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Home आलोचना

उदय प्रकाश की कथा सृष्टि पर विनय कुमार मिश्र का आलेख

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in आलोचना, साहित्य
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सत्ता के बहुभुज
का आख्यान

( उदय प्रकाश की कथा सृष्टि से गुजरते हुए )

विनय कुमार मिश्र

 

उदय प्रकाश


‘जिनके मुख देखत दुख उपजत’

—नाभादास

भक्त कवि नाभादास को अपने समय की राजसत्ता और दरबार को देख दुख और क्षोभ होता
था। वहीं आज की सत्ता की षड्यंत्रकारी क्रूरता का आतंक कई बार साधारण और सामान्य
जनों के जीवन में दुःख,डर और दहशत को बेतहाशा बढ़ा देता है। समसामयिक दौर में राजनीति
,
पूंजी और प्रशासन का गठजोड़ सत्ता-तंत्र को संचालित कर रहा है।
तरह-तरह के माफियाओं  का अवैध शिकंजा दैनिक  नागरिक जीवन पर कसता चला जा रहा है। इनमें
संदिग्ध किस्म के बिल्डर्स और ठेकेदार हैं
, छोटे-बड़े
व्यापारी और उद्योगपति हैं
, सटोरियों और प्रॉपर्टी
का धंधा करने वाले दलाल हैं। ये उच्छृंखल, लंपट और अनुशासनहीन
अमीर हैं। संवैधानिक निर्देशों और नियमोंकी धज्जियां उड़ाना इनके  लिए सामान्य बात है।
1 सत्ता के
इन
‘गणमान्यों’ द्वारा समय का ऐसा यथार्थ निर्मित किया गया है जो
अनैतिकता
, बर्बरता और हिंस्रता की किसी भी सीमा को लांघ सकता है। इस
दौर की राजनीति के प्रमुख प्रवृत्ति को रेखांकित करते हुए प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक
किशन पटनायक कहते हैं कि
“व्यापारियों, राजनेताओं और अपराधियों का गठजोड़ हमारी राजनीति की मुख्यधारा
बन गया है।”
2

सत्ता विमर्श उदय प्रकाश की कथा दृष्टि का एक प्रमुख मुद्दा है। इनकी कथा
सृष्टि में सत्ता के चाल
, चलन और चेहरे
को बारीकी से उजागर किया गया है। मोहनदास  कहानी में समसामयिक सत्ता का बुनियादी लक्षण उदय
प्रकाश बताते हैं,
“जिसके पास जितनी मात्रा में सत्ता थी, वह विलोमानुपात
के नियम से
, उतना ही निरंकुश,
हिंस्र, बर्बर, अनैतिक
और शैतान हो चुका था।… और यह बात राष्ट्रों
, राजनीतिक
दलों, जातियों
, धार्मिक समुदायों और व्यक्तियों तक एक जैसी लागू होती थी।”3 प्रत्येक
सत्ता का एक ही वर्ग होता है
, उसकी विशेषताएं
एक सी होती है। प्राय: हर सत्ता सोच
, मानसिकता,
विचारधारा और कार्य सभी स्तरों पर एक जैसा वर्ताव और व्यवहार
करती है। डॉ. वाकणकर भी अपनी डायरी में लिखते हैं,
“मुझे दिखाई
दे रहा है कि हमारे देश में हर रोज हजारों हत्याएं हो रही हैं- नकली दवाओं
, जहरीली  शराब, गुंडों
और अपराधियों के संगठित गिरोहों
, पुलिस द्वारा दमन
और सरकार द्वारा गोली-बारी से। इस सबका धर्म

और संप्रदाय से कोई लेना-देना नहीं
है। एक पूरा भ्रष्ट और अपराधी तंत्र बन चुका है, जिसकी हिंसा
और लूट के सामने इस  चीज का  कोई मतलब नहीं

कि सामने वाला हिंदू है या मुसलमान या किसी और संप्रदाय का।”4


सत्ता का ऐसा षडयंत्रकारी स्वरूप कायम हुआ है जो अपने लाभ और लोभ की आपूर्ति
के लिए साधारण ईमानदार नागरिक को बेवजह परेशान
,
प्रताड़ित और कई बार हत्या तक कर डालता है। और अंत में प्रार्थना के डॉ.
डी. एन. मिश्रा जैसे
“भ्रष्ट और लालची डाक्टरों की वजह से इस   देश में एक नहीं हजारों निर्दोष मरीजों की मौतें
हो रही हैं।”
5 इस कहानी
में एक्सपायरी के बाद की और नकली दवाओं के कारण सरकारी अस्पताल में गरीब पंडित
थूकरा महराज की मौत
, डॉ. वाकणकर के अनुसार, हत्या है।
वजह
, डॉ. डी. एन. मिश्रा जैसे लोगों का भ्रष्ट कुकृत्य है,
जिनकी “स्थानीय नेताओं,
व्यापारियों, तहसीलदार तथा थानेदार समेत अन्य सरकारी अफसरों से खूब पटती
थी। इन लोगों ने रात में शराब पीने और ताश खेलने के लिए एक ऑफिसर्स क्लब भी बना
रखा था। यह एक अलग समाज था। इस  समाज  की  अपनी  अलग संहिताएं थी
,
जिन्हें भारतीय प्रशासन ने अपने लंबे इतिहास से अर्जित किया
था।”
6
यह सत्ता-तंत्र डॉ. डी.एन. मिश्रा जैसे भ्रष्ट लोगों को ही पनाह
और प्रश्रय देता है। डॉ. वाकणकर द्वारा इस भ्रष्टाचार का विरोध करने पर
,
उन्हें ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के पारितोषिक स्वरूप ‘काले पानी का दंड द्वीप’ मिलता है। उनका  तबादला सुदुर आदिवासी
क्षेत्र ढींगर गांव में कर दिया जाता है।

और अंत में प्रार्थना में यह सत्ता तंत्र इतना निर्दयी, निष्ठुर
और क्रूर है कि प्रदूषित पानी से मरती जनता के लिए कुछ नहीं

करता, जबकि प्रधानमंत्री के दौरे की तैयारी में रातों-रात सड़कों
और रोशनियों की व्यवस्था करता है। प्रधानमंत्री 
की  इस टोली में लंपटनुमा तांत्रिक
,
तीसरे दर्जे के बंबईया एक्टर, उद्योगपति, दलाल, आला अफसर,
हाकिम हुक्काम शामिल हैं। प्रधानमंत्री के दौरे के प्रमुख आयोजक
जिलाधीश खरे की टोली भी जिला स्तर के ठेकेदार
,
गुंडे और पत्रकार से बनी है। इस व्यवस्था में सत्ता का
दबदबा ऊपर से नीचे तक चारों ओर कायम है। यहां प्राय: हर बिंदु या मोड़ पर सत्ता का
व्यक्ति अपने पद
, ताकत, गरिमा के अनुकूल अपना तंत्र तैयार करता है। विशाल व्यवस्था
के अंतर्गत सत्ता की हर कड़ी श्रृंखलाबद्ध होकर आपस में जुड़ी है। हर कड़ी में ऊपर
वाले के सामने नीचे वाला झुका रहता है और ऊपर वाला नीचे वाले को झुके रहने के लिए विवश
करता है। सभी आपस में मिलकर अपने लाभ और लोभ के लिए साधारण
,
ईमानदार, कमजोर सत्ताहीन व्यक्ति का निरंतर दमन करते हैं।

आउट लुक पत्रिका के अक्टूबर 2009 अंक में
प्रकाशित उदय प्रकाश की मठाधीश कहानी में एक मोटा
,
तगड़ा व्यक्ति एक मरियल उदास कुत्ते को अनावश्यक ही प्रताड़ित
करता है। ईश्वर द्वारा कारण पूछने पर वह व्यक्ति जबाव देता है,
“ईश्वर, मैं खुद नहीं
जानता कि मेरे साथ क्यों ऐसा होता है। जब भी मैं किसी कमजोर, लाचार, अकेले,
दीन-हीन, अहिंसक, दरिद्र और सत्ताहीन को देखता हूँ,
मेरे  भीतर अपने आप
हिंसा पैदा हो जाती है। मैं ऐसे किसी जीव को
,
वह मनुष्य हो या कुत्ता, बर्दाश्त
नहीं
कर पाता, जो निर्बल, गरीब और
सत्ताहीन हो। मुझे लगता है ऐसे अशक्त
और निरीह प्राणी को इस पृथ्वी पर जिंदा नहीं
रहना  चाहिए। मेरे भीतर
सत्ताहीनता
और दीनता के प्रति एक सहजात,
बर्बर और तीखी नैर्सगिक घृणा और हिंसा है।”7
जबकि सत्तावान के प्रति अपना व्यवहार बताते हुए वही व्यक्ति
कहता है,
“मैं असल में
जब किसी ताकतवर, अमीर, ओहदेदार,
मंत्री, अफसर, व्यापारी-ठेकेदार, ठग, तस्कर को देखता हूँ तो मेरे पीछे, नीचे की
तरफ स्पाइनल बोन की आखिरी कड़ी में एक कोई गुद्गुद-सा कुछ-कुछ होता है। वह  मुझे  बहुत  अच्छा 
लगता है। आह !  ईश्वर
,
यह आंतरिक आयतन…यानी अंदर का मामला है।”8

यह सत्तालोलुपों का आंतरिक बुनियादी चरित्र है। ‘अवसरवादिता’ इनकी दूसरी प्रमुख चारित्रिक विशेषता है, ‘जब जैसा तब तैसा’ । और अंत में प्रार्थना  में उदय प्रकाश लिखते हैं, “भारतीय प्रशासन, जिसे नौकरशाही
कहा जाता था
, अपना चरित्र और अपनी वफादारी बदलने में माहिर था। अंग्रेजों
के जमाने से लेकर आज तक इसने अपनी अवसरवादियों की अद्भुत मिसालें कायम की थीं।”
9

इस  दौर  में 
सत्ता-तंत्र ने जालसाजी का इतना गझिन ताना-बाना बुना है कि साधारण-ईमानदार व्यक्ति
को  साजिश 
के  तहत  अलगाववादी और सांप्रदायिक घोषित कर दिया जाता
है। पीली छतरी वाली लड़की में उदय प्रकाश कहते हैं,
“यह एक क्रूर, टुच्चा, अपराधी समय है, जिसमें इस वक्त हमलोग फंसे हैं। यह ठगों,
मवालियों, जालसाजों,
तस्करों और ठेकेदारों का समय है। और इस वक्त हर ईमानदार, शरीफ और सीधा-सादा
हिंदुस्तानी इस राज में कश्मीरी हैं या मणिपुरी हैं या फिर नक्सलवादी।”
10

देश और समाज में  भ्रष्टाचार निरंतर बढ़ता जा  रहा है। रामचंद्र गुहा भी लक्षित
करते हैं, “समसामयिक भारत में
भ्रष्टाचार विधायिका ही नहीं
, बल्कि नौकरशाही में भी आम बात है।… हाल के समय यह उच्च
स्तर के अधिकारियों में भी फैल गया है। यहां तक कि सीबीआई ने भारत सरकार के सचिवों
और राज्य के मुख्य सचिवों पर भी आय से अधिक सम्पत्ति रखने का आरोप लगाया है।”
11 इन अधिकारियों की जीवन शैली भी  कुछ  इन्हीं
बातों की तरफ स्पष्ट संकेत करती है। सत्ता के इस बहुभुज में
छोटे-बड़े अफसर
, ठेकेदार, विधायक
से लेकर मंत्री तक शामिल हैं। भ्रष्टाचार का वायरस सत्ता में गहराई से घुस चुका
है। इस भ्रष्ट तंत्र  का एक छोटा नमूना विशिष्ट
शिल्प वाली कहानी थर्ड डिग्री  में है।
इसमें अमरीक अच्छी खासी ट्रांसपोर्ट कंपनी का मालिक है।
“उसका काम
पुलिस और सरकारी महकमों से हर रोज पड़ता रहता था। जिले का विधायक लखौरी राम
अग्रवाल
, जो अब राज्य में विधि एवं राजस्व मंत्री बन गया था, अमरीक
उसका यार फायनेंसर और बाडी गार्ड माना जाता था। ब्लैक
,
चोरी के कोयले और गार्टरों की ढुलाई तथा पी.डब्ल्यू.डी. की फर्जी
ठेकेदारी से उसकी दो नंबर की लाखों की कमाई होती थी।”12 सामाजिक सत्ता और व्यवस्था के समानांतर कहानी के ढांचे को बदलने की आग्रही हिंदी
कथाकार उदय प्रकाश की
“चिंता यह है कि इस व्यवस्था
में
,  जहां एक रिक्शेवाला चोरी करता है और सोना कानून  मंत्री के घर में गलता है, वह व्यवस्था
अपने ढांचे में कैसी है
?  और क्या यह हमारी सबकी पराजय नहीं
है कि हम न तो कहानी का ही ढांचा बदल पा रहे हैं और न इस व्यवस्था
को। क्या यही सच है कि दोनों ही अपरिवर्तनीय हैं
?”13

भ्रष्ट सत्ता का प्रसार इतना व्यापक हो गया है कि समाज,
संगठन, संस्कृति और साहित्य तक उससे अछूत नहीं
है। साहित्य के विविध रूपों में यह यथार्थ अभिव्यक्त नहीं हो
पा रहा है। कारण कि
“कोलोनाइजर्स, प्रॉपर्टीडीलर्स, आला पुलिस
अधिकारी
, प्रोफेसर, विद्वान, दलाल सब क्रांतिकारी संगठनों और सांस्कृतिक संस्थानों  में आ गये थे और जो भी अपने समय के यथार्थ को
व्यक्त करता था
, उसे वे एकजूट होकर भूखा मार डालते थे।”14 दूसरी
बात शायद यह कि उन्हें अपनी अनैतिक सत्ता और ताकत का अहंकार भी है। सत्ता मद और
अहंकार की जननी है। तुलसीदास जी ने लिखा है,
“अस कोऊ जनमा जग नाहीं, प्रभुता पाई ताहि मद नाहीं।”

भ्रष्टाचार सत्ता का सार्वभौम गुण है। दोनों अक्सर एक दूसरे के पर्याय होते
हैं। सत्ता और भ्रष्टाचार का अन्योन्याश्रित संबंध है। उदय प्रकाश लिखते हैं,
“सत्ता भ्रष्ट करती ही है। खासतौर पर वह सत्ता जिसमें कोई महान
स्वप्न
, फैंटेसी, यूटोपिया, मिथक या
कोई विराट दर्शन न जुड़ा हो।
”15

नव पूंजीवादी दौर में सत्ता की निरंकुशता, क्रूरता और
ताकत में विशेष बढ़ोत्तरी
हुई है। धन-संपत्ति सत्ता की संवर्धक खुराक है। अत्यधिक अवैध
पूंजी ने सत्ता के अमानवीय रूप को उजागर किया है। समाज में मानवीयता विरल होती जा रही
है।
“फासीवाद एक नये चेहरे के साथ मौजूद था। अवैध पूंजी और अपराधी हिंसा
की अपनी ताकत को उनीसवीं
सदी की महान विचारधाराओं के परदे के पीछे ढांकता-छुपाता
हुआ। उसने पिछली शताब्दियों के महान आदर्शों को अपनी अनैतिक महत्त्वाकांक्षाओं और वासनाओं
की अदम्य आग में जलाकर राख कर डाला था।”
16

बाजार और पूंजी के वर्चस्व वाले दौर में सत्तासीन लोगों के पास बेहिसाब धन एकत्रित  हो  गया  है।  दिल्ली  की 
दीवार
कहानी में दीवार की खोखल में बेहिसाब दौलत छिपायी गयी थी। कहानी
में दर्ज है –
“वह सारा रुपया सी.बी.आई. के छापों और इनकम टैक्स से बचने के
लिए वहां छुपाया गया था। यानी वह सारी दौलत ऐसी थी
,  जिसका कोई आलेख कहीं नहीं
होता। अनअकांउटेड मनी। इसी को काला धन कहते हैं।”17 इस ‘काला धन’ की जरा भनक लगने पर सत्ता के लोग झूठी इन्क्वायरी और फर्जी
मुठभेड़ का ताना-बाना रचते हैं। रामनिवास जैसे गरीब,
दलित और वंचित को बलि का बकरा बनाया जाता है। सत्ता के हमाम
में खड़े इन ओहदेदारों के पास आय से सैकड़ों गुना अधिक संपत्ति है। मौज मस्ती में
डूबे सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।
“जहां तक उस पुलिस अफसर की बात है,  जिसकी निगरानी में ‘ऑपरेशन रामनिवास’ हुआ वह बहुत सम्मानित और ताकतवर पुलिस अफसर है। उसकी कई कोठियां
और फार्म
हाउस हैं, जहां वह अक्सर पार्टियां देता रहता है। इन पार्टियों में नेता,
अफसर, पत्रकार, दिग्गज बुद्धिजीवी
और कई वरिष्ठ साहित्यकार आते हैं…।”
18

निष्कपट, निष्कवच और निरीह जीवन के प्रति क्रूर हिंस्रता आज सत्ता का
एक
वांछनीय कुकृत्य बन गया है। अरेबा-परेबा  कहानी में कथावाचक अपने बचपन की
एक मासूम अविस्मरणीय घटना के बारे में सोचता हुआ कहता है, “वह वनैला, हिंसक और
अवारा वन-विलाड़
, जिसे हम
बग्घा कहते थे और  जो अपने ही बच्चों का गला
काट डालता था
, वहां आया होगा।” और सुंदर नर्म भूरी मुलायम पीठ वाले खरगोश के
छौनों ‘अरेबा-परेबा’ को बग्घा ने काट डाला होगा।”19

गहरे अर्थों में ‘वन विलाड़’
या
‘बग्घा’ आज का ताकतवर सत्ताखोर है और खरगोश के छौने मासूम मनुष्य
हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह
‘वन विलाड़’ जन प्रतिनिधि भी हो सकता है। यह देखा जाता है कि अधिकतर जनप्रतिनिधि
जनता का हक मारते हैं
, उनका गला काटते हैं।

बचपन में खरगोश के छौनों का पत्थर में बदलने का रहस्य बड़े होने पर कथावाचक
समझ पाता है।
‘वन विलाड़’ या बग्घड़’
के प्रतीक को स्पष्ट करती
लेखकीय टिप्पणी है, “अब तो बग्घों की संख्या भी
बहुत ज्यादा हो चुकी है। वे अकेले नहीं
, अब तो झुंड
और गिरोहों में रहते हैं। मैंने उन्हें बडी-बड़ी इमारतों के भीतर
, कुर्सियों
पर भी बैठे देखा है। संसार का हर कोमल
, पवित्र, निष्कवच और सुंदर जीवन इस समय गहरे खतरे के बीच है।”20 उदय प्रकाश
अपनी कथा सृष्टि में सत्तासीनों के कृत्यों को उजागर करते हैं और सामान्य जन को
सचेत करते हैं।

सत्तासीनों और सत्ताहीनों के लिए इस तरह के  प्रतीकों
का प्रयोग  उदय प्रकाश की कथा सृष्टि
की अपनी विशिष्टता है। मोहनदास  कहानी
में भी मोहन दास  के घर में अलोपी मैना
का घोंसला परिवार के लिए शगुन या शुभ   संकेत
है।  सत्ता की बर्बरता इस सगुन को
अपसगुन बना देती है। मोहन दास की पत्नी
“कस्तूरी की कोठरी में बिल्ली
ने झपट्टा मारा और अलोपी मैना के जोड़े को खा गई। मादा मैना के पेट में नए अंडे आए थे। उनके नुचे हुए पंख
और खून के दाग कोठरी की मिट्टी की फर्श पर बचे रह गए थे।”
21
ये सत्ता  की क्रूरता
के निशान हैं
, समसामयिक
दौर में ऐसे निशान अक्सर देखे जा सकते हैं।

हिंसा, लूट,
भय और आतंक का माहौल चारों ओर व्याप्त है। मैंगोसिल का
मरीज जीनियस माइंड वाला सूरी अपनी डायरी में लिखता है,
“चारों ओर गोलियों और खून के
निशान हैं
, चारों ओर लोग खा रहे हैं और हंस रहे हैं, क्या उन
तक डरावनी खबरें नहीं पहुंची है या वे
लोग खुद अपराध में शामिल हैं। वे लोग कैमरे के सामने और कैमरे के पीछे लगातार नोट गिन
रहे हैं… ।”
22 सत्ता अपनी हिंस्रता, बर्बरता
और क्रूरता के धब्बों को
, अपने काले कारनामों को 
छिपाती  है
, प्रमाणों
और दस्तावेजों को नष्ट करती है। उदय प्रकाश एकदम वाजिब टिप्पणी करते हैं,
“सत्ता और
पूंजी से जुड़ी ताकतें अचानक किसी बाज की तरह झपट्टा मार कर अलोपी मैना के घोसलों  को उजाड़ देती हैं और बाहर दिखाई देते हैं चिड़ियों
के नन्हें-नन्हें छौनों के पंख और खून के कुछ धब्बे। ये धब्बे किसी भी पार्टी की
सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा लिखवाए गए इतिहास की पाठ्यपुस्तक में कभी नहीं

दिखाई देते। क्योंकि इतिहासकार का पेशा ही है अपने समय की सत्ता
के दामन के दाग-धब्बों को छिपाना।”
23 मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सत्ता से संचालित और नियंत्रित
होता है। मीडिया भी सत्ता के कुकृत्यों को उजागर नहीं करता। गरीब
,
बेघर और  वंचितों के
जीवन के
“हादसों  और घटनाओं की
कोई खबर अखबारों में नहीं छपती। दरअसल अखबार होते ही इसलिए हैं कि वे यहां की खबरों और हादसों को छुपाएं।”
24

ईमानदार, कर्त्तव्यपरायण, निष्ठावान और लगनशील व्यक्ति को यह सत्ता तंत्र बार-बार
परेशान
, पीड़ित और प्रताड़ित करता है। और अंत में प्रार्थना कहानी
में हिंदूवादी संगठन में आस्था और निष्ठा रखने वाले डॉ. वाकणकर की विचारधारा वाली
सरकार ही उनकी पेशेगत ईमानदारी पर क्रूर और अनैतिक दबाव बनाती  है।
“डॉ. वाकणकर को लगा जैसे वह किसी बहुत पुराने किले में फंस गए
हैं और बाहर निकलने का रास्ता भूल गए हैं। यही वह तंत्र था
,
जिसके वे भी एक हिस्सा थे।”25
यह तंत्र शायद नहीं बदलेगा। व्यक्ति भले इस तंत्र के अनुरूप
स्वयं को बदल ले। इस तंत्र में हर ईमानदार अनफिट होता है। ईमानदार व्यक्ति इस
तंत्र के विरुद्ध निरंतर संघर्ष
करता आखिरकार पस्त हो जाता है। इस तंत्र  द्वारा “डॉ. वाकणकर को किसी चक्रव्यूह में घेर लिया गया था। वे अब लड़ना
नहीं चाहते थे। सिर्फ छुटकारा  चाहते थे…दु:स्वप्न  से”
26  पीछा छुड़ाना चाहते थे।

मोहन दास भी क्रूर सत्ता तंत्र से छुटकारा चाहने को विवश है। यह सत्ता तंत्र मोहन
दास जैसे ईमानदार
, परिश्रमी
और गरीब व्यक्ति की पहचान
, अस्तित्व तक हड़प लेता है। शिकायत,
विरोध और मुकदमा करने पर उसे और प्रताड़ित किया जाता है। डर,
दहशत, आतंक और भारी विपत्ति से घिरा मोहन दास  बार-बार कहता है, “हमारा नाम मोहन दास नहीं
है।… हम अदालत में हलफनामा देने को तैयार हैं। जिसे बनना हो
बन जाय मोहन दास। आपलोग किसी  तरह हमें बचा
लीजिए।”
27 यह सत्ता
के कुचक्रव्यूह में घिरे सच्चे
, ईमानदार, अहिंसक, श्रमशील सामान्य
जन की आर्त आवाज है।

भ्रष्ट सत्ता बार-बार ईमानदार साधारण जन को ही आरोपी और अपराधी करार देती है। जीवन
और समाज के स्वरूप को दहशतनाक बनाने में सत्ता की बड़ी और एकमात्र भूमिका है। दिल्ल्ली
की दीवार
 में कथावाचक की सटीक टिप्पणी
है,
“मैं इस दुर्भाग्य के लिए जितनी बार अपने भीतर कमियां ढूंढने
की कोशिश करता
, यकीन मानिए, मुझे सारी खामियां इस समूचे तंत्र में दिखाई पड़तीं,
जिसको बनाने में निश्चित ही किन्हीं
शैतानों का हाथ था।”28 यही आज वास्तविकता
है
, आज का यथार्थ
है, जिसमें गरीब और साधारण जनों के हक और अधिकार को सत्ता
तंत्र ने अधिग्रहित कर लिया है।

उदय प्रकाश की कहानियां इस सत्ता तंत्र की आंतरिक बनावट को उजागर करती हैं। जनता
के पक्ष को व्यक्त करती हैं। सत्ता द्वारा प्रायोजित पुस्तकें
, अखबार, सर्वेक्षण
या रिपोर्ट उसके कृत्यों को किस तरह छिपाते हैं
,
उदय प्रकाश की कथा सृष्टि इसका प्रत्यक्ष उद्घाटन करती है। उदय
प्रकाश की कथा दृष्टि साधारण
, ईमानदार, सत्ताहीन
पीड़ितों के पक्ष में
, सत्ता के
प्रतिपक्ष का आख्यान है।



 

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रूपम मिश्र की कविताओं पर मृत्युंजय पाण्डेय का आलेख

संदर्भ–सूची :

  1. उदय प्रकाश :
     
    नयी सदी का पंचतंत्र,
    वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण : 2008, पृ. 238
  2. पटनायक, किशन :
    तीसरी दुनिया
    का जनतंत्र
    (लेख), भारत का राजनीतिक
    संकट,
    (
    सं. राजकिशोर),
     
    वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण : 1994, पृ. 152
  3. उदय प्रकाश :  मोहन दास, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण : 2009, पृ. 37
  4. उदय प्रकाश : और अंत में प्रार्थना, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण : 2006, पृ. 130
  5. उपर्युक्त, पृ. 126
  6. उपर्युक्त, पृ. 125
  7. उदय प्रकाश : मठाधीश (कहानी), आउटलुक, दिल्ली, अक्टूबर : 2009,
    (सं. नीलाभ मिश्र),
    पृ. 36
  8. उपर्युक्त, पृ. 36
  9. उदय प्रकाश : और अंत में प्रार्थना, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण : 2006, पृ. 174
  10. उदय प्रकाश : पीली छतरी वाली लड़की, नई दिल्ली, संस्करण : 2009,
    पृ. 12
  11. गुहा,  रामचंद्र : भारत 
    :  नेहरू  के 
    बाद
    ,  (अनुवाद : सुशांत  झा),  पेंगुइन  बुक्स,
    नयी
    दिल्ली,
    संस्करण : 2012,
    पृ. 370
  12. उदय प्रकाश : और  अंत
    में प्रार्थना
    ,
    वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण : 2006, पृ. 98
  13. उपर्युक्त, पृ. 101
  14. उदय प्रकाश : मैंगोसिल, पेंगुइन बुक्स, नई दिल्ली, संस्करण : 2006, पृ. 140
  15. उदय प्रकाश : पॉल 
    गोमरा  का  स्कूटर
    ,
    वाणी प्रकाशन,
    नई दिल्ली,
    संस्करण : 2006,
    पृ. 144
  16. उदय प्रकाश : मैंगोसिल, पेंगुइन बुक्स,
    नई दिल्ली,
    संस्करण : 2006, पृ. 115
  17. उदय प्रकाश : दत्तात्रेय के दुख,
    वाणी प्रकाशन,
    नई दिल्ली,
    2006,
    पृ. 87
  18. उपर्युक्त, पृ. 89
  19. उपर्युक्त, पृ. 140-141
  20. उपर्युक्त, पृ. 144
  21. उदय प्रकाश : मोहन दास, वाणी प्रकाशन,  नई दिल्ली, संस्करण       : 2009,            पृ. 58
  22. उदय प्रकाश : मैंगोसिल,
    पेंगुइन बुक्स,
    नई दिल्ली,
    संस्करण : 2006, पृ.164
  23. उदय प्रकाश : मोहन दास, वाणी प्रकाशन, नई        दिल्ली,
    संस्करण : 2009, पृ. 82
  24. उदय प्रकाश : दत्तात्रेय के दुख,
    वाणी प्रकाशन,
    नई दिल्ली,
    2006 :
    पृ. 60
  25. उदय प्रकाश : और अंत में प्रार्थना,
    वाणी प्रकाशन,
    नई दिल्ली,
    संस्करण : 2006, पृ. 187
  26. उपर्युक्त, पृ. 196
  27. उदय प्रकाश : मोहन दास, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण :      2009,
    पृ. 15
  28. उदय प्रकाश : दत्तात्रेय के दु:ख,
    वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006, पृ. 60

 

विनय कुमार मिश्र


लेखक परिचय :

नाम
: विनय कुमार मिश्र
ई-मेल
: vinaymishra.cu11@gmail.com
मो. : 97480
85097
पता
: 6/1, क्षेत्रा चटर्जी लेन,
सालकिया, हावड़ा।
पिन-
711106
 
बी.ए. (हिन्दी ऑनर्स), कलकत्ता विश्वविद्यालय से
प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान।

एम. ए. (हिन्दी) कलकत्ता
विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान।
पीएच. डी. कलकत्ता
विश्वविद्यालय।
विविध साहित्यिक पत्रिकाओं
में कई आलेख प्रकाशित।

 

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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