भारतीयों को अंग्रेजों के प्रति द्वेष
और कतिता की हद तक उकसाने के कारण स्वयं गुरुदेव भी शरत से नाराज़ रहने लगे. गुरुदेव
ने पूरा एक पात्र ही लिखा विरोध में-“पृथ्वी घूमकर देखा है. अंग्रेजों की
राजशक्ति के समान सहिष्णु और क्षमाशील राजशक्ति और नहीं है. तुम्हारी पुस्तक पढ़कर
पाठकों का मन अंग्रेज़ी सरकार के प्रति अप्रसन्न हो उठेगा. तुम्हारी पुस्तक को ज़ब्त
करके तुमको कुछ नहीं कहा. क्षमा ही कर दिया. इस क्षमा के ऊपर गवर्नमेंट की निंदा
करना साहस की विडम्बना है”- आवारा मसीहा,पृष्ठ-218.
विष्णु जी ने गुरुदेव को लेकर जितने अंतर्विरोध इस जीवनी में शरत और बंगाल की
राजनीति के मार्फ़त सामने रखे हैं, अन्य लेखकों में ऐसा साहस कम मिलता है. इन दो पुस्तकों में शरत की विद्रोही
प्रवृत्ति मात्र तत्कालीन ब्रह्म्समाजियों की तरह सुधारवादी ही नहीं थी बल्कि धर्म, समाज
जाति, अंधविश्वास, राजनीति, सेना, क्रांति, स्त्री-जीवन और अनेक ज्वलंत मसलों पर बेबाक वार्तालाप मिलता
है. ठीक दूसरी तरफ़ विष्णु जी यह भी स्पष्ट करते हैं कि शरत कट्टर नास्तिक थे लेकिन
उनके शरीर पर हमेशा जनेऊ पड़ा होता था. धर्म और आध्यात्म पर भी कहीं वह बहुत कटु हैं
तो कहीं उसे मानने में उन्हें कोई परहेज़ ही नहीं है लेकिन इन बातों में कुछ लोग
संदेह पाते हैं. लोगों के बीच एक विरोधाभास के लिए भी शरत बहुत विश्वास के साथ
स्वयं से जुड़े प्रसंग पर बोलते थे-“मेरे गले में तुलसी की माला देखकर
अचरज होता है? जो व्यक्ति दुर्नीति-परायण साहित्य की सृष्टि करता है, वह तुलसी की माला पहनेगा, यह बात कोई सोच नहीं सकता.” उनके लिए ऊपरी कर्मकांड कोई मानी नहीं रखते थे. वे माला पहन सकते थे, उतार सकते थे. उनकी अपनी दुनिया में पल-प्रतिपल कुछ घटित होता रहता था. आवश्यक
नहीं कि यह उनकी भीतरी आस्था से जुड़ता हो. इस प्रसंग को विष्णु जी ने पूरी आस्था
के साथ वर्णित किया है. वे उन्हें कर्मकांड और पूजा-पाठ करते हुए भी प्रमाणित करते हैं. यहाँ मार्क्सवाद
से विस्थापित गाँधीवादी शरत विष्णु जी को अपना एक शरत एक भौतिक स्पेस देते है-“धर्म-विश्वास के बारे में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हो गयीं थीं, जो साधारण से दिखने वाले विरोधाभास को जटिल से जटिलतर बनाने में सहायक हो
सकतीं हैं. आज जो मनुष्य का विश्वास है कल बदल सकता है.यह न असंभव है न घृणा के
योग्य. देशबंधु के सम्पर्क में आने के बाद उनके धार्मिक दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ, यह संभव ही नहीं निश्चित जान पड़ता है.”पृष्ठ-225.
विष्णु जी के इस दृढ विश्वास में शुबहा होता है क्योंकि शरत की ‘पाथेर-दाबी’ जैसी विस्फोटक पुस्तकों का यही समय
रहा है. देशबंधु उनके निकटतम मित्रों में तो रहे लेकिन शरत के वक्तव्यों में यह
झलकता रहता है कि कई बार वे अपने विरोधी विचारों को अपने को ‘कन्फर्म’ करने के लिए तल्लीनता से सुना करते थे. इस सीमा तक भी कि उसी
तरह के दीखने लगते थे. दरअसल वे सही अर्थों में अपनी रचनात्मक भूमि पर भिन्न-भिन्न
किरदारों में जिया करते थे. आचार-विचार, धर्म-सिद्धांत उनकी बुनियाद में ही
नहीं था. घटित को उलटकर देखना समझना उनकी सृजनात्मकता का दिलचस्प हिस्सा था.. इसलिए
धर्म और आस्था विषयक सिद्धांतों पर शरत के लिए
कुछ भी कहना जोखिम का काम है. शरत के मानवीय दृष्टिकोण और अंत तक कायम
मनुष्यता पर उनके भरोसे को विष्णु जी ने कर्मकांडी ईश्वर से कहीं जोड़ने की कोशिश -सी की है. विष्णु जी ने स्वयं एक ओर शंकराचार्य पर एक पुस्तक लिखी है दूसरी तरफ़ अहिल्याबाई
और उमर रशीद पर भी लोकप्रिय पुस्तकें लिख चुके हैं.
उन्होंने अपने वर्जित-प्रदेश के लिए धीमे-धीमे एक कुहरा रच डाला था. लोग उनके
बाहरी चक्करों और धुंध में ही उलझे रह गये. शरत के पिता एक अनोखे व्यक्ति थे माता
और भी अनूठी. पिता आजीवन बेकार बैठे पुस्तक पढ़ते रहे या घुमते रहे. काम करना
उन्होंने नहीं जाना. माता इस अनोखी रचनात्मकता का भार जीवन भर ढोती चल बसीं. अपने
छोटे भाई बहनों की परवरिश के साथ शरत ने पिता की भी परवरिश की लेकिन दूर-दूर से. पिता
कि मृत्यु का समाचार पाकर भी वे नहीं आये..जबकि वे आ सकते थे. पिता से मिली एक
अनोखी मनोवृत्ति, दुनिया की नज़रों से तेज़ गति से
भागती भीतरी नैतिकता, संकोच की सीमा तक अपने प्रति छिपाव, स्वयं के प्रति अपराध-बोध की बेहद इमानदार नैतिकता और उतने ही असामान्य अहं ने
शरत को सबके सामने निकम्मे व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया और अपने लोगों से दूर
कर दिया. कभी पत्रों में उन्होंने खुलकर निकटता की ज़बरदस्त चाहना ज़ाहिर भी की, मित्र निकट हुए भी..फिर वे स्वयं उनसे असम्पृक्त हो गये, इस प्रवृत्ति ने शरत को किसी के साथ नहीं रहने दिया. यह प्रवृत्ति उनकी
प्रत्येक मनःस्थिति से जुडती है. उनके प्रेम और स्त्रियों के प्रति आकर्षण में
भी..उनके समूचे लेखन में भी. जिन दो स्त्रियों के साथ दाम्पत्य में रहे..वे उनके
लिए उनसे भी ‘बड़ी’ थीं..जिसका नाम कभी लिया
नही..ताउम्र उस स्त्री से प्रेम करते रहे. शराब के लती के रूप में जाने जाते रहे और
अनेक लोगो को शराब की लत से छुडाया. वेश्या और परस्त्री गमन के लिए तो कुख्यात ही
थे लेकिन नगर की वेश्याएं उन्हें दादा ठाकुर कहतीं रही. उन्हें अपना दुःख सुनाती
रहीं. अपने अंतरतम में वे अद्भुत रूप से वैरागी थे. यह सत्य अनेक वेश्याओं ने अपनी
आपबीती में सुनाई है. इस तिलिस्म और घेरे को तोड़ा विष्णु जी ने. विष्णु जी जिस तरह
शरत के इस जीवन की व्याख्या करते है, वह दुर्लभ है. शरत जैसे रचनाकार
कथित रूप से दुनिया के प्रत्येक ऐबों से भरा हुआ है..विष्णु जी का ऐसे रचनाकार से
उलझना कम परिश्रम और धैर्य नहीं था. तब और ज्यादा जब शरत ने खुली घोषणा कर रखी हो
कि-‘विश्वास करने का कोई मार्ग ही मैंने नहीं छोड़ा”. दोस्तोयवस्की को जानने वाले जानते हैं कि तीव्रतम प्रेम कितनी घृणा में बदल
सकता है.! ‘दिशाहारा’ शरत ने विष्णु प्रभाकर की नैतिकता
पर मानों कहीं भितरघात किया था जिसके कारण विष्णु जी ने इस जीवनी में अपना जीवन
खपा दिया. दोनों लेखकों का विलोम एक दूसरे को बेहद निकट ला खड़ा करता है. यह भी
विचारणीय है कि शरत जैसे रचनाकार में ख़ुद विष्णु प्रभाकर कहाँ और कैसे छुपे हुए
हैं.! विष्णु प्रभाकर ने रमाशंकर द्विवेदी को लिखे एक पत्र में लिखा है कि-“इस पुस्तक को लिखते समय मैंने सदा आनन्द का अनुभव किया. शरत को मैंने प्यार
किया है. आँसू तो पवित्र करते हैं.”पक्षधर(पत्रिका)-,संपा-विनोद तिवारी,अंक-13,जुलाई-2012,पृष्ठ-44
‘प्रेम के उस मूल को ढोने की ताक़त अब मुझमे नहीं है..’
“मैंने खूब नशा किया, बुरी जगहों पर भी गया हूँ. लेकिन
अगर तुम पता लगाओगे तो वे सब मेरे प्रति श्रद्धा रखती हैं. कुछ मुझे ‘दादा ठाकुर’कहतीं थीं और कुछ ‘बाबा ठाकुर’. क्योंकि अत्यंत बेहोश होने पर भी
मैंने कभी उनके शरीर के प्रति लालच नहीं किया. कारण यह नहीं था कि मैं संयमी था, साधु या नीतिज्ञ था. कारण यह था कि ऐसा करना मेरी चिर दिन की रूचि के विरुद्ध
था. जिसको मैं प्यार नहीं करता उसका उपभोग करने की लालसा मेरे शरीर में कभी नहीं
जागी.”-आवारा मसीहा-पृष्ठ-300
शरत के एक पुस्तक की चर्चा ‘आवारा मसीहा’ के अंत में आती है-‘शुभदा’. शुभदा के सन्दर्भ में लिखना किसी भी जीवनी लेखक की गंभीरता
और संतुलन की परीक्षा हो सकती है. बहुत आसानी से ’शुभदा’ को लेकर एक सनसनीखेज़ अध्याय लिखा जा सकता है. शुभदा ही क्या साहित्य में सनसनी
और विज्ञापन की राह चलने वाले आलोचकों के लिए शरत का सम्पूर्ण जीवन सनसनी पैदा
करने वाले मसालों से भरा हुआ है. अनुमान यही है कि यदि विष्णु जी जैसे सधे और गंभीर
हाथों यह जीवनी न जाती तो शरत की जीवनी में सर्वाधिक विचलन की सम्भावना
रहती. विश्वास से भरे शरत ने शुभदा के आगे घुटने टेके थे. वे नेपथ्य में बराबर शुभदा
लिखते रहे. ’शुभदा’ की पांडुलिपि हमेशा उनके साथ रही
लेकिन वे अंततः उसे नष्ट करना चाहते थे. ’शुभदा’ को लेकर
शरत का भय शरत के जीवन का सबसे बारीक पक्ष है. शरत की भयावह भौतिक ग़रीबी, मानसिक अकेलापन-आभाव, विषणण विराग, अनैतिकता की हद तक की बहक, असंतुलन और उसी के समानान्तर
असम्पृक्तता और बिछड़े हुए प्रेम के लगाव-अलगाव और विलगाव. संभवतः मनोरोगी और ग़रीब
पिता के प्रति दारुण विलाप और माँ भुवनमोहिनी की बंद आत्मा. पिता से उन्हें मज्जा
तक का अनावरण मिला था तो माता से स्त्रीत्व की अनुभूति. आज भी समाज किसी पुरुष के
स्त्रियोचित व्यवहार पर हँसता है लेकिन स्त्री-जीवन को थोडा स्त्री होकर ही जाना
जा सकता है. यह परकाया-प्रवेश गुरु ठाकुर में भी न रही इसीलिए वे स्त्री को
सहानुभूति से बड़ा और दिव्य बनाते हैं जबकि शरत स्त्री को जीने लगते हैं. दिनभर
चकलाघरों में शरत अनेक बार उन स्त्रियों में से एक ही लगे हैं. अकारण नहीं चीतपुर
की वेश्याओं के वेश्यालय में उनका ओढना-बिछाना
था. घर की तरह के अपनेपन के साथ, बिना किसी अपराधबोध और अतिरिक्त
सहानुभूति और सतर्कता के साथ. विष्णु जी ने जीवनी के अंत में ‘शुभदा’ से परिचय कराया है. निश्चित रूप से शुभदा उनकी आत्मकथा
थी. उनका नितांत व्यक्तिगत जीवन. उनकी प्रेम-कहानी. शरत जैसा व्यक्ति ख़ुद को खोलने की
बेचैनी में ‘शुभदा’ लिख तो देता है लेकिन अपने ही
हाथों उसे जलाना भी चाहता है क्योंकि इस पुस्तक की जवाबदेही किसी और के लिए भी
होती है.-“इसे जला देना ही होगा. मेरी यह पुस्तक निकली तो एक व्यक्ति
घृणापरस्त हो जायेंगे.” अपने मित्र अविनाशचन्द्र घोषाल के
बार-बार पूछने पर संभवतः शरत ने ख़ुद के छिपाव के लिए पुनः एक घटना रची और घोषणा की
कि ‘शुभदा’ जल गयी. सबूत के तौर पर जले हुए
कागज़ों की राख भी पेश कर दी. मानों शव की जली हुई राख संभाल रखी हो. विष्णु जी ने इस
सन्दर्भ में उनकी बचपन की मित्र बाल-विधवा निरुपमा देवी का ज़िक्र किया है लेकिन
शरत के मनोभावों का नहीं जो प्रिय पुस्तक के जल जाने पर रचनाकार का हो सकता है. वह
भी शरत जैसे रचनाकार का! किन्तु यह संप्रेषित होता है कि पुस्तक जलाई नहीं गयी
थी. इसके बाद विष्णु जी उस पुस्तक की चर्चा नहीं करते. बड़े करीने से निरुपमा देवी के
जीवन पर संजीदगी से लिखते हैं. तथ्यात्मक ढंग से लिखने के बावजूद शरत के प्रेम-पक्ष के
भावात्मक-स्याह हिस्से को सामने रखते हैं. निरुपमा देवी उनकी सभी रचनाओं की एकमात्र
पाठिका थीं, पाठिका ही नहीं आलोचक भी- “वह मेरी
गार्जियन थी. उसका परिचय जानने की इच्छा मत करो. यह जान लो कि उसके जैसा सख्त तकाज़ा
करने वाली पृथ्वी पर शायद ही कोई हो. वह मेरी रचनाओं की कठोर आलोचक थी. उसके तीक्ष्ण
तिरस्कार के कारण न तो मैं आलस्य कर सकता था और न ही अपनी रचनाओं में मिलावट करके
घिस्सा-पट्टी दे सकता था. एक भी लाइन उसकी आँख से बचती नहीं थी. लेकिन वह अब सब कुछ
छोड़कर धर्म-कर्म में व्यस्त है. गीता-उपनिषद छोड़कर और किसी से उसका वास्ता नहीं. कभी
कोई खोज खबर नहीं लेती और मैं भी उसकी ताड़ना से मुक्ति पाकर बच गया हूँ. बीच-बीच
में बाहर के धक्के खाकर स्वाभाविक जड़ता यदि कुछ देर के लिए टूट जाती है तब भी मन में
यह होता है बहुत कुछ लिख लिया,और किसके लिए?”पृष्ठ-229
शरत के साथ निरुपमा देवी को लेकर कोई अफ़वाह भी न बन सकी. शरत जैसे आवारा
व्यक्ति के लिए ऐसे गरिमापूर्ण प्रेम की कल्पना न यह समाज कर सकता था और न उनके
समकलीन लेखक आलोचक. लेकिन इसकी तह में जाकर तथ्य के साथ विष्णु जी ने इस सम्बन्ध को
प्रेम-सम्बन्ध की तरह प्रमाणित किया है. ’शुभदा’ और
निरुपमा देवी पर लिखकर विष्णु जी शरत को महान लेखक ही नहीं बहुत सांसारिक
दृष्टि से भी नैतिक और बेहतरीन मनुष्य की तरह खोज लाते हैं. निरुपमा देवी पर विष्णु
जी ठहरकर नहीं लिखते लेकिन एक सूत्र छोड़ जाते हैं स्त्री जीवन के पथरीलेपन पर. शरत
की अधिकांश नायिकाएँ शांत होकर भी अधिकार-सजग और मुखर हैं. कहीं-कहीं तो अधिक ‘लाउड’ भी क्योंकि
मान्यताओं के पंक ने उन्हें बाहरी रूप से कठिन और आस्थाहीन बना दिया है. इस कठिनता
ने उनके भीतर का लिहाज़ और ज़हीनियत ख़त्म कर दी है. निरुपमा देवी के भीतर की कठिनता
पथरीली हो गयी थी, जो जीवन भर शरत को सालती रही. जो
स्त्री शरत के साहित्य की प्रखर आलोचक रही, रवीन्द्र
और बंकिम के अतिरिक्त न जाने कितनी तरह की पुस्तके पढ़ चुकी हों वह स्त्री
वेद-उपनिषद, व्रत-उपवास, पूजा-पाठ और कर्मकांड के माध्यम से
धीमें-धीमें आत्महत्या का रास्ता चुनती है. शरतचंद्र यह जानते थे कि निरुपमा देवी में
साहित्य को बहुत कुछ देने की अद्भुत क्षमता थी. लेकिन ऐसी प्रतिभाओं को सामन्ती
समाज ने पूरी ताक़त से समाप्त किया है. इस प्रेम पर संकेत में शरत कहते हैं-“संसार में ऐसा प्रेम है जो सारा जीवन जिसको प्यार किया,उससे बहुत दूर रहना चाहता है.उसका प्यार ही उससे दूर जाने की प्रवृत्ति पैदा
करत है.” –
“तुम्हारे प्रेम का आघात है यह,अवहेलना नहीं”
शरत ने ‘गृहदाह’ में प्रेम को जटिल से जटिलतर किया
है. वह अचला और सुरेश के प्रेम-घृणा, दूरी-निकटता जैसी विसंगतियों की
जैसी शल्यचिकित्सा करते हैं वह तत्कालीन भारतीय लेखन में दुर्लभ तो है ही
विश्व-साहित्य में भी अपना अनूठा स्थान बनाती है. अंत तक वे पाठक को चैन नहीं लेने
देते. वे प्रेम की महिमा के साथ प्रेम की निरर्थकता यहाँ तक की प्रेम को घृणा के
भीतर तक में खोज लाते हैं. शरतचंद्र पर भावुकता का आरोप लगा हुआ है लेकिन ‘आवारा मसीहा’ यह प्रमाणित करती पुस्तक है कि वे
भवुकता के तहखानों में इसलिए जाते थे क्योंकि वे भावुकता के खतरों को जानते थे..इस
अर्थ में वे भावुकता के पक्षधर नहीं थे. वे मानसिक बनावट के बेहद कसे हुए निर्मम
कथाकार थे. ’गृहदाह’ सम्बन्धी एक आलेख ‘गृहदाह: प्रेम के मर्म का इतिहास’ में विजयमोहन सिंह लिखते हैं-“प्रेम हमेशा एकोन्मुख नहीं होता बल्कि ज़्यादातर मामलों में वह एकोन्मुख होता
ही नहीं. ’प्रेम गली अति सांकरी’ शरतचंद्र
इस प्रचलित भ्रम के मनोविज्ञान को जानते थे. उन्होंने अचला की निर्मित ही इसीलिए किया
है कि प्रेम के बारे में लोगों का यह भ्रम अगर बिलकुल झूठ नहीं तो बड़े जटिल ढंग से
विरोधाभासों से भरा हुआ है. जहाँ प्रेम का यह एकोन्मुख रूप टूटता है वहीँ लोग इसे
बेवफ़ाई समझते हैं लेकिन यह बेवफ़ाई इतनी स्वाभाविक है कि इससे बचना मुश्किल है.”नया ज्ञानोदय,संपा-रवीन्द्र कालिया,अंक-92,अक्तूबर 2010,पृष्ठ-46
याद आता है आधुनिक प्रेम-विसंगतियों पर गिरीश कारनाड का शानदार नाटक ‘हयवदन’ और उसकी नायिका पद्मिनी., स्त्रीत्व के
लिए अपनी बनायीं सतीत्व की मानसिकता के बावजूद शरत आधुनिक मानसिक जटिलताओं से उलझ
रहे थे. वे सतीत्व को ‘स्त्रीत्व या ‘फेमिनिटी’ की तरह देखते हैं. स्त्री सम्बन्धी उनकी सोच समकालीन भाव-बोध
से सीधी जुड़ती दिखाई देती है. इन सबके बावजूद अंत में वे खुले रूप से स्वीकार करते
हैं कि वे स्त्रियों को समझ न सके. उनका यह मानना है कि स्वयं स्त्रियाँ ही ख़ुद को
न समझ सकीं हैं. सदियों का एक भारी पत्थर उनकी आत्मा पर रखा हुआ है. यह स्वीकारोक्ति
भी क्या किसी लेखक में मिलती है! यह रहस्यवादी किस्म की लेखकीय टिपण्णी है न त्रियाचरित्र जैसी सामाजिक मान्यताओं वाली, जिसे सुनकर स्त्रियाँ और ताक़त से अपनी खोह में घुस जाती हैं. शरत इस बात को
बखूबी जानते हैं-“तुम स्त्रियों को मैं आज तक
ठीक-ठीक पहचान नहीं पाया. जाने-अनजाने यही मेरे साहित्य में ध्वनित हुई है…और
केवल मैं ही नहीं तुम लोग भी अपने को नहीं पहचान पायीं या पहचानने से डरती रहीं. यह
भी हो सकता है कि तुमने अपने को पहचान लिया हो लेकिन इस बात को स्वीकार करना नहीं
चाहती. यह मात्र मेरा कल्पना-विलास नहीं है, वास्तविक
अभिज्ञता से उत्पन्न धारणा है इसलिए इस बात को यूँ ही नहीं उड़ाया जा सकता.” आवारा मसीहा पृष्ठ-302
वास्तव में अपने समय का यह बहुत बड़ा और ज़िम्मेदार वक्तव्य है.
पुस्तक के प्रारम्भिक भाग में स्त्री के प्रति एक अभूतपूर्व घटना वर्णित
है. विष्णु जी जान रहे हैं कि पक्षों को किस स्थान पर रखकर लेखक के भीतर के
स्पेस को पढ़ा जा सकता है. बचपन के दिनों में संपर्क में आई स्त्रियों से ज़्यादा दो
स्त्रियों ने उनके दृष्टिकोण में अभूतपूर्व बदलाव किये. इससे उनके अपने सूत्रों का
भी अनुमान लग सकता है-उनका प्रिय-पात्र ‘भेलू’ उनका
कुत्ता. एक बार प्रतिक्रियावश शरत ने कुत्तों के लिए भोज कराया था. शरत को पशुओं से
प्रेम था-पालतू ही नहीं,उन्हें सांपों से बहुत लगाव
था. समतापुर वाले घर में आये दिन साँप निकलते लेकिन वे कभी उन्हें मारने नहीं देते
थे. उनके कुत्ते भेलू ने उनकी एक किताब की पूरी पांडुलिप ही नष्ट कर दी थी लेकिन
भेलू उनके जीवन के किस हिस्से में बैठा था यह अवर्णनीय है. भेलू की असाध्य बीमारी
में वे उसके साथ रहते थे. उसकी सेवा करते थे. इतनी जितनी कभी अपने पिता की न की हो
जबकि यह भी दीगर बात है कि राजू के साथ के दिनों में श्मशान में उन्होंने घूरे पर
फेंके हुए वैध-अवैध शिशुओं का श्राद्ध किया था. कितने अपराधियों की लम्बी तीमारदारी
की थी..लेकिन पिता के प्रति लगाव से वे भाग निकलते थे. मनोविज्ञान में इसे ‘परवर्ट’ या ‘सैडिस्ट’ कहा
जाता है. भेलू उनके जीवन का एकाकी साथी इसलिए भी था क्योंकि वह बेज़ुबान था. शरत को
समझ सकता था, छुपा भी सकता था. अपने आख़िरी दिनों में अपने पास बैठे दवा
देते शरत को उसने पहली बार काट लिया और रात भर उनके गले से लिपटकर रोता रहा. लोग बहुत डर गये लेकिन इस समय भी शरत
के साथ रवींद्र की पंक्तियाँ रहीं. उनसे भी तो शरत का कुछ यही रिश्ता रहा-“तुम्हारे प्रेम का आघात है यह,अवहेलना नहीं” लेकिन इतने कष्ट में वे कभी नहीं
रहे. भेलू की समाधी पर वे बच्चों की तरह रोये.-“दादा!मेरा
भेलू मुझे धोखा देकर चला गया.”आगे उन्होंने यह भी कहा कि-“जीवन में कितने दुःख-कष्ट पाए हैं. उनको भेलू ने बहुत बार तुच्छ कर दिया
है…दुःख के दिनों में उसके सहारे मेरा जीवन सुख से कटा.”पृष्ठ-223
संभवतः महान प्रतिभाओं को समझने के लिए एक मौन की ज़रूरत होती है. समाज उस
अन्तरंग को समझने में विफल रहता है. पाब्लो नेरुदा ने अपने कुत्ते के लिए वह लिखा
है जो किसी मनुष्य के बारे में नहीं लिखा-“मर गया
मेरा कुत्ता/दफना दिया मैंने उसे बाग़ में/जंग खाए एक पुराने इंजिन की बगल में/
न बहुत उथले/न बहुत गहरे/कभी वह मेरी अगवानी करेगा विपुल एकाकीपन में/ .
………कोई अलविदा नहीं मेरे कुत्ते के लिए/जो कि मर गया/हमारे बीच न कोई कपट था न
है/
वह चला गया और मैंने उसे दफ़ना दिया/और किस्सा ख़त्म.”- पाब्लो
नेरुदा: प्रेम कवितायें-संपा-सुरेश सलिल,अनु.-मधु शर्मा,वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली,पृष्ठ-112.
बर्मा प्रवास के दौरान उन्हें एक स्त्री प्रेम करती थी. बदले में शरत ने उसे
बहुत कुछ दिया लेकिन एक दिन अचानक बिना बताये वह भाग गयी. शरत का संवेदनशील मन इस
आघात को दुनियावी आघात की तरह न ले सका. वस्तुस्थिति जानते हुए भी कि वह एक धोखेबाज़
स्त्री है, जो इस तरह का पेशा करती है. जीवन की उलटबांसियों ने शरत के
भीतर क्रूर स्थितियों में भी आदमियत पर विश्वास करने को विवश रखा. दूसरी घटना
कामिनी नामक कुलीन, गंभीर और समझदार स्त्री की है. अपने
घर से भाग कर एक सामान्य व्यक्ति से जिसने विवाह किया. प्रेम किया. शरत इस घटना के
साक्षी बने कि पति के असाध्य-संक्रामक रोग में कामिनी किस तरह तल्लीन होकर काम
करती रही. पति की मृत्यु के बाद वह स्वयं मृतप्राय हो गयी, उसकी
स्थिति देखी नहीं जा सकती थी. यह शरत के साहित्य की महीन पकड़ में शामिल हुआ जब जल्द
ही शरत ने कामिनी को बिलकुल बदले हुए रूप में देखा. स्वस्थ-सुन्दर, सुखी और जीवन-राग से भरपूर. कामिनी के जवाब ने शरत को स्त्री कोने का कोई सूत्र
ज़रूर दे दिया हालाँकि इस घटना से वे बहुत दिन उलझन में रहे.-“यह उन्ही के ममेरे भाई हैं. बहुत दिनों से रंगून में हैं. उनकी बीमारी में अक्सर
आते रहते थे. आपने तो देखा था दादा! इन्ही की कृपा से अब दो मुट्ठी खाने को मिल जाता
है. इनके दो छोटे-छोटे बच्चे हैं. बेचारों की माँ मर गयी है. बच्चों का मुँह देखकर ही
तो मुझे गृहस्थी बसानी पड़ी. नहीं तो अकेले पेट को तो कोई काम-धाम करके भर लेती. आदमी
बड़ा भला है. बिलकुल उन्हीं की तरह.बहुत आदर करता है, बड़ा
प्यार करता है.”पृष्ठ-135
शरत ही जान सकते थे कि इस बात में कितना बच्चों का पालन था, कितना पुरुष का आदर और प्रेम! कितना स्त्री के स्वयं का जीवनगत राग-विराग, जिसके कारण वह किसी की नहीं हो सकती. इस जगह क्या वेश्या और क्या कुलीन
गृहस्थिन!-एक ही धरातल पर खड़ी हैं. विष्णु जी ने इन घटनाओं का सहज चित्रण कर हिन्दी
लेखकों का रुख भी मोड़ दिया है. इलाचंद जोशी का उपन्यास ‘जिप्सी’ और भगवतीचरण वर्मा का उपन्यास ‘रेखा’ कुछ
इन्ही सूत्रों की उधेड़बुन है.
अतृप्त वासना को ही महत प्रेम का प्राण मानने वाले शरत ने कुछ ऐसी कहानियां
लिखी है जहाँ स्त्री कुरूपता की सीमा तक रूपहीन, धनहीन, पितृहीन रहीं हैं किन्तु अपनी गरिमा से मानी नायिकाओं को अपदस्थ करती
हैं. वस्तुतः शरत जैसे ज़मीनी रचनाकार की नज़र में कुरूप जैसी कोई अवधारणा थी ही
नहीं. ‘पल्ली-समाज’ कहानी पर भी उनकी ज्ञानदा ऐसी ही अमर पात्र है. ’अरक्षणीया’ कहानी
में रमा और रमेश के गहरे प्रेम के बाद भी विवाह नहीं कराते. विवाह-संस्था पर भी
उनका दूरगामी विचार था जिसका सीधा प्रभाव जैनेन्द्र के यहाँ दिखाई देता है
पहले-पहल 1929 में आये उपन्यास ‘परख’में. ‘पथ-निर्देश’ जैसी प्रेम कहानियाँ आदर्शवादी
होकर भी यथार्थ से कितना टकराती हैं. प्रेम के मर्म और जटिलता को घेर-घेरकर लिखने
में शरत की कोई सानी नहीं. ’बड़ी दीदी’ बिन्दो
का लल्ला’ ‘परिणीता, ‘विराज बहू’ और ऐसी अनेक कहानियाँ हैं जिसे भुलाया नहीं जा सकता. यह वह समय था जब भारतीय साहित्य में
अमूमन ‘चरित्रहीन’ और ‘गृहदाह’ जैसे शीर्षकों से ही समाज लेखक के चरित्र का मूल्यांकन कर लेता था. सच्चे समाज
के लिए स्त्री का चरित्रहीन होना या गृह के दाह का भागी बनना, समाज इन मसलों को एकरेखीय ढंग से देखता था. शरत ने इस दिशा में रवीन्द्रनाथ से
भी आगे बढ़कर राह बनायी.
शरत के जीवन में जिस तरह हिरण्यमयी देवी के विषय में भी रहस्य बना रहा. विष्णु
जी ने हिरण्यमयी देवी को उनकी पत्नी के रूप में दिखाया है. अपने आरंभिक दौर में
उनकी पहली पत्नी, जिनसे शरत को एक पुत्र भी था वे
महामारी में चल बसी थीं. शरत ने नैतिक दबाव में उनसे विवाह किया था और जीवन के कुछ
वर्ष गृहस्थ की तरह बिताये थे. हिरण्यमयी देवी भी उनकी सहचरी और उससे बढ़कर मित्र
थीं. शरत के अंतर्मन को संभवतः वे महसूस करती थीं लेकिन उसे व्यक्त नहीं करना चाहती
थीं. ऊपर-ऊपर वे कभी मित्र कभी सेविका तक लगती थीं लेकिन पारम्परिक पत्नियों
जैसा भाव उनके भीतर नहीं था. शरत के भीतर भी पारम्परिक पति का रूप नहीं रहा. दरअसल
स्त्री-पुरुष संबंधों में वे किसी वाह्य संस्था और नैतिकता को नहीं मानते थे. समाज
ने हिरण्यमयी देवी पर चारित्रिक आरोप लगाये. शरत की प्रवृत्तियों से जोड़कर उन्हें
रखैल तक कहा लेकिन हिरण्यमयी देवी ने कभी इन पर कोई प्रतिवाद नहीं किया. अलबत्ता
शरत ने परेशान होकर उनके साथ अपने विवाह के बारे में खुलासा किया. विधिवत विवाह के
प्रस्ताव पर भी वे कभी किसी धार्मिक कर्मकांड और शरत के रिश्तेदारों के यहाँ नहीं
गयीं. विष्णु जी ने हिरण्यमयी देवी पर इतने कम में लिखकर भी उन्हें अलग चमक और
ध्वनि के साथ रखा है. पड़ोसियों के कथन के आधार पर कुछेक संकेतों में हिरण्यमयी देवी
को ज़हीन, अध्ययनशील और हाज़िरजवाब बताया है. शरत की मृत्यु के बाद उनकि
सम्पत्ति की अधिकारिणी ही वह नहीं थीं, संभवतः उनके साथ शरत का अभी बहुत
कुछ अदृश्य चला गया. शरत के अनुसार वे
सुन्दर नहीं थी लेकिन उनके भीतर एक खिंचाव और अद्भुत ठहराव था, जिसने शरत जैसे यायावर और वैरागी को बाँध रखा था. किन्तु शरत उनसे प्रेम नहीं
करते थे. शरत ने अपने अन्तरंग पात्र में ‘कल्याणियाशु’ नाम दिया है. 9यह कहने में कोई संदेह नहीं कि वे पत्नी और प्रेमिका से बेहतर और
भिन्न कुछ थीं. शरत स्त्री-पुरुष सम्बन्ध को लेकर हद दर्ज़े तक उलझते रहे हैं. शरत के
जीवन का मूल विरोधाभास ही प्रतिकूल का आकर्षण था. शरत के इस सम्बन्ध का पन्ना
विष्णु प्रभाकर ने भी मानों जान-बूझकर नहीं खोला. वे शरत के भिन्न-भिन्न पात्रों
में तो मिलेंगी लेकिन समूचे किसी चरित्र के रूप में शरत-साहित्य में नहीं दिखाई
देंगी. दोनों के संबंधो की सफलता और विफलता यही है. शरत के स्त्री-पात्रों पर जब
उनसे कोई पूछता तो हँस पड़तीं-“मैं मूर्ख भला उनको क्या जानूं! तुम्हारे दादू ही जानते हैं.” पृष्ठ-327
इस सम्बन्ध के बारे में विष्णु जी बहुत प्रतीकात्मक लिखते हैं-“उन दोनों का एक भी ऐसा चित्र नहीं है जिसमे वे दोनों साथ हों. स्वयं हिरण्यमयी
देवी का अकेले भी कोई चित्र नहीं मिलता. बर्मा में एक बार उन्होंने ऐसा करने का
प्रयत्न किया था तो ठीक समय पर उनके पेट में तीव्र दर्द होने लगा था और वह चित्र
नहीं खिंच सका था.”-पृष्ठ-327. टैगोर
के यहाँ न पूरी तरह पतन है न गहरी यातना. मनुष्यता में गहरे विश्वास के बाद भी शरत
के यहाँ पतन और पीड़ा की घोर यातना में मनुष्यता की खोज है.
जीवनियाँ पश्चिम में दिलचस्पी की चीज़ उसके व्यक्ति के मनोविश्लेषण के कारण हुई
हैं. रचनाकार अगर सामाजिक रूप से बहिष्कृत किस्म का है तो वह और रुचकर हो सकती
है. बार्थ इसके कारणों में जाकर लिखते हैं-“आज
संस्कृति में मौजूद साहित्य की छवि लेखक, उसके जीवन, उसकी
रुचियों, उसके भावावेगों पर बलात केन्द्रित कर दी गयी है….वॉन गॉग
के पागलपन के चलते, मायकोवस्की की उसके दुर्गुणों के
चलते अधिकांशतः यही सिद्ध करने में लगी है. कृति की व्याख्या हमेशा कृतिकार व्यक्ति
में ढूँढने की कोशिश की जाती है.” विष्णु प्रभाकर की शोधपरक मानी
जाने वाली इस रचना और इसमें केन्द्रित लेखक शरत के लिए भी यह कहा जा सकता है. जीवनी
पर एक विश्लेषण में अरुण प्रकाश लिखते हैं-“रामविलास
शर्मा या अमृतराय दोनों अपने चरितनायक के
साथ अरसा रहे थे. फिर भी मनोविश्लेषण के क्षेत्र में वे नहीं जाते. इसके उलट विष्णु
प्रभाकर शरच्चन्द्र के साथ कभी नहीं रहे पर उनके व्यवहार-वैचित्र्य पर शरच्चन्द्र
के परिचितों, आत्मीयों के साक्षात्कार के माध्यमों से रौशनी डालने की
कोशिश करते हैं लेकिन यह प्रयत्न शुद्ध मनोवैज्ञानिक नहीं है. फिर भी उसमे
कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित करने की विश्वसनीय कोशिश है.” गद्य की
पहचान-अरुण प्रकाश,अंतिका प्रकाशन,नई दिल्ली,पृष्ठ123
फिर भी इस जीवनी में तमाम ऐसे स्थल हैं जहाँ तथ्य, शोध, भावना और कल्पना तीनो का संतुलन बनाया गया है. कुछ पाश्चात्य विचारक जैसे जैसे
सैमुअल जॉनसन उन जीवनियों को ही जीवनी मानते हैं जिसमे जीवनीकार वर्णित लेखक के
साथ उठने-बैठने का रिश्ता रखता हो किन्तु यह तो रेखाचित्र और संस्मरण के नज़दीक
ज्यादा होगा. ध्यातव्य है कि हेमिंग्वे जैसे लेखक ने जीवित व्यक्ति के ज़िन्दगी और
मनोविज्ञान पर लिखने का विरोध किया था. वह उसे जीवनी के केंद्र में नहीं रखते.
विभिन्न मतों के बाद भी निष्कर्ष यह तो आता ही है कि जीवनी अपने समय का रचनात्मक
इतिहास है. यदि वह शोधपरक है तो सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में भी बड़ी उपयोगी
सिद्ध हो सकती है और साहित्यिक जीवनियाँ तो हमेशा जीवित रहेंगी ही. हिंदी आलोचना
में कृति और कृतिकार को समझने के कई सूत्र ‘आवारा
मसीहा’ में मिलते हैं. हिंदी ही नहीं इस जीवनी से पहले बांग्ला
साहित्य में भी शरत जैसे रचनाकार को देखने समझने के लिए कोई समुचित स्रोत नहीं
मिलता. इस अर्थ में ‘आवारा मसीहा’ आधुनिक गद्य-विधाओं और शोधों में अपना अक्षुण्ण स्थान रखती है. शरत के प्रति
अपने भावोद्गार को विष्णु प्रभाकर ने बार-बार अभिव्यक्त किया है जिसमे भाव की
प्रधानता रही है लेकिन यह भी सत्य है बिना इस भावुकता के वे शरत के साथ खड़े होकर
ऐसी कालजयी जीवनी नहीं लिख सकते थे.-“.अपने को छिपाने की प्रवृत्ति से वे
कभी मुक्त नहीं हो सके. अद्भुत विरोधाभास था उनके स्वभाव में.एक ओर वैरागी का मन, दूसरी ओर ऐसी विनोदप्रियता जो उज्जडपन की सीमा तक पहुँच गयी थी. जैसे एक साथ
कई शरत अंतर में समाये रहते हों. इसलिए कई बार कई लोग ऐसे संस्कारहीन, अभद्र, अशिष्ट व्यक्ति को देखते थे जो महानता से बहुत दूर था, जिसे सभी सोसायटी नहीं मिली थी..परन्तु ऐसे व्यक्ति थे जो उनके कृतिकार की
विशेषता को खोज निकालते थे. उनके प्रभावहीन व्यक्तित्व में एक खुरदुरापन था परन्तु
उसके नीचे मानवीय संवेदना का जो स्रोत बहता था उसने उनके असंख्य प्रशंसक पैदा कर
दिए. विष्णु प्रभाकर ने रवीन्द्र ठाकुर के दुर्दमनीय प्रभाव वाले
बंगाल में कुलीन कलावाद के समकक्ष शरत के रूखे और सच्चे चरित्र को रखकर
बांग्ला-साहित्य को भी सम्मोहन की ख़ुमारी से जगाकर रख दिया.
“उसके दुश्मन हैं बहुत
आदमी अच्छा होगा”——निदा फ़ाज़ली
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सन्दर्भ:
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साहित्य-सिद्धांत:रेने वेलक और ऑस्टिन वॉरेन, लोकभारती
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रस्साकशी, वीरभारत तलवार, सारांश प्रकाशन, दिल्ली-हैदराबाद.
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हिंदी का गद्य-पर्व, संपा-आशीष त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली.
प्रेमचंद और भारतीय समाज, संपा-आशीष त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
चरित्रहीन, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, विश्व-बुक्स, नई दिल्ली.
देवदास, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, राजकमल
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कलम का सिपाही, अमृतराय
भारत के मध्यवर्ग की अजीब दास्तान, पवन कुमार वर्मा, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली.
रानू और भानु, सुनील गंगोपाध्याय, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली.
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कहानीकार जैनेन्द्र कुमार:पुनर्विचार, मधुरेश, सामानांतर प्रकाशन, नई दिल्ली.
नया ज्ञनोदय (पत्रिका), समप-रवीन्द्र कालिया, भारतीय ज्ञानपीठ, अंक-92, अक्तू-2010.
वागर्थ-समकालीन बांग्ला कहानी विशेषांक, भारतीय
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समकालीन भारतीय साहित्य (पत्रिका), साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली के कुछ अंक.
गद्य की पहचान, अरुण प्रकाश, अंतिका प्रकाशन, दिल्ली.
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वन्दना चौबे
कवि और आलोचक
नया ज्ञानोदय, वागर्थ, आलोचना, प्रगतिशील वसुधा, बनास जन, हिन्दी
समय, संबोधन और अपूर्वा पत्रिकाओं में समय समय पर
लेख/साक्षात्कार आदि प्रकाशित।
कविताएँ 2004 के नया ज्ञानोदय के अतिरिक्त कहीं प्रकाशित नहीं हैं लेकिन
सोशल मीडिया पर प्रकाशित होते रहने से उनकी चर्चा होती रही है।जल्द ही
कविता-संग्रह की योजना।
बनारस के दो सौ वर्षों के रचनात्मक इतिहास पर बेहद पठनीय उपन्यास ‘बहती गंगा‘ पर आधारित शिल्पायन प्रकाशन से संदर्भ-पुस्तक ‘बहती गंगा में काशी‘ 2009 में प्रकाशित।
मार्क्सवादी चिंतन दृष्टिकोण तथा प्रगतिशील लेखक संघ से सक्रिय सम्बद्धता
संप्रति बनारस के आर्य महिला पी.जी. कॉलेज (BHU) सहायक
प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत।
[9532773542]
jnuvandana@gmail.com
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad