
जयमाला की कविताएं स्तरीय पत्र – पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होती रहीं हैं। प्रस्तुत कविताओं में स्त्री मन के अन्तर्द्वन्द्व के साथ – साथ गहरी पीड़ा की अभिव्यक्ति हुई है। पर यह भी कहना ज़रूरी है कि कवि के अनुभव का आकाश विस्तृत है। उनकी पैनी नजर से साम्प्रतिक स्थितियां भी अछूती नहीं है। उनकी दृष्टि से समय ओझल नहीं है। बिना लाउड हुए वह सब कुछ बखूबी कह देखतीं हैं, जिन्हें कहना ज़रूरी है। ये कविताएं तो बानगी मात्र हैं। इससे उनकी काव्य प्रकृति का सहजता से अनुमान लगाया जा सकता है। अनहद कोलकाता उन्हें शुभकामनाएं देते हुए पाठकों के समक्ष उनकी रचनाओं को प्रस्तुत कर रहा है।
स्त्री रचनाशीलता पर एक माह से चल रहे इस आयोजन में इन कविताओं का क्या स्थान है, इसके संबंध में पाठकों की प्रतिक्रिया महत्व रखती है। प्रतीक्षा रहेगी।
पुनश्चः यह उक्त श्रृंखला की आखिरी कड़ी है। इसके बाद का समय अगली किसी विशेष घोषणा तक सामान्य अंक होगा। जिनकी रचनाएँ इस श्रृंखला में शामिल न हो पाई हैं सम्पादक मंडल की स्वीकृति के बाद उन्हें सामान्य अंकों में प्रकाशित किया जाएगा।
- संपादक मण्डल
स्त्री
सुबह-सवेरे एक स्त्री
अंगड़ाई लेने से पहले
करती है विभक्त स्वयं को
कई-कई टुकड़ों में
और बिखेर देती है
घर के अलग-अलग कोनों में
वक्त संग कदमताल करने
अपनी भूख को लपेटकर
रख लेती है बंद डिब्बे में
फिर घर के कोनों में बिखरे
अपने टुकड़ों को समेट
निकल पड़ती है
हताश भागती सड़कों पर
कुपित-कुत्सित शालीन-अशालीन
तमाम दृष्टियों को पी जाती है
चाय की चुस्कियों के साथ
बचा लेती है अपने लिए
बित्ते भर की जगह
चमकीली दुनियाँ के
भयानक जंगल में
साँझ ढलने तक
भर लेती है
अपने फेफड़ों में
अपना उन्मुक्त आकाश
अपना थोड़ा सा आकाश…।
दौड़
उसने अपना हाथ बढ़ाया
और कहा , चलो साथ चलते हैं !
चल पड़ी मैं नंगे पाँव
हम चलते रहे …
मेड़ों पर … पगडंडियों पर…
घने जंगलों में …
कच्ची सड़कों पर…
बिना रूके … बिना थके…
कोलतार की सड़क पर
कदम ररखते ही
हो गए उसके कदम
तेज … बहुत तेज …
मैंने कहा रूको !
जल रहे हैं मेरे पाँव !
उसने कहा , कैसे रूक जाऊँ मैं ?
यही तो वह सड़क है ,
जिस पर दौड़ना चाहता था
मैं सदियों से …
दौड़ पड़ा वह,
छूट गए हमारे हाथ
मेरे थके पाँव
नहीं कर सके कदमताल
दौड़ते पाँवों से
और… और…
ठहर गई मैं ,
एक झील के किनारे
जहाँ पानी है …पेड़़ हैं….
पंक्षी हैं …. और …
और है … पूरा नीला आसमान !
जानती हूँ मैं ,
थके पाँवों को
लौटकर यहीं तो आना
होता है एक दिन … …. !
शीतलहर
ठूँठ की फुनगी पर
बैठी खामोश चिड़िया
भूल गई है अपने गीत…
एक स्त्री माँज रही है बरतन
रगड़-रगड़ कर बर्फीले पानी में
तसल्ली है उसे कि बर्फीला पानी
ही जलाएगा उसके घर का चूल्हा
तसल्ली है उसे कि
सेंक लेगी वह अपने सुन्न हाथ
ढलती शाम की उतरती धूप में …
बोनफायर के इर्द-गिर्द
खनकते हैं जाम
थिरकते हैं बेपरवाह कदम
सम-विषम के लय पर
बहती है शीतलहर की बयार !
उसकी मुस्कुराहटें
एक हाथ से सिर का पल्लू थामे
पानी का ग्लास बढ़ाते हुए
मुस्कुराती है एक स्त्री
उसकी मुस्कुराट में
पाँच कुवाँरी बहनों
की मुस्कुराहटों का बोझ
शामिल हो जाता है !
उसकी मुस्कुराहट में
प्रसाद में मिले मंहगे
आम की एक ही गुठली को
बारी-बारी से चूसते हुए
बच्चों के होठों का रस
शामिल हो जाता है !
उसकी मुस्कुराहट में
उन्नीस साल की स्कूल टॉपर
के चकनाचूर सपने
शामिल हो जाते हैं
जो एक बेरोजगार युवा
से ब्याही गई है !
उसकी मुस्कुराहट में
उसकी माथे की बिंदी
का बोझ शामिल
हो जाता है !
उसकी मुस्कुराहट में
शीलन भरी दीवारें
और टपकती छत की
बूँदें शामिल हो जातीं हैं !
उसकी मुस्कुराहटों की कई
परतें तैरने लगतीं हैं
उसके द्वार पर बने
बरसाती पानी के चहबच्चे में
चहबच्चे का मटमैला पानी
बता रहा है कि पृथ्वी ने
घूमना बंद कर दिया है !
न जाने उस स्त्री के गालों पर
कितनी हड्डियाँ हैं जो
सारी पृथ्वी को थामे
मुस्कुराती रहती हैं।
छल
बूँदों ने
हवा से
बचने के लिए
भीतर आना चाहा
पर काँच की दीवारों
से टकराकर टूट गईं
उन्हें मालूम ही नहीं था,
कि अदृश्य दीवारें
ज्यादा दर्द देती हैैं ।
चकरघिन्नी
हर रात वह
सोना चाहती है जल्दी
ताकि उठ सके
सुबह-सुबह
ताकि भेज सके स्कूल
समय पर बच्चों को
अब तो बच्चे भी
बड़े हो गए
अब भी जारी है
सुबह सुबह उठना
ताकि भेज सके स्कूल
अपने बच्चों के बच्चों को स्कूल…।
नशा
हमने पी लिया है
समय के अनर्गल
प्रलापों को …
हम नशे में हैं
आकंठ डूबे हुए
इस कदर कि …
हमारी आँखें
निकाल ली गईं
और हमें पता
ही नहीं चला
हम नशे में हैं
इस कदर कि
हमारे कानों को
बहरा कर दिया
गया और हमें
पता ही नहीं चला
रोप दिए गए पेड़
हमारे भीतर
अपने पसंदीदा फलों के
और हमें
पता ही नहीं चला
हाँ ! बख्श दिया गया
हमारे दोनों हाथों को
अथक श्रम के लिए
हाँ ! बख्श दिया गया
हमारे दोनों पाँवों को
मदारी की डमरू पर
नाचने के लिए…
वैसे भी नशे में
रहने वाले नहीं टटोटलते
कभी अपनी आँखें और कान
कि देख- सुन सकें जोशीले नारों
के पीछे की चालाक हँसी
वैसे भी नशे में रहने वाले
नहीं खोलते अपनी आँखें
कि देख सकें अपने पैरों के
नीचे की ढहती जमीन को
हमारा नशे में होना
हमारी नियति नहीं
हमारी आँखों की पट्टी भर है
जो झंडे उठाये भाग रहे हैं
चालाक बाँसुरी धुन के पीछे… ।
लौटना
यह साँझ का समय है
यह लौट आने का समय है
सूरज की तेज आँच पर
पकती पकाती पत्तियों ने
बंद कर दिया है थिरकना
यह लौट आई चिड़ियों
के विश्राम का समय है
पश्चिम के आकाश ने
ओढ़ ली है खामोशी चादर
यह प्रार्थनाओं का समय है
यह सूरज के विश्राम का समय है
इससे पहले कि द्वार पर रेंगने लगे
वासनाओं के जहरीले बिच्छू
यह द्वार बंद करने का समय है
यह साँझ का समय है
शैतानी शक्तियों की आँखों में
ठहर जाए गहरी नींद
ऐसी ही दुआओं का समय है
यह बारूदों की ज्वाला से झुलसी
थकी हुई धरा के विश्राम का समय है
यह धरती आकाश सूरज
और पेड़ के मौन का समय है
यह लौट आने का समय है
यह साँझ का समय है
हे महामानव !
अंधी दौड़ की प्रतिस्पर्धा में दौड़ते हुए
थक गए होंगे तुम्हारे पाँव
अब लौट आओ तुम भी !
यह चौपाल पर बैठ बतियाने का समय है
यह साँझ का समय है… यह साँझ का समय है !!!!!
दोस्ती
पेड़ कभी नहीं करता है विलाप
अपनी शाखाओं के काटे जाने पर
बस सिसकता रहता है भीतर ही भीतर
प्रतिरोध में, पूरे जोश के साथ उठ खड़ा होता है
अपनी बाँहें फैलाये , पुन: एक बार …
कभी नहीं टूँगती है कोई चिड़िया
काटी गई शाखाओं के नीचे से
फूटती कोमल कोपलों को…
वे करतीं हैं इंतजार
पूरे धैर्य के साथ वृक्ष बनने का
उसकी छाया में सुस्ताने का
उसमें आए फलों के पकने का
पेड़ को पसंद है अपनी सखा के गीत
चलता रहता है यह साझापन
बना रहता है धरा का संतुलन
कहते हैं, जब दुनियाँ में बनी थी पहली कुल्हाड़ी
तभी से उनकी दोस्ती में पड़ गई थी मजबूत गाँठ… !
केवल इतना भर
देखना चाहा था मैंने
समय के चेहरे पर
हँसी के फूल
और नागफनी के काँटो से
आँखें लहूलुहान हो गई
चिड़िया, पेड़ और नदी
स्मृतियों का हिस्सा बन
पाठ्य पुस्तकों में
सिमटने लगे हैं अब
उनसे क्या उम्मीद रखूँ ,
जो चिथड़ों में लिपटे
देवदूतों को अनदेखा कर
मरुभूमि से भी तेल
निकालने की कला जानते हैं
चाहती तो अपनी आँखों पर
पताकाओं की पट्टी बाँध
अज़ानों घंटियों की लोरी सुन
मीठी नींद सो जाती मैं भी
पर क्या करूँ, माँ जो हूँ
बंजर के जलते ताप और
सृजन की प्रचंड वेदना
दोनों को ही देखा है करीब से
मैंने बस इतना भर किया
तसला भर पानी रख आई मुंडेर पर
रोप दिया एक आम का पेड़
किसी लावारिस जमीन पर
बाँट आयी इतिहास, भूगोल
और विञान की किताबें
झुग्गियों के बच्चों में
और कर लिया स्वीकार
पड़ोसी की दी हुई मीठी सिवईंयाँ ।
समय के चेहरे पर
हँसी के फूल खिले-न-खिले
मैंने सहेज कर रख लिया
अपने जिंदा होने के अहसास को …केवल इतना भर से…।
दीमक
हिन्दू – मुस्लिम
नॉर्थ इंडियन – साउथ इंडियन
बंगाली – बिहारी
दलित – सामंती
आदिवासी – गैर आदिवासी
मैतेई – कुकी
शब्द युग्म नहीं हैं ये
इन दो शब्दों के बीच
मुस्कुरा कर गुड़-घी
का लेन-देन करते रहे
भाषा,संस्कृति और
भोजन जैसे शब्द
सत्ता के गलियारों के दीमक
चाट गए बीच के शब्दों को
खड़े कर दिए गए हैं
अब ये दोनों शब्द
विलोम की सूची में…
नए शब्दकोश में … !!!
***
परिचय — जय माला
निवास — रांची झारखंड
शिक्षा — मनोविज्ञान एवं शिक्षा से स्नातक ।
परिकथा, वागर्थ, कथादेश, कृति बहुमत, हिन्दुस्तान , प्रभात खबर, दैनिक भास्कर , कादम्बिनी आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ ,कहानियाँ ,लघुकथाएँ , आलेख व रिपोर्ट प्रकाशित ।
कुछ वर्षों तक पत्रकारिता के बाद पूर्णकालिक लेखन ।
अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता में लघुकथाएँ पुरस्कृत ।
संपर्क – जय माला , अंशमात्र, विकास नगर रोड नं . 2 , हेसाग,
पोस्ट – हटिया , जिला – राँची , 834003
मोबाइल नं. 9472780555 ,
email address – jayaansh.ranchi@gmail.com