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Home कविता

शालिनी सिंह की कविताएँ

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस से शुरू हुई एक विशेष श्रृंखला के तहत प्रकाशित

by Anhadkolkata
March 26, 2025
in कविता
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शालिनी सिंह

”जीवन देवताओं के साथ बीत रहा है निश्चिंत
भेद करना कठिन है
कि जीवन में देवता बचे हैं
या देवताओं के बीच जीवन बचा है”

यह एक स्त्री का दुख और उसकी विवशता है जो शालिनी सिंह की कविताओं में प्रकट हुआ है – लेकिन इतना ही नहीं, स्त्रियों के यहाँ प्रेम भी बनावटी और अधूरा है – उनके प्रेम को कोई जगह इस जन्म में तो  न मिली,  इसलिए वे अगले जन्म का इंतजार कर रही हैं। स्त्री का यह एक बड़ा पक्ष है जिसे दुनिया को समझने में समय लगेगा।

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आपकी राय का इंतजार तो रहेगा ही।

  • संपादक

 

 देवताओं के बीच जीवन

मेरी पिछली कई क़ौमे
बग़ैर धूप हवा के ही
विदा हो गईं इस संसार से

धूप ने लिखी थी जो चिट्ठी मेरे नाम
डाकिया जो भटक गया था रास्ता
अब पहुँचा है मेरे पास

हवा जो सदा ख़िलाफ़ थी मेरे
आँधी जो बहन थी हवा की
धूप से थी अनबन जिसकी

हवा का उठा ऐसा बवंडर
उड़ गई धूप की चिट्ठी
साथ चले गए चेतना के
उजले सभी रंग

मैंने देवताओं को आवाज़ दी
उनके लिए आसन बिछाया
बिठाया अपने बहुत पास
देह झोंक दी उनकी सेवा में

दीपक जलाया उनके आगे
घर के दरवाज़े ख़ुद ही कर लिए बंद
खिड़कियों के पल्ले दिए भेड़
ख़ुद को कर लिया मुक्त
धूप हवा पानी की चिंताओं से

अपनी क़ौम के हर संघर्ष को
विस्मृत कर दिया

अब मन में नहीं आते विचार
जिनमें बेटियों के लिए
उजली कोई राह निकलती हो

जीवन देवताओं के साथ बीत रहा है निश्चिंत
भेद करना कठिन है
कि जीवन में देवता बचे हैं
या देवताओं के बीच जीवन बचा है

 

बसंत से दिन हवा हुए

वे हवाओं के फ़रियाने के दिन थे
जीवन में बसंत के आने की लालिमा के शुरुआती दिन
जब वह दुख को खीसे में बाँध
हँसी को हवाओं में घोल लिया करती थी
डगर डगर चंचल हिरणी सी कुलाचे मारती फिरती थी शहर भर में
एक दिन गश्त करते घुड़सवारों की नज़र
उस पर पड़ी
उन्होंने आँखें तरेरीं
बेड़ियाँ मंगवाई
पाबंदियाँ लगाईं
मर्यादा और आचरण का पाठ पढ़ाया
तलाशा उसकी हँसी पर लगाम लगाने वाला उसकी देह का स्वामी
उसकी असहमति को तब्दील किया सहमति में
असभ्य और कलंकिनी
कह कर स्त्रियोचित्त ठहराते हुए
अब बसंत का अल्हड़पन विदा की मुद्रा में था

खुशियों के मौसम उसे अब उदास करते थे
फागुन अब उसे गुदगुदाता नही था
उसकी नीरवता के नीचे घुट गई थी उसकी बेलौस हँसी
अब वो अक्सर चुप रहने लगी थी
अब वो सबको अच्छी लगने लगी थी

देवी

वे लक्ष्मी का रूप धरकर पैदा होती है
वे देवी के रूप में पूजी जाती हैं
वे इतनी महान बना दी जाती हैं
कि इंसान बनना भूल जाती हैं

 

ग्रहण

न कोई दुख
न कोई सुख
न कोई दावा
न कोई वादा
दिलासा के दो शब्द तक नहीं
हाँ इतनी ही ख़ाली हूँ भीतर से
आप आश्चर्य करेंगे
आप बोलेंगे
कि मैं बात का बतंगड बना रही हूँ
हाँ आप कह सकते हैं
आप ही कह सकते हैं
आप उस अभ्यास से संचालित हैं
जो आसमान में उड़ते जहाज़ में बैठकर
ज़मीन की तरफ़ देखने का अभ्यस्त है
जिसे ऊपर से देखते हुए
धरती हरी भरी ही दिखाई देती है
आप ज़रा ठहरिए
नीचे उतरिए
ज़रा सा झुकिए
बराबर में आइए
फिर देखिए कि
आप कैसे सदियों से
मेरे और प्रकाश के मध्य
ग्रहण बनकर खड़े हुए हैं

 

प्रेम में राजनीति

इतना तो मिला ही है
कि भूला जा सके अप्रिय बातों को
झाड़ कर धूल पग पग बढ़ा जा सके
रमणीय इस संसार में
अतीत से यही सूत्र वाक्य
लेकर जुटाती हूँ आगत के लिए ईंधन
लड़ने के लिए साहस
प्रेम करने के लिए मन
वह प्रेम जो मेरा मन चाहता
वह दृष्टि जो देह भाषा समझती
वे शब्द जिसमें गरिमा और ऊँचाई छूती
वह स्पर्श जिससे मन खिल उठता
ये कल्पना में सहेजे सपने थे
यह जो जीवन है
वह यथार्थ है
प्रेम और मन का खिलना
फिर किन्ही अगले जन्मों में ही संभव होगा

 

***

कवि परिचय-

शालिनी सिंह
जन्मस्थान -लखनऊ (उत्तर प्रदेश )
शिक्षा -एम ए (हिन्दी ) ,एम फ़िल,पी एच डी
प्रकाशन – नया पथ ,कृति बहुमत , अनुनाद , हिंदवी की नई सृष्टि नई स्त्री 2024 इक्कीसवीं सदी की स्त्री कविता में चयनित..
जनरव सहित कुछ साझा संकलन प्रकाशित

Tags: Shalini Singhअनहद कोलकाता Anhad Kolkata हिन्दी बेव पत्रिका Hindi Web Magzineशालिनी सिंहशालिनी सिंह की कविताएँसमकालीन हिन्दी कविताएँहिन्दी कविता Hindi Poetry
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