
पायल भारद्वाज युवतर एवं बेहद संभावनाशील कवि हैं। उनकी कविताओं में स्त्री के दर्द और बेवशी के साथ समय की विडंबना भी झलक रही है। सहज भाषा में लिखी ये कविताएँ आपको उद्वेलित तो करती ही हैं साथ ही संवेदना के धरातल पर आपको मूक भी करती हैं। पायल पहली बार अनहद कोलकाता पर प्रकाशित हो रही हैं। हम उनकी कविताओं का स्वागत करते हैं।
आपकी राय का इंतजार तो रहेगा ही।
असहजता
जिस वक़्त भी तय करती हूँ
सहजता से जीने का
प्रधानमंत्री निर्ममता से हँसने लगता है
देश की बदहाली पर
मुख्यमंत्री ज़हर उगलता है
एक महिला मंत्री विद्यार्थियों को कोसती नज़र आ जाती है
दुनिया की दौड़ में पिछड़कर दम तोड़ देता है
एक थका माँदा लड़का
एक नशे का आदी भाँग की हरी पत्तियाँ रगड़ता है
और अपनी पत्नी को पीट देता है
शराब पीकर घर लौटा पति
ठीक उसी वक़्त जब मैं देखने की कोशिश करती हूँ
सूरज की लालिमा
बसंत की बयार
और किसी प्रेम कविता का लालित्य
एक स्त्री का बलात्कार कर दिया जाता है।
नाक
वे अब लड़कियों के प्रति थोड़े उदार बन गए थे
यह थोड़ी उदारता प्रचलन में थी,
आधुनिकता और अभिजात्यता की परिचायक भी
वे कभी सिर उठाकर कहते
कभी सिर झुकाकर
कभी आँखें दिखाकर
और कभी पनीली आँखें लिए
वे बार-बार कहते-
“देखो तुम्हें पढ़ा रहे हैं,
मनचाहा सब दिला रहे हैं,
पूरी छूट दे रहे हैं
ध्यान रखना,
नाक मत कटाना हमारी! ”
लड़कियाँ कृतज्ञता के भाव से भर जातीं
स्वयं को भाग्यशाली मानकर
फूली न समातीं
वे नाक की रक्षक बन जातीं
एकदम चुस्त और मुस्तैद
वे जहाँ जातीं नाक उनके आगे चलती
जो करतीं नाक की उन्नति और बेहतरी के लिए करतीं
न दाएँ देखतीं, न बाएँ
वे नाक की सीध में देखतीं
सोते, जागते, उठते, बैठते उन्हें केवल नाक दिखाई देती
चारों ओर दूर-दूर तक फैली
ऑक्टोपस सी लिजलिजी नाक
एक दिन लड़कियाँ
नाक के नीचे दबकर मर जातीं
बिना यह जाने कि किसी की नाक से कहीं अधिक मूल्यवान थे
उनके अपने स्वप्न
अमूल्य था जीवन
बिना ये जाने कि स्वतंत्रता नहीं केवल सुविधानुसार
ढील दी गयी थी उन्हें
बँधी वे खूँटे से ही थीं
वे रस्सी तोड़ सकती थीं
खूँटा उखाड़ सकती थीं
और यह अपराध बिल्कुल नहीं था।
बेटी का तेरहवाँ साल
यह तुम्हारी उम्र का वही साल है
जिसमें छूट जाता है
ज़्यादातर लड़कियों का बचपन
शुरू होती है जिसमें
असहजता में सहज रहने और दिखने की ट्रेनिंग
होता है दर्द के साथ गठबंधन
इसी साल में तो..
एक अजनबी, असह्य पीड़ा
आकर बैठ गयी थी
मेरे पेड़ू में
किराया वसूलने आए
किसी खड़ूस, निर्दयी मकान-मालिक की तरह
और माँ ने कहा था-
“तारीख़ याद रखना
यह हर महीने आएगी”
यह तुम्हारा वही साल है, मेरी बच्ची!
आजकल ज़रा सी गुड़गुड़ भी होती है तुम्हारे पेट में
तो मेरा दिल बैठ जाता है।
झुण्ड-ए-उदासी
दिखावों की उदासी
छलावों की उदासी
प्रपंचों, षड्यंत्रों की उदासी
मूर्खताओं में डूबी महानताओं की उदासी
बंद दिमाग़ों और घुटती आवाज़ों की उदासी
लोकतंत्र में गिरती “ओ” की मात्रा की उदासी
असफल व्यवस्थाओं, मरती संस्थाओं की उदासी
अन्याय और अराजकता की उदासी
कपटी राजा के ढोंग की उदासी
लाचारी की उदासी
उन्माद की बढ़ती महामारी की उदासी
नफ़रतों की
वहशतों की उदासी
बौराते दिन
गहराती रातों की उदासी
जागती आँखों
सोती आकांक्षाओं की उदासी
भीड़ में गुम हो जाने की उदासी
ख़ुद में ख़ुद के न होने की उदासी
सीमाओं की, मर्यादाओं की, असफलताओं की उदासी
पश्चातापों की उदासी
उदासियों का एक झुंड है मेरे पास
और लोग कहते हैं
मैं ख़ामख़ाह अवसाद में हूँ ।
ऐ लड़की
बरसों-बरस की यात्रा में क्या पाया लड़की?
स्वयं से चली
कितना पहुँची स्वयं तक
जान पाई
क्या चाहती है
क्यों चाहती है
कोई चाहना है भी या नहीं?
दिखा क्या कोई बोर्ड
लिखा हो जिस पर
“अतृप्ति की सीमा समाप्त”
और कितना समय लगेगा
ख़ुद को खोजने में
कब तक भटकेगी अपनी ही शिराओं में
ख़ुद से भी आज़ादी चाहिए होती है लड़की!
सुख से सुख उपजता है
दु:ख से दु:ख
कौन सा बीज बोया था
कि फूटता है सुख से भी दु:ख
अमरबेल की तरह फैल गए हैं जिसके जरासूत
औरों के दिए ज़ख़्मों का अंत है
आप लगाए ज़ख़्मों का अंत कहाँ लड़की
मन की मुट्ठी खोल,
झरने दे सब संताप
ग्लानि, पश्चाताप और प्रवंचनाओं की ढेरी से उठ
न धरती समाप्त हुई है
न आकाश
बाक़ी है अभी पाँव की दौड़
आहटें चीन्ह
द्वार पर ठिठका है आगत
विगत में न कुछ रहता है और न बहता है
प्राण की सहस्त्र धाराएँ हैं
बहने दे लड़की!
इन दिनों
इन दिनों मैं सुख में हूँ
सुख सागर में फूली हुई लाश की भाँति
तैर रही है मेरी देह
गुम्म हो गई हैं सारी इंद्रियाँ
सुनाई देता है केवल अपनी ही श्वासों का स्वर
दिखाई देता है केवल अपना ही नाभिकीय विस्तार
मैंने मुँह फेर लिया है उन ख़बरों से
कलप रहे हैं जिनमें बेघर-बेरोज़गार लोग
सरकारी आदेश पर उजाड़ दिए गए
जिनके मकान-दुकान
नहीं सुनाई देता मुझे भूखे पेटों का करुण क्रंदन
नहीं दिखाई देता घिसट-घिसट कर कट्टी-खाने जाते
मवेशी की आँखों में मृत्यु भय
नहीं दिखती ढाबे पर बर्तन माँजते
किशोर की मजबूरी
नहीं पहुँचती मुझ तक
जंगलों के कटने से व्यथित आदिवासियों की चिंता और पीड़ा
किसी ठंडी रात मूसलाधार बारिश में
सड़क के किनारे बसे
बंजारों पर टूटी आफ़त
नहीं विचलित करतीं मुझे आत्महत्याएँ
मैं सुख में हूँ
किसी सत्ताधारी की कोई धूर्तता, कोई अत्याचार
मुझमें खीज उत्पन्न नहीं करता
झींगुर की तरह सुख ने
मेरी आत्मा को चाट लिया है
मेरी देह में सुख के फोड़े निकल आए हैं
जो और सुख की कामना में
फूटते और फैलते जा रहे हैं
मैं जब-तब भड़भड़ाकर नींद से उठती हूँ
खुरच-खुरच कर देखती हूँ
कहीं यह स्वप्न तो नहीं
यह सुख कभी ख़त्म न हो
मन ही मन ऐसी प्रार्थना भी शुरू कर दी है मैंने
सुख मेरी भौहों के बीच कुंडली मार कर बैठा है
मैंने कविताएँ लिखना छोड़ दिया है
उधार के दु:ख से कितनी कविताएँ लिखी जा सकती हैं
और कब तक
इन दिनों मैं घटिया चुटकुले लिख रही हूँ।
***
कवि परिचय
नाम – पायल भारद्वाज
जन्मतिथि- 26 अगस्त 1987
शिक्षा – एम. कॉम. एम. ए. हिन्दी साहित्य
सम्प्रति – अध्ययन
कविताएँ प्रकाशित – वागार्थ पत्रिका, समकालीन जनमत पत्रिका एवं वेब पोर्टल, कृति बहुमत पत्रिका, सदानीरा वेब पोर्टल, हिन्दवी वेब पोर्टल, स्त्री दर्पण
निवास स्थान – खुर्जा, ज़िला – बुलंदशहर (उत्तर प्रदेश)
सम्पर्क- 7827118554
payalbhardwajsharma1987@gmail.com