
रुचि बहुगुणा उनियाल की कविताओं में जो बेचैनी और छटपटाहट है वह हर संवेदनशील मनुष्य के मन में है क्योंकि समय ही ऐसा हो चला है कि आप कई-कई बार निराश होते हैं – द्वन्द्व में होते हैं लेकिन आपको फिर भी चलना है मसलन जीना है और अपनी बातें भी कहनी हैं। यह सुखद है कि रुचि बहुगुणा उनियाल जैसे कुछ रचानाकार अपने समय को शिद्दत से दर्ज कर रहे हैं –
यह धरती का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा
कि उसने विश्वास पर घात लगते सबसे ज़्यादा बार देखा
और मौन रही, काँप नहीं उठ्ठी, अपनी धुरी पर घूमना बंद नहीं किया और बनी रही अपराधिनी!
अनहद कोलकाता कवि की कविताएँ प्रस्तुत करते हुए आग्रह भी करता है कि हमें अपनी राय से अवगत जरूर कराएँ। आपके साथ के बिना हमारे कदम सही दिशा में न जा पाएँगे। आभार सहित
- संपादक
उम्र गिरती है
उम्र गिरती है
जैसे गिरते हैं फल पकने के बाद
उम्र के गिरने पर
गिरता है स्मृति का मज़बूत स्तम्भ
कितनी ही बातें, कितने ही आँकड़े
जो पहले चुटकी बजाते ही
हो जाते थे उपस्थित कर बाँधे सामने
अब गिरती वय का उपहास उड़ाते निकल पड़ते हैं चपलता से यहाँ-वहाँ
नींद भी गिरती है उम्र के साथ-साथ
और गिरते हैं सतरंगी स्वप्न भी
देह की शिथिलता में गिर जाता है स्पर्श भी
गिरता है बेचैनी का स्तर भी
किन्तु बढ़ जाती हैं व्यथाएँ
कपूर की तरह उड़ जाते हैं दिवस
मद्धम होती जाती है गति
देह राख की तरह झर के गिरती है वक़्त की मुठ्ठी से।
काश
अगर जीवन में काश शब्द न होता
तो जीवन कितना सुन्दर होता
हर पल प्यार शब्द अगर लोग रेवड़ी की तरह न बांटते
तो इस शब्द का मर्म कितना गहन होता
न छला जाता अगर किसी के निष्कपट हृदय को
तो बद्दुआ शब्द कितना महत्वहीन हो सकता था।
किंतु हाय!
यह धरती का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा
कि उसने विश्वास पर घात लगते सबसे ज़्यादा बार देखा
और मौन रही, काँप नहीं उठ्ठी, अपनी धुरी पर घूमना बंद नहीं किया और बनी रही अपराधिनी!
निष्कपट, उजले, प्रेमिल हृदयों की
बिखरी, टूटी किरिचनें संभालने /ढोने के कारण ही
झुकी हुई है अपने अक्ष पर तेईस दशमलव पाँच अंश
इतनी झुकी है,
कि बदलाव आते हैं मौसमों में
यह ऋतु परिवर्तन भी धरती को दोषमुक्त नहीं कर पाते!
अनदेखी /अनसुनी पुकारों की ध्वनि
उन पुकारों की व्यथा स्वयं विधाता भी नहीं गह पाया
जिन्हें अनसुना किए जाने का बोझ ढोना पड़ा
श्रुतियों के द्वार पहुँचने पर भी
जिन्हें मिली दुत्कार
जिन्हें नहीं मिली स्वीकार्यता
जिन्हें नहीं मिला स्थान श्रुतियों के माध्यम से हृदय के किसी कोने में
वो पुकारें जो अनसुना किए जाने का दंश झेल
होती गयीं अभिशप्त
एक प्रेमिल देह लिए निकलीं जो जिह्वा की लचक से
किन्तु न सुने जाने पर होती गईं जो विषाक्त!
उन पुकारों की सुनवाई ईश्वर स्वयं करता है
प्रेम में डूबी अनसुनी पुकारें ही
परमात्मा का स्तुतिगान बनती रहीं ।
बिछोह की व्यंजना
एक अबोध कामना खड़ी है संकोच-झुकी
किन्तु निष्कम्प…. अप्रत्याशित रूप से हठी
कितनी सलोनी देह है इस दुःख की
कितनी अनुपस्थित हूँ मैं सुख के क्षणिक समारोह में
हुलस उठते हैं प्राण तुम्हारी स्मृति की कौंध से
मैं तुम्हारी ओर लौटने को उद्यत होती हूँ
किन्तु लज्जा की बेड़ियों में बंधे पग नहीं बढ़ते आगे
“संसार की समस्त यातनाओं से बड़ी है
प्रेम में मिली यह अलंघ्य दूरी ”
ठीक ही तो कहा था तुमने
अब जो भोगती हूँ विरह
तो चीन्ह पाती हूँ तुम्हारे कथन का मर्म ठीक-ठीक
ऐन्द्रिक – एषणाओं के सम्मुख
तुम्हारे प्रेम की व्याकुलता कितनी मुखर है
कैसे बताऊँ तुम्हें
बिछोह की एक व्यंजना
धूमिल कर देती है समस्त सुखों का वैभव
मैं तुम्हारी पुकार की धुन पर बिसराती अपनी धड़क
खड़ी हूँ यथावत् प्रतीक्षा की देहरी पर
लौटते हैं पक्षी अपनी-अपनी यात्राएँ अधूरी छोड़
क्यों नहीं होता तुम्हारा पुनरागमन?
मेरे प्यार……
इतनी घातक है संध्या की यह घड़ी
कि तुम्हें सुमिरती हूँ प्रतिपल, तो भीज जाती है आत्मा
अदृश्य अश्रुओं के अभिषेक में
एक अश्रव्य चीख फांस सी अटकती है,कंठ रुँध जाता है!
सम्बन्ध
सम्बन्ध में जो ‘सम’ न हो कुछ
तो ‘बन्ध’ का बन्धन बनना तय होता है
औपचारिकताएँ भर रह जाती हैं परस्पर
जिनमें किसी एक का स्वयं के लिए श्रेष्ठता बोध
लील जाता है गरिमा सम्बन्ध की
ज़रूरतों से श्रृंगारित ऐसे सम्बन्धों की देह पर
उभर आते हैं मौकापरस्ती के फफोले
ज़रूरतें पूरी होते ही दम तोड़ देता है ऐसा सम्बन्ध।
सम्बन्ध तभी होता है चिर-जीवी
जब रहे एक समरसता परस्पर
जिसमें न हो दुनिया को दिखाने
और ख़ुद के निभाने के लिए
नियम अलग-अलग
सम्मान और स्नेह का अविरल आदान-प्रदान
बचा लेता है सम्बन्ध के बीच के ‘सम’ को।
आधी रात की कविता
आधी रात जब सारी दुनिया होती है गहरी नींद में
मेरी आत्मा से फूटती है
एक गहन आवाज़ मेरे ही अश्रव्य रूदन की
छटपटाहट से जूझती हुई मैं
बदलती रहती हूँ करवटें बेतरह
आत्मा की कोठरी में जैसे
सांप-बिच्छु रेंगते हों
कोई मवाद भरा फोड़ा
जो स्मृति की एक छुअन से फूटता हो
खुद से घिनाती मैं
उस परमात्मा से मांगती हूँ क्षमा
अपराधबोध से भरी मेरी आँखें
बरबस ही छलछला के
इस ग्लानि की गठरी का बोझ हल्का करना चाहती हैं।
एक मौन आकर घेर लेता है यकायक
मैं चाहती हूँ कि मुझे एक शांत लंबी नींद मिले
कि अँधकार में डूबे आँसुओं का पता
दुनिया को क्या मुझे भी न चल पाए
मुझे विस्मय होता है कि
इतनी आर्द्र और गर्म है आँसुओं की देह
इनके अभिषेक के बाद
और भी उभर आते हैं आत्मा पर लगे धब्बे
क्या उपाय करूँ?
मुझे अपराधबोध और ग्लानि से मुक्ति चाहिए।
मृत्यु से पहले की कविता
मृत्यु से ठीक पहले
सुनना चाहती हूँ अपनी दुधबोली का एक खुदेड़ गीत
चाहती हूँ कि धर लूँ जीभ पर किनगोड़ और काफल की याद
जो मृत्यु उपरांत भी स्मृति में बनी रहे/बची रहे
सांस की आरोह अवरोह गति थमे….. उससे पहले,
भर लेना चाहती हूँ बारिश में महकते देवदार की सुखद सुगंध
सुवास से गमकना चाहती हूँ पहाड़ी जंगली फूलों की आख़िरी बार
हृदय जो धड़कता है हर मिनट बहत्तर बार
उसकी अंतिम धड़कन में
पिरोना चाहती हूँ आराध्य की स्तुति सःस्वर
एक बात कहूँ तुम्हें,
मृत्यु से ठीक पहले चाहती हूँ सुनना
किसी लोकधुन में पिरोया तुम्हारे स्वर में मेरा नाम!
कवि परिचय
* नाम : रुचि बहुगुणा उनियाल
* जन्म : 18-10-1983, देहरादून उत्तराखंड
*शिक्षा : एम. ए. अंग्रेज़ी साहित्य , समाज शास्त्र
*प्रकाशित पुस्तकें : प्रथम पुस्तक – मन को ठौर,
(बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित)
प्रेम तुम रहना,प्रेम कविताओं का साझा संकलन
(सर्व भाषा ट्रस्ट से प्रकाशित)
वर्ष 2022 में दूसरा कविता संग्रह २ १/२ आखर की बात (प्रेम कविताएँ) न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन नई दिल्ली से प्रकाशित।
*प्रकाशन : प्रतिष्ठित पत्रिका पाखी, परिंदे, युगवाणी, आदिज्ञान स्सत्री लेखा हित सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ व आलेख प्रकाशित, मलयालम, उड़िया, पंजाबी, बांग्ला, मराठी, संस्कृत, अंग्रेज़ी व अन्य कई भारतीय भाषाओं में कविताएँ अनूदित, भारतीय कविता कोश व प्रतिष्ठित वेब पत्रिका हिन्दवी, स्त्री दर्पण, जानकीपुल,समकालीन जनमत, अविसद के साथ ही पहलीबार ब्लॉगस्पॉट पर रचनाएँ प्रकाशित
*सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन
*निवास स्थान : नरेंद्र नगर, टिहरी गढ़वाल
*पत्र व्यवहार :न्यू उनियाल मेडिकल स्टोर नरेंद्र नगर, ज़िला टिहरी गढ़वाल, पिन कोड – 249175
*मोबाइल नंबर : 9557796104
*सम्पर्क सूत्र : ruchitauniyalpg@gmail.com