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शालू शुक्ला की कविताएँ

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस से शुरू हुई एक विशेष श्रृंखला के तहत प्रस्तुत

by Anhadkolkata
April 8, 2025
in Uncategorized, कविता
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शालू शुक्ला

कई बार कविताएँ जब स्वतःस्फूर्त होती हैं तो वे संवेदना में गहरे डूब जाती हैं – हिन्दी कविता या पूरी दुनिया की कविता जहाँ पहुँच चुकी है वहाँ संवेदना अब कविता का एक अंग मात्र हो गई है। इधर की कविताओं में यथार्थ और शिल्प का दबाव अधिक बढ़ा है – इस तरह यह कला विकसित होती रही है। लेकिन कई बार हमारे सामने ऐसी भी कविताएँ गुजरती हैं जहाँ कविता के प्रतिमानों का दबाव नहीं होता। वे विशुद्ध कविता होती हैं एक कवि के हृदय से निकली हुईं। लेकिन होती तो वह भी कविता ही है। शालू शुक्ल की कविताएँ जिन संवेदनाओं की खोज करती हैं क्या उसे हम आजकल भूलते नहीं जा रहे। बातें और भी कही जा सकती हैं लेकिन यहाँ हम विशेष कुछ न कहते हुए एक अलहदा कवि शालू शुक्ला की कविताएँ पढ़ते हैं।
आपकी राय की प्रतीक्षा तो रहेगी ही।

 

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प्रज्ञा गुप्ता की कविताएँ

बैरंग चिट्ठियां
—————-
पीड़ाओं में डूबी हर दोपहरी
ईश्वर का डाकिया
डाल जाता है कुछ बैरंग चिट्ठियां

होते हैं उनमें स्वर्ग नर्क के ब्योरे
ज़ख्मों से भरी शामें
भीगती हैं वे नमक में
विरह भरी रातों में
तकिये में सिमट आता समंदर

हर सुबह झाड़ू से बुहारती हूं
पिछले दिनों के दुःख
घाव पर सरपट दौड़ते हैं सूर्य के घोड़े
रोज लौट आता है दुःख
रोज लौट आती है रात
रोज लौट आती है सुबह
रोज ही लौट आता है सूर्य

फिर कभी नहीं लौटे तुम जानती हूँ
एक बार जाने के बाद

लेकिन प्रेम यदि मनुष्म्यता की भाषा है

तो इस एक ही जन्म में उस भाषा से वंचित मैं
रह जाऊंगी मनुष्यता से एक कदम पीछे

हमेशा के लिए।

मृत्यु
———-

मृत्यु जब भी आई वर्तमान में आई
भूत, भविष्य को खुद से वंचित ही रखा

कितना तो नकारा गया उसे
धिक्कारा गया
फिर भी मृत्यु कहां मानी
उसको आना था     आकर ही रही

मृत्यु जब भी आई
किसी बहाने के साथ आई
बुजदिल और डरपोक वह
कभी अकेले नहीं आई

और हम डरते रहे उम्र भर मृत्यु से
यह जानते और मानते हुए  कि मृत्यु से बड़ा  विश्वासघात होता है

विश्वासघात झेल चुका मन
धधकता रहता है
बम से उड़ाए गये शहर की तरह
उम्मीदें सुलगती- झरती रहतीं हैं
एक गन्ध – सी फैली रहती है
शरीर के इर्द-गिर्द

विश्वासघात से पराजित हुआ मन
ढह जाता है
नदी की बाढ़ में किनारे के मकान की तरह
अवशेष की तरह शेष रह जाती है देह

मन का आघात तय करता है
सबसे बड़ी मृत्यु
बेधकर बदल देता
अथाह निस्पंदता में

और हम हैं कि
समूची देह ठंडी होने की करते हैं प्रतीक्षा
मृत्यु की घोषणा करने के लिए।

बारिश

मौसमों का सम्बन्ध मन से होता है,
यह बात तुमसे बिछड़ने के बाद जाना
यह भी कि बाहर की बारिश से
ज्यादा असर छोड़ती है भीतर की बारिश

एक तुम्हारे होने से ही मन के आकाश में उग आते थे
सप्तरंगी इन्द्रधनुष
बूंदों से ज्यादा बजती थी पैरों की पायल
लयबद्ध होते थे सुर

एक तुम्हारे न होने से हर बूँद पर सुलगता है मन
उठती है हूक
छाए रहते हैं दुखों के बादल
बरस रहे होते पुराने दिन    उफनाई हुई होती यादों की नदी

दो अलग-अलग जगहों पर बैठे हम-दोनों
बिना दूरसंचार और पत्र व्यवहार के
सुन रहे है एक-दूसरे की बातें

बूंदों की लय में सुन रहे हैं धड़कनें
संगीत की लय शायद प्रेमियों से ज्यादा कोई और न समझता होगा
तुम इस समय गांव के सबसे ऊंचे टीले पर बैठकर
सुन रहे होगे
धान रोपती उन स्त्रियों के गीत जिनके प्रियतम परदेश में हैं
उनकी  कातर पुकार में शामिल होगी तुम्हारी मौन पुकार
जिसे मैं सुन सकती हूं दुनिया के किसी भी शहर से

मै वहां नहीं हूं यह जानते हुए भी टीले की दूसरी तरफ
बार बार जाती होगी तुम्हारी व्याकुल नज़र
निराश होकर लौट आती होगी
तुम्हे कुछ भी अच्छा नहीं लगता होगा
डाल के झूले, पक्षियों का झुंड, गायों की झुंड लिए
घर को लौटते चरवाहे
बेमानी लगते होंगे सब काका की चौपाल, उफनाई हुई नदियां
सब के सब

ये बारिश  शायद तुम्हें  अच्छी न लगे
लेकिन तुम भीगना जरुर
तुम्हें पता है  ये बूंदें मेरी आंखों के बिन बरसे बादल हैं।

 

जब हम चारों साथ थे
————————-

क्षितिज की हद तक पसरा आकाश
रोशनी से नहाया गीला चाँद
प्रेम की चौखट पर जलते हुए तुम
विरह की दहलीज़ पर बुझती  मैं

हम दोनों ही जानते थे चौखट की सीमाएँ
सीमाओं की आँच ने हमारी आधी उम्र निगल ली

फिर खुदा जाने तुम्हें क्या सूझा
तुमने अचानक पूछा था मुझसे-
” मैं तुम्हारे लिए क्या हूं?”

तुम्हारे सवाल पर झुक आया था आकाश
खो गया था चांद
स्तब्ध – सी मैं सोचती रही-
क्या कभी धुएं ने पूछा होगा आग से
खुशबू ने कभी पूछा होगा फूल से कि
” मैं तुम्हारे लिए क्या हूं ? ”

नासमझी में मैंने तुम्हारा सवाल
हवा में उछाल दिया था
अलसाए आकाश ने सवाल को
अपनी छाती में सहेज लिया

काल दर काल पलट गये
अब तुम साथ नहीं हो तो
चांद तुम्हारा प्रतिनिधि बनकर
उसी सवाल के साथ
मेरी चौखट पर बैठा है

मैं उसे कैसे समझाऊं
कि तुम मेरे जीवन का वह अभाव हो
जो मुझे ले जाता है मनुष्यता के थोड़ा और करीब
तुम प्रेम हो और  वह चरम सौन्दर्य

जो होता है सिर्फ मनुष्यों में।

 

***

शालू शुक्ल

शिक्षा : मिर्जापुर महाविद्यालय से हिन्दी में एम.ए.।
रचना-कर्म : कविता संकलन ‘ तुम फिर आना बसंत ‘ अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित। हिन्दी के शीर्ष पत्र-पत्रिकाओं तथा वेब पत्रिकाओं ; यथा-जनसन्देश टाइम्स, देशज, देशज समकालीन,इण्डिया इनसाइड, विपाशा, जानकी पुल सूत्र,नया पथ आदि में कविताएँ, संस्कृति विषयक लेख तथा टिप्पणियां प्रकाशित। अनेक सम्पादित काव्य संकलनों में कविताएँ शामिल, जिनमें हाल ही विशाल श्रीवास्तव के सम्पादन में प्रकाशित काव्य संकलन ‘जनरव ‘ उल्लेखनीय है।
सम्मान : ‘ तुम फिर आना बसंत ‘ कविता संग्रह के लिए प्रतिष्ठित शीला सिद्धांतकर स्मृति कविता सम्मान 2024

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