
प्रज्ञा गुप्ता की कविताओं में झारखंड की मिट्टी की सोंधी खुशबू है। गांव – देहात के श्रम – श्लथ स्त्रियों की पीड़ा को अनूठे बिम्बों के साथ जोड़तीं हुई उनकी कविताएं गहन विमर्श की मांग करतीं हैं। इनमें वे विमर्श नहीं हैं जो आजकल प्रायोजित रूप से चर्चित हैं। ये कविताएं अपने आप में गंभीर टिप्पणी हैं। इनमें करुणा की धारा आप्लावित है। कविता जब जीवन सत्य से ओत-प्रोत होती है तो शब्दों की बाजीगरी गायब हो जाती है। दुःख की भाषा में व्याकरण और अलंकार की खोज करने वाले को ऐसी कविताएं चुनौती देतीं हैं। यह बात इन कविताओं से गुजरते हुए कोई सहृदय पाठक समझ सकता है।
यह टिप्पणी प्रशंसामूलक नहीं है, पाठकों को आमंत्रित करने का विनम्र आग्रह मात्र है। अनहद कोलकाता ऐसी कविताओं का स्वागत करता है।
- संपादक
सुनो दीदिया!
भात की तरह
सीझा रही हूँ
सपने
सही समय पर
पसा सकूँ माड़
चूल्हे के पास ही
बैठी खोट रही हूँ
उम्मीदों के साग
अगले दिन भी
जागता रहे घर का चूल्हा
बैठी- बैठी चुन रही
कंकड़ सा दु:ख
रोज ही चुनती हूँ
दिदिया, काले -काले चावल!
टेबल क्लॉथ- सा
फट रहे हैं रिश्ते
काढ़ रही हूँ
उस पर सुंदर फूल
दीदिया, तुम्हारी ही तरह
बने रहें रिश्ते ।
टूटे बटन को शर्ट पर
पुनः पुनः जोड़ती हूँ
बचा रहे नाता
थक गई हूँ दिदिया
अंगुलियों में पड़ गए हैं फफोले!
कामनाओं की सील पर
पीस रहा है यह जीवन
डरती भी रहती हूँ
कहीं भोथर ना हो
सिलबट्टे की धार!
गूँथ रही हूँ विचार
आटे की तरह
कभी तो पकेगी रोटी
एक-एक कर खिलाती रहूँगी
शरीर की तरह,
हृदय भी तो पुष्ट हो।
कहीं एकांत में बैठ
सुकून से पीना चाहती हूँ
एक कप चाय,
कैसे पाऊं एकांत ?
मन मेरा खोलता
अदहन;
भात की तरह
खदबदाते ही रहते हैं
जिसमें ,मेरे सपने!
मेरे जीवन के चेहरे पर
केश -सा हहरा रहा है
जाना पहचाना -सा कोई भय;
दीदिया आओ ना
करीने से गूँथ दो एक चोटी।
मेरी बेटी इन दिनों मेरी दोस्त है
ट्रक के पीछे
मेरी बेटी ने लिखा देखा
“लड़की हँसी तो फँसी”
घर आकर उसने कहा
मम्मी बहुत गलत हुआ
ट्रक ड्राइवर ट्रक दौड़ा रहा
इस शहर से उस शहर तक
और ट्रक के पीछे यह लिखकर
कि लड़की हँसी तो फँसी
और कोई कुछ नहीं कह रहा
बेटी की मासूमियत पर
मैं हँसू या रोऊँ
समझ नहीं आया
कि याद आया
मेरे पिता और बड़ी बहन
किसी यात्रा पर गए थे
किसी हँसी के प्रसंग पर
एक अपरिचित को देख
अनायास हँस पड़ी थी बड़की दीदी
और अगले ही दिन से
दीदी के लिए
देखा जाने लगा था वर
उसी बरस ब्याह दी गई दीदी
अपने से दुगुनी उम्र से
कभी-कभी किसी हँसियल बात पर
मैं ठठाकर हँस पड़ती हूँ
मेरे पति अक्सर कहते हैं
बड़ा अजीब हँसती हो
मैं हँसते-हँसते अचानक चुप हो जाती हूँ
मुझे मेरी बड़की दीदी याद आ जाती है
लेकिन इन दिनों धीरे-धीरे
मैं सीख रही हूँ ठठाकर कर हँसना
कि मेरी बेटी इन दिनों मेरी दोस्त है।
विस्थापन
सुपली और मौनी से
मड़वे में खेलाया गया
उसे लावा-धान
उसी दिन से
खो दिया उसने
अपनी जमीन
अपना आसमान
अब तो बस
दूसरे के अंगना में
गायेगी ‘झूमटा’ –
“केकर लगिन आयो गे
झालइर मड़वा।
केकर लगिन आयो गे
रोदना लगाय”।।
सूत
वह सूत ही रही जिससे
माँ ने कांथा लेंदरा
चिथड़ों को करीने से
इकट्ठा कर,
उसी सूत से बुनी गई
प्रेम की झीनी- झीनी चदरिया
वो सूत ही रही जिससे
दिदिया ने काढ़े
रुमाल में सुंदर फूल,
उसी सूत को कातकर
बनाये गए सुंदर वस्त्र,
ढँकी रही हमारी लज्जा
उसी सूत में गूँथकर
बनायी हमने फूलों की माला
गूँथा उसी से जयमाल
उसी सूत की बनी जोरी से
बंधी रही गाय खूंटे से
उसी सूत से टाँके हमने
टूटे हुए बटन
वह सूत ही थी
जिसने बांधे रखी
भाईचारे की डोर
वही एक सूत रही
जिसे चरखा पर कातते हुए
एक मानुष ने
बदल डाली दुनिया
उसी सूत से
रस्सी बनी
खींचा हमने कुएँ का मीठा जल
कहीं कपास
कहीं सेमल, कहीं सनई
वो सूत ही थी जो काती गई
कहीं बने वस्त्र,
कहीं चादर
कहीं फांसी की डोरी
वो वही सूत थी
जिससे नापा गया
स्त्री का सतीत्व
ये वही सूत थी
जो सीलती रही
औरतों की जुबां
वही सूत रही होगी
जिससे नहीं मापा होगा कौरवों ने
दो सूत जमीन।
बचा हुआ है वह मुझ में
जो छूट गया मुझसे
बचा हुआ है वह मुझमें
अब भी
किसी अतृप्त इच्छा की तरह
कितना भी भूलूं
कुछ खास दिन और तारीखों के साथ
वह बार-बार लौटता है मुझमें
कुछ उस तरह
जैसे मेरे शरीर से जन्मा शिशु
पंद्रह दिन ही रहा इस धरती पर
जिस दिन वह विदा हुआ
हर बरस, उसी दिन, उसी तारीख
उसी समय, जब वह गया होगा
उसकी बची हुई धड़कनें
जो इस धरती पर धड़कने से रह गईं
बार-बार लौटती हैं मुझमें।
आकांक्षा
प्रेम में फूल नहीं
पत्थर होना है
जीवन के प्रवाह में
दुख के थपेड़ों में
भले ही घिसती जाऊँ
बची रहूँ कहीं
किसी नदी के जल में
बहती धार बीच
गुल्लू पत्थर -सा
प्यार से किसी की एड़ियाँ भी
सँवार दूँ ,लेकिन
उछलकर किसी का सर भी
तोड़ सकूँ
इतनी हिम्मत बनी रहे मुझ में।
हॉकी-खेल
धरती भी देती है
हौले- हौले
उसकी गेंद को गति,
लुहूर- लुहूर हिलता है
उसकी चोटी का लाल फीता
‘सेंग- सेंग’ कहती है
दौड़ती हुई गेंद
हॉकी खेलती लड़की
जब दौड़ती है
गेंद को ठुकड़ाते हुए
हवा भी उससे कहती है
‘सलाय- सलाय’ !
हॉकी- स्टिक भी कहता है
दौड़ो संगी ऽ ऽ दौड़ो
आकाश भी झुक जाता है
पहाड़ के कंधे पर
ठिठक कर देखती है
सालो मैना ठुकडू (हॉकी) का खेल;
महुआ की गाछ पर बैठी चिरई
जोर-जोर से गाती है
आजादी का गाना।
जिजीविषा
मन करता है
सहजन का पेड़ हो जाऊँ
कोई धड़ से भी काट दे
तो फिर से उग आयें
कोंपलें;
गहज उठें शाखाएँ-
हरी-भरी हों डालियाँ
फूलों से भर जायें;
फिर हों हरियर फलियाँ
कोई काट भी डाले
तो बची रहे फिर
छाँह-भर हरियाली!
दु:ख
तुम्हारे जीवन में
मैं भोर सी खिली
सांझ सी ढल गई
तुम्हारी दिनचर्या में ;
दु:ख इस बात का नहीं,
कि मैं सांझ सी ढल गई ;
और तुम दिन सा चढ़ते रहे ।
दुख इस बात का
कि अपने सुख की दुपहरिया में
तुम मुझे भूल गए।
सलीका
वे ताउम्र
खाना पकाती रहीं
लेकिन नमक डालने का
सलीका
उन्हें उम्र भर
नहीं आया
उन्होंने
खाने की थाली फेंक कर
उन्हें नमक डालने का
सलीका
सिखाया।
धरती पर सुबह का स्वागत
स्त्री नींद में भी चलती रही
ढेंकी कुटने के लिए
भीनसरिया में
बांग देने के लिए
मुर्गे को स्त्री ने ही जगाया
स्त्री ने आँगन बुहारा
और सारे तारे सिमट गये
आसमान में
स्त्री के सम्मान में सूर्य ने अपनी किरणें भेजीं
नदी के तट पर
नदी के जल में
जब स्त्री ने घड़ा डुबोया
चाँद छुप गया आसमान में
जल भरकर लौटती स्त्री का
अपने कलरव से स्वागत किया
चिड़ियों ने
और स्त्री ने अनाज के दाने बिखेरे
गोरैयों के लिए
गोरैयां कुछ दाने चुग गईं
कुछ दाने वह बो आयीं
धरती पर
और इस तरह स्त्री, मुर्गे, तारे,
सूर्य, नदी, चाँद, चिडिय़ों,गोरैयों ने
मिलकर
धरती पर सुबह का स्वागत किया।
• प्रज्ञा गुप्ता का जन्म सिमडेगा जिले के सुदूर गाँव ‘केरसई’ में 4 फरवरी 1984 को हुआ। प्रज्ञा गुप्ता की आरंभिक शिक्षा – दीक्षा गाँव से ही हुई। उच्च शिक्षा राँची में पूरी की । 2005 ई. में राँची विश्वविद्यालय, राँची से हिंदी में स्नातकोत्तर की डिग्री। गोल्ड मेडलिस्ट। 2013 ई. में राँची विश्वविद्यालय से पीएच.डी की उपाधि प्राप्त की। वर्ष 2008 में राँची विमेंस कॉलेज के हिंदी विभाग में सहायक प्राध्यापक के पद पर नियुक्ति । राँची विश्वविद्यालय, राँची द्वारा 2024 ई.में “ समय ,समाज एवं संस्कृति के संदर्भ में झारखंड का हिंदी कथा- साहित्य” विषय पर डी.लिट् की उपाधि ।
• विभिन्न पत्रिकाओं- वागर्थ, परिकथा ,बयां, समसामयिक सृजन, गुंजन ,दोआबा, समकालीन जनमत में कविताएँ प्रकाशित एवं विभिन्न पुस्तकों एवं पत्र- पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित।
• प्रकाशित पुस्तक- “ नागार्जुन के काव्य में प्रेम और प्रकृति”
• संपादित पुस्तक- “साहित्य, समाज, योग और विज्ञान”, “झारखंड का हिंदी कथा-साहित्य”
• संप्रति- स्नातकोत्तर हिंदी विभाग ,राँची वीमेंस कॉलेज ,राँची में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत।
• पता- स्नातकोत्तर हिंदी विभाग ,राँची विमेंस कॉलेज ,राँची 834001, झारखंड।
• मोबाइल न.-8809405914,ईमेल-prajnagupta2019@gmail.com
संपर्कः प्रज्ञा गुप्ता, सहायक प्राध्यापिका. हिंदी विभाग, राँची वीमेंस कॉलेज,राँची झारखंड,834001